पादपों की आकारिकी एवं शारीरिकी (Morphology and Physiology of Plants)

पादपों की आकारिकी एवं शारीरिकी (Morphology and Physiology of Plants)

पादपों की आकारिकी एवं शारीरिकी (Morphology and Physiology of Plants)

पादप आकारिकी (Plant Morphology)
‘आकारिकी’ (Morphology) जीव विज्ञान की वह शाखा है, जिसमें पादपों की बाह्य आकृति तथा उसके विभिन्न प्रकारों का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण जड़, तना, पत्ती, पुष्प एवं फल ।
पादप विविधता (Plant Diversity)
पादप अपने आकार, प्रकार, आकृति, जीवनकाल, व्यवहार, स्थान, पोषण. आदि में अधिक विविधता दर्शाते हैं।
शाकाएँ (Herbs ये छोटे पादप होते हैं, जिनका तना मुलायम होता है तथा ये सामान्यतया दो मीटर से कम लम्बाई के होते हैं। उदाहरण गेहूँ, हेनबेन, कन्ना, आदि।
झाड़ (Shrub)  ये वार्षिक पादप होते हैं, जो मध्यम ऊँचाई के लकड़ी वाले तने के होते हैं। इन्हें बुशिस (bushes) भी कहते हैं। उदाहरण कप्पारिस, जैसमीन, गुलाब, आदि ।
पेड़ (Trees) ये अधिक ऊँचाई वाले, मोटे लकड़ी वाले तने वाले पेड़ होते हैं, जिनके तनों को ट्रंक (trunk) कहते हैं। उदाहरण पाम, पाइनस, नीलगिरी, डलबर्जिया, बरगद, आदि।
ट्रेलर्स (Trailers) ये भूमि पर बिना जड़ों के फैले रहते हैं। उदाहरण ट्रिबुलुस, यूफोर्बिया, आदि।
विसर्पी पादप (Creepers plant) इनमें अन्तराल के बाद जड़ पाई जाती हैं। उदाहरण घास |
रस्सीदार पादप (Twiners plant) इनमें तना मुलायम होता है तथा वह आधार पर रस्सी जैसा लिपटा होता है। उदाहरण आइपोमिया
आरोही पादप (Climbers plant) ये अपने आधार पर लिपटकर ऊपर की ओर बढ़ते हैं। उदाहरण ग्रेपवाइन ।
अधोपादप (Epiphytes) ये पादप जगह हेतु दूसरे पादप पर उगते हैं। उदाहरण वेन्डा।
पादप के विभिन्न भाग (Different Parts of the Plant) 
पुष्पीय पादपों में एक लम्बी बेलनाकार अक्ष होती है, जो भूमिगत जड़ तथा हवा में पाए जाने वाले तने में विभेदित होती है। जड़ तन्त्र में जड़ें तथा उनकी शाखाएँ होती हैं तथा तना तन्त्र में तनें, शाखाएँ व पत्तियाँ होती हैं। जड़, तने तथा पत्तियाँ पादप के कायिक अंग (vegetative organs) होते हैं, जबकि पुष्पीय पादपों में वृद्धि के पश्चात् फूल, फल तथा बीज बनते हैं, जिन्हें प्रजनन अंग (reproductive organs) कहते हैं ।
◆ इस अध्याय में हम पादप के सिर्फ कायिक अंगों का अध्ययन करेंगे तथा प्रजनन अंगों का अध्ययन इसी पुस्तक के ‘प्रजनन’ नामक अध्याय में करेंगे।
जड़ (Root)
पौधे का वह भाग, जो भ्रूण के मूलांकुर (radicle) से विकसित होता है, जड़ कहलाता है। जड़ सामान्यतया भूमिगत होती है। इसका मुख्य कार्य पादपों को भूमि पर स्थिर रखना तथा भूमि से जल व खनिज लवणों का अवशोषण करना है। यह प्रकाश के विपरीत तथा भूमि की तरफ बढ़ती है।
जड़ों के विशिष्ट लक्षण (Characteristics of Roots)
(i) जड़ें प्रकाश से दूर (negatively phototrophic) तथा भूमि की आकर्षण शक्ति की ओर (positively geotropic) जाती है।
(ii) जड़ों में पर्णहरिम नहीं पाया जाता है, इसलिए इनका रंग भूरा होता है।
(iii) जड़ों के शीर्ष पर एक टोपीनुमा संरचना मूल गोप (root cap) पाई जाती है।
(iv) जड़ों के शीर्ष पर एककोशिकीय लम्बी पतली संरचनाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें मूल रोम (root hairs) कहते हैं।
(v) जड़ों पर पर्व (nodes) व पर्वसन्धियाँ (internodes) नहीं पाई जाती हैं।
पादपों के जड़ तन्त्र (Root System of Plants) 
पादपों के साधारणतया दो प्रकार के जड़ तन्त्र होते हैं, जो निम्नलिखित हैं
1. अपस्थानिक जड़ें (Adventitious Roots)
इस प्रकार की जड़ें एकबीजपत्री पादपों में पाई जाती हैं। इन पादपों में मूलांकुर अंकुरण के बाद शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। इनमें प्राथमिक जड़ बहुत ही अकाल्पनिक होती है। बाद में पादपों के किसी अन्य स्थान जैसे तने की निचली पर्वों से जड़ें उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार की जड़ों के समूह को रेशेदार जड़ तन्त्र (fibrous root system) कहते हैं।
