गर्म पकौडी : अर्थ एवं व्याख्या

गर्म पकौडी : अर्थ एवं व्याख्या

कविता में व्यंग्य का पैनापन निराला का वैशिष्ट्य है। कबीर के बाद निराला हिंदी के बड़े व्यंग्यकार-कवि के रूप में जाने जाते हैं। समकालीन राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर चुभने वाली शैली में व्यंग्य उत्पन्न करने में निराला की सफलता का प्रमाण है – गर्म पकौड़ी’। कविता की संज्ञा ही पारंपरिक रचना-मूल्यों को ठोकर लगाती है। संभवत: भारत की किसी भाषा में तेल की भुनी नमक-मिर्च मिली गर्म पकौड़ी पर यह अकेली कविता है। तीखे व्यंग्य और गंभीर अर्थ से जुड़ी इस कविता के माध्यम से समाजवाद के प्रति निराला को प्रतिबद्धता का पता चलता है। श्रमिकों और आम आदमी तथा उच्च कुल में उत्पन्न उच्च वर्ग को क्रमशः तेल की पकौड़ी और घी की पकौड़ी का दूरगामी निहितार्थ है।
कवि ने गर्म पकौड़ी को बताया है, तुम्हारे आस्वादन में मुझे किन परेशानियों से जूझना पड़ा है। तेल की भुनी नमक-मिर्च मिली गर्म पकौड़ी के आस्वाद की ललक ने ही जीभ जलने, सिसकियाँ भरने, लार टपकने के बावजूद कवि को दाढ़ के नीचे गर्म पकौड़ी को दबा रखने के लिए विवश किया है। सारी घोर असुविधाओं के बावजूद कवि ने गर्म पकौड़ी को इस तरह कौर बना रखा है, जैसे कोई कंजूस मामूली कौड़ी को भी संजोता है। कविता को समाप्त करते हुए गर्म पकौड़ी के महत्व का प्रतिपादन निराला ने विशिष्ट शैली में किया है। निराला कहते हैं कि मैंने तुम्हारे खातिर ब्राह्मण की पकाई घी की कचौड़ियाँ छोड़ दो। यहाँ कविता का व्यंग्य देखते ही बनता है। निराला की व्यंग्य-दृष्टि तथाकथित उच्च वर्ग के विरूद्ध सामानय जन को प्रतिष्ठित करने के लिए दृढ़ रूप से संकल्पित हैं। गर्म पकौड़ी के स्वाद से अनभिज्ञ लोग घी की पकौड़ी पर जान छिड़कते हैं, लेकिन कवि ने जीभ के जलने, सिसकियाँ निकलने और लार टपकने के बावजूद गर्म पकौड़ी के स्वाद से अनभिज्ञ लोग घी की पकौड़ी पर जान छिड़कते हैं। लेकिन कवि ने गर्म पकौड़ी के अनोखे स्वाद पर ब्राह्मणों की बनाई घी की कचौड़ी को छोड़ दिया। दरअसल ब्राह्मणों को जातिगर्विता पर निराला ने कई कविताओं में ठोकरें लगायी हैं। घी की कचौड़ी का तिरस्कार अभिजात्यवाद पर करारा चोट है। यही तिरस्कार कविता का केंद्रीय भाव है। व्यंग्य के साथ सपाट वर्णन और अकाव्यात्मक तनाव अनोखी संगति कविता का वैशिष्ट्य है। निराला ने विद्रोह और निषेध के अकाव्यात्मक विस्फोट के बीच भी गजब का काव्यात्मक संतुलन बना रखा है।
पारंपरिक शास्त्र निषिद्ध कर्णकटु चवर्ण वर्णों की व्यापक दृश्यावली सजाते हुए मुक्त छंद में उर्दू-बहरों जैसी छंदावली कविता में उपस्थित की गई कविता की सहजता की पहचान कराती है और दूसरी ओर अर्ध-प्रहार का कौशल दर्शाती है। पकौड़ी, तेल, मिर्च, जीभ, लार, दाढ़, कौड़ी आदि देशज शब्द निराला की व्यंग्य सर्जना के लोकोन्मुखी प्रस्थान की ओर संकेत करते हैं। कविता का कुल प्रभाव सामाजिक मूल्यों और अधिक संस्कारों के प्रति दिखलाये गए विद्रोह का है। यह परिवेश का सामन्य और महत्वपूर्ण चित्र है।
कविता की शृंगारिकता और रसिकता का महाविध्वंस इस कविता में देखने को मिलता है। यह कविता अभिजात्य रूचि, उदात्त सौंदर्य-बोध और सामाजिक मानदंडों की शीर्षता के स्थान पर कठोर यथार्थ की अनगढ़ता की स्थापना करती है।

Sujeet Jha

Editor-in-Chief at Jaankari Rakho Web Portal

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *