अनुशासन के प्रकारों को संक्षेप में बताइये ।
अनुशासन के प्रकारों को संक्षेप में बताइये ।
उत्तर—अनुशासन के प्रकार–अनुशासन के तीन प्रकार होते हैं जिनका उल्लेख निम्नलिखित प्रकार हैं—
(1) धनात्मक अनुशासन–धनात्मक अनुशासन मस्तिष्क की एक वह अवस्था है जो व्यक्तियों अथवा समूहों को बिना किसी विशिष्ट या सामान्य निर्देशों के ही उचित कार्यों को करने के लिए प्रेरित करता है । इस अनुशासन को श्री एस. एस. चटर्जी ने स्व-प्रभावी अनुशासन तथा श्री जे. बेटी ने रचनात्मक एवं सहयोगी अनुशासन के नाम से सम्बोधित किया है। इस अनुशासन में कर्मचारी संगठन के सामान्य हित के लिए अपनी क्रियाओं को व्यवस्थित करते हैं तथा सौंपे गए कार्य के निष्पादन में व्यक्तिगत हित के स्थान पर सामूहिक हित को सर्वोपरि मानते हैं । इस अनुशासन में कर्मचारी पूर्व निर्धारित नियमों, व्यवस्थाओं तथा पद्धतियों को स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि कर्मचारी को यह विदित होना चाहिए कि उससे क्या आशाएँ हैं ? अतः इस सम्बन्ध में सम्प्रेषण का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
धनात्मक अनुशासन सम्पूर्ण वातावरण के साथ अपेक्षित समायोजन और प्रशिक्षण से उत्पन्न होता है। इस अनुशासन की प्राप्ति केवल प्राकृतिक विकास से ही नहीं होती अपितु प्रभावी नेतृत्व और प्रशिक्षण से होती है। यह अनुशासन सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किसी व्यक्ति की विचारधारा को प्रतिबंधित नहीं करता बल्कि उसकी विचारधारा का स्वतंत्र रूप से विकास करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि धनात्मक अनुशासन ही सभी संगठनों के लिए उपयोगी है। अतः डॉ. विलियम आर. स्प्रिंगल ने कहा है कि धनात्मक अनुशासन किसी व्यक्ति को प्रतिबंधित नहीं करता, अपितु समूह के उन उद्देश्यों जिन्हें वह अपना समझता है, को प्राप्त करने में अपनी आत्माभिव्यक्ति का आनंद उठाने हेतु अधिकाधिक स्वतंत्रता प्राप्त करने योग्य बनाता है।
(2) ऋणात्मक अनुशासन–ऋणात्मक अनुशासन मस्तिष्क की एक वह अवस्था है जो व्यक्तियों अथवा समूह को दण्ड या सजा के भय से कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। यह अनुशासन उच्च अधिकारियों की ओर से कर्मचारियों द्वारा नियमों, व्यवस्थाओं तथा पद्धतियों का पालन न करने पर इन्हें उन पर थोपने का परिणाम है। इस अनुशासन के अनुसार अधिकारी अपने कर्मचारियों को एक निश्चित मार्ग पर चलाने के लिये अपने अधिकारों का प्रयोग करते हैं तथा दंड का प्रयोग अथवा दंड के प्रयोग के भय से पूर्वनिर्धारित नियमों, नियमनों एवं पद्धतियों को मानने के लिए व्यक्तिगत सहमति प्राप्त करते हैं। इस अनुशासन को श्री चटर्जी ने आदेशित अथवा बाध्येय (Command of Enforced) अनुशासन कहा है। प्रो. जे. बेटी ने अपनी पुस्तक ” औद्योगिक प्रशासन एवं प्रबंध” में लिखा है कि सन् 1939 तक ऐसा अनुशासन प्रबंध की एक सामान्य विशेषता थी लेकिन श्रम संघ आन्दोलन के विकास से और प्रबन्ध की शिक्षा के विकास से ऋणात्मक अनुशासन का प्रयोग सीमित हो गया है।
(3) प्रगतिशील या संशोधनात्मक अनुशासन–धनात्मक अनुशासन जो सभी संस्थाओं के लिए वांछनीय एवं उपयुक्त है, का पालन वर्तमान समय में असंभव सा लगता है। ऋणात्मक अनुशासन जो दंडात्मक आधार पर टिका हुआ है, का प्रयोग भी वर्तमान समय में अमानवीय माना गया है। अतः यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि किसी संस्था में फिर कौनसा अनुशासन अपनाया जाये । यह अनुशासन धनात्मक और ऋणात्मक दोनों ही तरह के अनुशासन का विकसित रूप है। इस अनुशासन में पूर्व निर्धारित नियमों, नियमनों तथा पद्धतियों का पालन करने के लिए एक निश्चित व्यवस्था का निर्माण किया जाता है तथा इसी तरह इनकी अवहेलना करने पर दण्ड व्यवस्था भी एक निश्चित प्रणाली पर आधारित होती है।
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