कार्य, शक्ति तथा ऊर्जा (Work, Power and Energy)

कार्य, शक्ति तथा ऊर्जा (Work, Power and Energy)

कार्य, शक्ति तथा ऊर्जा (Work, Power and Energy)

कार्य (Work)
जब किसी वस्तु पर बल लगाकर उसकी स्थिति में परिवर्तन किया जाता है, तब यह क्रिया कार्य कहलाती है। उदाहरण साइकिल चलाना, खेलना, किसान का हल चलाना, दीवार को धक्का देना, मजदूर का गेहूँ की बोरी उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखना, आदि इन सभी क्रियाओं में कहा जाता है, कि व्यक्ति कार्य कर रहा है। यदि किसी वस्तु पर F बल लगाकर उसे s दूरी तक विस्थापित किया जाता है, तब किया गया कार्य
                                                     (W = F · s)
अतः किसी वस्तु पर किए गए कार्य की माप, वस्तु पर आरोपित बल तथा बल की दिशा में वस्तु के विस्थापन के गुणनफल के बराबर होती है।
यदि बल F = 1 न्यूटन तथा विस्थापन s = 1 मीटर है, तब बल द्वारा किया गया कार्य 1 जूल होगा। कार्य का SI मात्रक न्यूटन मीटर या जूल तथा CGS मात्रक अर्ग होता है। यह अदिश राशि है। कार्य में केवल परिमाण होता है, दिशा नहीं होती है।
कार्य के प्रकार (Types of Work) 
कार्य मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं
1. धनात्मक कार्य (Positive Work)
जब बल तथा विस्थापन एक ही दिशा में होता है, तब बल द्वारा किया गया कार्य धनात्मक होगा। धनात्मक कार्य का अर्थ है, कि बाह्य बल, निकाय या वस्तु को ऊर्जा प्रदान करते हैं।
उदाहरण
◆ यदि कोई व्यक्ति किसी पिण्ड को पृथ्वी की सतह से ऊपर उठाता है, तो उसके द्वारा किया गया कार्य धनात्मक होगा।
◆ जब किसी लॉन रोलर को हत्थे के अनुदिश, क्षैतिज से न्यूनकोण पर बल लगाकर खींचा जाता है, तो आरोपित बल द्वारा किया गया कार्य धनात्मक होगा।
◆ जब किसी स्प्रिंग को खींचा जाता है, तो बाह्य बल (खिंचाव बल) द्वारा किया गया कार्य धनात्मक होगा।
2. ऋणात्मक कार्य (Negative Work) 
जब बल तथा विस्थापन विपरीत दिशा में होते हैं, तब बल द्वारा किया गया कार्य ऋणात्मक होगा। ऋणात्मक कार्य का अर्थ है, कि बल निकाय से ऊर्जा लेता है।
उदाहरण
◆ यदि कोई व्यक्ति किसी पिण्ड को पृथ्वी की सतह से ऊपर उठाता है, तो गुरुत्वीय बल द्वारा किया गया कार्य ऋणात्मक होगा।
◆ जब कोई पिण्ड बल लगाने पर खुरदरे (rough) तल पर फिसलता है, तो घर्षण बल द्वारा किया गया कार्य ऋणात्मक होगा।
3. शून्य कार्य (Zero Work)
जब बल तथा विस्थापन लम्बवत् दिशा में होते हैं, तब बल द्वारा किया गया कार्य शून्य होगा।
उदाहरण
◆ यदि कोई कुली सिर पर बोझ उठाकर प्लेटफॉर्म पर चल रहा है, तो वह कोई कार्य नहीं करता (क्योंकि उसका कार्य गुरुत्व बल के लम्बवत् है)। जब वस्तु का विस्थापन, लगाए गए बल की दिशा में होता है, तो किया गया कार्य अधिकतम होगा। यदि वस्तु का विस्थापन शून्य है, तो वस्तु पर लगा बल कोई कार्य नहीं करेगा; जैसे सिर पर बोझा लिए खड़ा मजदूर कोई कार्य नहीं करता, चाहे वह खड़ा – खड़ा थक ही क्यों न जाए।
◆ जब एक वस्तु एकसमान चाल से वृत्ताकार पथ में गति करती है, तो अभिकेन्द्रीय बल हमेशा वस्तु के विस्थापन के लम्बवत् होता है, अर्थात् अभिकेन्द्रीय बल द्वारा किया गया कार्य शून्य होता है।
गतिज ऊर्जा के सूत्र से प्राप्त कुछ महत्त्वपूर्ण परिणाम निम्न प्रकार हैं 
(i) यदि वस्तु का द्रव्यमान दोगुना (double) कर दिया जाए, तो उसकी गतिज ऊर्जा भी दोगुनी हो जाती है।
(ii) यदि वस्तु का द्रव्यमान आधा (halved) कर दिया जाए, तो उसकी गतिज ऊर्जा भी आधी हो जाती है।
(iii) यदि वस्तु का वेग दोगुना (double) कर दिया जाए, तो उसकी गतिज ऊर्जा चार गुनी हो जाती है।
(iv) यदि वस्तु का वेग आधा कर दिया जाए, तो उसकी गतिज ऊर्जा एक-चौथाई हो जाती है।
(v) भारी वस्तुओं को अधिक वेग से चलाने के लिए अधिक गतिज ऊर्जा की तथा हल्की वस्तुओं को कम वेग से चलाने के लिए कम गतिज ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
(vi) किसी गतिमान कार द्वारा दूरी तय करने में किए गए कार्य के लिए गतिज ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
स्थितिज ऊर्जा (Potential Energy)
किसी वस्तु की स्थिति या आकृति में परिवर्तन के कारण उसमें जो कार्य करने की क्षमता होती है, उसे उस वस्तु की स्थितिज ऊर्जा कहते हैं।
उदाहरण
◆ बाँधों में रुके हुए पानी की ऊँचाई के कारण स्थितिज ऊर्जा होती है।
◆ छत के ऊपर रखे पत्थर में उसकी ऊँचाई के कारण स्थितिज ऊर्जा होती है।
◆ तनी हुई कमान में तथा दबी हुई स्प्रिंग आदि में स्थितिज ऊर्जा संचित रहती है।
◆ जब हम घड़ी में चावी भरते हैं, तो घड़ी की स्प्रिंग दब जाती है, जो धीरे-धीरे घड़ी की सुईंयों को चलाती रहती है। स्प्रिंग में दबी हुई अवस्था के कारण ही स्थितिज ऊर्जा संचित होती है।
