तोड़ती पत्थर : भाव पक्ष एवं संरचना शिल्प
तोड़ती पत्थर : भाव पक्ष एवं संरचना शिल्प
तोड़ती पत्थर : भाव पक्ष एवं संरचना शिल्प
परिमल में संकलित ‘तोड़ती पत्थर’ निराला की उत्कृष्ट प्रगीतात्मक रचना है। प्रगीत में चिलचिलाती दोपहरी में सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती एक युवा मजदूरिन का क्रांतिकारी आशयों और संकेतों से भरा वस्तुपरक यथार्थवादी अंकन है। रेखाचित्र के विषयनिष्ठ वस्तुपरक धरातल से सहजगति में उठकर यह कविता एक गौरवपूर्ण संश्लिष्ट झंकृति छोड़ जाती है, जिसमें पाठक बेचैन हुए बिना नहीं रह सकता। शोषण और दमन पर पलती व्यवस्था के अन्याय और वंचनापूर्ण व्यूहों में पिसते हुए मनुष्य की वेदना इस कविता में प्रकट हुई है।
‘तोड़ती पत्थर’ में कवि ने पत्थर तोड़कर अपना जीवनयापन करनेवाली मजदूरिन का चित्रण किया है। मजदूरी तो अपने आप में अत्यंत कठिन कर्म है, उस पर पत्थर तोड़ना कठिनतम कार्य है। यह कठोरतम कार्य चिलचिलाती धूप में किया जा रहा है। काम करनेवाली एक युवती है। वातावरण पूर्णतः प्रतिकूल है। निराला का उदात्त भाव इस सामाजिक विषमता को देखकर गतिशील हो उठता है और यह कविता कलम से फूट पड़ती है।
इलाहाबाद के पथ से कवि गुजर रहा है। तभी उसकी नजर एक मजदूरिन पर पड़ती है जो सड़क के किनारे पत्थर तोड़ रही है। उसके सिर पर वृक्ष की छाया तक नहीं है। श्यामवर्ण की वह युवती जिसका कठिन परिश्रम के कारण बंधा हुआ है, वह अपनी आँखें झुकाकर अपने काम में पूरी तरह से लोन है। वह आँखें नीची किए भारी हथौड़े को हाथ में लेकर बार-बार प्रहार कर रही है। ठीक उसके सामने एक विशाल भवन है जिसकी सुरक्षा में उँची उंची दीवारें खड़ी हैं। मजदूरिन द्वारा पत्थर पर प्रहार मानो उस अट्टालिका की समृद्धि पर प्रहार है।
दिन का तमतमाया धूप अपना क्रुद्ध रूप दिखा रहा है। लू लोगों को झुलसाने पर लगी है। धरती इस धूप में रूई के गोले के समान जल रही है। लू के साथ उड़नेवाली गर्द उस अग्नि की चिनगारियाँ हैं। सुबह से दोपहर हो गई किंतु वह पत्थर तोड़ती रही। एक क्षण के लिए कवि और उस मजदूरिन की आँखें मिलीं। उसे एहसास हुआ कि कवि के मन में मेरे लिए सहानुभूति है। एक बार उस युवती ने भवन की ओर देखा फिर कवि की ओर उस दृष्टि से देखा जो मार खाने के बाद रो पाने की विवशता को व्यक्त कर रहे थे। मार खाने का अर्थ है अन्याय को सहन करना। रो नहीं सकने का तात्पर्य प्रतिरोध की क्षमता का न होना है।
कर्मरत उस मजदूरिन को हथौड़े से ठक-ठक कर पत्थर तोड़ते हुए देखकर कवि को मजदूरिन सितार की धुन सजाती प्रतीत हुई पर उसकी झंकार नाद अलग सुनाई दे रही है। उसकी झंकार में जिजीविषा का स्वर सुनाई दे रहा था। अपने माथे से दुलकती पसीने की बूदों से उसने जैसे कहा कि वह महज एक पत्थर तोड़नेवाली है।
कविता में रेखाचित्र जैसी चित्रात्मकता के दर्शन होते हैं। लयात्मकता और प्रवाहमयता से कविता में सहज ही पठनीयता का गुण आ गया है। मुक्त छंद में रचित प्रस्तुत कविता में रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों के प्रयोग से काव्य-सौंदर्य में वृद्धि हुई है। इसकी भाषा सहज और सरल है।