जीवों में विविधता (Diversity in Organisms)

जीवों में विविधता (Diversity in Organisms)

जीवों में विविधता (Diversity in Organisms)

सभी जीव अपने शारीरिक संघटन, कार्य व संरचना के अनुसार पहचाने व वर्गीकृत किये जाते हैं। कुछ लक्षणों के द्वारा विभिन्न जीवों के शारीरिक संगठन में अधिक विभिन्नताएँ आती हैं।
असीमित विभिन्नता को विकसित होने में लाखों वर्ष का समय लगा है। सभी जीवधारियों को उनकी समानता के अनुसार पहचान एवं नाम दिया गया है तथा उन्हें विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है। इन विभिन्न वर्गों में जीवधारियों के विशिष्ट लक्षणों का अध्ययन किया गया है, जिनसे जीवधारियों में अधिक मौलिक अन्तर पैदा होता है। जीवों को वर्गीकृत करने के लिए निम्न चार चरण होते हैं
(i) पहचान ( Identification) जीवों को उनके नाम तथा स्थान की पहचान करना है।
(ii) वर्गीकरण (Classification) जीवों को विभिन्न वर्गों में बाँटा गया।
(iii) नामकरण (Nomenclature) जीवों को सर्वमान्य वैज्ञानिक नाम दिया गया।
(iv) वर्गिकी पदानुक्रम (Taxonomy) यह वर्गीकरण की व्यवस्था तथा क्रम को बनाता है। आधुनिक वैज्ञानिक जगत में वर्गिकी वैज्ञानिक पहचान, वर्गीकरण व नामकरण को वर्गिकी का आधार मानते हैं।
वर्गीकरण (Classification) 
सभी जीवधारियों का उनके द्वारा किए गए कार्य, विकास एवं उनकी शारीरिक संरचना के आधार पर विभिन्न समूहों में बाँटा गया है, इसी को वर्गीकरण कहते हैं। शरीर की बनावट के दौरान, जो लक्षण पहले दिखाई पड़ते हैं, उन्हें मूल लक्षण कहा जाता है।
वर्गीकरण का आधार ( Basis of Classification)
यूनानी विचारक अरस्तु ने जीवों को विभिन्न वर्गों में वर्गीकरण, उनके जल, स्थल एवं वायु में रहने के आधार पर किया था चाहे वो समुद्र में रहे, धरातल पर या वायु में। जीवों को उनके लक्षणों और व्यवहार के आधार पर विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत करना उचित है। किसी जीव के लक्षण उसके द्वारा किया गया विशिष्ट कार्य या जीव का विशिष्ट रूप है।
वर्गीकरण का उद्देश्य (Objectives of Classification) 
जीवों को वर्गीकृत करने के पीछे कुछ आधारभूत उद्देश्य हैं
(i) वर्गीकरण की आधारभूत इकाई (प्रजाति) की जीवों के पहले से निर्धारित लक्षणों के आधार पर पहचान करना तथा उनका बँटवारा करना ।
(ii) समरूपता तथा सम्बन्धों के आधार पर प्रजाति को उचित वर्ग में आरोही क्रम में रखना ।
(iii) जीवों में विकासीय परिवर्तन को दिखाना।
वर्गीकरण का इतिहास (History of Classification) 
जीवों के वर्गीकरण व आधुनिकता के अन्तर्गत होने वाले ऐतिहासिक कार्यक्रम निम्न हैं
(i) जीवों का अण्डाणुजनन (अण्डों द्वारा जनन), शिशु जनन ( पूर्ण विकसित शिशुओं का जन्म) व सूक्ष्मजीवों में वर्गीकरण |
(ii) हिप्पोक्रेट्स (Hippocrates) तथा अरस्तु (Aristotle) ने जन्तुओं को मुख्य वर्ग उदाहरण पक्षी, कीट, मत्स्य में बाँटा।
(iii) प्लीनी दी एल्डर (Pliny the Elder) ने अपनी पुस्तक हिस्टोरिया नेचुरेलिस में 1000 पौधों तथा आधुनिक वर्गीकरण के बारे में दिया।
(iv) जॉन रे (John Ray) ने अपनी पुस्तक हिस्टोरिया जेनेरेलिस प्लान्टेरम में 18000 से ज्यादा प्राणियों व पादपों के बारे में बताया तथा ‘जाति’ (species) शब्द दिया।
