अधिगम के गेस्टाल्ट सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए । शैक्षिक उपयोगिता की चर्चा कीजिए ।

अधिगम के गेस्टाल्ट सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए । शैक्षिक उपयोगिता की चर्चा कीजिए ।

उत्तर– “गेस्टाल्ट” शब्द जर्मन भाषा का शब्द है । इसका शाब्दिक अर्थ प्रतिमान, रूप, आकृति, समग्राकृति, संरचना, संस्थान आदि है । इस मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय का जन्म जर्मनी में हुआ। मैक्स बर्दीमर ने अपने लेख “फिनोमिना” के द्वारा गेस्टाल्ट मनोविज्ञान का प्रारम्भ हुआ। इसके बाद अपने विचारों को “प्रोडक्शन थिंकिंग” नामक पुस्तक में रखा । बर्दीमर के बाद काफला, कोहलर, लीविन आदि मनोवैज्ञानिकों ने गेस्टाल्ड मनोविज्ञान की विचारधारा को बलवती किया ।
डॉ. इन्दु दबे के शब्दों में, “किसी भी परिस्थिति का उसकी समग्र आकृति के रूपमें ही प्रत्यक्षीकरण पर आग्रह करने वाली इस मनोवैज्ञानिक विचारधारा का नामकरण जर्मन भाषा में ‘आकृति’ के समान अर्थ रखने वाले शब्द ‘गेस्टाल्ट’ में ही हुआ । “
स्टीफन्स के अनुसार, “गेस्टाल्ट” मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अनुभव सदा संरचित होता है। जब कभी हमें किसी वस्तु की अनभिज्ञता होती है, उसकी अनभिज्ञता किसी सम्मिश्रित प्रतिमान या संरचना अथवा संगठन के भाग के रूप मे प्राप्त करते हैं। उन्हें कभी भी अलग-अलग वस्तुओं के ढेर मात्र के रूप में नहीं देखते। कुछ अवयव हमारे अनुभव में प्रमुख स्थान ग्रहण करेंगे। अन्य प्रायः अप्रधान या गौण रहेंगे, उनकी भूमिका अधीनस्थ होगी ।
इस प्रकार गेस्टाल्ट शब्द से किसी अनुभव, वस्तु या विचार में समग्रता का पता चलता है। इन सभी को वे विभिन्न अंगों या भागों का योग नहीं मानते। इसलिए वे अनुभव व सन्तुलन पर बल देते हैं, विश्लेषण पर नहीं।
अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त–अन्तर्दृष्टि या सूझ द्वारा सीखने का अर्थ है अपने आप कोई बीज अन्तः दृष्टि से सीखना । सूझ-बूझ से कार्य करने की योग्यता मनुष्य एवं कुछ पशुओं में होती है। यह सिद्धान्त प्रयास एवं त्रुटि के सिद्धान्त का ही दूसरा अच्छा अन्तिम रूप है। अर्थात् प्रयास एवं त्रुटि में जब समस्या का समाधान हो जाता है तो उसे अन्तर्दृष्टि से सुलझाव मान लिया जाता है। इस पर कोहलर ने प्रयोग किया। कोहलर ने वनमानुष का प्रयोग करके उनकी अन्तर्दृष्टि को देखने का प्रयास किया और यह निष्कर्ष निकाला कि मानव की तरह ही वनमानुष में भी अन्तर्दृष्टि होती है। कोहलर ने एक चिम्पैंजी को भूखा रखा और सामने ऊँचे कैले लटका दिये। पास ही तीन चार ऐसे लकड़ी के डिब्बे रखे जिनको एक दूसरे पर रखकर केले प्राप्त किये जा सकते थे। कुछ प्रयास के बाद चिम्पैंजी ने ऐसा करके केले प्राप्त कर लिये । इस प्रकार दूसरे चिम्पैंजी को भी केले ऊपर लटका दिये और कुछ लकड़ी के टुकड़े रखे। ये टुकड़े ऐसे थे जो एक दूसरे से जुड़कर बड़ी लकड़ी बन जाती और केले तोड़े जा सकते थे। चिम्पैंजी ने थोड़ा प्रयास करके केले प्राप्त कर लिये ।
इस सिद्धान्त से कोहलर ने यह निष्कर्ष निकाला कि मानव व पशु के सामने समस्या आने पर वह उसको अच्छी प्रकार से देखता है और समस्या के विभिन्न पक्षों को देखकर उसके समाधान के विभिन्न विकल्पों को देखकर समस्या का समाधान कर लेता है।
गेस्टाल्ट का योगदान – शिक्षा व मनोविज्ञान दोनों को ही गेस्टाल्ट का काफी योगदान रहा है। प्रमुख रूप से इसका योगदान इस प्रकार है—
(1) गेस्टाल्ट में अनुभव, ज्ञान व सीखने के सम्बन्ध में सम्पूर्ण रूप में रखता है।
(2) विभिन्न विषयों के सह-सम्बन्ध का विचार भी गेस्टाल्ट के विचारों के अनुकूल ही है।
(3) गेस्टाल्ट विचार में बुद्धि को तार्किकता की दृष्टि से देखा गया है।
(4) पर्यावरण को प्रभावशाली माना गया है। आज भी पर्यावरण को प्रभावशाली माना जा रहा है।
(5) प्रयत्न व भूल के सिद्धान्त के स्थान पर अब गेस्टाल्ट के सिद्धान्त सूझ-बूझ को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा है। इसका शिक्षा के विभिन्न पक्षों पर भी प्रभाव पड़ा है।
(6) मानव व्यवहार को गत्यात्मक माना है। इससे छात्रों के व्यवहार को भी इसी सन्दर्भ में स्वीकार किया जाने लगा है।
(7) इसने व्यवहारवाद के व्यवहार की महत्ता को कम करके सम्पूर्ण अनुभव के विचार को प्रभावी बनाया है।
(8) शिक्षा में सर्जनात्मक क्रिया-कलापों को महत्त्व दिये जाने के पीछे गस्टाल्ट विचारधारा ही है।
(9) समस्यात्मक उपागम को प्रारम्भ किया। समस्या समाधान प्रेरित करने हेतु ही विद्यार्थी में तनाव उत्पन्न होने करने के लिये इन्होंने शिक्षा के उद्देश्यों व लक्ष्यों पर बल दिया ।
(10) इन्होंने समूह व्यवहार एवं सामाजिक अधिगम के महत्त्व को शिक्षा में भी स्वीकार किया है।
(11) इन्होंने ही प्रत्यक्ष का गहन अध्ययन करके उसके संगठन के नियम प्रतिपादित किये।
(12) पाठ्यक्रम में विभिन्न अनुभवों व ज्ञान को समन्वित करने पर बल दिया, जो आज माना जा रहा है।
(13) शिक्षा में इस बात पर बल दिया कि परीक्षण की कसौटी पर सही पाया जाने वाला ज्ञान ही सही है और उसी के आधार पर अध्ययन होना चाहिए।
(14) इन्होंने बालक के सम्पूर्ण या सर्वांगीण विकास को शिक्षा का आधार बनाया है।
(iii)  अधिगम  निर्योग्यता – अधिगम का प्रत्यय शिक्षा जगत के लिए अधिक पुराना नहीं है। सन् 1960 के प्रारम्भ में जब बहुत से बालकों ने अधिगम में कठिनाई की बात कही तो प्रथम बार शिक्षाशास्त्रियों का ध्यान इस ओर गया। इस प्रकार सन् 1960 में प्रथम बार एक नये सम्प्रत्यय का उदय हुआ।
सन् 1963 में सम्युल महोदय ने अभिभावकों को एक सभा को सम्बोधित करते हुये, प्रथम बार अधिगम कठिनाई पद का प्रयोग विशेष प्रकार के बालकों के लिये किया। वे बालक अपनी मौखिक अभिव्यक्तियों में अच्छे थे एवं किसी भी प्रकार के दोष से युक्त नहीं थे तथा मानसिक पिछड़ापन, पढ़ने के साथ तालमेल नहीं बैठा रहे थे। सम्युल महोदय के सम्बोधन के उपरान्त इस शब्द को औपारिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। साथ ही अमेरिका में एक सम्बन्धित संस्था की स्थापना की गई, जिसका नाम ACLD, Association for children wih learning disabilities है ।
अधिगम कठिनाई का निर्योग्यता का अर्थ – अधिगम निर्योग्य बालक वे बालक जिनकी अनुमानित बौद्धिक सम्भाव्यता एवं वास्तविक शैक्षिक निष्पादन में विसंगति पायी जाती है। ये बालक वैसे तो सामान्य होते हैं परन्तु सदैव अधिगम सम्बन्धी समस्याओं से ग्रस्त रहते हैं। शोरगुल होने की स्थिति में ये बालक अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते। अधिगम कठिनाई या निर्योग्यता की विभिन्न परिभाषायें विस्तृत विकारों एवं समस्याओं को सम्मिलित किये हुये है। –
” परिभाषायें—बोटमैन के अनुसार, “वे बालक जिनकी अनुमानित बौद्धिक सम्भाव्यता एवं वास्तविक निष्पादन में शैक्षिक रूप से सार्थक विसंगति पायी जाती है। यह विसंगति मूल रूप में अधिगम प्रक्रियाओं के दोष से उत्पन्न होती है। “
नेशनल एडवाइजरी कमेटी ऑन हैन्डीकैप्पड चिल्ड्रन के अनुसार, “अधिगम निर्योग्यताओं से युक्त बालकों को मनोवैज्ञानिक प्रक्रियायें प्रभावित होती हैं। जिनका प्रयोग अवबोध व भाषा के मौखिक एवं लिखित प्रयोग में होता है। अधिगम विकृतियाँ बालकों के सुनने, बोलने, लिखने, वाचन, वर्तनी व गणित में परिलक्षित होती है। इसमें . प्रत्यक्षीकरण समस्याएँ, मानसिक और मस्तिष्क की न्यूनतम प्रकार्यात्मकता, विकासात्मक वाणी दोष को सम्मिलित किया जाता है। इसमें शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक विकलांगता और सामाजिक वंचना से सम्बन्धित अधिगम समस्याओं को सम्मिलित नहीं किया जाता है।”