अपस्थानिक जड़ों के रूपान्तरण (Modifications of Adventitious Roots) अपस्थानिक जड़ें भोजन संग्रह तथा यांत्रिक सहारा देने के लिए विभिन्न प्रकारों में रूपान्तरित होती हैं
(i) कन्दिल जड़ें (Tuberous Roots) उदाहरण शकरकन्द (Ipomoea batatas)।
(ii) कन्दगुच्छ या पुलिकित जड़ें (Fasciculated Roots) उदाहरण डहेलिया (Dahlia), सतावर (Asparagus)
(iii) हथेलीमय कन्दिल जड़ें (Palmate Tuberous Roots) उदाहरण ऑर्किड, आदि ।
(iv) ग्रन्थिल जड़ें (Nodulose Roots) उदाहरण आमाहल्दी (Curcuma amada)।
(v) वलयाकार जड़ें (Annular Roots) उदाहरण साइकोर्टिया (Psychortia)।
(vi) तन्तुमय जड़ें (Fibrous Roots ) उदाहरण गेहूँ, मक्का, घास, आदि ।
2. मूसला जड़ तन्त्र (Tap Root System) 
इन जड़ों में मूलांकुर से विकसित प्राथमिक जड़ वृद्धि करके मुख्य जड़ के रूप में होती हैं। ये जड़ें प्रायः द्विबीजपत्री पादपों में पाई जाती हैं।
मूसला जड़ों के रूपान्तरण (Modifications of Tap Roots) जड़ों द्वारा किए गए कार्य के आधार पर मूसला जड़ों को तीन मुख्य प्रकारों में विभाजित किया गया है
(i) संचित जड़ें (Storage Roots) कुछ पादपों में प्राथमिक जड़ें, भोजन संचित करने हेतु रूपान्तरित हो जाती हैं। ये जड़ें मुख्यतया फूली हुई, मोटी होती हैं तथा निम्न प्रकार की होती हैं
(a) तर्कुरूप (Fusiform) इस प्रकार की जड़ें भोजन संचय के कारण बीच में मोटी तथा दोनों किनारों की ओर पतली होती हैं। इनसे द्वितीयक तथा तृतीयक जड़ें निकलती हैं; उदाहरण मूली (Raphanus sativa)।
(b) कुम्भीरूप (Napiform) ये जड़ें ऊपर से बहुत मोटी गोलाकार हो जाती हैं तथा नीचे का भाग एकाएक पतला हो जाता है; उदाहरण शलजम (Brassica rapa), चुकन्दर (Beta vulgaris) |
(c) शंकुरूप (Conical) ये जड़ें भोजन संचय के कारण ऊपर से मोटी तथा नीचे की ओर क्रमशः पतली होती हैं; उदाहरण गाजर (Daucus carota) |
(d) कन्दिल मूसला जड़ें (Tuberous Tap Roots ) ये जड़ें किसी स्थान पर फूलकर मोटी हो जाती हैं तथा इनकी कोई निश्चित आकृति नहीं होती; उदाहरण मिराबिलिस (Mirabilis), ट्राइकोसेन्थीज (परवल), इकाइनोसिस्टिस (लोबाटा), आदि।
(ii) पिंडक जड़ें (Tuberculate or Nodulated Roots) दलहनी फसलों में पाए जाने वाली प्राथमिक मूसला जड़ें व उसकी शाखाएँ, किसी-किसी स्थान पर फूली होती हैं, जिन्हें पिंडक जड़ (nodule roots) कहते हैं। इनमें असंख्य छोटे-छोटे नाइट्रोजन – स्थिरीकरण जीवाणु (Rhizobium leguminosarum) होती है, जो वातावरणीय नाइट्रोजन को स्थिर करके पादपों को अमोनियम रूप में देते हैं। उदाहरण मूँगफली, मटर, दाल, आदि।
(iii) न्यूमेटोफोर (Pneumatophores or Respiratory Roots) ये जड़ें दलदली स्थानों पर उगने वाले पादपों में पाई जाती हैं। ये ऊपर वायु में निकल आती हैं तथा इन पर छोटे-छोटे छिद्र पाए जाते हैं, जिन्हें न्यूमेथोड्स (pneumathods) कहते हैं। उदाहरण राइजोफोरा, सुन्दरी, सोनीरेटिया, एवीसीनिया आदि ।
पुश्ता जड़ें (Buttress Roots)
ये जड़ें क्षैतिज (horizontal) होती हैं, जो एक साथ मूसला जड़ों के आधार से तथा तने के आधार से निकलती हैं। उदाहरण बादाम, रबड़ का पेड़, सीबा, सैमल, पीपल, आदि ।
यांत्रिक सहारा प्रदान करने वाली रूपान्तरित जड़ें (Modified Roots for Providing Mechanical Support)
(i) स्तम्भ जड़ें (Prop Roots) उदाहरण बरगद, रबर, आदि।
(ii) अवस्तम्भ जड़ें (Stilt Roots or proproots or Brace Roots) उदाहरण मक्का, गन्ना, सौरद्यम, राइजोफोरा, आदि।
(iii) आरोही जड़ें (Climbing Roots) उदाहरण पान, मनीप्लान्ट, पोथोस, आदि।
जड़ों के कार्य (Functions of Roots)
(i) ये पादप को यांत्रिक सहायता देती हैं। ये पादपों की स्थिरता बनाए रखती हैं।
(ii) ये मृदा से जल तथा खनिज लवणों का अवशोषण करती हैं।
(iii) ये जल तथा खनिज लवणों का परिवहन करती हैं।
(iv) कुछ जड़ें भोजन संचित करने का भी कार्य करती हैं।
तना (Stem )
पौधे का वह भाग, जो प्राकुंर (radicle) से विकसित होता है, तना कहलाता है। यह भूमि के ऊपर होता है, प्रकाश की ओर तथा भूमि के विपरीत वृद्धि करता है। यह पेड़ का यांत्रिक सहारा एवं दृढ़ता होता है।
तनों के विशिष्ट लक्षण (Characteristics of Stems)
(i) तने प्रकाश की ओर (positively phototrophic) तथा भूमि से दूर (negatively geotropic) जाते हैं।
(ii) तने पर कलिकाएँ (buds) पाई जाती हैं।
(iii) तने पर शाखाएँ तथा पत्तियाँ पाई जाती हैं।
(iv) सामान्यतया बड़े तनों में पर्णहरिम (chlorophyll) नहीं पाया जाता।
(v) तनों पर पर्व व पर्वसन्धियाँ पाई जाती हैं।
तनों के प्रकार (Different Types of Stems)
तने मिट्टी में स्थान के आधार पर निम्न प्रकार के होते हैं
(i) वायवीय तने (Aerial Stems) ये तने मृदा के ऊपर उगते हैं। उदाहरण नींबू, गुलाब, आदि।
(ii) उपवायवीय तनें (Subaerial Stems) ये तने भूमि पर रेंगते हैं। उदाहरण जलीय पादप, घास, आदि।
(iii) भूमिगत तनें (Underground Stems) ये तने भूमि के अन्दर पाए जाते हैं। ये भोजन को संचित कर मोटे हो जाते हैं। उदाहरण आलू, प्याज, लहसुन, हल्दी, आदि।
तनों के रूपान्तरण (Modifications of Stems)
पादपों के तने विभिन्न कार्य; जैसे पोषण, कायिक संवर्धन, संचय, आदि करने हेतु रूपान्तरित हो जाते हैं। ये मुख्यतया तीन प्रकार के होते हैं
1. भूमिगत तनों के रूपान्तरण (Modifications of Underground Stems) निम्नलिखित कार्यों को करने के लिए भूमिगत तनें रूपान्तरित हो जाते हैं
(i) चूषक (Sucker) उदाहरण केला ।
(ii) प्रकन्द (Rhizome) उदाहरण अदरक (जिंजिबर ऑफिसिनेल), हल्दी, केलां, सैकेरम, आदि ।
(iii) घनकन्द (Corm) आदि। उदाहरण कचालू (Elephant foot), केसर (saffron), जिमीकन्द ( Freesia), आदि ।
(iv) स्तम्भ (Tuber) उदाहरण आलू, गुलाब, आदि ।
(v) शल्ककन्द (Bulb) उदाहरण प्याज, लहसुन, आदि ।
2. अर्द्धवायवीय तनों के रूपान्तरण (Modifications of Subaerial Stems) इनका कुछ भाग भूमि के अन्दर तथा कुछ भूमि के ऊपर पाया जाता है। इनमें कायिक जनन भी होता है। ये तने निम्नलिखित प्रकार से रूपान्तरित होते हैं
(i) उपरिभूस्तरी (Runner) उदाहरण दूब घास, मेरीलिया आदि ।
(ii) भूस्तरी (Stolon) उदाहरण पौदिना, जैसमीन, स्ट्रॉबेरी, आदि ।
(iii) भूस्तारिका (Offsets) उदाहरण जलकुम्भी, पिस्टिया, आदि।
(iv) चूषक (Sucker) उदाहरण गुलाब, लिली, आदि।
3. वायवीय तनों के रूपान्तरण (Modifications of Aerial Stems) ये तनें पूर्ण रूप से पृथ्वी के ऊपर होते हैं, जिस पर पर्व, पर्व सन्धियाँ, कलिकाएँ, पुष्प, फल, पत्ती, आदि होते हैं। वायवीय तनें निम्नलिखित प्रकार से रूपान्तरित होते हैं
(i) प्रतान (Tendrils) उदाहरण कुकुरबिटा, लौकी, अंगूर, आदि।
(ii) कंटक ( Thorn) उदाहरण नींबू (citrus), बोगेनविलिया (Bougainvillea), अनार (pomegranate), आदि।
(iii) पर्णकाय (Phylloclade)
(iv) पत्र प्रकलिका (Bulbils) उदाहरण नागफनी (Opuntia), केक्टस (cactus), आदि। उदाहरण घीग्वार (Aloe), अगेव (Agave), रसकस (Ruscus), आदि।
तनों के कार्य (Functions of Stems)
(i) ये पत्तियों तक जल व खनिज पहुँचाने में सहायता करते हैं।
(ii) इन पर पत्तियाँ, शाखाएँ तथा फल लगते हैं। तथा उन्हें इस क्रम में रखता है जिससे उन्हें अधिकतम सूर्य का प्रकाश मिलता रहे।
(iii) ये पादपों को स्थिर रखता है तथा सहारा प्रदान करता है।
(iv) ये फूलो को सही जगह पर लगाकर उनके परागण में सहायता करते हैं।
पत्ती (Leaf)