(v) केरोलस लिनियस ( Carolus Linnaeus) ने द्विनाम पद्धति दी। इन्होंने पादपों की 5900 प्रजाति का वर्णन अपनी पुस्तक स्पीशीज़ प्लान्टेरम व फिलोसोफिया बोटैनिका में किया, जहाँ उन्हें 6 वर्गों स्तनधारी, पक्षी, उभयचर, मत्स्य, कीट व कीड़ों में बाँटा। उन्होंने अपनी पुस्तक सिस्टेमा नैचुरी में सम्पूर्ण जीव जगत को जन्तु व पादप दो वर्गों में विभाजित किया। उन्हें वर्गिकी का पिता भी कहा जाता है। वे संसार में नामकरण की सूचीबद्ध प्रणाली देने वाले प्रथम वैज्ञानिक थे।
(vi) अरस्तु से लिनियस तक, वर्गीकरण को नये आयाम मिले अर्थात् वर्गीकरण की प्राकृतिक प्रणाली का विकास अंक वर्गीकरण (phenetics) व पूर्वज इतिहास (phylogenetic) द्वारा।
वर्गीकरण समूहों की पदानुक्रमित संरचना (Hierarchy of Classification) 
सजीव जगत को कई वर्गों में विभाजित करने में अर्नेस्ट हेकल (1894), रॉबर्ट व्हिटेकर (1959) तथा कार्ल वोस (1977) नामक वैज्ञानिकों का योगदान है।
व्हिटेकर ने जीवों को पाँच जगत जैसे मोनेरा, प्रोटिस्टा, फंजाई, प्लाण्टी एवं एनीमेलिया में वर्गीकृत किया है। इन्हें कोशिकीय संरचना, पोषण के स्रोत तथा शारीरिक संगठन के आधार पर विभाजित किया गया है। वॉइस ने मोनेरा को आर्कीबैक्टीरिया और यूबैक्टीरिया में विभाजित किया है। जीवों को पुनः निम्न उप-समूहों में वर्गीकृत किया गया है – उदाहरण
वर्गीकरण के क्रम का आधार जीवों को उनके लक्षणों के आधार पर विभाजित करना है अर्थात् बड़े से छोटे वर्गों तक जाकर, वर्गीकरण की सबसे छोटी इकाई जाति तक पहुँचना।
नामकरण की द्विनाम पद्धति (Binomial System of Nomenclature) 
कैरोलस लिनियस ने आठवीं शताब्दी में द्विनाम पद्धति शुरू की, जिसमें जीव के वंश (genus) तथा जाति (species) का ध्यान रखा जाता है। इन्होंने सिस्टेमा नैचुरी नामक पुस्तक भी लिखी है। वंश का नाम अंग्रेजी के बड़े अक्षर से शुरू होना चाहिए। जाति का नाम छोटे अक्षर से शुरू होना चाहिए। छपे हुए रूप में वैज्ञानिक नाम (जन्तु एवं वानस्पतिक) इटैलिक से लिखे जाते हैं। हाथ से लिखने पर वंश व जाति को अलग-अलग रेखांकित किया जाता है। उदाहरण कैनिस फैमीलिएरिस कुत्ते का वैज्ञानिक नाम है।
वर्गीकरण की विभिन्न पद्धतियाँ (Different Categories of Classification)
√ दो जगत वर्गीकरण लिनियस (Linnaeus) ने दिया, जिसमें जीवों को जन्तु व पादप में बाँटा गया।
√ तीन जगत वर्गीकरण हेकल (Haeckel) ने दिया, जिसमें जन्तु व पादप के साथ प्रोटिस्टा भी रखा गया।
√ चार जगत वर्गीकरण कोपलैण्ड (Copeland) ने दिया, जिसमें मोनेरा भी जोड़ा गया।
√ पाँच जगत वर्गीकरण व्हिटेकर (Whittaker) ने दिया, जिसमें कवक (fungi) को भी शामिल किया गया।
व्हिटेकर के पाँच जगत वर्गीकरण में जीवों को निम्नलिखित पाँच जगत में विभाजित किया गया है
मोनेरा जगत (Kingdom-Monera)
इसका वर्णन अर्नेस्ट (Ernst) ने सन् 1866 ई में किया था। इस जगत में एककोशिकीय प्रोकैरियोटिक  जीव आते हैं। इन्हें यूबैक्टीरिया तथा आद्य बैक्टीरिया में बाँटा गया हैं, जिनमें यूबैक्टीरिया को सत्य जीवाणु (true bacteria) माना गया है। उदाहरण जीवाणु, नीली- हरी शैवाल, माइकोप्लाज्मा, आदि।
मोनेरा जगत के लक्षण (Characteristics of Kingdom-Monera) 
(i) इनकी कोशिका के ऊपर कोशिका भित्ति, केन्द्रक कला तथा केन्द्रिका नहीं पाई जाती है।
(ii) ये विभाजन / विखण्डन द्वारा जनन करते हैं। साथ ही बीजाणु द्वारा भी जनन कर सकते हैं।
(iii) इनमें स्वयंपोषी (नील-हरित शैवाल) तथा परपोषी (जीवाणु) पाए जाते हैं।
जीवाणु (Bacteria)
जीवाणु की खोज वर्ष 1683 में एन्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक ने की थी तथा उसका नाम सन् 1829 ई में एहरेनबर्ग (Arenburge) ने दिया था। जीवाणु की खोज के कारण ल्यूवेनहॉक को बैक्टीरियोलॉजी का पिता (Father of Bacteriology) कहा जाता है।
