युवा असंतोष को स्पष्ट कीजिए।

युवा असंतोष को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर— युवा असंतोष — वस्तुतः आज सम्पूर्ण विश्व की एक गम्भीर समस्या युवा असंतोष की है। आज युवा पीढ़ी जीवन के विविध संदर्भों में अपनी अनियमितता, अनैतिकता और दुर्व्यवहारों से अपने से श्रेष्ठ लोगों को त्रस्त करना अपने लिये प्रतिष्ठा की बात समझने लगी है। आज युवा असंतोष केवल शैक्षिक माँगों तक ही सीमित नहीं है वरन् दूसरों की सहानुभूति में इसने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
बढ़ती हुई प्रतिस्पर्द्धा, उचित अवसरों की कमी, शैक्षणिक दबाव, भविष्य की चिन्ता आदि कारणों के परिणामस्वरूप वर्तमान का युवा असंतोष की समस्या से ग्रसित है । जिसके कारण कई बार वह विभिन्न विघटनकारी प्रवृत्तियों की ओर अग्रसर हो जाता है।
युवा असंतोष के कारण – हुमायूँ कबीर ने युवा के बढ़ते हुए असंतोष एवं अनुशासनहीनता के निम्नलिखित कारण बताये हैं—
(1) शिक्षकों द्वारा सम्मान और प्रतिष्ठा खोना — आज युवा में जो अनुशासनहीनता पायी जाती है, उसका प्रमुख कारण शिक्षकों द्वारा सम्मान खो देना है। आज का शिक्षक वर्ग अपने छात्रों से उतना सम्मान और श्रद्धा प्राप्त नहीं कर पाता जितना अतीत में पाता था। इसके लिए अकेले उनको ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, वरन् इसके लिए बहुत-से महत्त्वपूर्ण तथ्यों ने भाग लिया है जो कि निम्नलिखित हैं—
(i) स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न राष्ट्रीय नेताओं ने छात्रों की भावनाओं को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया और उन्हें उसमें सक्रिय भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। परन्तु शिक्षक वर्ग बहुत से कारणों की वजह से इस संघर्ष में सक्रिय भाग नहीं ले सका था । इसके परिणामस्वरूप उन्होंने छात्रों की भक्ति एवं सम्मान को कुछ सीमा तक खो दिया।
(ii) शैक्षिक सुविधाओं के प्रकार की माँग ने शिक्षकों की प्रतिष्ठा को कम करने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। शिक्षा की सुविधाएँ प्रदान करने के लिए अधिक शिक्षकों की आवश्यकता हुई । इस आवश्यकता से इस व्यवसाय के द्वारा उन लोगों के लिए भी खुल गये जो कि योग्य नहीं थे। दूसरे, विद्यालयों में बालकों की संख्या में वृद्धि हो जाने के कारण शिक्षकों एवं उनके बीच व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क स्थापित होना कठिन हो गया। अतीत में इन सम्पर्कों ने शिक्षकों को छात्रों की भक्ति एवं श्रद्धा को प्राप्त करने में बहुत सहायता दी थी । परन्तु इन नवीन परिस्थितियों में अयोग्य शिक्षक व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करने की कम सुविधाओं के कारण छात्रों के आदर और सम्मान को प्राप्त नहीं कर सके ।
(iii) परीक्षाओं पर अधिक बल दिए जाने के कारण शिक्षक छात्रों को परीक्षाओं के हेतु तैयार करने वाले एजेण्ट बन गये हैं। इन तथ्यों ने भी उनकी प्रतिष्ठा को कम कर दिया है ।
(iv) प्राय: शिक्षक प्राइवेट ट्यूशन पर अधिक बल देते हैं । वे विद्यालयों में अपने कार्यों की ओर सजग न रहकर व्यक्तिगत ट्यूशनों की ओर अधिक ध्यान देते हैं । इस तथ्य ने शिक्षकों के नेतृत्व को कम करने में पर्याप्त रूप से योग दिया है ।
(v) गत 30 वर्षों में हम विद्यमान शिक्षा पद्धति की आलोचना सुनते आ रहे हैं। आलोचना धीरे-धीरे शिक्षक तक पहुँची अर्थात् उसका एक अंग होने के नाते शिक्षक की भी आलोचना की गई । इस आलोचना के परिणामस्वरूप लोगों के मस्तिष्क में इस व्यवसाय के लिए सम्मान न रहा।
(vi) शिक्षक का सामाजिक स्तर पर्याप्त रूप से भिन्न है । इसके लिए कुछ अंश तक तो उपर्युक्त कारण उत्तरदायी हैं परन्तु उनके सामाजिक स्तर के निम्न होने का प्रमुख कारण उनकी निम्न आर्थिक स्थिति है ।
(2) दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति – शिक्षा पद्धति के दोषों का भी बालकों में अनुशासनहीनता उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भाग है। दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति ने बालकों में पर्याप्त मात्रा में असन्तोष एवं नैराश्य उत्पन्न किया । यहाँ उन प्रमुख दोषों का उल्लेख किया जा रहा है जो कि छात्रों में अनुशासनहीनता उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं—
(i) वर्तमान शिक्षा-पद्धति अधिक सैद्धान्तिक एवं शास्त्रीय है । इसका प्रमुख उद्देश्य केवल क्लर्क उत्पन्न करना है। इसके द्वारा ज्ञानेन्द्रियाँ एवं शारीरिक क्षमताओं के विकास की अवहेलना की जाती है यह चरित्र एवं नैतिक मूल्यों के विकास के प्रति कोई ध्यान नहीं देती है। ।
(ii) इसमें परीक्षाओं पर अधिक बल दिया जाता है । वस्तुतः परीक्षाएँ साध्य बन गयी हैं। बालक केवल परीक्षा पास करने के लिए पढ़ते हैं और शिक्षक भी परीक्षा पास कराने के हेतु पढ़ाते हैं। इसका दुष्परिणाम विभिन्न प्रकार की अनैतिकता में प्रकट होता
(iii) छात्रों में अनुशासनहीनता की वृद्धि में शिक्षा-पद्धति के अधिकारिक चरित्र ने बड़ा योग दिया है। लोकतंत्रीय समाज के होते हुए भी विद्यालय में अभी तानाशाही दृष्टिकोण को अपनाया जाता है । इस दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप बालकों में अविवेकी आज्ञाकारिता की अपेक्षा की जाती है। यह स्थिति उनको अनुशासनहीन बनाने में सहायता प्रदान करती है।
(3) आर्थिक कठिनाइयाँ – आर्थिक कठिनाइयों ने भी अनुशासहीनता की वृद्धि में पर्याप्त सहयोग दिया है। जब अंग्रेज भारत छोड़कर चले गये, तब देश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने इसको अच्छा बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाये। परन्तु जनसंख्या की वृद्धि ने स्थिति को सुधारने में बहुत सी कठिनाइयाँ उत्पन्न कीं। इस आर्थिक स्थिति ने छात्र- समाज को भी प्रभावित किया। शैक्षिक सुविधाओं के विस्तार के परिणामस्वरूप विद्यालयों में विभिन्न सामाजिक वर्गों के बालक शिक्षा प्राप्त करने के लिए आये। उनमें ऐसे वर्गों के बालक भी आते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। इसके परिणामस्वरूप बहुत से बालकों को अपने छात्र जीवन में धनाभाव के कारण नैराश्य एवं असन्तोष का सामना करना पड़ता है।
(4) आदर्शों का अभाव – गरीबी के लगातार दबाव ने मनुष्य की उत्तम भावनाओं को नष्ट करने में सहयोग दिया। इस आर्थिक असन्तोष के दुष्प्रभावों तथा अन्य तत्त्वों के कारण आदर्शों एवं मूल्यों के प्रति अवहेलना प्रारम्भ हो गई। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् भौतिकवादी दृष्टिकोण का अधिकाधिक प्रसार हुआ जिसके परिणामस्वरूप व्यक्तिगत एवं सामाजिक नैतिक स्तर गिरता चला गया और मनुष्यों के समस्त प्रयास अधिक-से-अधिक धन कमाने में लगने लगे। इस प्रकार उसका मुख्य ध्येय कमाना ही हो गया, चाहे उसके लिए उचित साधन प्रयोग में लाये जायें या नहीं। इस भौतिकवादी दृष्टिकोण ने मनुष्यों को आध्यात्मिक मूल्यों को तिलांजलि देने के लिए विवश किया और समाज में द्वेष, ईर्ष्या, कलह, शोषण, बेईमानी आदि बीमारियों का प्रसार बड़ी तीव्र गति से हुआ। समाज में प्रचलित इन कुरीतियों का प्रभाव छात्रों पर पड़ा ।
(5) शिक्षकों तथा छात्रों में पारस्परिक सम्पर्क का अभाव – विद्यालय तथा कक्षाओं में छात्रों की संख्या वृद्धि ने अनुशासनहीनता की समस्या को जन्म देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। अनियंत्रित भीड़ का प्रमुख कारण शिक्षा का असंतुलित प्रसार है। शासन तथा समाज द्वारा उसके अनुपात में नवीन विद्यालयों की स्थापना नहीं हुई। अधिकांश छात्रों को प्रचलित विद्यालयों में ही समायोजित करने का प्रयास किया। जिसके फलस्वरूप धन कमाने की प्रवृत्ति को जन्म मिला । साथ ही शिक्षक-छात्र अनुपात बढ़ गया जिसके कारण शिक्षकों तथा छात्रों में पारस्परिक सम्पर्क का अभाव हो गया ।
(6) विद्यालय – अधिकारियों द्वारा छात्रों की समस्याओं के प्रति उदासीनता — विद्यालय अधिकारियों द्वारा छात्रों की समस्याओं की ओर ध्यान न देने के फलस्वरूप छात्र अपनी माँगों को स्वीकार कराने तथा समस्याओं के समाधान के लिये प्रदर्शन, हड़ताल, तोड-फोड़ आदि का सहारा लेते हैं । विभिन्न प्रकार की उद्दण्ड कार्यवाहियों के माध्यम से विद्यालय – अधिकारियों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं ।
(7) शिक्षित वर्ग की बेकारी – समाज में बढ़ती आर्थिक विषमताएँ शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती संख्या तथा महँगाई से त्रस्त जीवन के कारण छात्रों में असंतोष की भावना का जन्म होता है। बढ़ती बेरोजगारी ने छात्रों में यह भावना पैदा कर दी है कि पढ़ने के बाद उन्हें कोई रोजगार नहीं मिल पायेगा । अतः वे समय को काटने के लिये एक एम. ए. के बाद दूसरे विषय में एम. ए. करने लगते हैं। इस अविश्वास एवं अनिश्चितता ने उनमें अशान्ति उत्पन्न कर दी है।
(8) घर तथा समाज का दूषित वातावरण – घर तथा समाज का दूषित वातावरण भी छात्रों में अनुशासनहीनता की वृद्धि के लिये पर्याप्त मात्रा में सहायक है। हमारे असहानुभूतिपूर्ण घर बालकों में अपराधी प्रवृत्ति के विकास के लिये पर्याप्त मात्रा में उत्तरदायी हैं। इसके अतिरिक्त हमारे समाज का कलह, ईर्ष्या एवं द्वेषपूर्ण वातावरण भी छात्रों में दूषित भावनाओं के विकास में सहायक है। आज हमारी विधानसभाओं तथा संसद में कितना अशोभनीय व्यवहार एवं प्रदर्शन किया जाता है। उसका प्रतिध्वनित व्यवहार छात्रों द्वारा भी शिक्षा संस्थाओं में किया जाने लगा है।
(9) दूषित राजनीति का प्रभाव – आज भारतीय राजनीति का अपराधीकरण हो गया है। इसका दुष्प्रभाव सरस्वती के मन्दिरों में भी देखने को मिल रहा है। राजनीतिक दलों ने छात्रों को अपनी स्वार्थ सिद्धि का महत्त्वपूर्ण साधन बना लिया है। ये दल उनका उपयोग अपनी इच्छानुसार कर रहे हैं। अतः इन्होंने सरस्वती के मन्दिरों को अपराधी बनाने वाले कारखानों में परिवर्तित कर दिया है।
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