पत्ती तनें तथा शाखाओं पर पर्व से निकलती हैं। ये हरी, चपटी तथा पतली होती हैं, जो अधिकतम प्रकाश-संश्लेषण करती हैं। तनें व शाखाओं पर पत्तियों के लगने के क्रम को फाइलोटेक्सी (phyllotaxy) कहते हैं। पत्तियों की पत्रफल पर शिराओं के क्रम को शिराविन्यास (venation) कहते हैं |
पत्ती के विशिष्ट लक्षण (Characteristics of Leaf)
(i) पत्ती के अक्ष पर सहायक कलिका होती है।
(ii) पत्ती की वृद्धि सीमित होती है।
(iii) यह वृद्धि करते हुए चोटी वाले भाग से विकसित होती है।
पत्तियों के रूपान्तरण (Modifications of Leaves)
ये निम्नलिखित रूप से रूपान्तरित हो जाती हैं
(i) कंटकी (Spiny) इसमें पर्णफलक काँटेदार होता है। उदाहरण घींग्वार, बारबैरी, पीली कटेली (Argemone) एवं अन्नानास (pineapple)।
(ii) प्रतानी (Tendrillar) इसमें पर्णफलक का शीर्ष, प्रतान में परिवर्तित हो जाता है, जो किसी सहारे पर चढ़ने में पौधों को सहायता देता है। उदाहरण ग्लोरिओसा (Gloriosa), मटर (pea), दालें।
(iii) हुकदार पत्ती ( Leaf Hooks) ये अन्तिम छोर पर पत्तियाँ उपस्थित होती हैं, जिनमें तीन घुमावदार संरचनाएँ होती हैं, जिससे ये हुक की भाँति कार्य करती हैं। उदाहरण डोक्सेन्था, आदि ।
(iv) पर्णाभ (Phyllodes) ये कम जीवित रहने वाले, पत्ती का चपटा, हरा पर्णवृन्त होता है, जो प्रकाश-संश्लेषण करने के लिए रूपान्तरित होता है। उदाहरण अकेसिया, मिलेनोक्साइलान, महबार्ब ।
(v) घटपर्णी (Pitcher) इसमें पर्णाधार चपटा तथा फलक घटक का आकार ले लेता है, जिसके ऊपर ढक्कन होता है। इनके अन्दर पाचक रस होते हैं, जो अन्दर आए कीट को पचा लेते हैं। उदाहरण नेपेन्थीस (Nepenthes)।
(vi) ब्लैडर वॉर्ट (Bladder Wort) ये घटपर्णी जैसे होते हैं परन्तु जलीय पादपों में पाए जाते हैं। उदाहरण यूट्रीकुलेरिया (Utricularia)।
(vii) चूषक पत्तियाँ (Sucker Leaves) ये पत्तियाँ गूदेदार व फूली हुई होती हैं, जो भोजन, जल, आदि का संचय करती है। उदाहरण घीग्वार, अगेव, ब्रायोफिलम, आदि ।
(viii) कंटक पत्तियाँ (Scale Leaves) ये विशिष्ट पत्तियाँ होती हैं, जो अपने फूल, कली या मुलायम भागों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए रूपान्तरित होती है। इनके ऊपर एक पारदर्शी परत पाई जाती है, जो कन्द बनाते हैं। उदाहरण लहसुन, प्याज, आदि ।
(ix) रंगीन पत्तियाँ (Coloured Leaves or Bract) ये पत्तियाँ, कीटों को परागण हेतु अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रंगीन रूपान्तरण ले लेती है। उदाहरण पाइनसीटिया |
(x) पुष्पीय अंग (Floral Organs) ये विशिष्ट पत्तियाँ होती हैं। उदाहरण बाह्य दल, दल, पुंकेसर, स्त्रीकेसर ।
पत्तियों के कार्य (Functions of Leaves)
(i) ये पादपों में प्रकाश-संश्लेषण करने का मुख्य भाग हैं।
(ii) पत्तियों पर रन्ध्र पाए जाते हैं, जिनसे वाष्पोत्सर्जन तथा गैसों का आदान-प्रदान होता है।
(iii) वाष्पोत्सर्जन द्वारा पादप में तापमान अनुकूलन बना रहता है।
(iv) पत्तियाँ अक्षीय व सहायक कलिकाओं को सुरक्षा प्रदान करती हैं।
(v) कुछ पत्तियाँ भोजन संचय; प्याज में करती हैं। वर्धी प्रजनन (vegetative reproduction) एवं परागण (pollination) में भी सहायता करती हैं।
पुष्पक्रम (Inflorescence)
यह पुष्पाक्ष पर पुष्प की व्यवस्था है। वास्तव में पुष्प एक रूपान्तरित प्ररोह है। इसको संरचनात्मक विवरण अध्याय प्रजनन में वर्णित है।
पादप- जल सम्बन्ध (Plant-Water Relation ) 
जल, पादप की वृद्धि में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है तथा यह पादप की सभी जैविक क्रियाओं (biological activities) के लिए आवश्यक है।
जल के कार्य (Functions of Water)
पादपों में परिसंचरण के लिए जल के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य निम्न हैं
(i) जल पादपों में मृदा से लिए पोषण पदार्थों (nutritive substances) को लेकर चलता है।
(ii) जल, जीवित कोशिकाओं में एक मुख्य घटक की तरह कार्य करता है। उदाहरण कोशिका का जीवद्रव्य कुछ नहीं बल्कि जल है, जिसमें बहुत से अणु व कण घुले रहते हैं।