◆ किसी पिण्ड की गतिज ऊर्जा तथा स्थितिज ऊर्जा का योग यान्त्रिक ऊर्जा (mechanical energy) कहलाता है।
गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा (Gravitational Potential Energy)
किसी वस्तु को गुरुत्व बल के विरुद्ध पृथ्वी तल से किसी ऊँचाई तक ले जाने में किया गया कार्य, उस स्थिति में वस्तु की गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा कहलाती है।
पृथ्वी तल से ऊपर किसी वस्तु की गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा दर्शाती है कि गुरुत्व बल के विरुद्ध पृथ्वी तल से ऊपर जाने पर किये गये कार्य में वृद्धि होती है।
अतः                (गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा, U = mgh)
यहाँ, g= गुरुत्वीय त्वरण, h = पृथ्वी तल से ऊँचाई तथा m = वस्तु का द्रव्यमान ।
ऊर्जा संरक्षण का नियम (Law of Conservation of Energy)
इस नियम के अनुसार, ऊर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है और न ही नष्ट परन्तु ऊर्जा को एक रूप से दूसरे रूप में बदला जा सकता है, इसे ऊर्जा संरक्षण का नियम कहते हैं । विश्व की सम्पूर्ण ऊर्जा का परिमाण सदैव स्थिर (conserved) रहता है।
उदाहरण
◆ जब एक वस्तु को ऊँचाई से गिराया जाता है, तो वस्तु की स्थितिज ऊर्जा लगातार गतिज ऊर्जा में बदलती रहती है।
◆ जब एक वस्तु को ऊर्ध्वाधर (ऊपर की ओर) फेंका जाता है, तो वस्तु की गतिज ऊर्जा लगातार स्थितिज ऊर्जा में बदलती रहती है।
अतः रूपान्तरण (transformation) से पहले तथा बाद में कुल ऊर्जा सदैव स्थिर रहती है।
अर्थात् किसी पिण्ड की कुल ऊर्जा (गतिज ऊर्जा तथा स्थितिज ऊर्जा का योग) सदैव नियतांक होता है।
ऊर्जा का रूपान्तरण (Transformation of Energy)
ऊर्जा के एक रूप से दूसरे रूप में बदलने की प्रक्रिया को ऊर्जा का रूपान्तरण कहते हैं।
ऊर्जा के रूपान्तरण की उपयोगी अवस्था से बेकार अवस्था में परिवर्तित करने की घटना ऊर्जा का अपव्यय (dissipation of energy) कहलाती है।
उदाहरण
◆ हरे पौधे अपना खाना प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रम द्वारा सौर ऊर्जा का उपयोग करके स्वयं बनाते हैं, जोकि इसमें रासायनिक ऊर्जा के रूप में संचित होता है।
◆ जब हम एक गेंद फेंकते है; तब हमारे शरीर में संचित पेशीय ऊर्जा गेंद की गतिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है।
◆ वैद्युत हीटर में वैद्युत ऊर्जा का ऊष्मीय ऊर्जा तथा लाउडस्पीकर में वैद्युत ऊर्जा का ध्वनि ऊर्जा में रूपान्तरण होता है।
◆ जब एक एथलीट दौड़ता है, तो इसके शरीर की आन्तरिक ऊर्जा, गतिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है।
आइन्सटीन का द्रव्यमान-ऊर्जा तुल्यांक (Einstein’s Mass-Energy Equivalence) 
आइन्सटीन के अनुसार, प्रत्येक पदार्थ में उसके द्रव्यमान के कारण ऊर्जा होती है, उसे द्रव्यमान-ऊर्जा कहते हैं तथा द्रव्यमान को ऊर्जा में तथा ऊर्जा को द्रव्यमान में बदला जा सकता है। यदि m द्रव्यमान की वस्तु को पूर्णतः ऊर्जा में परिवर्तित कर दिया जाए, तो उससे उत्पन्न कुल ऊर्जा
ऊर्जा के स्रोत (Sources of Energy) 
नियत दर एवं सुविधाजनक रूप से, दीर्घ समय तक, उपयोगी ऊर्जा प्रदान करने में समर्थ कोई भी यंत्र या निकाय ऊर्जा का स्रोत कहलाता है।
ऊर्जा के स्रोतों का वर्गीकरण (Classification of Sources of Energy) 
ऊर्जा के स्रोतों को विभिन्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है
1. ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत (Renewable Sources of Energy) 
ऊर्जा के ये स्रोत प्रकृति से बिना किसी रुकावट के लगातार मिलते रहते हैं। उदाहरण सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, हाइड्रो ऊर्जा, जैव ईंधन (लकड़ी, बायोगैस तथा एल्कोहल), समुद्र से प्राप्त हाइड्रोजन ऊर्जा (ज्वार ऊर्जा, समुद्र लहरों से प्राप्त ऊर्जा, समुंद्रतापीय ऊर्जा), आदि ।
ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों से लाभ निम्न प्रकार हैं।
(i) इन स्रोतों से ऊर्जा लम्बे समय तक लगातार मिलती रहती है जैसे पृथ्वी द्वारा ग्रहण की जाने वाली सूर्य से प्राप्त ऊर्जा।
(ii) ये प्रकृति में मुक्त अवस्था में मिलने वाले स्रोत हैं।
(iii) ये स्रोत प्रदूषण नहीं फैलाते हैं।
2. ऊर्जा के अनवीकरणीय स्रोत (Non-Renewable Sources of Energy)
ये स्रोत पृथ्वी में बहुत समय से संचित होते आ रहे हैं। ये आसानी से एक रूप से दूसरे रूप में बदले नहीं जा सकते हैं तथा एक दिन ऐसा आएगा कि ये सभी स्रोत नष्ट हो जाएँगे।
उदाहरण जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला, पेट्रोल, प्राकृतिक गैस, आदि। ये सभी ऊर्जा के परम्परागत प्रोत (conventional source) भी कहलाते हैं।
ऊर्जा के अनवीकरणीय स्रोतों से हानियाँ निम्न प्रकार हैं
(i) इनका उपयोग अधिकाधिक ज्यादा इस्तेमाल होने से ये जल्दी नष्ट हो जाएँगे।
(ii) इन सभी स्रोतों के अन्य स्रोत ढूँढना बहुत मुश्किल है।
(iii) इन सभी स्रोतों के कारण ही पर्यावरण प्रदूषित होता है।
ईंधन (Fuel)
ऐसे पदार्थ जो जलने पर ऊष्मा (ऊर्जा का एक स्वरूप ) देते हैं, ईंधन कहलाते हैं। उदाहरण कोयला, एलपीजी (लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस), बायोगैस, सीएनजी, लकड़ी, पेट्रोल, डीजल, मिट्टी का तेल, आदि। आदर्श ईंधन के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
(i) ईंधन का ऊष्मीय मान उच्च होना चाहिए, जिससे वह प्रति इकाई भार के हिसाब से अधिक ऊष्मा दे सके।
(ii) ईंधन का दहन ताप या ज्वलन ताप उचित होना चाहिए, जिससे उसे आसानी से जलाया जा सके।
(iii) ईंधन में अज्वलनशील पदार्थों की मात्रा कम होनी चाहिए, जिससे अवशिष्ट, कम मात्रा में प्राप्त हो ।
(iv) ईंधन के जलने पर कोई विषैली और हानिकारक गैसें उत्पन्न नहीं होनी चाहिए, जिससे वायु प्रदूषण न हो सके।
(v) चुना गया ईंधन अन्य प्रयोजनों के लिए अधिक उपयोगी नहीं होना चाहिए।
(vi) ईंधन सस्ता तथा सुलभ होना चाहिए ।
(vii) ईंधन को सुविधापूर्वक व सुरक्षित रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाया जा सकता है।
                       ऊर्जा के पारंपरिक स्रोत (Conventional Sources of Energy)
जीवाश्म ईंधन (Fossil Fuels)
आदि। जीवाश्म ईंधन का निर्माण करोड़ों वर्षों तक पृथ्वी की सतह में गहरे दबे हुए वनस्पति अवशेषों से हुआ है। ये ऊर्जा युक्त कार्बनिक यौगिक हैं, जो पृथ्वी की सतह के नीचे से निकाले जाते हैं। उदाहरण कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, आजकल कार्बनिक गैसों (मेथेन) का प्रयोग भी ईंधन के रूप में हो रहा है।
जीवाश्म ईंधन की हानियाँ निम्न प्रकार हैं
(i) जीवाश्म ईंधन ऊर्जा के अनवीकरणीय स्रोत हैं तथा इनका एक बार उपयोग करके दोबारा उपयोग नहीं कर सकते हैं।
(ii) जीवाश्म ईंधन जलने पर वायु प्रदूषित करते हैं।
(iii) जीवाश्म ईंधन जलने पर गैस मुक्त करते हैं, जिससे वर्षा के जल में घुलने से अम्ल वर्षा (acid rain) होती है। जिससे पीने का पानी तथा मुद्रा स्रोत प्रभावित होती है।
(iv) जीवाश्म ईंधन जलने पर ग्रीन हाऊस गैस (जैसे CO2,) मुक्त होती है।
(v) जीवाश्म ईंधन को पूर्णतयाः (completely) नहीं जलाया जा सकता है, ये जलने के बाद धुआँ देते हैं।
(vi) जीवाश्म ईंधन पृथ्वी में एक सीमित मात्रा तक संरक्षित होते हैं तथा ये जल्दी समाप्त हो सकते हैं।
तापीय विद्युत संयंत्र (Thermal Power Plant) 
ताप विद्युत संयंत्र में ईंधन के जलने पर यह ऊष्मा ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर देता है। विद्युत संयंत्रों में प्रतिदिन विशाल मात्रा में जीवाश्म ईंधन का दहन करके जल उबालकर भाप बनाई जाती है जो टरबाइनों को धुमाकर विद्युत उत्पन्न करती है। समान दूरियों तक कोयले तथा पेट्रोलियम के परिवहन की तुलना में विद्युत संचरण अधिक दक्ष होता है। यही कारण है कि बहुत से तापीय विद्युत संयंत्र कोयले तथा तेल के क्षेत्रों के निकट स्थापित किए गए हैं।
जल विद्युत संयंत्र (Hydro Power Plant)
वे विद्युत संयंत्र जो बहते जल की स्थितिज ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलते हैं, जल विद्युत संयंत्र कहलाते हैं। चूँकि ऐसे जल प्रपातो की संख्या बहुत कम है जिनका उपयोग स्थितिज ऊर्जा के स्रोत के रूप में किया जा सके। अतः जल विद्युत संयंत्रो को बाँधो से संबद्ध किया जाता है। इस संयंत्र द्वारा उत्पन्न विद्युत ऊर्जा पन बिजली (hydro electricity) कहलाती है।
जल विद्युत उत्पन्न करने का सिद्धान्त (Principle of Generating Hydro Electricity) 
जल विद्युत उत्पन्न करने के लिए नदियों के बहाव को रोककर बड़े जलाशयों में जल एकत्र करने के लिए ऊँचे-ऊँचे बाँध बनाये जाते हैं जिससे इन जलाशयों में जल संचित होता रहता है जिसके फलस्वरूप इनमें भरे जल का तल ऊँचा हो जाता है। तब जल स्तर चढ़ने के कारण, बहते जल की गतिज ऊर्जा, स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है तथा बाँध के ऊपरी भाग से पाइपो द्वारा जल, बाँध के आधार के पास स्थित टरबाइन (turbine) के ब्लेडों पर मुक्त रूप से गिरता है जिसके फलस्वरूप टरबाइन के ब्लेड घूर्णन गति करते है तथा जनित्र (generator) द्वारा विद्युत उत्पादन होता है।
पन बिजली के लाभ निम्न प्रकार हैं। 
(i) इससे पर्यावरण प्रदूषित नहीं होता है।
(ii) इसमें प्रयोग होने वाला बहता हुआ पानी बिना मूल्य के मिलता है।
(iii) जल, ऊर्जा का नवीकरण स्रोत है जो कभी भी नष्ट नहीं होगा चूँकि जब भी वर्षा होती है, तो जलाशय पुनः जल से पूर्ण भर जाते हैं।
