ज्ञान प्राप्ति के स्रोत के रूप में विद्यालय के कार्य व महत्त्व को बताइये ।

ज्ञान प्राप्ति के स्रोत के रूप में विद्यालय के कार्य व महत्त्व को बताइये । 

उत्तर— ज्ञान प्राप्ति के स्रोत के रूप में विद्यालय के कार्य व महत्त्व—
(1) सामाजिक कौशल में विकास–स्कूल को समस्त सामाजिक गुणों का स्रोत कहा जाता है। यह केवल समाज का दर्पण ही नहीं बल्कि समाज के लिए उचित आदर्शों को भी स्थापित करता है। यह अधिकारों और कर्त्तव्यों की सन्तुलित भावना को निर्माण करके सामाजिक कौशल को विकसित करता है। और प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणाली में प्रभावशाली ढंग से भाग लेने का प्रशिक्षण प्रदान करता है।
(2) उच्चतर मूल्यों का निर्माण–विद्यार्थियों में जीवन के उच्चतर मूल्यों का निर्माण करना स्कूल का एक और महत्त्वपूर्ण काम हैं। स्कूल विद्यार्थियों में नैतिकता का विकास करता है ताकि वे ठीक और गलत या अच्छे और बुरे में भेद कर सकें। स्कूलों द्वारा ही सत्य, शिव, सुन्दर की सच्ची भावना का विकास किया जा सकता है। नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के बिना संसार को विनाशकारी युद्धों से बचाना असम्भव हैं । स्कूल तभी धन्य हो सकता है जब वह उच्चतर नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का निर्माण का प्रयत्न करें ।
(3) व्यक्ति का पूर्ण विकास–स्कूल व्यक्ति के पूर्ण विकास शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक, सामाजिक, सौन्दर्यात्मक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए होता है। स्कूल की पाठ्य-क्रियाओं तथा सहायक-पाठ्यक्रियाओं जैसे तर्क-वितर्क, वाकप्रतियोगिता, यात्राएँ, भ्रमण प्रदर्शनियाँ, विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेलों आदि के द्वारा व्यक्ति के सर्वतोन्मुखी विकास में सहायता की जा सकती है।
(4) स्कूल के पश्चात् अनुकूलन–ब्राउन के शब्दों में, बच्चे को स्कूलीत्तर जीवन के अनुकूल तैयार करना स्कूल का सीधा दायित्व हैं। स्कूल को ऐसे नागरिक पैदा करना चाहिए जो शारीरिक रूप से योग्य कों, बौद्धिक रूप से जागृत हों, भावात्मक रूप से सन्तुलित हों, व्यावसायिक रूप से कुशल हों, और सामाजिक रूप से सुव्यवस्थित हों। स्कूलोत्तर अनुकूलन व्यक्ति और समाज दोनों के कल्याण के लिए आवश्यक हैं।
(5) व्यावसायिक प्रशिक्षण–व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करना स्कूल का एक और महत्त्वपूर्ण कार्य है। जॉन डीवी के कथनानुसार, “जीवन का निर्माण करने वाले व्यवसायों को विधिपूर्वक सीखने के लिए हम बच्चों को स्कूल भेजते हैं। स्कूल को व्यक्ति की आवश्यकताओं, योग्यताओं तथा रुचियों के अनुकूल व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए। समाज की आवश्यकताओं और प्रवृत्तियों की ओर भी ध्यान देना चाहिए । व्यावसायिक प्रशिक्षण द्वारा स्कूलोत्तर अनुकूलन में महत्त्वपूर्ण सुविधा प्राप्त हो सकती है। “
(6) संस्कृति का संचारण एवं संवर्धन–स्कूल सांस्कृतिक परम्पराओं का संरक्षक है। यह विद्यार्थियों में समाज के सांस्कृतिक मूल्यों का संचारण करता है । इसके अतिरिक्त यह मानव अनुभूतियों के निरन्तर पुनर्गठन एवं पुननिर्माण के द्वारा संस्कृति संवर्धन तथा संशोधन में सहायता प्रदान करता है। अतः यह अपेक्षाकृत अच्छे और प्रसन्न समाज के निर्माण में सहायक सिद्ध होता है।
(7) नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण–स्कूल को नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण भी प्रदान करना चाहिए । एक देश तभी उन्नति कर सकता है जब उसके पास सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, कलात्मक, औद्योगिक, नैतिक, धार्मिक और राजनैतिक क्षेत्रों योग्य नेता हों । शिक्षा संस्थान ऐसे नेता उत्पन्न कर सकते हैं । अतः स्कूल अथवा कॉलेज का यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य है कि वह विभिन्न क्षेत्रों के लिए योग्य नेताओं का निर्माण करें और कुशलतापूर्वक अपना कर्त्तव्य निभाने के लिए प्रशिक्षित करें । यह तभी हो सकता हैं जब शिक्षा संस्थानों में विभिन्न प्रकार की सहायक पाठ्यक्रियाओं की व्यवस्था हो और विद्यार्थियों को उन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाये ।
(8) माता-पिता की शिक्षा–माता-पिता को शिक्षित करना भी स्कूल का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है ताकि वे अपने घरों की अच्छी प्रकार की व्यवस्था कर सकें । स्कूल का कार्य तब तक अधूरा रहेगा जब तक घरों में बच्चों के शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक, सामाजिक एवं नैतिक विकास के लिए उपयोगी वातावरण की व्यवस्था नहीं होती ।
(9) राष्ट्रीय एकता का विकास करना–आजकल प्रांतवाद, जात-पात, भाषावाद, साम्प्रदायिकता आदि विघटनात्मक शक्तियाँ देश को पूर्ण विघटन की ओर ले जा रही हैं। यदि देश को खण्डित होने से बचाना है तो सभी नर-नारियों में राष्ट्रीय एकता की भावना को विकसित करना होगा। राष्ट्रीय एकता को विकसित करना स्कूल का कर्त्तव्य है।
(10) अन्तर्राष्ट्रीयता को विकसित करना–विद्यार्थियों में अन्तर्राष्ट्रीय भावना को विकसित करना भी स्कूल का एक महत्त्वपूर्ण कार्य हैं। अन्तर्राष्ट्रीय भावना का अर्थ है मानवीय अधिकारों एवं महत्ता का आदर करना, अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग तथा एक दूसरे के साथ शान्तिपूर्ण ढंग से रहना। भारत के समकालीन शिक्षा विशारदों श्री अरविन्द, टैगोर एवं विवेकानन्द ने विद्यार्थियों में अन्तर्राष्ट्रीय भावना को पैदा करने के महत्त्व पर बल दिया है।
(11) शिक्षा के विभिन्न साधनों में ताल-मेल स्थापित करना–यदि स्कूल को वर्तमान युग में अपने कार्य सफलतापूर्वक करने हैं तो उसे एक ओर परिवार के साथ और दूसरी ओर राज्य एवं सरकार के साथ सम्बन्ध स्थापित करने होंगे। दोनों का पूर्ण रूप से समर्थन एवं सहयोग प्राप्त करना होगा।
थामसन के अनुसार स्कूल के कार्य–थामसन के अनुसार स्कूल के निम्नलिखित कार्य हैं—
(1) बौद्धिक प्रशिक्षण
(2) चारित्रिक प्रशिक्षण
(3) सामूहिक जीवन का प्रशिक्षण
(4) राष्ट्रीय गौरव तथा देशभक्ति का प्रशिक्षण
(5) स्वास्थ्य एवं स्वच्छता का प्रशिक्षण
संक्षेप में हर प्रकार का प्रशिक्षण प्रदान करना स्कूल का काम है। जैसे शारीरिक प्रशिक्षण, नागरिक प्रशिक्षण, चारित्रिक प्रशिक्षण, सांस्कृतिक प्रशिक्षण, व्यावसायिक प्रशिक्षण, नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण, राष्ट्रीय एकता तथा अन्तर्राष्ट्रीय भावना के लिए प्रशिक्षण ।
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