ये एककोशिकीय जीव हैं। ये सर्वव्यापी हैं तथा सभी जगह पाए जाते हैं, जहाँ कार्बनिक पदार्थ उपस्थित होता है जैसे जल में, मिट्टी में, जीवों के ऊपर तथा अन्दर । इनके आकार व आकृति में विभिन्नताएँ पाई जाती हैं।
जीवाणु के आकार (Shapes of Bacteria)
ये सात प्रकार के होते हैं अर्थात् कोकस (coccus-spherical or oval), बैसिलस (bacillus-cylinder or rod), स्पाइरिलम (spirillum-spirally coiled), विब्रियो (vibrio-comma like), तन्तुमय (stalked), कली जैसा (budding-swollen at some places) तथा माइसिलियल (Mycelial-filamentous)।
जीवाणु के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Bacteria) 
(i) इनकी कोशिका भित्ति, काइटिन की बनी मोटी होती है तथा कोशिका झिल्ली प्रोटीन व फॉस्फोलिपिड की बनी होती है।
(ii) अधिकांश जीवाणु विषमपोषी होते हैं परन्तु कुछ स्वयंपोषी (प्रकाश-संश्लेषी या रसायन संश्लेषी) भी होते हैं।
(iii) जीवाणु मृतोपजीवी होते हैं ( मृत पादपों व जन्तुओं से अपना भोजन लेने वाले; जैसे एसिटोबैक्टर जीवाणु, आदि)। कुछ जीवाणु सहजीवी; जैसे राइजोबियम तथा कुछ जीवाणु परजीवी भी होते हैं। ये बहुत से रोगों के कारक होते हैं।
(iv) ये द्विविभाजन द्वारा अलैंगिक जनन करते हैं।
(v) इनमें लैंगिक जनन अनुपस्थित होता है परन्तु संयुग्मन (conjugation) (दो कोशिका के जुड़ने से आनुवंशिक पदार्थ का आदान-प्रदान), रूपान्तरण (transformation) (बाह्य माध्यम से DNA लेकर अपने आनुवंशिक पदार्थ में परिवर्तन करना) द्वारा परालैंगिक जनन होता है ।
(vi) कुछ जीवाणु, जो तरल में रहते हैं उनमें धागेनुमा पक्ष्माभ (flagella) पाये जाते हैं, जिससे यह चलनशील होता है।
(vii) ये मिसोसोम्स (mesosomes) द्वारा श्वसन क्रियाएँ करते हैं।
(viii) कुछ जीवाणु फॉर्मिक अम्ल व CO2 से मिथेन बनाते हैं, इन्हें मिथेनोजेनिक जीवाणु (methanogenic bacteria) कहते हैं। उदाहरण मिथेनोकोकस l
(ix) कुछ जीवाणु लवण से युक्त माध्यम में रहते हैं तथा लवण को भूरा रंग देते हैं, इन्हें हैलोफाइल (halophile) कहते है। उदाहरण हैलोकोकस l
(x) बीजाणु उत्पन्न करने वाले जीवाणु ग्राम धनात्मक (Gram positive) होते हैं, जो बैंगनी रंग ले लेते हैं। इनकी कोशिका भित्ति म्यूरिन (murein) की बनी होती है।
जीवाणु का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Bacteria)
एक्टिनोमाइसीट्स (Actinomycetes) ग्राम धनात्मक जीवाणु जो शाखित तन्तु व बीजाणु बनाते हैं। अधिकांश तौर पर कवक माने जाते हैं। ये प्रतिजैविकी जैसे स्ट्रेप्टोमाइसीन व टेट्रासाइकिल बनाते हैं। मृदा व दाँत प्लेक में सबसे अधिकांश। उदाहरण स्ट्रेप्टोमाइसिस, एक्टिनोमाइसिस, आदि।
नीली-हरी शैवाल (Cyanobacteria/Blue-green Algae) प्रकाश-संश्लेषी ग्राम नेगोटिव जीवाणु, जो समुद्री व स्वच्छ जल में पाया जाता है। रंजित व जल को प्रदूषित करने वाला । उदाहरण नॉस्टॉक, एनाबीना, आदि।
रिकेट्सया (Rickettsia) छोटे, ग्राम ऋणात्मक अन्तराकोशिकीय परजीवी। इनके जीवन चक्र में स्तनधारी व आर्थ्रोपोडा जैसे टिक्स सम्मिलित होते हैं। ये मानव में कई रोग जैसे टाइफस (Rickettsia prowaszekii) तथा रॉकी माउन्टेन स्पाटिड ज्वर करते हैं। क्लैमाइडियल संक्रमण सबसे सामान्य यौन संक्रमण रोग है। उदाहरण रिकेट्सया, क्लैमाइडिया, आदि।
आर्कीबैक्टीरिया (Archaebactria) ये पुरातन जीवाणु है, जो प्रतिकूल वातावरण में रहते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं
◆ मीथेनोजन्स (मीथेन उत्पादक जीवाणु) उदाहरण मीथेनोबैक्टीरियम, आदि ।
◆ हैलोफाइलस (समुद्री जीवाणु) उदाहरण हैलोबैक्टीरियम, आदि।
◆ थर्मोएसिडोफाइल्स (सल्फर जीवाणु ) उदाहरण सल्फोलोबस, आदि।
दूध का पाश्चुरीकरण (Pasturisation of Milk) 
पाश्चुरीकरण का सिद्धान्त लुईस पाश्चर ने दिया था। इस सिद्धान्त के अनुसार दूध को उसके बाइलिंग तापमान से कम ताप पर उबालने से उसके हानिकारक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, जिससे दूध का स्वाद व गुण भी खत्म या परिवर्तित नहीं होते हैं।
दूध, सामान्यतया 65°C तापमान पर 30 मिनट तक पाश्चुरीकरण किया जाता है।
यह दो क्रियाओं द्वारा होता है
√कम तापमान अधिक समय प्रक्रिया (LTL and TP) इसमें दूध को 63°C पर 30 मिनट तक उबाला जाता है तथा फिर उसे ताजा रखने हेतु ठण्डा किया जाता है।
√उच्च तापमान कम समय प्रक्रिया (HTS and TP) इसमें दूध को 77°C पर 15 मिनट तक उबाला जाता है तथा फिर एकदम ठण्डा किया जाता है, जिससे दूध अधिक समय तक ताजा रहता है।
प्रोटिस्टा जगत (Kingdom-Protista)
प्रोटिस्टा जगत हेकल ने 1886 ई. में वर्णित किया था। ये प्रथम यूकैरियोट थे, जो 1000 मिलियन वर्ष पूर्व उद्भव  (origin) हुए थे। इस जगत में एककोशिकीय जीव आते हैं।
प्रोटिस्टा जगत के वर्ग (Classes of Kingdom Protista) 
प्रोटिस्टा जगत को निम्न तीन वर्गों में बाँटा गया है
प्रोटिस्टा जगत के लक्षण (Characteristics of Kingdom-Protista) 
(i) कोशिका संरचना (Cell Structure) इनके ऊपर कोशिका झिल्ली पाई जाती है तथा सेलुलोज, प्रोटीन तथा सिलिका की बनी कोशिका भित्ति भी पाई जाती है |
(ii) कोशिकाँग (Cell Organelles) इनमें झिल्लीयुक्त कोशिकाँग, राइबोसोम 80S राइबोसोम, चलनशील अंग, चलने के लिए पक्ष्माभ तथा कशाभिका (cilia and flagella) पाए जाते हैं।
हरितलवक (Chloroplast) डाइनोफ्लैजीलेट्स जैसे प्रकाश-संश्लेषी जीवों में आन्तरिक थाइलेकॉइड सहित हरितलवक होते हैं।
(iii) प्रजनन (Reproduction) इनमें लैंगिक तथा अलैंगिक दोनों प्रकार का प्रजनन होता है।
(iv) पोषण (Nutrition) ये स्वयंपोषी तथा विषमपोषी दोनों प्रकार के होते हैं।
◆ लकड़ी खाने वाले जानवरों (termite) में सेलुलोज पाचक एन्जाइम पाए जाते हैं।
◆ लाल ज्वार ‘गॉनी ऑलेक्स (Ganyaulex)’ नामक लाल प्रोटिस्टा के कारण होता है।
◆ नेवीकुलाल नामक डाइएटम, प्रकाश की ओर जाते हैं।
◆ अमीबा से डायरिया, प्लाज्मोडियम से मलेरिया तथा ट्रिपेनोसोमा से अफ्रीकी निद्रा रोग होता है।
प्रोटिस्टों का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Protists)
कवक जगत (Kingdom-Fungi )
कवक केन्द्रक युक्त, कोशिका भित्ति युक्त (काइटिन युक्त कोशिका भित्ति), हरितलवक रहित थैलस जीव है, जिनका शरीर जड़, पत्ती तथा तने में विभाजित नहीं होता है। कवक एककोशिकीय अथवा बहुकोशिकीय हो सकते हैं। कवक विषमपोषी होते हैं। कवक के अध्ययन की शाखा को माइकोलॉजी कहते हैं।
प्रथम प्रतिजैविक पेनिसिलिन का निर्माण एलेक्जेन्डर द्वारा सन् 1927 में पेनिसिलियम नोटेटम नामक कवक से किया गया था।
कवक के प्रकार (Types of Fungi) 
कवक को पोषण के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया गया है
कवक के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Fungi)
(i) संरचना ( Structure ) कवक का शरीर लम्बी धागेनुमा संरचनाओं का बना होता है, जिन्हें हाइफी (hyphae) कहते हैं । संयुक्त रूप से हाइफी के साथ कवक के शरीर को माइसीलियम (mycellium) कहते हैं।