(iii) यह एक बहुत अच्छा विलायक (solvent) है।
(iv) यह पादपों में तापमान नियन्त्रित रखता है।
(v) किसी भी तरह के शाकीय या लकड़ी युक्त पादप में जल उपस्थित होता है परन्तु उसकी मात्रा भिन्न होती है। तरबूज में 92% जल होता है, जबकि कुछ बड़े पेड़ों में बहुत कम जल होता है।
(vi) यह बीजों का एक मुख्य घटक (उनके जीवन व श्वसन हेतु) है, यद्यपि बीज सूखे प्रतीत होते हैं।
(vii) यह सीमान्त घटक की भाँति भी कार्य करता है जैसे वृद्धि में, पादपों की उत्पादकता में तथा प्राकृतिक वातावरण में क्योंकि पादप में जल की अधिक मात्रा आवश्यकता होती है।
पाइप-जल सम्बन्ध से सम्बन्धित कुछ परिभाषाएँ (Some Definitions Related to Plant-Water Relation)
जल विभव (Water Potential) यह शब्द सर्वप्रथम 1966 में स्लेटर व टेलर (Slater and Taylor) ने दिया था। यह शुद्ध जल के कणों के बीच मुक्त ऊर्जा व किसी तन्त्र में जल की ऊर्जा का अन्तर है।
विलेय विभव (Solute Potential) जिस मात्रा पर जल विभव कम हो जाए, उसे विलेय विभव कहते हैं। यह शुद्ध जल में विलेय के घुलने के कारण घटता है।
दाब विभव (Pressure Potential) यह वह दाब है, जो परासरणीय (osmotic) तन्त्र में विकसित होता है, जोकि उसमें जल के आवागमन द्वारा होता है।
पादप-जल सम्बन्ध से सम्बन्धित प्रक्रियाएँ (Processes Concerned with Plant-Water Relation)
(i) अन्त:चूषण (Imbibition) यह जल अवशोषण की एक विशिष्ट प्रक्रिया है, जिसमें ठोस अणु का किसी तरल के साथ विलयन नहीं बनता है, जिससे उनके आयतन में वृद्धि होती है। उदाहरण लकड़ी के एक सूखे लट्ठे को जब जल में रखते हैं, तो वह फूल जाता है तथा उसके आयतन में वृद्धि हो जाती है। पादप तन्त्रों में, जल का अवशोषण कोशिका भित्ति तथा बीजों के अंकुरण के समय टूटे व फटे बीजों के आवरण द्वारा होता है।
(ii) परासरण (Osmosis) जल के अणुओं का अधिक सान्द्रता से कम सान्द्रता की ओर प्रवाह परासरण कहलाता है। उदाहरण पादप की जड़ों द्वारा जल का अवशोषण | इसकी खोज टैफर (Pteffer) ने की थी। प्लाज्मा झिल्ली द्वारा जल का प्रवाह, जल में घुले पदार्थों की मात्रा से भी प्रभावित होता है।
यह निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है
यदि कोशिका को चीनी या नमक के विलयन में रखा जाए
◆ यदि जल की मात्रा कोशिका के बाहर अधिक हो, तब जल कोशिका के अन्दर प्रवेश करेगा, जिससे कोशिका फूल (swell up) जाएगी तथा कोशिका में तनाव (turgid ) उत्पन्न हो जाएगा। यह विलयन अल्पपरासरी (hypotonic) कहलाता है।
◆ यदि जल की सान्द्रता कोशिका के भीतर व बाहर समान हो, तो कोशिका अपने ही आकार में रहेगी। यह विलयन समपरासारी (isotonic) होगा।
◆ यदि जल की मात्रा कोशिका के बाहर कम हो, तो कोशिका का द्रव्य बाहर निकल जाएगा तथा कोशिका श्लथ (flaccid) हो जाती है। इस विलयन को अतिपरासारी (hypertonic) कहते हैं।
(iii) जीवद्रव्यकुंचन (Plasmolysis) पौधों की कोशिका को अधिक सान्द्रता वाले विलयन में रखने पर, जल के अणु रिक्तिका रस के बाहर के विलयन की ओर आ जाएंगे, जिससे कोशिका भित्ति से हटकर जीवद्रव्य संकुचित हो जाएगा, इसे जीवद्रव्यकुंचन कहते हैं। जब संकुचित कोशिका को अल्पपरासारी विलयन में रखते हैं, तो वह फिर से विसंकुचित हो जाती है।
परिवहन के माध्यम (Means of Transport)
परिवहन एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है, जो एक दिशा में या दो दिशा में हो सकती है। कोशिका के अन्दर व बाहर अणुओं के परिवहन की दो मुख्य विधियाँ निम्न हैं
(i) विसरण (Diffusion) विसरण गैस, द्रव तथा ठोस के अणुओं में अधिक सान्द्रता वाले भाग से कम सान्द्रता वाले भागों की ओर जाने का गुण होता है। यह उस समय तक चलती रहती है, जब तक किसी पदार्थ के अणु प्राप्त स्थान में समान रूप से न फैल जाएँ । उदाहरण प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का लेना तथा ऑक्सीजन (O2) का छोड़ा जाना ।
(ii) सक्रिय परिवहन (Active Transport ) इस प्रक्रिया में ऊर्जा ATP (Adenosine Triphosphate) के रूप में प्रयोग की जाती है, जिसमें कम सान्द्रता से अधिक सान्द्रता की ओर प्रवाह होता है।
पादपों में परिवहन तन्त्र (Transport System in Plants) 
पुष्पीय पादपों में, पदार्थों का परिवहन बहुत-सी दिशाओं में होता है, परन्तु फिर भी पादपों में कोई सम्पूर्ण व परिपक्व परिवहन तन्त्र नहीं होता है। जड़ों द्वारा लिया गया जल पौधे के सभी भागों तक पहुँचता है। पत्तियों में पहुँचा जल प्रकाश-संश्लेषण में सहायता करता है। जल के अतिरिक्त, कुछ महत्त्वपूर्ण खनिज पदार्थ भी छोटी-छोटी दूरी तक प्रवाहित (कोशिकाद्रव्य परिवहन व विसरण द्वारा) होते हैं। पादपों में जल व खनिज लवणों के अलावा पोषण पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ व वृद्धि नियामक (growth regulators) भी परिसंचरित होते हैं। जाइलम व फ्लोएम द्वारा लम्बी दूरी तक भोजन व जल के परिसंचरण को स्थानान्तरण (translocation) कहते हैं।
जल का परिवहन (Transport of Water)
पादप जड़ों द्वारा जल का अवशोषण करते हैं तथा उसे एक विशिष्ट तरीके से पादपों के अन्तिम छोर तक प्रवाहित करते हैं। जल के अवशोषण में विसरण, परासरण तथा विभव प्रवणता (potential gradient) जैसी क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। इन क्रियाओं द्वारा जल का छोटे-छोटे स्थानों तक परिवहन होता है जैसे एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक, परन्तु जल का लम्बे पथ पर परिवहन एक सघन क्रिया है, जिसमें जड़ दाब तथा वाष्पोत्सर्जन खिंचाव क्रियाएँ होती हैं।
वाष्पोत्सर्जन एवं बिन्दु स्रावण (guttation) क्रियाओं द्वारा पादप के वायवीय भागों से जल की हानि होती है।
(i) वाष्पोत्सर्जन (Transpiration ) पादप अवशोषित किये हुए जल का 5-10% ही उपयोग करते हैं तथा अवशोषित कुल जल का लगभग 90-95% भाग वाष्पोत्सर्जन द्वारा निष्काषित हो जाता है।
वाष्पोत्सर्जन पादपों को वायवीय भागों द्वारा जल का वाष्प के रूप में उड़ जाना होता है। अत्यधिक जल की मात्रा पत्तियों की सतह पर उपस्थित रन्ध्रों (stomata) द्वारा वाष्प के रूप में निष्काषित हो जाती है। पादपों द्वारा यह जल को मृदा से जड़ों तथा जड़ों से पौधे के ऊपरी भागों तक पहुँचाने में सहायता करता है। रन्ध्रों से CO2 तथा O2 का भी आदान-प्रदान होता है।
(ii) बिन्दु स्रावण (Guttation) कुछ शाकीय पादपों में पत्तियों के किनारे पर शिराओं के छोर पर कुछ द्रव की बूँदें निकलती रहती हैं। यह उस परिस्थिति में होता है, जब पौधों की जड़ों द्वारा जल का सक्रिय अवशोषण हो रहा हो परन्तु वाष्पोत्सर्जन कम अथवा बिल्कुल न हो।
जब मृदा में अवशोषण जल की मात्रा अधिक हो परन्तु वाष्पोत्सर्जन कम हो रहा हो, तो धनात्मक जड़ दबाव (positive root pressure) के कारण जल का बिन्दुओं के रूप में स्रावण होता है। यह पत्तियों के किनारों पर जलरन्ध्र (hydrathode) द्वारा होता है। यह क्रिया साधारणतया रात्रि में होती है। इससे निकला जल वास्तव में जलीय विलयन होता है, जिसमें शर्करा, अमीनो अम्ल, कार्बनिक अम्ल, आदि घुले होते हैं।
खनिजों का परिसंचरण (Transport of Minerals)
मृदा में उपस्थित खनिज तत्व जड़ों द्वारा अवशोषित किए जाते हैं तथा जाइलम के द्वारा पानी के साथ ऊपर की ओर प्रवाहित किए जाते हैं। जड़ीय पादपों में अकार्बनिक पदार्थों का प्रवाह बहुदिशीय होता है। पादपों में खनिज तत्व मुख्यतया पादप के वृद्धि वाले भाग जैसे शीर्षस्थ तथा पार्श्व विभज्योतक ऊतकों, नई पत्तियों, विकासशील फूलों, फलों, बीज तथा संचित अंगों में प्रवाहित होते हैं। पादपों के कुछ पुराने भागों से नई विकसित पत्तियों तक पोषक तत्वों व खनिजों का पुनः संचरण होता है।
कार्बनिक विलायकों का परिसंचरण (Translocation of Organic Solutes ) 
कार्बनिक पदार्थ मुख्यतया पत्तियों में प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा बनते हैं तथा ये जड़ व तने के नए हरे भागों में भी बनते हैं। ये पदार्थ फ्लोएम द्वारा पादपों के सारे भागों तक परिसंचरण होते हैं।
पादप विकास व वृद्धि (Plant Growth and Development)
पादप का जीवन एककोशिकीय युग्मनज (zygote) से प्रारम्भ होता है। पादप के सभी भाग जैसे जड़, तनें, पत्तियाँ, फूल, बीज इसी एककोशिकीय युग्मनज से क्रमिक रूप से बनते हैं। पादपों की वृद्धि व विकास अनिश्चित होता है; क्योंकि इनमें लगातार जीवन भर विभज्योतक कोशिकाओं के विभाजन द्वारा वृद्धि होती रहती है। विभज्योतक कोशिकाओं से नई कोशिकाओं का निर्माण होता रहता है। पादप में वृद्धि की विभिन्न अवस्थाएँ है; कोशिका विभाजन, कोशिका में वृद्धि व परिपक्वन |
पादपों में वृद्धि हेतु कारक व अवस्थाएँ (Conditions or Factors for Growth in Plants)
(i) पोषण पदार्थों की प्राप्ति
(ii) C/N अनुपात (कार्बोहाइड्रेट व नाइट्रोजन यौगिकों का अनुपात) पादप में वृद्धि दर को बनाए रखता है
(iii) तापमान
(iv) जल
(v) प्रकाश
(vi) ऑक्सीजन
पादप वृद्धि हॉर्मोन्स (Plant Growth Hormones)
पादप हॉर्मोन्स, पादपों की जैविक क्रियाओं को सुचारू रूप से चलाने वाले तत्व होते हैं। इन्हें फाइटोहॉर्मोन (phytohormone) तथा पादप वृद्धि नियन्त्रक पदार्थ (plant growth regulators) भी कहते हैं। ये छोटे, सरल कार्बनिक अणु होते हैं। पादप हॉर्मोन का संश्लेषण पादपों में स्वयं होता है, परन्तु ये अपने क्रिया क्षेत्र से दूर संश्लेषित होते हैं। ये अपने क्रिया स्थान पर विसरण विधि द्वारा पहुँचते हैं। इनकी बहुत कम मात्रा ही पादपों की जैव क्रियाएँ सुचारु रूप से चलाने हेतु काफी होती है। ये पादपों की विभिन्न उपापचयी क्रियाओं को भी नियन्त्रित करते हैं। पादपों में कुल पाँच प्रकार के पादप हॉर्मोन पाए जाते हैं, जिन्हें उनकी कार्यिकी तथा रासायनिक संगठनों के आधार पर विभाजित किया गया है। पादप हॉर्मोन्स के कार्य तथा इनका वर्णन निम्नलिखित हैं
ऑक्सिन (Auxins)
ऑक्सिन वे कार्बनिक पदार्थ हैं, जो तने की कोशिकाओं का दीर्घीकरण करते हैं। इण्डोल एसीटिक अम्ल (IAA), प्राकृतिक ऑक्सिन हैं नेफ्थैलीन एसीटिक अम्ल (NAA), 2, 4-डाइक्लोरो फिनॉक्सीएसीटिक अम्ल (2, 4-D) संश्लेषित ऑक्सिन हैं।
कार्य (Functions)
(i) ये कोशिका की लम्बाई तथा तने व जड़ की लम्बाई बढ़ाने वाले पादप हॉर्मोन होते हैं।
(ii) ये कैम्बियम में कोशिका विभाजन करते हैं।
(iii) ये अनिषेकफलन (बीजरहित फल) बनाने में सहायता करते हैं ।
(iv) ये जड़ में वृद्धि को नियन्त्रित करते हैं।
(v) ये फसलों के गिरने को नियन्त्रण करते हैं।
(vi) ये फलों के विलगन को समय से पहले होने से रोकते हैं।
जिबरेलिन (Gibberellins)
इसकी खोज कुरोसावा ने वर्ष 1926 में की। ये एक वृद्धि नियन्त्रण पदार्थ है, जिसे कवक के रस से पृथक किया गया है। इसे जिबरेलिन-A (GA) भी कहा जाता है। यह कमजोर अम्लीय हॉर्मोन (weakly acidic hormones) है। 100 में से GA3 सबसे महत्त्वपूर्ण जिबरेलिन है।
कार्य (Functions)
(i) यह तने की लम्बाई की वृद्धि को बढ़ाता है।
(ii) जिबरेलिन का विलयन छिड़कने पर एक लम्बा पुष्पवृन्त निकलकर पुष्प उत्पन्न करता है।
(iii) यह अनिषेकफलन (parthenocarpy) में भी सहायता करता है।
(iv) यह बीजों की सुषुप्तावस्था (seed dormancy) को समाप्त कर बीजों का अंकुरण करते हैं। ये अनाज व लैट्यूस में बीज अंकुरण को बढ़ाते हैं।
(v) ये जरावस्था (ageing) को भी रोकते हैं ताकि फल पेड़ पर अधिक समय तक लगे रहें। उदाहरण नींबू, सेब, आदि।
(vi) ये दीर्घ प्रकाशीय पादपों में पुष्पीकरण करते हैं।
(vii) फलों के विकास व वृद्धि को नियन्त्रित करते हैं।
साइटोकाइनिन (Cytokinin)
इसकी खोज 1955 में मिलर (Miller) ने की। यह क्षारीय हॉर्मोन है, जिसका असर कोशिकाद्रव्य विभाजन पर होता है। ये पादपों में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले N6 -फरफ्यूरिल-अमीनो-फ्यूरिन है।
◆ जियाटिन (zeatin) प्राकृतिक साइटोकाइनिन है, जिसे मक्का के दानों से लिया गया। यह सबसे अधिक सक्रिय साइटोकाइनिन है।
कार्य (Functions)
(i) ये ऑक्सिन की सहायता से कोशिका विभाजन का उद्दीपन करते हैं।
(ii) ये जीर्णता (senescence) को रोकते हैं।
(iii) ये कई बीजों में सुषुप्तावस्था को तोड़कर अंकुरण करते हैं।
(iv) फलों में अनिषेकफलन को बढ़ाते हैं।
(v) ये पर्णहरिम (chlorophyll) को काफी समय तक नष्ट नहीं होने देते।
(vi) ये पादपों के कुछ अंगों के निर्माण को भी नियन्त्रित करते हैं।
(vii) ये बीजों के अंकुरण तथा पार्श्व कलिकाओं की वृद्धि को प्रारम्भ तथा प्रेरित करते हैं।
इथाइलीन (Ethylene )
यह हॉर्मोन गैस के रूप में होता है। ये मिथ्योनिन अमीनो अम्ल का बना होता है। इसकी खोज बर्ग (Burg) ने 1962 में की तथा इसे पकाने वाला हॉर्मोन ( ripening hormone) कहते हैं।
कार्य (Functions)
(i) यह तने की लम्बाई का वृद्धिरोधक (growth inhibitor) तथा अक्षीय कलिकाओं (axial buds) की वृद्धि को रोककर तने के फूलने में सहायक होता है।
(ii) यह फलों को पकाने वाला हॉर्मोन है।
(iii) यह पुष्पी पादपों में पुष्पन का कार्य करता हैं।
(iv) यह कलियों व बीजों की सुषुप्तावस्था को तोड़ते हैं।
(v) यह फलों, पुष्पों तथा पत्तियों के विलगन को तीव्र करता है।
(vi) फलों के पकने के दौरान यह श्वसन की गति की वृद्धि करता है। श्वसन वृद्धि में गति की इस बढ़त को क्लाइमैटिक श्वसन कहते हैं।
(vii) यह अन्नानास को फूलने तथा फल समकालिकता (simultaneous) में सहायता करता है। इसके साथ ही आम को पुष्पित होने में प्रेरित करता है।
एब्सिसिक अम्ल (Abscisic Acid)
इसकी खोज एडिकोट (Adicote) एवं कोर (Corsin) ने 1965 में की। यह अम्लीय हॉर्मोन है। यह एक वृद्धिरोधक (growth inhibitor) पदार्थ है। यह कलियों की वृद्धि तथा बीजों के अंकुरण का रोधन करता है।
कार्य (Functions)
(i) ये वृद्धि व उपापचय के कम करता है।
(ii) ये बीज अंकुरण को प्रभावित करता है।
(iii) इनमें वर्णहरिम की कमी से पत्तियाँ पीली हो जाती हैं।
(iv) इसे पत्तियों पर छिड़कने से पत्तियों का विलगन (abscission) शीघ्र हो जाता है।
(v) यह कलियों तथा बीजों की प्रसुप्ति (dormancy) को प्रभावित करता है।
(vi) यह रन्ध्रों ( stomata) को बन्द करता है।
कुछ अन्य पादप हॉर्मोन (Some Other Plant Hormones)
(i) फ्लोरिजन्स (Florigens) इसे पुष्पीय हॉर्मोन भी कहते हैं, जिसे पुष्पों द्वारा खिलने में प्रयोग किया जाता है। अतः यह फूल के खिलने को प्रेरित करता है, ये पत्तियों के रूप में होते हैं तथा तने के अक्षीय भाग पर तथा फलियों पर कार्य करते हैं।
(ii) कैलिन्स (Callins) ये पादप अंगों द्वारा स्रावित होते हैं तथा पादप अंगों की वृद्धि को नियन्त्रित करते हैं। उदाहरण- राइजोकौलिन (ऑक्सिन से अलग एक हॉर्मोन, जो पत्तियों द्वारा बढ़ता है तथा जड़ों की वृद्धि में सहायता करता है), कोकालीन (cocaline) (यह बीजपत्र से स्रावित होता है तथा पत्तियों की वृद्धि व विकास में कार्य करता है) ।
(iii) ट्रैलमेटिन (Trallmatin) यह एक पादप हॉर्मोन है, जो घाव के होने से स्रावित होता है। अतः यह चोटग्रस्त कोशिकाओं से स्रावित होता है।
पादप रोग (Plant Diseases)
पादप रोग, पादप की सामान्य कार्यिकी में उत्पन्न हुई बाधा है, जो पादप की जैव क्रियाओं को प्रभावित करती है। पादप में रोग किसी रोगाणु जैसे जीवाणु, कवक, विषाणु, आदि, के आक्रमण से तथा कुछ पदार्थों की कमी से हो सकते हैं।
पादपों में होने वाले कुछ मुख्य रोग व उनके कारण निम्न प्रकार हैं
अजैविक रोग (Abiotic Disease or Non-Parasitic Disease)
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