पानी का शुद्धीकरण / कीटाणुशोधन (Water Purification/Disinfection)

पानी का शुद्धीकरण / कीटाणुशोधन (Water Purification/Disinfection)

पानी के शुद्धीकरण का अर्थ है- प्रदूषित पानी को पीने योग्य बनाना। शोधित जल को भौतिक, रासायनिक और जीवाणुरोधी मानकों पर खरा भी उतरना चाहिये। इसमें कोई दुर्गंध नहीं होनी चाहिये और यह रासायनिक तौर पर क्रियाशील भी नहीं होना चाहिये।
पानी के शुद्धीकरण की प्रक्रिया में मुख्यतः दो चरण होते हैं। सबसे पहले पानी से भौतिक अशुद्धियों (Physical Impurities) जैसे मिट्टी के कणों, ज़हरीले रसायनों और विभिन्न प्रकार की कार्बनिक अशुद्धियों (Organic Impurities) को दूर किया जाता है। उसके बाद पानी में मौजूद सूक्ष्म जीवाणुओं (Micro-organisms ) को भी नष्ट किया जाता है। शुद्धीकरण प्रक्रिया निम्न चरणों में संपन्न होती है
पूर्व छानना / निस्यंदन (Pre Filtration): सबसे पहले पानी में से मिट्टी के कण, लकड़ियों के टुकड़े कचरे और रेत को हटाया जाता है।
स्कंदन तथा ऊर्णन (Coagulation and Flocculation) : पानी में मुख्यतः तीन तरह की अशुद्धियाँ होती हैं। सूक्ष्म घुलनशील पदार्थ, कोलाइडल कण और तैरने वाले ठोस पदार्थ | स्कंदन – ऊर्णन प्रक्रिया ही तैरने वाले ठोस पदार्थों और कोलाइडल कणों के शोधन को संभव बनाती है। यह ठोस और द्रव पदार्थों की पृथक्करण प्रक्रिया का पहला चरण होता है। स्कंदन में एक रसायन (जैसे-फिटकरी) सूक्ष्म कणों को एकत्र करता है और वह फिल्टर में रेत या अन्य कणों के साथ जुड़ जाते हैं।
अवसादीकरण (Sedimentation) : अवसादीकरण की प्रक्रिया के दौरान सूक्ष्म अशुद्धियों का ढेर अपने वज़न के कारण नीचे बैठ जाता है, जिसे पंप के ज़रिये बाहर निकाल लिया जाता है।
फिल्ट्रेशन (Filtration) : अवसादीकरण की प्रक्रिया के बाद प्राप्त होने वाले पानी को विभिन्न प्रकार के फिल्टरों से गुज़ारा जाता है। चूँकि पानी में अब भी धूल, जीवाणु, विषाणु और जहरीले रसायन होते हैं, इसलिये अशुद्धियों के आकार और उनकी प्रकृति के अनुसार विभिन्न फ़िल्टर तकनीकों (चारकोल और रेत) का उपयोग किया जाता है।
कीटाणुशोधन (Disinfection)
पानी के कीटाणुशोधन का अर्थ है कि पानी को एक निश्चित सीमा तक कीटाणुओं से मुक्त करना, ताकि मनुष्य पर उसका कोई हानिकारक प्रभाव न पड़े। पानी के कीटाणुशोधन की कुछ प्रचलित विधियाँ निम्न हैं
ओज़ोन कीटाणुशोधन (Ozone Disinfection): पानी के ओज़ोन कीटाणुशोधन की तकनीक काफी लंबे समय से उपयोग की जा रही है। अपनी उच्च ऑक्सीकरण क्षमता के कारण ओज़ोन हानिकारक कीटाणुओं की कोशिकाओं को ऑक्सीकृत कर देती है। यह कीटाणुओं की कोशिकाओं के भीतर प्रवेश करते हुए कोशिका के लगभग सभी घटकों (एंजाइम, डीएनए, आरएनए) को ऑक्सीकृत कर देती है, जिसके बाद कोशिका नष्ट हो जाती है। चूँकि ओज़ोन ऑक्सीकरण के बाद ऑक्सीजन में परिवर्तित हो जाती है, इसलिये पानी में ओज़ोन के अवशेष के रूप में बचने का कोई जोखिम नहीं होता।
पराबैंगनी कीटाणुशोधन (Ultraviolet Disinfection): बैक्टीरिया को नष्ट करने की क्षमता ओज़ोन की तरह ही पराबैंगनी किरणों में भी होती है। पराबैंगनी किरणों के संपर्क में आने पर प्रकाश अभिक्रिया के चलते सूक्ष्म कीटाणुओं की कोशिकाओं के नाभिक में परिवर्तन हो जाता है। इसके चलते कोशिका का विभाजन नहीं होता, जिसके कारण नई कोशिकाएँ पैदा नहीं होती हैं। पराबैंगनी प्रकाश, पानी के स्वाद, गंध और उसके पीएच मान (pH Value) पर कोई प्रभाव नहीं डालता है। इस विधि में पराबैंगनी किरणों के अलावा किसी अन्य रसायन की आवश्यकता नहीं होती।
क्लोरीन डाइऑक्साइड कीटाणुशोधन (Chlorine Dioxide Disinfection): कीटाणुशोधन की प्रक्रिया में क्लोरीन डाइऑक्साइड बेहद उपयोगी रसायन है, क्योंकि यह अपने विशिष्ट गुणों के चलते कम मात्रा में भी काफी प्रभावी होता है। कीटाणुओं की कोशिकाओं में मौजूद कार्बनिक प्रकृति के पदार्थ क्लोरीन डाइऑक्साइड से क्रिया कर, कोशिका निर्माण की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर देते हैं, जिससे कीटाणु पनप नहीं पाते हैं। क्लोरीन डाइऑक्साइड, कीटाणुओं की कोशिका में मौजूद अमीनो अम्ल और आरएनए से सीधे क्रिया कर, प्रोटीन के उत्पादन को बाधित कर देता है। यह साधारण क्लोरीन और ओज़ोन की तुलना में ज्यादा प्रभावी भी है। क्लोरीन डाइऑक्साइड का एक अतिरिक्त लाभ यह भी है कि यह बहुत कम मात्रा में होने के बावजूद कीटाणु की कोशिका भित्ति से सीधे क्रिया करता है। यह अति सूक्ष्म जीवाणुओं को उनकी अक्रिय अवस्था में ही नष्ट कर सकता है, जबकि अन्य कीटाणुशोधकों में यह गुण नहीं होता है। कुछ परिस्थितियों में यह अधिक मात्रा में हानिकारक क्लोराइड उत्पन्न कर सकता है। अतः इसका उपयोग अपेक्षाकृत कम होता है।