(ii) कोशिका भित्ति (Cell Wall) कवक की कोशिका भित्ति काइटिन या कवक सेलुलोज की बनी होती है।
(iii) संचित भोज्य पदार्थ (Food Reserve) कवक में भोज्य पदार्थ ग्लाइकोजन अथवा तेल के रूप में संचित रहता है।
(iv) प्रजनन (Reproduction) इनमें तीन प्रकार से प्रजनन होता है
(a) लैंगिक (Sexual) इसमें दो युग्मकों अथवा दो केन्द्रकों का संयुग्मन होता है।
(b) अलैंगिक ( Asexual ) बीजाणु ( spores ) द्वारा इनमें अलैंगिक जनन होता है। उदाहरण म्यूकर, राइजोपस, आदि ।
(c) कायिक (Vegetative) विखण्डन अथवा कलिकाओं के द्वारा कवक में कायिक जनन होता है।
(v) ये बीजाणु भी बनाते हैं जैसे यीस्ट, मशरूम, एस्पर्जिलस, पेनिसिलियम, राइजोपस व एगेरिकस।
कवक का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance or Advantages of Fungi)
(i) भूमि की उपज में (To Increase the Soil-Fertility ) कुछ कवक गले-सड़े पदार्थों से कार्बनिक पदार्थों का विघटन करके बहुत से लवण पदार्थ बनाते हैं, जो पृथ्वी से मिलकर उसकी उर्वरकता बढ़ाते हैं।
उदाहरण राइजोपस आदि ।
(ii) नाइट्रोजन – स्थिरीकरण में (In Nitrogen-Fixation) कुछ कवक नाइट्रोजन गैस का स्थिरीकरण करते हैं. जिससे पादपों को पोषण प्राप्त होता है। उदाहरण रोडोटूरेला, आदि।
(iii) औषधि निर्माण में (In Medicine) बहुत से कवकों का उपयोग औषधि व प्रतिजैविक के निर्माण में किया जाता है। प्रतिजैविक जैसे क्लोरोमाइसिटीन, नियोमाइसिन, स्ट्रेप्टोमाइसिन, ट्रेट्रामाइसिन, रेमाइसिन का निर्माण कवकों द्वारा किया जाता है।
(iv) खाद्य पदार्थ के रूप में (As a Food) बहुत से कवक जैसे छत्रक (Agaricus), गुच्छी (Morchella) का उपयोग सब्जी के रूप में, सेकैरोमाइसीज सैरीविसी का उपयोग डबलरोटी, एल्कोहॉल, बीयर, वाइन बनाने में, पेनिसिलियम व एस्पर्जिलस का उपयोग पनीर बनाने में किया जाता है।
◆ नीली – हरी शैवाल ( Spirulina), प्रोटीन का उच्च स्रोत है।
(v) विटामिन निर्माण में (In Vitamin Synthesis) बहुत से कवक विटामिन निर्माण का भी कार्य करते हैं। स्ट्रेप्टोमाइसिस ग्राइसियस से विटामिन-B12 स्ट्रेप्टोमाइसिस ग्राइसियस से विटामिन-D तथा एश्वया गोसीबाई से विटामिन-B2 का निर्माण होता है।
(vi) एन्जाइम निर्माण (In Enzymes Formation) बहुत से कवकों द्वारा एन्जाइम का निर्माण भी किया जाता है। एस्पर्जिलस ओराइजी से एमाइलेस (amylase) सेकैरोमाइसिस सेरीवाइसी से इनवर्टेस (invertase) तथा पेनिसिलियम से पेक्टिनेस (pectinase) का निर्माण होता है।
(vii) अम्लों तथा रसायनों के निर्माण में (Chemicals formation) कवकों के द्वारा विभिन्न रसायनों का निर्माण किया जाता है।
कवक रसायन / अम्ल
पेनिसिलियम, ग्लूकोम, एस्पर्जिलस गैलोमाइसिस गैलिक अम्ल
राइजोपस ओराइजी, म्यूकर जेवेनिकस एल्कोहॉल
राइजोपस स्टोलोनिफर कार्टिसोन
एस्पर्जिलस नाइगर ग्लूकोनिक अम्ल
राइजोपस नाइग्रीकेन्स टूमैरिक अम्ल
राइजोपस स्टोलोनिफर, राइजोपस नोडोसस लैक्टिक अम्ल
कवक की हानिकारक क्रियाएँ (Harmful Activities of Fungi)
(i) खाद्य पदार्थों को सड़ाना (Spoilage of Food-Stuffs) कुछ कवक खाद्य पदार्थ जैसे आचार, जैम, आदि पर वृद्धि कर उन्हें सड़ा देते हैं। उदाहरण राइजोपस, म्यूकर, आदि।
(ii) कागज व कपड़े को नष्ट करना (Destroy the Paper and Cloths ) कपड़ों को नष्ट करने वाले कवक एल्टरनेरिया, ट्राइकोडर्मा, कीटोमियम एवं कागज को नष्ट करने वाले कवक सिफेलोथिसियम, क्लेडोस्पोरियम एवं फ्यूजेरियम हैं।
(iii) लकड़ी को नष्ट करना (Destroy the Wood) कुछ कवक । उदाहरण पोरिया, फोमिस, मैरुलियस, आदि लकड़ी को नष्ट कर देते हैं।
(iv) रोग कारक (Spread Disease) कारक पादपों में, जानवरों में तथा मानव में विभिन्न रोगों को उत्पन्न करते हैं।
पादप जगत (Kingdom-Plantae)
पादप जगत में हरी, भूरी, लाल शैवाल, मॉस, फर्न, पेड़ (पुष्पीय या अपुष्पीय) आते हैं। ये बहुकोशिकीय यूकैरियोटिक जीव होते हैं, जिनमें अधिकांशतया हरितलवक पाया जाता है।
पादप जगत का वर्गीकरण (Classification of Kingdom-Plantae) 
पादप जगत को निम्न आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है
1. थैलोफाइटा (Thallophyta)
थैलोफाइटा वर्ग में वे पादप आते हैं, जिनका शरीर विभिन्न भागों तथा अंगों में वर्गीकृत नहीं होता हैं। इनमें शैवाल पादप आते हैं। शैवाल (algae) शब्द सर्वप्रथम वर्ष 1755 में लिनियस ने दिया था।
ये हरितलवक युक्त, स्वयंपोषी, प्रकाश-संश्लेषी पादप होते हैं। ये मुख्यतया साफ जल तथा लवणीय जल में पाए जाते हैं। कुछ शैवाल गीली मिट्टी, चट्टान पर भी पाए जाते हैं। शैवाल के आकार व आकृति में विभिन्नताएँ पाई जाती हैं जैसे तन्तुमय (उदाहरणळे`स्पाइरोगायरा) से कॉलोनी युक्त ( उदाहरण वॉल्वॉक्स)।
शैवाल में सबसे छोटा गुणसूत्र पाया जाता है।
जीव विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत शैवालों का अध्ययन किया जाता है। फाइकोलॉजी (Phycology) कहलाती है।
शैवालों की कोशिकीय संरचना (Cellular Structure of Algae) 
अधिकांश शैवाल जलीय होते हैं। ये अपना भोज्य पदार्थ स्टार्च के रूप में संचित करते हैं तथा इनकी कोशिका भित्ति सेलुलोज की बनी होती है। इनमें जननांग एककोशिकीय होते हैं।
शैवालों के प्रकार (Types of Algae ) 
शैवालों में पाए जाने वाले रंजकों के आधार पर इन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया गया है।
जिनका विवरण निम्न तालिका में उल्लेखित है
शैवाल में प्रजनन (Reproduction in Algae ) 
शैवाल में तीन प्रकार से प्रजनन होता है
(a) कायिक (Vegetative) इसमें विखण्डन, मुकुलन व हर्मोगोनिया बनते हैं। उदाहरण स्पाइरोगायरा, स्फैसिलेरिया, आदि ।
(b) अलैंगिक (Asexual) चलबीजाणु, एकाइनीट्स एप्लेनोस्पोरस, स्वयबीजाणु, एकलवीजाणु द्विवीजाणु, बहुबीजाणु, अन्तः बीजाणु व हाइपोस्पोरस द्वारा । उदाहरण यूलोथ्रिक्स, वाऊचेरिया, आदि।
(c) लैंगिंक (Sexual) इनमें समयुग्मक (isogamy), विषमयुग्मक (anisogamy) तथा अण्डयुग्मक (oogamy) द्वारा लैगिक जनन होता है। उदाहरण स्पाइरोगायरा, क्लैमाइडोमोनास, वॉल्वॉक्स, आदि।
2. ब्रायोफाइटा (Bryophyta)
ये पादप प्रथम भूमीय पादप हैं, जिन्हें थैलोफाइटा तथा टेरिडोफाइटा के मध्य की कड़ी माना जाता है। इनकी शारीरिक संरचना साधारण होती है। ये संवहन ऊतक रहित, स्वयंपोषी, अपुष्पीय तथा बीज रहित पादप हैं। ये पादप जगत के उभयचर (amphibian) के रूप में जाने जाते हैं क्योंकि ये जल तथा स्थल दोनों पर वास करते हैं। उदाहरण एन्थोसिरोस, पॉलीट्राइकम, फ्यूनेरिया, मार्केशिया, आदि।
ब्रायोफाइटा के लक्षण (Characteristics of Bryophyta) 
(i) इनमें तने तथा पत्तियों जैसी संरचनाएँ पाई जाती हैं।
(ii) इनका शरीर थैलस प्रकार का होता है, जो आधार से राइजोइड्स द्वारा चिपका रहता है।
(iii) मुख्य पादप शरीर एकगुणित (haploid) होता है, जिसे युग्मकोद्भिद (gametophyte) कहते हैं।
(iv) इनमें संवहन ऊतक नहीं पाया जाता है।
(v) इनमें भोज्य पदार्थ स्टार्च (starch) के रूप में संचित रहता है।
(vi) इनकी कोशिका भित्ति सेलुलोज की बनी होती है, जिसके ऊपर पेक्टिक परत पाई जाती है, जिसमें गैलेक्टोसेनिक अम्ल पाया जाता है।
(vii) नर प्रजनन अंग को पुंधानी (antheridium) तथा मादा प्रजनन अंग को स्त्रीधानी ( archegonium) कहते हैं। प्रजनन अंग एक चोलक (jacket) से घिरे रहते हैं।
(viii) इनमें सिर्फ अण्डयुग्मक प्रकार का लैंगिक प्रजनन होता है तथा कायिक प्रजनन (vegetative reproduction) भी पाया जाता है।
ब्रायोफाइटा का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Bryophyta) 
(i) मृदा का निर्माण (Soil Formation ) कुछ मॉस, जो तालाबों में उगलती हैं मृत्यु होने पर जल के नीचे एकत्र हो. जाती हैं और भूमि के निर्माण (soil formation) में सहायक होती हैं।
(ii) मृदा के कटाव को रोकना (Prevention of Soil Erosion) ब्रायोफाइटा घने रूप में उगने के कारण मिट्टी को बाँधते हैं और इस प्रकार वर्षा के जल द्वारा भूमि के कटाव (soil erosion) को रोकते हैं।
(iii) ईंधन (Peat) स्फेगनम (Sphagnum) ईंधन के रूप में भी प्रयोग में लाई जाती है। स्फेगनम को बीज उगाने की क्यारियाँ बनाने के काम में लाया जाता है, क्योंकि पृथ्वी में अधिक समय तक नमी रहती है।
(iv) एन्टीसेप्टिक (Antiseptic) स्फेगनम को अच्छी प्रकार साफ करके घावों की ड्रेसिंग करने के काम में लाया जाता है।
3. ट्रेकियोफाइटा ( Tracheophyta)
जिन पादपों में भोजन व जल के संवहन के लिए सम्पूर्ण संवहन तन्त्र पाया जाता है, वे ट्रेकियोफाइटा उप-जगत के अन्दर आते हैं। ऊतक संवहन का कार्य करने वाले ऊतक जाइलम तथा फ्लोएम है। इस उप-जगत में लगभग 2.75 लाख प्रजाति आती हैं। इन्हें फिर टेरिडोफाइटा, आवृतबीजी व अनावृतबीजी में विभाजित किया गया है।
(i) टेरिडोफाइटा (Pteridophyta) 
ये बीजरहित संवहन पादप हैं, जिनमें बीज नहीं पाए जाते तथा प्रजनन बीजाणुओं द्वारा होता है। ये नमी वाले स्थानों पर पाए जाते हैं। उदाहरण सिलेजिनैला, साल्विनिया, मासिलिया, आदि। ‘टेरिडोफाइटा शब्द सन् 1866 ई में हेकल (Haeckel) ने दिया था। इस संघ में लगभग 13000 प्रजाति पाई जाती हैं।
टेरिडोफाइटा के लक्षण (Characteristics of Pteridophyta)
(a) इनका शरीर जड़, तने तथा पत्तियों में विभाजित होता है।
(b) इनमें जाइलम तथा फ्लोएम युक्त संवहन बण्डल पाए जाते हैं।
(c) इनका मुख्य शरीर बीजाणुद्भिद (sporophytic) होता है तथा इनके बीजाणु, बीजाणुधानी (sporangia) में बनते हैं।
(d) बीजाणुधानियाँ जिस पत्ती पर पाई जाती हैं, उसे बीजाणुपर्ण (sporophyll) कहते हैं।
(e) नर प्रजनन अंग को पुंधानी तथा मादा प्रजनन अंग को स्त्रीधानी कहते हैं।
(f) इनमें पीढ़ी एकान्तरण पाया जाता है।
टेरिडोफाइटा का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Pteridophyta)
(a) चारा (Fodder) टेरिडियम, घेरलू जानवरों के चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है।
(b) औषधि (Medicine) लाइकोपोडियम को औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।
(c) व्यापारिक उपयोग (Commercial uses) इक्वीसिटम से सोना भी प्राप्त किया जा सकता है।
(ii) अनावृतबीजी पादप (Gymnosperms)
अनावृतबीजी पादपों में नग्न रूप में बीज पाए जाते हैं, जो किसी भित्ति या फल में बन्द नहीं होते हैं। इनमें अण्डाशय का पूर्ण अभाव होता है। यह एक छोटा वर्ग है, जिसमें लगभग 900 प्रजाति ही जीवित हैं। ये पादप अधिकांशतया उत्तरी गोलार्द्ध के ठण्डे स्थानों पर पाए जाते हैं। इनमें से अधिकांश सजावट योग्य पादप (ornamental plants) होते हैं।