(iv) नदियों पर बाँधों का निर्माण, बाढ़ों को रोकने तथा सिचाई को सुचारू रूप से लागू करने में प्रयोग होता है।
पन बिजली से हानियाँ निम्न प्रकार हैं
(i) बाँधों के जल में डूबने के कारण बड़े-बड़े पारिस्थितिक तंत्र नष्ट हो जाते हैं।
(ii) बाँधों के निर्माण से बहुत सी कृषि योग्य भूमि तथा मानव आवास डूबने के कारण नष्ट हो जाते हैं।
(iii) इनके निर्माण से पानी के तेज बहाव से भूमि की उर्वरक क्षमता कम हो जाती है, जिसका प्रभाव फसलों पर पड़ता है।
(iv) बाँधों का निर्माण सभी स्थानों पर न होकर केवल पहाड़ी क्षेत्रों में होता है।
(v) बाँधों के निर्माण से पेड़-पौधे, वनस्पति आदि जल में डूब जाते हैं। वे अवायवीय परिस्थितियों (anaerobic conditions) में सड़ने लगते हैं और विघटित होकर विशाल मात्रा में मेथेन गैस उत्पन्न करते हैं, जोकि एक ग्रीन हाऊस गैस है।
(vi) बाँधों के निर्माण से विस्थापित लोगों के संतोषजनक पुनर्वास व क्षतिपूर्ति की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
(vii) गंगा नदी पर टिहरी बाँध परियोजना तथा नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बाँध परियोजना का विरोध इसी प्रकार की समस्याओं के कारण हुआ था।
ऊर्जा के पारंपरिक स्रोतों के उपयोग के लिए प्रौद्योगिकी में सुधार (Improvements in the Technology for Using Conventional Sources of Energy)
बायो- द्रव्यमान (Bio-mass )
मवेशियों के अपशिष्ट पदार्थ (जैसे गोबर), पशुओं और पेड़ पौधों के मृत अंग बायो- द्रव्यमान कहलाते हैं। उदाहरण घरों तथा कारखानों में लकडी फसलों के अवशेष खोई (गन्ने का रस निकालने के बाद का अवशेष), मवेशियों का गोबर आदि ईंधन के रूप में प्रयोग होता है। 1 बायो गैस का उपयोग विद्युत उत्पादन में भी किया जाता है। अतः बायो द्रव्यमान से प्राप्त ऊर्जा बायो- ऊर्जा (bio-energy) कहलाती है।
बायो- गैस (Bio-gas) 
बायो-गैस, मेथेन, हाइड्रोजन सल्फाइड, कार्बन डाइऑक्साइड़ तथा हाइड्रोजन का मिश्रण है। जब ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में गोबर, फसलों के कटने के पश्चात् बचे अवशिष्ट, सब्जियों के अपशिष्ट जैसे विविध पाइप तथा वाहित मल अपघटित होते हैं तो बायो-गैस (जैव-गैस) निकलती है। चूँकि इस गैस को बनाने में उपयोग होने वाला आरम्भिक पदार्थ मुख्यतः गोबर है इसलिए इसका प्रचलित नाम गोबर-गैस (gobar-gas) है।
जैव गैस (बायो-गैस) सयंत्र (Bio-gas Plant)
जैव गैस को एक संयंत्र में उत्पन्न किया जाता है जिसे जैव गैस संयंत्र कहते हैं। इस संयंत्र में ईंटों से बनी गुम्बद जैसी संरचना होती है।
बायो-गैस संयंत्र दो प्रकार के होते हैं जिनका उपयोग हमारे देश में बायो-गैस उत्पादन में किया जाता है।
बायो गैस संयंत्रों से अनेक लाभ निम्न प्रकार हैं
(i) इन संयंत्रों से प्राप्त होने वाली बायो गैस एक अच्छा ईंधन है, जिसका कैलोरीमान (calorific value) भी अधिक होता है और यह बिना धुएँ के साथ जलती है। अतः इससे घर में स्वच्छता बनी रहती है और परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य उत्तम बना रहता है।
(ii) बायो-गैस संयंत्रों से बायो- गैस निकालने के बाद शेष बचे गोबर (स्लरी) में नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस के यौगिक अत्यधिक मात्रा में होते हैं, जिसे किसान खाद के रूप में प्रयोग करते हैं जिससे अनाज आदि की पैदावार अधिक होती है।
(iii) इससे जल प्रदूषण को कुछ सीमा तक कम करने में सहायता मिलती है, क्योंकि घरेलू अपशिष्ट और गोबर जो जल में मिलकर प्रदूषण पैदा करते हैं, उन्हें इस संयंत्र में कच्चे माल के रूप में काम में ले लिया जाता है।
बायो-गैस के उपयोग निम्न प्रकार हैं
(i) बायो-गैस का उपयोग घरों में तथा गाँव की गलियों में प्रकाश करने के लिए कर सकते हैं।
(ii) बायो-गैस का उपयोग पम्प सेटों के इंजन चलाने के लिए कर सकते हैं, जो खेतों की सिंचाई के लिए भूगर्भ से जल खींचते हैं।
(iii) इसके उपयोग से विद्युत का उत्पादन किया जाता है।
पवन ऊर्जा (Wind Energy)
चलती हुई हवा को पवन कहते हैं। यह एक प्रकार की गतिज ऊर्जा है तथा पवन ऊर्जा का उपयोग यांत्रिक कार्यों को करने में किया जा सकता है। इसके वेग से टरबाइनों को चलाकर विद्युत ऊर्जा प्राप्त की जाती है। पवन जितनी तेज गति से चलती है, विद्युत ऊर्जा उतनी ही अधिक प्राप्त होती है
पवन की गतिज ऊर्जा का कार्य के रूप में उपयोग निम्न प्रकार हैं
(i) पवन ऊर्जा का उपयोग अनाज पीसने की चक्कियों को चलाने के लिए किया जाता है।
(ii) पवन ऊर्जा का उपयोग पवन चक्की द्वारा जल-पम्प चलाकर, पृथ्वी के अन्दर से पानी खींचने हेतु किया जाता है। के ओखा नामक स्थान पर 1 मेगावाट शक्ति की पवन चक्की लगी हुई है। गुजरात
(iii) पवन ऊर्जा का उपयोग पालदार नावों को नदियों तथा समुद्र में चलाने के लिए किया जाता है। इस प्रकार की नावों द्वारा व्यक्तियों तथा सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है।
(iv) पवन ऊर्जा द्वारा विद्युत उत्पादन भी किया जाता है। गुजरात के पोरबन्दर में लांबा नामक स्थान पर पवन ऊर्जा से 50 टरबाइनें चलाई जाती हैं, जिनकी क्षमता 2 अरब यूनिट बिजली उत्पन्न करने की है।
पवन चक्की (Wind Mill)
पवन चक्की एक ऐसी युक्ति है, जिसमें वायु की गतिज ऊर्जा ब्लेडों को घुमाने में प्रयुक्त की जाती है। पवन चक्की की संरचना वस्तुतः एक विशाल वैद्युत पंखे के समान होती है। जिसे किसी दृढ़ आधार पर कुछ ऊँचाई पर खड़ा कर दिया जाता है
पवन चक्की का सिद्धान्त (Principle of Wind Mill)
जब तेज हवा का प्रहार पवन चक्की के ब्लेडों पर पड़ता है तब इस पर लगे बल के कारण पवन चक्की के ब्लेड घूर्णी गति करने लगते हैं। पवन चक्की की पंखुड़ियों की घूर्णी गति का उपयोग अधिक मशीनों को चलाने जैसे जल पंप, आटामिलो तथा विद्युत उत्पादन करने में किया जाता है।
डेनमार्क को पवनों का देश कहते हैं। देश की 25% से भी अधिक विद्युत की पूर्ति पवन चक्कियों के विशाल नेटवर्क द्वारा विद्युत उत्पादन करके की जाती है। जर्मनी भी इस क्षेत्र में अग्रणी है। जबकि भारत का पवन ऊर्जा द्वारा विद्युत उत्पादन करने वाले देशों में पांचवा स्थान है।
पवन उत्पादन (Wind Generator)
पवन चक्की का उपयोग पवन टरबाइन द्वारा विद्युत उत्पादन में किया जाता है तथा पवन जनित्र द्वारा उत्पादित विद्युत का उपयोग पवन ऊर्जा में किया जाता है। जब पवन, टरबाइन के ब्लेडों से टकराती है तब छोटे विद्युत जनित्र की कुण्डली घूर्णी गति करने लगती है जिससे विद्युत उत्पन्न होती है।
पवन ऊर्जा फार्म (Wind Energy Farm)
व्यवसायिक उददेश्य के लिए अधिक पवन चक्कियों को लगाने के लिए अधिक क्षेत्रफल की आवश्यकता होती है। अतः ऐसे स्थानों को पवन ऊर्जा फार्म कहते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि पवन ऊर्जा द्वारा लगभग 45000 मेगावाट विद्युत शक्ति का उत्पादन किया जा सकता है। तमिलनाडु में कन्याकुमारी के समीप भारत का विशालतम पवन ऊर्जा फार्म स्थापित किया गया है जो 380 मेगावाट विद्युत उत्पादन करता है।
पवन चक्की के लाभ निम्न प्रकार हैं
(i) पवन चक्की नवीकरणीय ऊर्जा का एक पर्यावरणीय हितैषी एवं दक्ष स्रोत है।
(ii) इसके द्वारा विद्युत उत्पादन के लिए बार-बार धन खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती है।
(iii) यह प्रदूषण उत्पन्न नहीं करता है।
पवन के दोहन की निम्न सीमाएँ हैं
(i) पवन ऊर्जा फार्म केवल उन्ही क्षेत्रों में स्थापित किए जा सकते हैं जहाँ वर्ष के अधिकांश दिनों में तेज हवाएँ चलती हैं।
(ii) पवन जेनरेटरों को चलाने के लिए हवा का न्यूनतम वेग 15 किमी / घण्टा होना चाहिए जोकि हमेशा सम्भव नहीं है।
(iii) 1 मेगावाट के जेनरेटर की क्षमता वाले पवन ऊर्जा फार्म को लगाने के लिए भूमि के बहुत बड़े भाग (लगभग 2 हेक्टेयर) की आवश्यकता होती है।
(iv) पवन ऊर्जा फार्म को स्थापित करने की आरम्भिक लागत अत्यधिक होती है।
(v) पवन चक्की के ब्लेड पृथ्वी के प्राकृतिक प्रकोप, प्राकृतिक थपेड़ो (जैसे भारी बारिश, तेज गर्मी तथा चक्रवाती तूफान) आदि को सहन करते हैं इसलिए इनका रख-रखाव महँगा पड़ता है।
(vi) पवन ऊर्जा फार्म स्थानीय वर्षा कालक्रम में बाधा डालते हैं।
गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोत (Non-conventional Sources of Energy) 
सौर ऊर्जा (Solar Energy)
सूर्य द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा अथवा सूर्य से प्राप्त ऊर्जा को सौर ऊर्जा कहते हैं। इससे हमें ऊष्मा और प्रकाश प्राप्त होता है। सौर ऊर्जा के व्यावहारिक उपयोग निम्न हैं
(i) कपड़े सुखाने के लिए।
(ii) समुद्री जल से नमक प्राप्त करने के लिए।
(iii) फसल की कटाई के बाद खाद्यान्नों में नमी की मात्रा को कम करने के लिए।
(iv) फलों, सब्जियों तथा मछली आदि को सुखाने के लिए किया जाता है।
सौर ऊर्जा के लाभ निम्नलिखित हैं
(i) ये प्रदूषण नहीं फैलाते हैं।
(ii) ये गर्म देशों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है।
(iii) ये बिना किसी मूल्य के प्राप्त होती है।
(iv) इसे प्रयोगात्मक कार्य में प्रयोग कर सकते हैं।
सौर ऊर्जा की सीमाएँ निम्नलिखित हैं
(i) सौर ऊर्जा सदैव एकसमान रूप से तथा सभी स्थानों पर उपलब्ध नहीं होती।
(ii) सौर ऊर्जा की उपलब्धता दिन-प्रतिदिन बदलती रहती है तथा एक ही स्थान पर पूरे दिन भी बदलती रहती इसके अतिरिक्त सौर ऊर्जा पृथ्वी के कुछ स्थानों पर अधिक तथा कुछ स्थानों पर बहुत कम उपलब्ध रहती है।
(iii) रात के समय सौर ऊर्जा उपलब्ध नहीं होती।
(iv) दिन के समय में आसमान में बादल उपस्थित होने पर भी सौर ऊर्जा उपलब्ध नहीं होती।