जल शोधन की रिवर्स ऑस्मोसिस या उल्टी परासरण विधि (Reverse Osmosis method of Water Purification)
उल्टा परासरण या रिवर्स ऑस्मोसिस की प्रक्रिया, परासरण प्रक्रिया के विपरीत होती है। इसमें परासरण प्रक्रिया के कारण बहने वाले पानी की दिशा में परिवर्तन हो जाता है, जिसके चलते पानी अर्धपारगम्य झिल्ली से होकर अधिक सांद्रता वाले घोल से कम सांद्रता वाले घोल की ओर (From more concentration to less concentration) गति करने लगता है। ऐसा करने के लिये अधिक सांद्रता वाले भाग की ओर परासरण दाब से अधिक दाब लगाया जाता है। परिणामस्वरूप अशुद्धियाँ अर्धपारगम्य झिल्ली के एक ओर रह जाती हैं, जबकि शुद्ध पानी दूसरे हिस्से में इकट्ठा हो जाता है। रिवर्स ऑस्मोसिस विधि को समझने के लिये निम्न अवधारणाओं और तकनीकों को समझना आवश्यक है
अर्धपारगम्य झिल्ली (Semipermeable Membrane)
अर्धपारगम्य झिल्ली ऐसी जैविक या कृत्रिम झिल्ली होती है, जो अपने भीतर से छोटे अणुओं और आयनों को तो गुज़रने देती है, लेकिन बड़े अणुओं को अवरुद्ध कर देती है। उदाहरण के तौर पर, चीनी के घोल में यदि अर्धपारगम्य झिल्ली लगा दी जाए तो इससे होकर पानी के अणु तो गुज़र जाएंगे, लेकिन चीनी के अणु नहीं गुज़र सकेंगे। अर्धपारगम्य झिल्ली कृत्रिम और प्राकृतिक दोनों प्रकार की होती है। उदाहरण- सेलोफेन (Cellophane) एक कृत्रिम झिल्ली है और पार्चमेंट (Parchment) एक प्राकृतिक झिल्ली है।
परासरण या ऑस्मोसिस (Osmosis)
परासरण की प्रक्रिया ऐसे दो घोलों के बीच होती है, जिसमें घुलनशील ठोस पदार्थों या लवणों की सांद्रता अलग-अलग होती है। अगर इन दोनों घोलों को एक अर्धपारगम्य झिल्ली द्वारा पृथक् किया जाए तो पानी कम सांद्रता वाले घोल से अर्धपारगम्य झिल्ली के माध्यम से अधिक सांद्रता वाले घोल की ओर गति (From less concentrated fluid to more concentrated fluid) करता है। इस प्रक्रिया को ‘परासरण’ कहते हैं।
परासरण दाब (Osmosis Pressure)
अर्धपारगम्य झिल्ली के माध्यम से जल को कम सांद्रता वाले घोल से अधिक सांद्रता वाले घोल में जाने से रोकने हेतु लगाया गया दाब परासरण दाब (Osmotic Pressure) कहलाता है । आरओ या रिवर्स ऑस्मोसिस विधि का व्यावहारिक उपयोग (Practical uses of RO Method)
हाल के समय में रिवर्स ऑस्मोसिस विधि के आधार पर काम करने वाले आरओ (RO) संयंत्रों ने घरों में काफी लोकप्रियता हासिल की है। हालाँकि इस विधि से प्राप्त होने वाला जल काफी शुद्ध होता है, लेकिन अब इन संयंत्रों के दुष्प्रभावों के संदर्भ में भी जानकारों ने चेताया है।
आरओ विधि के लाभ (Advantages of RO system)
आरओ विधि द्वारा साफ पानी में हानिकारक लवण होने की आशंका बहुत कम हो जाती है। यह पेयजल को साफ करने का उच्चस्तरीय तरीका है।
आरओ विधि पानी को पाँच चरणों में साफ करती है और उसे गंदगी, धूल, हानिकारक लवणों आदि से मुक्त कर शुद्ध व मीठा बनाती है।
आरओ विधि से पानी से आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे विषाक्त तत्त्वों को अलग करना भी संभव हो गया है।
आरओ विधि के नुकसान (Disadvantages of RO system)
आरओ विधि पानी से कई ऐसे तत्त्वों (जैसे- कैल्शियम और मैग्नीशियम) को भी पृथक् कर देती है, जो शारीरिक और मानसिक विकास के लिये अत्यंत आवश्यक होते हैं। इस बात की पुष्टि स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भी की है।
आरओ विधि से शुद्धिकृत होने के बाद लगभग 70 फीसदी जल व्यर्थ हो जाता है। इस व्यर्थ जल में आर्सेनिक और अन्य अशुद्धियाँ मिली होती हैं, जो वापस जाकर भूमिगत जल को विषैला बना देती हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *