रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय

रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय (ramchandra shukla ka jivan parichay)

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म बस्ती जिले के आगोन नामक एक गांव मे सन् 1884 मे हुआ था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल साहित्य के कालजयी समीक्षक, इतिहासकार एवं साहित्यकार थे। शुक्ल जी के पिता का नाम चंद्रबली था। जब यह नौ बर्ष के थे तब ही इनकी माता का निधन हो गया था। अपनी माँ के सुख के अभाव के साथ-साथ अपनी सोतेली माँ से मिलने वाले दुःख ने उनके व्यक्तित्व को अल्पायु में ही परिपक्व बना दिया था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा हमीरपूर मे हुई थी। इनके पिता जी की इच्छानुसार इनके लिए अंग्रेजी और उर्दू के अध्ययन की व्यवस्था की गई थी। लेकिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपनी स्वतः रूचि एवं लगन के कारण छिप-छिपकर हिन्दी का अध्ययन भी करते थे। इन्होंने आगे चलकर साहित्य, मनोविज्ञान, इतिहास आदि का भी गहन अध्ययन किया था।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कुछ दिनों तक मिर्जापुर के कलेक्ट्रेट कार्यालय एवं एक मिशन स्कूल मे नौकरी की। इसके बाद इन्होंने काशी आकर ‘हिन्दी शब्द सागर’ के सम्पादन कार्य मे लग गए। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के विभिन्न कार्यों को करते हुए इनमें साहित्यक प्रतिभा चमक उठी। श्री आचार्य रामचंद्र शुक्ल सन् 1937 ई. मे बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के विभागाध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए और इसी पद पर रहते हुए सन् 1940 मे आचार्य रामचंद्र शुक्ल का देहांत हो गया। हिन्दी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचंद्र शुक्ल की अमर-कृति है। जो हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों के मार्गदर्शन और अभिप्रेरण का अक्षय स्त्रोत है। शुक्ल जी की रचनाशीलता और क्रियाशीलता से सजे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की हिन्दी जगत मे विशिष्ट छाप है।



आचार्य रामचंद्र शुक्ल की रचनाएँ एवं निबंध संग्रह

शुक्ल जी की प्रमुख रचनाओं मे निबंध संग्रह-चिंतामणि भाग-1 एवं भाग-2, हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी काव्य मे रहस्यवाद, बुद्ध चरित, रस मीमांसा एवं विश्वप्रपंच प्रसिद्ध हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंधों मे भारतीय और पाश्चात्य निबंध शैलियो का समन्वय है। उनकी अप्रतिम प्रतिभा-कौशल के दर्शन मनोवैज्ञानिक और विचारात्मक निबंधों मे सहज रूप मे हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिक निबंधों मे मनोविकारों की इन्होंने बड़ी ही सूक्ष्म विवेचना की है। भय, क्रोध, उत्साह आदि इसी श्रेणी के निबंध है।



शुक्ल केन्द्रीय भाव

आचार्य रामचंद्र शुक्ल इतिहासकार, समीक्षक और निबंधकार के रूप मे हिन्दी साहित्य मे प्रतिष्ठित है। निबंध हिन्दी गद्य साहित्य की धरोहर है। मनोभावों का स्पष्ट, तात्विक और समाज-सापेक्ष विश्लेषण उनके निबंधों मे प्राप्त होता है। उनके इन निबंधों मे केवल मनोविकारों का विवेचन ही नही बल्कि साहित्यिक प्रयोजनीयता के साथ-साथ सामाजिक स्थितियों का दिग्दर्शन भी है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का निबंध ‘भय’ मनोविकार का विवेचन करता है। भय को परिभाषित करते हुए निबंधकार ने स्पष्ट किया है कि भय आने वाली विपत्ति या दुख के साक्षात्कार से उत्पन्न होता है। इसमे मनोदशा या तो स्तम्भित हो जाती है या आवेग से भर उठती है। जो भय को असाध्य मान लेता है उसकी मनोदशा स्तम्भित हो जाती है। साहस न होने और कठिनाइयों से डरने वाले मनुष्य के भीतर भय इसी रूप मे सक्रिय रहता है, किन्तु जब साहसवान बनकर, मनुष्य भय के निवारण हेतु प्रयत्नशील होता है, तब भय साध्य हो जाता है।
कायरता भी भय का ही एक रूप है। कायरता के अंतर्गत कष्ट न सह पाने की भावना और अपनी शक्ति पर अविश्वास ही मूल बिन्दु है। यह भीरूता या कायरता जीवन के अनेक क्षेत्रों मे परिलक्षित होती है।
आशंका भी भय का ही एक अंग है। इसमे भय का पूर्ण निश्चय नही होता। सम्भावनापूर्ण अनुमान ही इसमे रहता है। इसमे आवेग का अभाव रहता है।
‘भय’ के सामाजिक प्रभावों की चर्चा करते हुए शुक्ल जी ने स्पष्ट किया है कि भय आदिम और अशिक्षित समाजों मे अधिक रहता है। ऐसे समाज मे भय देने वाले व्यक्ति का सम्मान बढ़ने लगता है। बच्चों मे भी भय की मात्रा अधिक रहती है। भय दु:ख का कारण है किन्तु मनुष्य ने अपने ज्ञानबल, ह्रदयबल तथा बुध्दिबल से इस भयजात दुख से मुक्त होने का प्रयास किया है।
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