सौर ऊर्जा युक्तियाँ (Solar Energy Devices)
विभिन्न प्रकार की वे युक्तियाँ जिनका उपयोग सौर ऊर्जा दहन में किया जाता है, ऐसी युक्तियाँ सौर ऊर्जा युक्तियाँ कहलाती हैं। उदाहरण सोलर हीटर, सोलर संकेद्रक, सोलर कूकर तथा सोलर सेल इत्यादि।
सौर तापन युक्तियाँ (Solar Heating Devices)
वे उपकरण जिनमे सौर ऊर्जा ऊष्मा ऊर्जा के रूप में एकत्रित की जाती है, सौर तापन युक्तियाँ कहते हैं। इनका निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि ये सभी स्थितियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित कर सके। इनका उपयोग निम्न प्रकार है
(i) काले रंग की सतह श्वेत पृष्ठ की तुलना में काला पृष्ठ अधिक ऊष्मा अवशोषित करता है इसलिए सोलर तापन युक्तियों की कार्य विधि में इसी गुण का उपयोग किया जाता है।
(ii) काँच का ढक्कन जब इस सौर तापन युक्ति को कुछ समय के लिए सूर्य के प्रकाश में रखा जाता है तो उसके ऊपर लगा काँच का ढक्कन, सूर्य के प्रकाश में उपस्थित दृश्य तथा अवरक्त किरणों को ही अन्दर प्रवेश करने देता है। सौर तापन युक्ति के अन्दर काले रंग की सतह इन अवरक्त किरणों को अवशोषित करके गर्म हो जाती है। जब काले रंग की सतह गर्म हो जाती है तो वह भी अवरक्त किरणों के रूप में ऊष्मा का उत्सर्जन करने लगती है, परन्तु बक्से में लगा काँच का ढक्कन इन अवरक्त किरणों को बक्से से बाहर नहीं जाने देता। अतः बक्से के अन्दर की ऊष्मा अन्दर ही रह जाती है। इस प्रकार सूर्य की अवरक्त किरणें काँच के ढक्कन में से होकर सौर तापन युक्ति के अन्दर प्रवेश तो कर सकती हैं, परन्तु उसमें से बाहर नहीं निकल सकती हैं।
(iii) परावर्तक का उपयोग सौर तापन युक्ति की दक्षता बढ़ाने के लिए उसमें एक परावर्तक तल लगा देते हैं। इसके लिए समतल दर्पण को परावर्तक के रूप में प्रयुक्त करते हैं। इस परावर्तक का उपयोग सौर ऊर्जा संग्रहण के क्षेत्र को बढ़ाने के लिए जाता है। इस कारण अधिक-से-अधिक ऊष्मीय किरणें, सौर तापन युक्ति के अन्दर प्रवेश कर जाती हैं। जिन सौर तापन युक्तियों में अधिक ताप उत्पन्न करना होता है, तब उनमें गोलीय परावर्तक लगाते हैं। इस कार्य के लिए अवतल परावर्तक अथवा परवलयिक परावर्तक प्रयुक्त करते हैं।
सोलर संकेन्द्रक (Solar Concentrators)
कुछ उपकरणों का निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि वे सूर्य की ऊर्जा को विशाल क्षेत्र से कम क्षेत्र में संक्रेद्रित कर सके। सोलर तापन युक्तियों के अनेक प्रकार सोलर संक्रेदक कहलाते हैं। इसमें मुख्यतः गोलीय परावर्तक का उपयोग किया जाता है।
सोलर शक्ति संयंत्र (Solar Power Plant)
इस प्रकार के सोलर संकेन्द्रक का उपयोग विद्युत उत्पादन में किया जाता है। सबसे पहले बॉयलर में सोलर संकेन्द्रक द्वारा सोलर ऊर्जा का परावर्तन ऊष्मा जल के रूप में होता है। तब प्राप्त भाप का उपयोग जनित्र द्वारा टरबाइन को घुमाकर विद्युत उत्पादन में किया जाता है।
सोलर कुकर (Solar Cooker)
यह एक ऐसी युक्ति है, जिसमें सौर ऊर्जा का उपयोग करके भोजन को पकाया जाता है, इसलिए इसे सौर-चूल्हा भी कहते हैं ।
सामान्यतः यह एक लकड़ी का बॉक्स होता है जिसे बाहरी बक्सा (external box) भी कहते हैं। इस लकड़ी के बॉक्स के अन्दर लोहे अथवा ऐलुमिनियम की चादर का बना एक और बॉक्स होता है, जिसे भीतरी (internal box) बॉक्स कहते हैं। भीतरी बॉक्स के अन्दर की दीवारें तथा नीचे की सतह पर काला पेन्ट कर देते हैं। भीतरी बॉक्स के अन्दर काला रंग इसलिए किया जाता है, जिससे कि सौर ऊर्जा का अधिक-से-अधिक अवशोषण हो तथा परावर्तन द्वारा ऊष्मा की कम-से-कम हानि हो ।
सोलर कुकर के बॉक्स के ऊपर एक लकड़ी के फ्रेम में मोटे काँच का एक ढक्कन लगा होता है, जिसे आवश्यकतानुसार खोला तथा बन्द किया जा सकता है। सौर कुकर के बॉक्स में एक समतल दर्पण भी लगा होता है जोकि परावर्तक तल का कार्य करता है।
कार्य विधि (Working)
सर्वप्रथम पकाए जाने वाले भोजन को स्टील अथवा ऐलुमिनियम के एक बर्तन में डालकर जिसकी बाहरी सतह काली पुती हो, सोलर कुकर के अन्दर रख देते हैं तथा ऊपर से शीशे के ढक्कन को बन्द कर देते हैं। समतल दर्पण को खड़ा करके सोलर कुकर को भोजन पकाने के लिए धूप में रख देते हैं। जब सूर्य के प्रकाश की किरणें परावर्तक तल पर गिरती हैं तो परावर्तक तल उन्हें तीव्र प्रकाश किरण पुंज के रूप में सोलर कुकर के ऊपर डालता है।
