जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास को स्पष्ट कीजिये ।

जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास को स्पष्ट कीजिये ।

उत्तर— जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास (Jean Piaget’s Theory of Cognitive Development ) — जीन पियाजे को ‘विकासात्मक मनोविज्ञान’ का प्रेरक माना जाता है। पियाजे ने संज्ञानात्मकता पर बल दिया और ‘संज्ञानवादी विकास सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया । उन्होंने मानसिक विकास की अवस्था को ही संज्ञानात्मक विकास कहा है। संज्ञानात्मक विकास में बुद्धि, चिन्तन और भाषा का परिवर्तन सम्मिलित है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया में संवेदना, तर्क शक्ति, प्रत्यक्षीकरण, चिन्तन, समस्या-समाधान जैसे तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं। पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त से सम्बन्धित निम्न चार पक्षों का अध्ययन किया—
(1) जैविक या शारीरिक परिपक्वता (Biological or Physical Maturation)— यह सिद्धान्त जैविक प्रेरकों एवं परिपक्वता से सम्बन्धित हैं। इसके अनुसार बालक का व्यवहार भूख, प्यास जैसे प्रेरकों से प्रभावित होता है। व्यक्ति का व्यवहार परिपक्वता से ही निरूपित होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपरिपक्व व्यक्ति वांछित व्यवहार नहीं कर सकता।
(2) भौतिक वातावरण के साथ अनुभव (Experience of Physical Environment)– बालक के अधिगम में उसकी ज्ञानेन्द्रियों का बहुत बड़ा योगदान होता है । भौतिक पर्यावरण एवं अभौतिक अनुभवों के मध्य तार्किक सम्बन्ध पाया जाता है। पियाजे के अनुसार, भौतिक वातावरण अधिगम में सहायक है। भौतिक वातावरण के तीन पक्ष होते हैं— अभ्यास, भौतिक अनुभव एवं तार्किक गणितीय अनुभव।
(3) सामाजिक वातावरण से अनुभव (Experience of Social Environment)– मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह सामाजिक सदस्य के रूप में विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ करता है। सामाजिक वातावरण में सामाजिक क्रियायें, सहयोग, प्रतिस्पर्धा, परम्परा एवं लोकाचार जैसे विभिन्न पक्ष सम्मिलित होते हैं। इन पक्षों से प्राप्त अनुभव अधिगम में सहायक होते हैं। पियाजे ने सामाजिक अनुभव को सीखने के लिए भाषा के समाजीकरण को आधार माना है।
(4) संतुलन (Balance)– पियाजे ने विकास के सभी पक्षों का विधिवत विश्लेषण करने के बाद बताया कि अधिगम के लिए सभी सिद्धान्तों में समन्वय होना जरूरी है। पियाजे के अनुसार, प्रत्येक विषय में तथ्यों की एक संरचना होती है। सीखने के लिए इस संरचना में संतुलन की आवश्यकता होती है। अधिगम के दौरान जब बालक समस्याओं के साथ व्यवस्थापन करता है तो उसका बौद्धिक विकास परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है, यही संतुलन की अवस्था होती है। इस प्रक्रिया में आत्मीकरण, समायोजन एवं अनुकूलन का अहम योगदान होता है।
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