अधिगम कठिनाई के प्रकार—अधिगम निर्योग्यताओं के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों का विवरण मिलता है। इन कठिनाइयों में से प्रमुख प्रकार की अधिगम कठिनाई निम्नलिखित है—
(1) भाषागत कठिनाइयाँ
(2) वाचन सम्बन्धी कठिनाइयाँ
(3) प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी कठिनाइयाँ
(4) सामाजिक एवं सांवेगिक कठिनाइयाँ
(5) गामक योग्यता सम्बन्धी कठिनाइयाँ
(6) ध्यान संकेन्द्रण सम्बन्धी कठिनाइयाँ
(7) स्मृति सम्बन्धी कठिनाइयाँ
(1) भाषागत कठिनाइयाँ – इन बालकों में वाक्य संरचना सम्बन्धी समस्या होती है। ये बालक व्याकरण के दृष्टिकोण से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार की त्रुटियाँ करते हैं। ये बालक तार्किक योग्यता में भी कमजोर होते हैं। लिखित अभिव्यक्ति में भी प्रायः वर्तनी एवं विराम चिह्नों से सम्बन्धित त्रुटियाँ करते हैं।
(2) वाचन सम्बन्धी कठिनाइयाँ – लगभग अस्सी से नब्बे प्रतिशत अधिगम कठिनाइयाँ वाचन से सम्बन्धित होती है। आमतौर पर बालकों में उच्चारण दोष पाया जाता है। अध्यापक को बालकों के उच्चारण पर विशेष तौर से ध्यान देना चाहिये ।
(3) प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी कठिनाइयाँ – प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी अधिगम निर्योग्यताओं से युक्त बालक विभेदीकरण की समस्या से ग्रसित होते हैं। ये बालक दृश्यात्मक संकेतों को सही प्रकार से नहीं समझ पाते हैं। स्पर्श के आधार पर वस्तुओं की पहचान नहीं कर पाते हैं। संवेदनाओं को पहचानने, विभेद करने एवं निर्वचन करने में अयोग्य होते हैं। विभिन्न आवाजों के बीच भेद नहीं कर पाते हैं। संक्षेप में, इन बालकों में सामाजिक प्रत्यक्षीकरण का स्तर निम्न होता है।
(4) सामाजिक एवं सांवेगिक कठिनाइयाँ – सामाजिक एवं सांवेगिक अधिगम निर्योग्यताओं से युक्त बालक व्यवहारगत समस्याओं से घिरे रहते हैं, साथ ही ये बालक सामाजिक कुशलताओं की दृष्टि से कमजोर होते हैं। ये बालक अपने अध्यापक एवं अभिभावकों के साथ अन्तःक्रिया में भी कठिनाई अनुभव करते हैं । ये बालक शान्त एवं आज्ञाकारी होते हैं। ये बालक प्रायः स्वभाव में बदलाव का परिचय देते हैं। भावात्मक दृष्टि से अस्थाई होते हैं एवं कभी भी बिना किसी कारण के नाराज, आक्रामक या चुप हो जाते हैं। अभिभावकों पर अत्यधिक निर्भरता के फलस्वरूप कुंठित रहते हैं एवं प्रायः दिवा-स्वप्नी होते हैं ।
(5) गामक योग्यता सम्बन्धी कठिनाइयाँ — ये बालक बिना रुके अंग संचालन करते रहते हैं। ये अपने कार्य में ध्यान रखने की अपेक्षा एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर कूदते रहते हैं एवं दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं। ये टिक कर एक स्थान पर नहीं बैठ पाते । बहुत अधिक वाचाल होते एवं ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते। इसके विपरीत कुछ बालक आलसी, सुस्त व निष्क्रिय रहते हैं।
(6) ध्यान संकेन्द्रण सम्बन्धी कठिनाइयाँ — ये बालक अपने चारों ओर के वातावरण में प्रत्येक उद्दीपन के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं। ये बालक एक विषय पर घूम जाते हैं। ये बालक अनावश्यक विवरणों पर आवश्यकता से अधिक ध्यान देते हैं। इन बालकों में सार्थक एवं सार्थक में अन्तर करने की योग्यता नहीं होती।
(7) स्मृति सम्बन्धी कठिनाइयाँ — ये बालक न्यूमोनिक्स, संकेत एवं रिहर्सल जैसी व्यूहरचनाओं का प्रयोग नहीं कर पाते। इन बालकों की दीर्घकालीन स्मृति अवधि के साथ अल्पकालीन अवधि भी निम्नस्तरीय होती है। ये शब्दों, अक्षरों व शब्दों के विभिन्न रूपों को पुनः दृश्य अथवा स्मृति में नहीं ला पाते।
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Ajit kumar

Sub Editor-in-Chief at Jaankari Rakho Web Portal

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