सूर्य की ये किरणें काँच के ढक्कन में से गुजरकर सोलर कुकर के बॉक्स में प्रवेश कर जाती है तथा कुकर के अन्दर की काली सतह द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं। चूँकि सूर्य की किरणों का लगभग एक-तिहाई भाग ऊष्मीय प्रभाव वाली अवरक्त किरणों का होता है। अतः जब ये किरणें कुकर के बॉक्स में प्रवेश कर जाती हैं तो काँच का ढक्कन इन्हें वापस बाहर नहीं आने देता। इस प्रकार सूर्य की ओर अधिक अवरक्त किरणें धीरे-धीरे कुकर के बॉक्स में प्रवेश करती जाती हैं, जिनके कारण सोलर कुकर के अन्दर का ताप बढ़ता जाता है। लगभग दो अथवा तीन घण्टें में सोलर कुकर के अन्दर का ताप 100°C से 140°C के बीच हो जाता है। यही ऊष्मा सोलर कुकर के अन्दर बर्तन में रखे भोजन को पका देती है।
सोलर कुकर के लाभ निम्न हैं
(i) इनके प्रयोग से ईंधन की बचत होती है।
(ii) इनके प्रयोग से प्रदूषण नही होता है।
(iii) इनमें बहुत धीमी गति से खाना पकता है। अतः इसके द्वारा पके भोजन से पोषक तत्व नष्ट नही होते हैं।
(iv) इसमें एक समय पर चार भोजन पका सकते हैं।
सोलर कुकर की परिसीमाएँ निम्न हैं
(i) . ये रात्रि में, बरसात में तथा बादल वाले दिनों में कार्य नहीं करते हैं।
(ii) इनका उपयोग रोटी बनाने तथा वस्तुओं को तलने में नही कर सकते हैं।
(iii) सूर्य की दिशा लगातार बदलने के कारण सोलर कुकर की दिशा भी समय के साथ बदलती रहती है।
ग्रीन हाउस प्रभाव (Greenhouse Effect)
वायुमण्डल में उपस्थित कुछ प्रमुख गैसें लघु तरंगदैर्ध्य के सौर विकिरण को पृथ्वी के धरातल तक आने देती हैं, परन्तु पृथ्वी से निकलने वाले दीर्घ तरंगी विकिरण को अवशोषित कर लेती हैं। इस कारण वायुमण्डल पृथ्वी के औसत तापमान को 35°C के आस-पास बनाए रखता है। इस घटना को ही हरित गृह प्रभाव कहते हैं। इसके लिए उत्तरदायी गैसों में प्रमुख कार्बन डाईऑक्साइड, मेथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, ओजोन, सल्फर डाइऑक्साइड तथा जलवाष्प हैं।
ये गैसें हरित गृह गैसें (ग्रीन हाउस गैसें) कहलाती हैं। हरित गृह गैसों की सान्द्रता में वृद्धि के कारण वातावरण के तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिसे सामान्यतः भूमण्डलीय ऊष्मायन कहते हैं। भूमण्डलीय ऊष्मायन के प्रभाव के कारण ध्रुवों की बर्फ पिघलना, समुद्री जल स्तर में वृद्धि, चक्रवात एवं तेज तूफान आदि घटनाएँ हो रही हैं।
सोलर सेल (Solar Cell)
इस उपकरण में सौर ऊर्जा सीधे विद्युत ऊर्जा में बदलती है। ये सेलें अर्द्धचालक पदार्थ (जैसे सिलिकन, गैलियम, जर्मेनियम) से बनी होती हैं। सोलर सेल को प्रकाश वोल्टीय सेल भी कहते हैं। इन पदार्थों से बनी सोलर सेल की क्षमता 10% से 15% होती है अर्थात् ये 10% से 15% सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर सकते हैं। सेलिनियम से बनी आधुनिक सौर सेलो की दक्षता 25% तक होती है। सौर सेलों के साथ संबद्ध प्रमुख लाभ यह है कि इनमें कोई भी गतिमान पुर्जा नही होता है। इनका रखरखाव सस्ता है। तथा ये बिना किसी फोकसन युक्ति के काफी संतोषजनक कार्य करते हैं। इनका एक अन्य लाभ यह है कि इन्हें सुदूर तथा दुर्गम स्थानों (inaccessible places) में प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
निर्माण (Construction)
सोलर सेल बनाने के लिए अशुद्वियुक्त अर्द्धचालक पदार्थ की पतली पर्तों को विशेष क्रम में जोड़ा जाता है। जब सूर्य का प्रकाश इन पर्तों पर गिरता है तो इनके बीच विभवान्तर उत्पन्न हो जाता है। जब शुद्ध सिलिकन के 2 सेमी 2 टुकड़े से बनी सोलर सेल पर प्रकाश डाला जाता है। तब सोलर सेल में लगभग 0.5 से 1 वोल्ट का विभवान्तर तथा 0.7 वाट की विद्युत उत्पन्न होती है। सोलर सेल बनाने के लिए सिलिकॉन का उपयोग किया जाता है जो प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है परन्तु सोलर सेलों को बनाने में उपयोग होने वाले विशिष्ट श्रेणी के सिलिकॉन की उपलब्धता सीमित है।
सोलर सेलो के उपयोग निम्न हैं
(i) इनका उपयोग कृत्रिम उपग्रहों तथा अन्तरिक्षयानों में वैद्युत उपलब्ध करने के लिए किया जाता है।
(ii) इनका उपयोग स्ट्रीट लाइटों, ट्रैफिक सिग्नलों, सिंचाई के लिए जलपम्पों को चलाने आदि में किया जाता है।
(iii) इनका उपयोग समुद्र में स्थित द्वीप स्तम्भों को विद्युत प्रदान करने में किया जाता है।
(iv) रेडियों तथा सुदूर क्षेत्रों के दूरदर्शन प्रसारण केन्द्रो में सोलर सेल पैनल उपयोग किए जाते हैं।
(v) इनका उपयोग इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों तथा कैलकुलेटरों को चलाने में किया जाता है।
सोलर पैनल (Solar Panel)
जब सोलर सेलों को एक-दूसरे के साथ एक के बाद एक करके जोड़ा जाता है तब अवांछित विभवान्तर तथा अनुकुल दक्षता की विद्युत धारा उत्पन्न होती है। सोलर सेलों के इस समूह संयोजन को ही सोलर पैनल कहते हैं। इनसे उत्पन्न अत्यधिक विद्युत का उपयोग अनेक प्रयोगों में किया जाता है।
◆ संसार में सबसे बड़ी सोलर भट्टी फ्रांस में स्थित है।
◆ सोलर सेलों के उत्पादन की समस्त प्रक्रिया अभी बहुत महँगी है क्योंकि सोलर सेलों को परस्पर संयोजित करके सोलर पैनल बनाने में सिल्वर (चाँदी) का उपयोग होता है।
