बिहार में दलित आन्दोलन
बिहार में दलित आन्दोलन
उत्तर- अरस्तू ने कहा था- “असमानता क्रान्ति की जड़ है । ” विश्व में जितनी भी लड़ाइयाँ, विद्रोह एवं आंदोलन हुए हैं, उनमें से अधिकतर समानता और स्वतंत्रता के लिए हुए हैं। इतिहास का कोई ऐसा युग नहीं हुआ जहां जाति या वर्णव्यवस्था के विरूद्ध कोई विद्रोह अथवा आंदोलन न हुआ हो । भारत ही नहीं, विश्व का हर देश इस अपवाद से नहीं बच पाया। नस्ल, वंश, जाति, धर्म, और रंग के आधार पर, लोगों ने मानव समाज में भेदभाव किया है। भारत में दलित गरीबी से उतना पीड़ित नहीं, जितना कि सामाजिक अपमान से रहा है।
सामाजिक न्याय की राजनीतिक प्रयोगशाला बनने के बावजूद बिहार में दलितों के असल सवाल कभी राजनीतिक आंदोलन के केंद्र में नहीं आए। बिहार की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों (दलित) से जुड़े लोगों की आबादी तकरीबन 16 फीसदी है। अनुसूचित जाति की तकरीबन 93 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। 23 जातियों को बिहार की अनुसूचित जातियों की कैटगरी में रखा गया है। ये लोग 1990 के पहले की राजनीतिक और सामाजिक हैसियत में काफी पीछे थे।
इसके बाद लालू प्रसाद जैसे पिछड़ी जातियों के कुछ सामाजिक न्यायवादियों के नेतृत्व और सरकार द्वारा लागू किये गए कुछ सामजिक न्याय की नीतियों के जरिये इन्होंने अपने आपको आगे बढ़ाने की कोशिश तो की है लेकिन अभी भी इस समूह के लोग बाकियों से बहुत पीछे हैं। इतना आगे नहीं बढ़े हैं कि कहा जाए कि इन दलित जातियों में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया है या सब कुछ ठीक हो गया है।
यहां जगजीवन राम से लेकर जीतन राम तक कई बड़े दलित राजनेता हुए, मगर यह दलितों की राजनीति का उस तरह केंद्र नहीं बन पाया, जिस तरह पिछड़ों की राजनीति यहां केंद्रीय भूमिका में रही।
बिहार की राजनीतिक आंदोलन में आजादी के पहले से लेकर अब तक बड़े कद्दावर दलित राजनेताओं की कतार रही है। इनमें जगजीवन राम तो हैं ही, यहां के पहले दलित सांसद किराय मुशहर जाति से हैं। तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने वाले भोला पासवान शास्त्री हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में कई दफा महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभालने वाले रामविलास पासवान हैं और बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके आज के मुशहरों के सबसे बड़े नेता जीतनराम मांझी जैसे नेता भी हैं। ये सभी नेता अपने राजनीतिक करियर में सफल होते रहे, मगर इनके साथ कभी दलितों के अपने सवाल उभर कर सामने नहीं आए। ऐन चुनाव के पहले राज्य के दलित नेताओं के इधर से उधर शिफ्ट होने या दलित हितों की तिलांजलि देने से कई बार दलितों के सामाजिक न्याय के आंदोलन कमजोर हुए। यहां कई दलित नेताओं की कतार रही है लेकिन जिस तरह दक्षिण भारत में ई.वी. रामास्वामी ‘पेरियार’ ने दलित आंदोलन को एक अखिल भारतीय आंदोलन बनाया, महाराष्ट्र की राजनीति को ‘दलित-पैंथर’ जैसे राजनीतिक संगठनों ने प्रभावित किया । उत्तर प्रदेश में कांशीराम और मायावती जैसे कद्दावर दलित राजनेताओं ने दलित एकता को उभार कर एक दशक से अधिक वक्त तक वहां की राजनीति को दलितों के सवालों के इर्द-गिर्द घूमने के लिए विवश किया वैसा बिहार में कभी देखने को नहीं मिला।
जेपी क्रांति से निकले रामविलास पासवान जैसे दलित नेता जरूर थोड़ा दमदार थे और उन्होंने एक समय के बाद दलितों के सवालों पर केंद्रित अपनी पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी भी बनाई, मगर इस पार्टी ने भी कभी दलितों के सवाल पर कोई बड़ा राजनीतिक संघर्ष किया हो या सत्ता में रहने पर दलितों की स्थिति को सुधारने के गंभीर प्रयास किए हों, ऐसे उदाहरण एक भी नहीं मिलते। हां, दलबदल की बदौलत वे जरूर आठ बार लोकसभा में पहुंचे और 1989 से लेकर मरणोपरान्त 2020 तक लगभग पूरे 30-31 साल की अवधि में केंद्र की लगभग हर सरकार में मंत्री रहे और अपना पूरा परिवार राजनीति में स्थापित करते रहे। वे तीन दशकों तक दलितों के सबसे बड़े चेहरा बने रहे। लेकिन कभी किसी दलित आंदोलन के मसीहा नहीं बन पाए। इन उदाहरणों से ऐसी धारणा बन जाना बहुत स्वाभाविक है कि बिहार के दलित नेता, प्रतीकात्मक राजनीति का सहारा लेकर अपना व्यक्तिगत करियर तो संवारते रहे हैं, मगर उनके बड़े होने से दलितों के सवाल कभी बड़े नहीं हुए, वे बौने ही रह गए। आम्बेडकर ने कल्पना की थी कि आरक्षण की मदद से आगे बढ़ने वाले दलित, अपनी बिरादरी के दूसरे लोगों को भी समाज के दबे-कुचले वर्ग से बाहर लाने में मदद करेंगे। मगर, हुआ ये है कि तरक्कीयाफ्ता दलितों का ये तबका, दलितों में भी सामाजिक तौर पर खुद को ऊंचे दर्जे का समझने लगा है। दलितों की ये क्रीमी लेयर बाकी दलित आबादी से काफी दूर हो गई है।
दलितों के विषय में सदा से इतिहास और इतिहासकार, मानवशास्त्र और मानवशास्त्री, समाजशास्त्र और समाजशास्त्री मौन रहे या कहिए की उनके प्रति उपेक्षा भाव दिखाते रहे हैं। यही हाल प्राचीन, मध्यकाल व आधुनिक युग में भी देखा जा सकता है। स्वतन्त्रता संग्राम में दलितों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, फिर भी वह इतिहास का अंग नहीं बन पाये ।
जाति की पहचान जिस तरह भारत के दूसरे राज्यों की राजनीति को प्रभावित करती है, उससे कहीं ज्यादा बिहार की राजनीति को प्रभावित करती है। राजनीतिक दल बिहार में अपना सियासी आधार तैयार करने के लिए जाति का पुरजोर तरीके से इस्तेमाल करते हैं। बिहार की राजनीति में जाति की इतनी मजबूत भूमिका है कि इसी के आधार पर तय होता है कि टिकट किसे दिया जाए। यहाँ तक कि चुनाव के बाद मंत्रालयों के बंटवारे में भी जाति की भूमिका देखी जाती है।
साल 1990 के पहले और बाद के समाज में बहुत बड़ा बदलाव हुआ है। अगर साल 1990 के पहले का समाज निचली जातियों को बंद बंधुआ मजदूर रखने वाला समाज था तो साल 1990 के बाद का समाज निचली जातियों को आजाद करने वाला समाज है। एक समय था कि निचली जाति के लोग ऊँची जाति के सामने कुर्सी पर नहीं बैठते थे, जमीन पर ही बैठते थे। अब यह समय बदल गया है। आर्थिक तौर पर कमजोर होने के बाद भी यह जातियां, ऊँची जाति के सामने कुर्सी पर बैठ जाती हैं। खुलकर बात करती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में निचली जातियों का नामांकन दर पहले से बढ़ा है। जबकि यह बात सही है कि संख्या बल के हिसाब से सरकारी नौकरी में अभी भी ऊंची जातियों का दबदबा है।
दलित आज भी ज्यादातर गांवों में रहते हैं। गैरदलितों के मुकाबले दलित आबादी का शहरीकरण आधी रफ्तार से हो रहा है। जमीन के मालिक न होने के बावजूद वो आज भी भूमिहीन मजदूर और सीमांत किसान के किरदार में ही दिखते हैं।
स्कूलों मे आज दलितों की संख्या दूसरी जातियों के मुकाबले ज्यादा है, लेकिन ऊंचे दर्जे की पढ़ाई का रुख करते-करते ये तादाद घटने लगती है। आज ऊंचे दर्जे की पढाई छोड़ने की दलितों की दर, गैरदलितों के मुकाबले दो गुनी है। कमजोर तबके से आने की वजह से वो औसत दर्जे के स्कूलों में पढ़ते हैं। उनकी पढ़ाई का स्तर अच्छा नहीं होता, तो उनको रोजगार भी औसत दर्जे का ही मिलता है।
बिहार के पंचायती राज में विशेष दलित आरक्षण का मकसद दलितों की भलाई और उनकी तरक्की था, लेकिन इसने गिने-चुने लोगों को ही फायदा पहुंचाया है। दलितों के शिक्षित वर्ग को अपने समुदाय की मुश्किलों की फिक्र करनी चाहिए थी, लेकिन वो भी सिर्फ जातीय पहचान को बढ़ावा देने और उसे बनाए रखने के लिए ही फिक्रमंद दिखते हैं। फिर भी इनकी वजह से दलितों के एक तबके को फायदा हुआ है। अस्तित्व सम्मान के लिए उनकी लड़ाई पहले से आसान हुई है।
उपरोक्त कई कदमों की वजह से आज दलितों की हर जगह नुमाइंदगी मिलती है। राजनीति (संसद और विधानमडलों-स्थानीय निकायों) में अब इनकी संख्या पहले के मुकाबले ज्यादा है। अब शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों ( अफसरशाही) में भी हम दलितों की नुमाइंदगी देखते हैं। कुल मिलाकर बिहार में कोई बड़े और दीर्घकालीक दलित आंदोलन न होने के बावजूद वर्तमान में सामाजिक और राजनीतिक चेतना के स्तर पर दलितों में काफी जागरूकता आई है।
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