धर्मवीर भारती : एक परिचय

धर्मवीर भारती : एक परिचय

 धर्मवीर भारती का बचपन बहुत ही दारूण गरीबी में बीता। उनकी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई। सन् 1942 के आंदोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। फलस्वरूप एक वर्ष तक पढ़ाई रूक गई।
— एम.ए. की पढ़ाई करते समय भारती ‘अभ्युदय’ पत्रिका से जुड़ गए। सन् 1948 में ‘संगक’ नाम पत्रिका में सहयोगी संपादक हुए। फिर एक वर्ष तक हिन्दुस्तान अकादेमी में उपसचिव रहे। तत्पश्चात् प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए। सन् 1960 में ‘धर्मयुग सप्ताहिक’ जैसी अत्यंत महत्वपूर्ण पत्रिका के संपादक हुए और अवकाश-प्राप्ति तक रहे।
इलाहाबाद में रहते हुए भारती ‘परिमल’ नाम की साहित्यिक संस्था की हलचलों में भाग लेते रहे। सन् 1966 में कॉमनवेल्थ रिलेशन्स कमेटी के आमंत्रण पर ये सन् 1962 में जर्मनी तथा सन् 1966 में भारतीय दूतावास के अतिथि बनकर इंडोनेशिया तथा थाइलैंड गए। इन्हें सन् 1967 में संगीत नाटक अकादेमी का सदस्य मनोनीत किया गया। प्राणों की बाजी लगाकर इन्होंने सितम्बर 1971 में ‘मुक्तिवाहिनी’ के साथ बंगलादेश की गुप्त यात्रा की तथा ‘धर्मयुग’ के माध्यम से क्रांति का पहला आँखों देखा प्रमाणिक विवरण प्रस्तुत किया। भारत पाक युद्ध (1971) के दौरान इन्होंने थल-सेना के साथ युद्ध के वास्तविक मोर्चे के रोमांचक अनुभव प्राप्त किए। अप्रैल 1974 में मॉरीशश की यात्रा पर गए और भारतीय मूल की मारीशसीय जनता की समस्याओं का अध्ययन किया। धर्मवीर भारती स्वभाव से बहुत संकोची और बेहद कल्पना प्रिय व्यक्ति थे। उन्होंने लिखा है, “दो चीजों की बेहद प्यास है, एक तो नयी-नयी कविताओं की और दूसरे अज्ञात दिशाओं को जाती हुई लंबी निर्जन छायादार सड़कों की। डी.एच. लारेन्स, आस्कर वाइल्ड और मैक्सिम गोर्की तथा स्ट्रिट वर्ग इन्हें विशेष प्रिय हैं। प्रकृति के कवि हैं। इनकी चेतना मूलतः रोमेंटिक है। उनकी रचनाओं में व्यापकता की अपेक्षा
भारती अत्यंत संवेदनशील और भावुक गहराई ज्यादे है। उनमें प्रतिमा कल्पना एवं अनुभूति की प्रबलता है। इनकी उक्तियों में आकर्षण, सम्प्रेषण एवं द्रवण की क्षमता है।
अज्ञेय संपादित ‘दूसरा सप्तक’ में इनको कुछ श्रेष्ठ कविताएं संकलित हैं। ‘ठंडा लोहा’ इनकी प्रसिद्ध कविता है। इनकी कविता की सर्वश्रेष्ठ रचना ‘कनुप्रिया’ है। ‘कनुप्रिया’ में प्रेम का अद्भुत रूप दिखाया गया है। इतनी सुकोमल कविता हिंदी में कम लिखी गई है। ताजा बिंब एवं प्रतीक कविता का मुख्य आकर्षण है। गुनाहों का देवता, सूरज का सातवाँ घोड़ा एवं ग्यारह सपनों का देश इनके प्रसिद्ध उपन्यास की प्रेमकथा अत्यंत भावुक, रोचक और रोमांचक है। ‘नंदी प्यासी थी’ नाम से इन्होंने एक एकांकी भी लिखी। . .
इनकी अकूत प्रसिद्धि का आधार है काव्य नाटक – अंधायुग। अंधायुग महाभारत के अंतिम दिन की घटना को आधार बनाकर लिखा गया काव्य-नाटक है। युद्ध की विभीषिका का भयावह रेखांकन नाटक का उद्देश्य है। आधुनिक हिंदी नाटक के इतिहास में अंधायुग मील का पाथर साबित हुआ। नाट्य शैली की दृष्टि से भी अंधायुग अपूर्व नाटक है। कृष्ण नाटक के नायक हैं किंतु मंच पर उनका पदार्पण नहीं होता है।
द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम के प्रहार ने इन दोनों शहरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इस तरह के अमानवीय युद्ध की कटु आलोचना नाटक का वैशिष्ट्य है। जब अश्वात्थामा पूरे पांडव वंश को समाप्त करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना चाहते हैं तब व्यास उन्हें रोकते हुए जो कहते हैं, वह आधुनिक युद्ध की विभीषिका को ही रेखांकित करता है
‘ज्ञात क्या तुम्हें है परिणाम इस ब्रह्मास्त्र का 
अगर यह लक्ष्य सिद्ध हुआ तो
नरपशु 
आनेवाली सदियों में
पृथ्वी पर रसमय वनस्पति नहीं होगी 
बच्चे पैदा होंगे विकलांग और कुंठाग्रस्त 
जो कुछ भी ज्ञान संचित किया है, इस मनुष्य ने सतयुग में, त्रेता में, द्वापर में 
सदा-सदा के लिए होगा विलीन वह
 गेहूँ की बालों में सर्प फुफकारेंगे
 नदियों में बहकर आएगी पिघली आग
नराधम.
अगर यह लक्ष्य सिद्ध हुआ तो
 सूरज बुझ जाएगा
धरती बंजर हो जाएगी।” 
इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारती जी की प्रतिभा बहुमुखी थी। एक अच्छे संपादक, एक अच्छा उपन्यासकार, एक अच्छा कवि एवं एक अच्छे नाटककार के रूप में उनकी पहचान असंदिग्ध है।
 साँझ का बादल : कथ्य एवं भाव
धर्मवीर भारती की रोमानी प्रकृति उनकी कविता ‘साँझ का बादल’ में भी देखी जा सकती है। उनकी कविताओं में प्रणयानुभूति एवं सौंदर्यानुभूति का सुंदर सामंजस्य हुआ है। शृंगार के दोनों पक्षों, यथा संयोग एवं वियोग के रेखांकन में कवि को पूरी सफलता मिली है। जहाँ सौंदर्य और प्रेम हो वहाँ भला प्रकृति उदास कैसे रह सकती है। उक्त कविता में प्रकृति सौंदर्य भी देखने लायक है। छायावादी जिज्ञासा एवं कौतुहल का भाव भी यहाँ हम देख सकते हैं।
कवि संध्या के नीरव वातावरण में नाव चलने का रम्य वर्णन करते हुए लिखते हैं कि जिस नदी में बादलों की नाव चल रही हैं, वह कोई प्रसिद्ध नदी नहीं है, लेकिन नाव को नदी की प्रसिद्धि से क्या लेना-देना? यह क्षण इतना रोचक है कि जादू-सा सम्मोहक लग रहा है। मंथर-मंथर गति से चलती नाव, अपनी पालें हिलाती-डुलाती मजे में चली जा रही है। संध्या-काल में आकाश की नीलिमा पर किरणें किसी-बड़े नीलम पर पड़ती हुई धूप की तरह बिखरी है। ऐसे जलरंगों में किसी डोरी या किसी मांझी के बिना चल रही यह बादलों की नौकाएं इस तरह रंग बदलती है कि बार-बार अस्ताचल गामी सूर्य की गहराती लाली कभी सिंदूर का पुंज उभार देती है तो कभी मूंगा के ढेर।
दृश्यावलियों का स्मृति के साथ पुराना रिश्ता है। स्मृतियाँ जब आती है तो यह कहना कठिन है कि दूर की स्मृतियाँ हैं या निकट की। स्मृतियाँ कई तरह की होती हैं, कुछ अच्छी कुछ बुरी। कवि को भी कई तरह की स्मृतियाँ आ रही हैं। उनमें कुछ समीप की हैं, कुछ बहुत दूर की हैं, कुछ चंदन-सा सुगंधित, कुछ कपूर-सा क्षणिक। जहाँ ये रंग उन स्मृतियों के वाहक हैं, वहीं मनोवस्थाओं के प्रतीक विरागपूर्ण गेरू, राग-रंजित रेशम और उलझनों के जाल के अर्थ संकेतों का विन्यास भी मिलता है। स्पष्ट है कि इन्हीं अर्थ- छवियों से आकाश की नीलिमा समय की अनजान नदी हो गयी है और उसमें धीमे चलते बादलों की नौकाएं मनोवस्थाओं की स्मृतियों का प्रतीक हैं।
 कवि और कल्पना : भावार्थ
कविता और कल्पना का संबंध अभिन्न है। वगैर कल्पना के अच्छी कविता लिखी ही नहीं जा सकती। कवि की कल्पना जब उदास होती है तो स्वभावतः दुख की कविता फूटती है। जब कल्पना उत्साह और उमंग में होती है तो कविता भी उत्साह की लिखी जाती है। ‘कवि और कल्पना’ में कवि ने अपनी कल्पना को उदासिनी कहा है। इस ‘उदास’ का कारण और कुछ नहीं देश की परतंत्रता है। परतंत्र देश के कवि की कल्पना भला स्वतंत्र कैसे हो सकती है। लेकिन कवि गुलामी की जंजीरो को तोड़ स्वतंत्र कल्पना करना चाहता है। इस तरह यह कविता रोमेंटिक भाव-बोध का अतिक्रमण कर राष्ट्रीय चेतना की कविता बन जाती है।
कवि कहते हैं कि निराश और हताश चक्षु का प्रणय- संदेश से जाने वाले मेघदूत के रूप में कवि कालिदास की कल्पना की उस समय ‘उदास’ रूप में रही होगी। यह उदास कल्पना स्वप्न में सने हुए मृणाल तंतुओं से बने किसी सत्य के रहस्य गीत गाना चाहती है। आज तक कवि ने अपनी कल्पना को इतने उदास रूप में नहीं देख पाया था। कवि को अपनी कल्पना की उदासी सफेद बर्फ पर बिछी मलिन और खिन्न धून जैसी लग रही है। कवि अपने खोए हुए गीत को पाना चाहता है, सोए हुए छंद को जगाना चाहता है, अपने अंदर के संगीत को और स्वर को उभारना चाहता है।
कवि को इस उंदासी का कारण गुलामी प्रतीत होती है। उसकी आँखें उदास हैं, आँखों के कोर से आंसू छलछला आते हैं। भारत माँ की गुलामी की जंजीर उसे चैन लेने नहीं देता। कवि कहता है कि गुलाम कल्पना से स्वतंत्र कविता रच पाना संभव नहीं। ओस की बूंदों से जिस तरह प्यास नहीं बुझायी जा सकती उसी तरह गुलाम कल्पना से विजय के गीत नहीं रचे जा सकते। आगे कवि कहते हैं कि बाग में जितने युवा और खिले-खिले फूल थे, सब झड़ गए हैं, युवाओं के ओठों पर तैरने वाले गीत मर गए। गुलाम देश में युवाओं की लाश पर शोक के आंसू ही बहाये जा सकते हैं।
गुलाम देश के लोग अपनी इच्छा और मर्जी से न रो सकते हैं, न हँस सकते हैं और न ही गीत रच सकते हैं। यहाँ तो मनुष्य को मनुष्य का दर्जा भी देना गुनाह माना जाता है। कंवि की कल्पना तो उदासीनी हो गयी है। किंतु कवि को उम्मीद है युवाओं के नवीन स्वर से। कवि ऐसे नवीन स्वर, आजादी के गीत, उसके बुलंद नारे सुनने की आह्वान कर रहा है। कवि कहता है कि युवा कवियों का समूह अति उत्साह में है, उमंग में है, आजादी की जोश में है, हमें उनकी आवाज सुननी चाहिए। कवि को लगता है कि इन नए स्वरों से गुलामी की बेड़ियों को झंझोड़ा जा सकता है। स्वतंत्रता की ज्वाला इन स्वरों से फूट सकती है। विनाश से डरने की आवश्यकता नहीं है, सृष्टि के लिए विनाश भी आवश्यक होता है।
प्रस्तुत कविता में कवि की देशभक्ति स्पष्ट है । वह आजाद होने के लिए सभी तरह के संघर्ष और उसकी चुनौतियों को स्वीकार करने का साहस उठाने को तत्पर है। किसी भी कीमत पर स्वतंत्रता हासिल करने की चाहत इस कविता का मुख्य स्वर है।

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