समुद्रों से ऊर्जा (Energy from the Sea)
ज्वारीय ऊर्जा (Tidal Energy)
चन्द्रमा के आकर्षण के कारण, समुद्र का जल ऊपर उठता और नीचे उतरता है, इस प्रकार लहरें बनती हैं। इन लहरों को ज्वारीय लहरें कहा जाता है और पानी के उठने और गिरने के फलस्वरूप ऊर्जा प्राप्त होती है, जिसे ज्वारीय ऊर्जा कहते हैं।
चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव के कारण समुद्री जल के उठने (चढ़ने) को ज्वार तथा जल के नीचे उतरने को भाटा कहते हैं। ज्वार-भाटा की लहरें दिन में दो बार चढ़ती हैं तथा दो बार उतरती हैं समुद्रीय क्षेत्रों में जल के ऊपर चढ़ने तथा गिरने पर हमें ऊर्जा का एक बहुत बड़ा स्रोत प्राप्त होता है जिससे प्राप्त ऊर्जा को ज्वारीय ऊर्जा कहते हैं। ज्वारीय ऊर्जा का दोहन सागर के किसी संकीर्ण क्षेत्र पर बाँध का निर्माण करके किया जाता है।
ज्वारीय ऊर्जा की परिसीमाएँ (Limitations of Tidal Energy) 
ज्वार के समय उठे जल को बाँध द्वारा रोककर एक बड़े पैमाने पर विद्युत उत्पादन करना काफी नहीं है। चूँकि बाँधो का निर्माण कुछ ही स्थानों पर उपयुक्त होता है क्योंकि ज्वारीय ऊर्जा, ऊर्जा का मुख्य स्रोत नहीं है। है
तरंग ऊर्जा (Wave Energy)
वायु का प्रवाह अधिक होने के कारण समुद्र की सतह पर जल की लहरें बहुत तेजी से चलती हैं, जिसके कारण उनमें गतिज ऊर्जा होती है। इस प्रकार उत्पन्न ऊर्जा को तरंग ऊर्जा कहते हैं। इन गतिशील समुद्री लहरों की ऊर्जा का उपयोग वैद्युत उत्पादन में किया जाता है।
सागरीय तापीय ऊर्जा (Ocean Thermal Energy) 
सागर की सतह के जल तथा गहराई के जल के ताप में सदैव कुछ अन्तर होता है। इस तापान्तर के कारण उपलब्ध ऊर्जा को सागरीय तापीय ऊर्जा कहते हैं। कहीं-कहीं पर यह तापान्तर 20°C तक भी होता है। इस सागरीय तापीय ऊर्जा को वैद्युत के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है।
भूतापीय ऊर्जा (Geothermal Energy)
यह ऊर्जा पृथ्वी के अन्दर से प्राप्त निश्चित अनुकूल परिस्थितियों में ऊर्जा के रूपों में उपयोग की जाती है। यह ऊर्जा का प्राकृतिक प्रक्रम होता है, इसे ही भूतापीय ऊर्जा कहते हैं। यह ऊर्जा का वह स्रोत है जोकि सौर ऊर्जा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में प्राप्त नहीं होती है।
नाभिकीय ऊर्जा (Nuclear Energy) 
परमाणु के नाभिक में परिवर्तन के फलस्वरूप निर्मुक्त होने वाली ऊर्जा को नाभिकीय ऊर्जा कहते हैं। यह नाभिकीय अभिक्रिया में मुक्त होती है।
नाभिकीय अभिक्रिया दो प्रकार की होती है
(i) नाभिकीय विखण्डन (Nuclear Fission) नाभिकीय विखण्डन वह प्रक्रिया है जिसमें एक भारी नाभिक लगभग दो छोटे असमान नाभिकों में टूट जाते हैं तथा अपार ऊर्जा उत्पन्न करते हैं।
(ii) नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion) नाभिकीय अभिक्रिया में जब दो हल्के नाभिक संयुक्त होकर एक भारी नाभिक बनाते है, तो इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते हैं। संलयन से प्राप्त नाभिक का द्रव्यमान, संलयन करने वाले मूल नाभिकों के द्रव्यमानों के योग से कम होता है। द्रव्यमान की यह क्षति ऊर्जा के रूप में प्राप्त हो जाती है।
नाभिकीय शक्ति संयंत्र (Nuclear Power Plant)
नाभिकीय ऊर्जा का मुख्य उपयोग विद्युत उत्पादन में किया जाता है। अतः एक संयंत्र में किया गया कार्य नाभिकीय शक्ति संयंत्र कहलाता है।
नाभिकीय शक्ति संयंत्र का सिद्धान्त (Principle of Nuclear Power Plant) 
नियंत्रित नाभिकीय विखण्डन अभिक्रिया में ऊष्मा का उत्पादन होता है। जिसका उपयोग भाप के उत्पादन में किया जाता है। इस भाप का उपयोग टरबाइनों को चलाकर जनित्र से जोड़कर विद्युत उत्पादन में किया जाता है।
नाभिकीय शक्ति संयंत्र के अवयव (Components of a Nuclear Power Plant) 
एक नाभिकीय शक्ति संयंत्र के अवयव निम्न प्रकार हैं
(i) नाभिकीय भट्टी (Nuclear Reactor) इसमें नियंत्रित नाभिकीय विखण्डन में विखण्डनीय ईंधन जैसे U225 का उपयोग करते हैं।
(ii) ऊष्मा विनिमय (Heat Exchanger) इस प्रक्रिया हेतु भट्टी को ऊष्मीय विनिमय से जोड़ते हैं। यहाँ एक कुण्डलित पाइप में प्रवाहित शीतलक के द्वारा भट्टी में उत्पन्न ऊष्मा का जल में संचरण होता है। इस प्रकार प्राप्त जल भाप में परिवर्तित हो जाता है जो पुनः भट्टी में वापस आ जाता है।
(iii) भाप टरबाइन (Steam Turbine ) ऊष्मीय विनिमय में भाप उत्पन्न होती है जिसका उपयोग भाप टरबाइन को चलाने में किया जाता है। तब खर्च की गई भाप गर्म जल से ऊष्मीय विनिमय द्वारा वापस हो जाती है।
(iv) विद्युत जनित्र (Electric Generator) भाप टरबाइन की शाफ्ट विद्युत जनित्र (डायनेमो) से जुड़ी होती है। जिससे विद्युत उत्पन्न होती है।
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