1858-1914 के दौरान बिहार में पाश्चात्य शिक्षा के सम्प्रसार का वर्णन कीजिए ।

1858-1914 के दौरान बिहार में पाश्चात्य शिक्षा के सम्प्रसार का वर्णन कीजिए ।

( 65वीं BPSC / 2020 )
अथवा
भारत में सनातनी अथवा पुरातन शिक्षा पद्धति का उल्लेख करते हुए आधुनिक शिक्षा के माध्यम से आए बदलाव की चर्चा करें।
उत्तर – प्राचीन काल से ही बिहार शिक्षा का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। एक समय बिहार स्थित नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय की कीर्ति पताका पूरी दुनिया में लहराई थी। इनका स्थान देश ही नहीं, विश्व के प्रमुख शिक्षण केन्द्रों में माना जाता था। परन्तु कालचक्र की गति के साथ धीरे-धीरे इनका अवसान होने लगा और आज ये सिर्फ हमारे अतीत के गौरव बन कर रह गए। प्रायः इन शिक्षण केन्द्रों पर शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य ऐतिहासिक अथवा पौराणिक ढंग से संस्कृत एवं पालि भाषा में होता था । परन्तु देश में वास्तविक रूप से पाश्चात्य शिक्षा का आरम्भ का दौर 1835 ई. से माना जाता है। उस समय देश के साथ ही बिहार में भी पाश्चात्य शिक्षा का दौर आरम्भ हुआ। लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति के तहत पाश्चात्य शिक्षा के विकास पर जोर दिया गया, साथ ही यह घोषणा की गई कि अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षण संस्थानों को वित्तीय सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अनेक बुद्धजीवियों ने इसका समर्थन किया। टिकारी के महाराजा मित्रजीत सिंह, दरभंगा के महाराजा रूद्रसिंह आदि ने अंग्रेजी शिक्षा को लोकप्रिय बनाने के लिए उदारतापूर्वक आर्थिक सहायता प्रदान की।
प्रारम्भ में पाश्चात्य शिक्षा को लेकर बिहार के निवासियों में अनेक भ्रांतियां थी, जिसके कारण इसका लाभ केवल बंगालियों ने उठाया था। 1861 ई. में बंगाल के शिक्षा निदेशक डब्ल्यू. एस. एटकिंसन ने बिहार के शैक्षिक पिछड़ेपन की समीक्षा की और कहा कि बिहारियों ने अज्ञानता व रूढ़ीवादी दृष्टिकोण के कारण अपने को आधुनिक शिक्षा से दूर रखा जिससे वे सरकारी सेवाओं में भर्ती से वंचित रह गए । प्रारम्भ में पाश्चात्य शिक्षा में बिहार के पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण बिहार का बंगाल में होना भी था। क्योंकि उस समय सीमित शिक्षा नीति थी जिसके कारण केवल मुख्य केन्द्र ही शिक्षा के केन्द्र में आ सके । जैसे- यदि हम 1854 के चार्ल्स वुड डिस्पैच की बात करें तो उसके अंतर्गत तीन विश्वविद्यालय बम्बई, कलकत्ता तथा मद्रास में ही स्थापित किए गए। यही कारण रहा है कि बिहार में शिक्षा के प्रसार में बंगालियों का विशेष योगदान भी रहा है। 1866 ई. में बिहार में बंगालियों ने एक आधुनिक विद्यालय की स्थापना की। न्यायाधीश गिरीशचन्द्र घोष ने पटना में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की। लेकिन यह सब बिहार की रूढ़ीवादिता और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए नाकाफी था।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई से संबंधित 1874 में पटना में एक ‘सर्वे विद्यालय की स्थापना की गई जिसे आगे चलकर ‘ बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग’ के नाम से जाना गया। 2004 में भारत सरकार द्वारा इसे ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी’ (NIT) का दर्जा प्रदान किया गया।
1896 ई. तक बिहार में मेडिकल एवं इंजीनियरिंग की पढ़ाई का कोई भी संस्थान नहीं था और कलकत्ता के मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में बिहार के छात्रों को स्कॉलरशिप नहीं मिलता था। दूसरी तरफ बिहार में अच्छे शिक्षण संस्थानों के अभाव के बावजूद शिक्षा और सरकारी नौकरियों में बहाली के मामलों पर बिहारी लोगों से बहुत ही नाइंसाफी की जाती थी। वकालत और डॉक्टरी जैसे पेशों पर बंगालियों का ही कब्जा था। इस तरह के बरताव से तंग आ कर महेश नारायण, अनुग्रह नारायण सिंह, नंद किशोर लाल, राय बहादुर, कृष्ण सहाय, गुरु प्रसाद सेन, सच्चिदानंद सिन्हा, मुहम्मद फखरुद्दीन, अली ईमाम, मजहरूल हक और हसन ईमाम जैसे प्रगतिवादी नेता बिहार को बंगाल से अलग कराने के काम में लग गए।
1912 ई. तक बिहार प्रांत बंगाल का हिस्सा था। बंगाली बड़े पढ़े-लिखे और रोजगारोन्मुखी थे जबकि बिहारी शिक्षा में पिछड़े थे। इसकी वजहें साफ थीं कि बिहार और बंगाल की भौगोलिक पृष्ठभूमि का अलग-अलग होना, देश की राजधानी कलकत्ता में होना और ब्रिटिश हुकूमत का संचालन केन्द्र भी वहीं होना आदि। 14 अक्टूबर, 1917 को पटना विश्वविद्यालय की स्थापना से बिहार में उच्च शिक्षा का मार्ग प्रशस्त हुआ। आगे चलकर शिक्षण संस्थानों में इसकी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि एक दौर में इसे ‘पूरब का ऑक्सफोर्ड’ कहा जाने लगा।
प्रारम्भ में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार बिहार में बहुत ही धीमी गति से हुआ। बिहार के लोग अपनी रूढ़ीवादी विचार के कारण इसका विरोध करते रहे जिससे लगातार बिहार शिक्षा के मामले में पिछड़ता रहा। कुछ समय बीतने के साथ बिहार में प्रगतिवादी सोच रखने वाले बुद्धिजीवियों के आगमन के साथ धीरे-धीरे इसका विस्तार होना शुरू हो गया। 1912 में पृथक बिहार प्रांत के गठन के बाद पाश्चात्य शिक्षा ने गति पकड़ी जो तकनीकी शिक्षा, मेडिकल शिक्षा, रिसर्च आदि क्षेत्रों के माध्यम से आज भी अनवरत जारी है।
नि:संदेह आधुनिक शिक्षा का प्रचार प्रसार राज्य के सभी भागों में धीरे-धीरे संभव हुआ । इससे बिहार के लोगों में धीरे-धीरे ही सही सामाजिक एवं राजनीतिक जागरूकता का विस्तार हुआ। पाश्चात्य शिक्षा के विस्तार के कारण ही पृथक बिहार राज्य के निर्माण में आंदोलन का सूत्रपात हुआ और पृथक बिहार प्रांत के गठन के उपरांत बिहारवंशियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व शैक्षिक स्थिति में बदलाव आ सका।
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