अनावृतबीजी पादपों के लक्षण (Characteristics of Gymnosperms)
(a) पादप शरीर बीजाणुद्भिद् होता है, जिनमें जड़, तना तथा पत्तियाँ पाई जाती हैं।
(b) इनमें मूसला जड़ें पाई जाती हैं
(c) इनकी जड़ों में सहजीवी कवक पाया जाता है, जिसे माइकोराइजा (mycorrhiza) कहते हैं। उदाहरण पाइनस ।
(d) ये बहुवर्षीय तथा काष्ठीय होते हैं। साइकस में काष्ठ मोनोजाइलिक व पाइनस में पिक्नोजाइलिक होती है।
(e) इनमें परागण हवा द्वारा होता है।
(f) इनमें बहुभ्रूणीय अवस्था पाई जाती है।
(g) पौधों में जननाँग (reproductive organs) प्रायः एकलिंगी शंकु (cone) या स्ट्रोबिलस (strobilus) के रूप में होते हैं। नर शंकु बहुत-से सूक्ष्मबीजाणुपर्णो (microsporophylls) से मिलकर बनते हैं।
(h) सूक्ष्मबीजाणुपर्णो (microsporophylls) पर सूक्ष्मबीजाणुधानियाँ (microsporangia) अथवा परागधानियाँ (pollen sacs) या तो धानी गुच्छों (sori) के रूप में लगी होती हैं। उदाहरण साइकस प्रजातियों में ज्यादा या केवल दो रह जाती हैं उदाहरण पाइनस प्रजातियों में। इनमें जाइलम व फ्लोएम संवहन ऊतक, संवहन बण्डल में लगे होते हैं। इनमें पुष्प नहीं पाए जाते ।
अनावृतबीजी का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Gymnosperms)
(a) भोज्य पदार्थों के लिए (Plants of Food Value) जैमिया से मण्ड प्राप्त किया जाता है। साइकस से भी एक प्रकार का सागो (sago) प्राप्त किया जाता है। एनसिफलारटोस (Encephlartos) से केफर ब्रेड (Kaffer bread) तैयार की जाती है। कुछ पौधों की माँसल पत्तियाँ शाकभाजी के रूप में खाई जाती हैं। चिलगोजा (Pinus gerardiana) के बीच के भ्रूणपोष (endosperm) व भ्रूण (embryo) खाए जाते हैं। जिन्गो बाइलोबा (Ginkgo biloba) व साइकस के बीजों को भूनकर खाया जाता है।
(b) सजावट के लिए (Ornamental Plants) साइकस, पाइनस, एरोकेरिया, जिन्गो, थूजा, एबीस, टैक्सस, क्रिप्टोमेरिया, आदि पौधे मकानों एवं उद्यानों में सजावट के लिए लगाए जाते हैं।
(c) लकड़ी (Wood) पाइन व यू पेड़ों की मुलायम लकड़ी से फर्नीचर भी बनाए जाते हैं।
(d) कागज बनाने में (Paper Industry) नीटम (Gnetum) एवं पाइसिया (Picea) से कागज की लुग्दी एवं कागज बनाया जाता है।
(e) फर्नीचर के लिए लकड़ी (Wood for Furniture) के रूप में पाइनस वालिचिआना (कैल), पाइनस रॉक्सबर्धी (चीड़), एबीस (फर), सिड्रस देवदार (दयार), सिक्यूआ (लाल लकड़ी) से लकड़ी प्राप्त होती है, जो दरवाजे, खिड़कियाँ तथा हल्का फर्नीचर बनाने में काम आती है।
(f) ईंधन भोजन (fuel food) इनके पेड़ों की शाखाओं को ईंधन भोजन के रूप में उपयोग करते हैं।
(g) औषधि (Medicine) इफेड्रीन नामक औषधि इफेड्रा पौधे से प्राप्त की जाती है।
(iii) आवृतबीजी पादप (Angiosperms)
आवृतबीजी पादपों में बीजों के ऊपर खोल पाया जाता है तथा वे फल में बन्द होते हैं। परागकण एवं बीजाणु, फूल में पाए जाते हैं। इनमें बीजपत्र पाए जाते हैं।
प्रकृति में आवृतबीजी पादपों की लगभग 250000 प्रजाति पाई जाती हैं। ये लगभग 130-160 मिलियन वर्ष पूर्व अवतरित (revealed) हुए थे। ये विभिन्न स्थानों पर पाए जाते हैं जैसे धरातल से लगभग 6000 मीटर ऊँचे हिमालय, अन्टार्कटिका तथा टुण्ड्रा तक, जब इनके बीज की वृद्धि होती है, तो ये हरे प्रतीत होते हैं।
आवृतबीजी पादपों के लक्षण (Characteristics of Angiosperms)
(a) सरल या संयुक्त पत्ती पाई जाती हैं।
(b) नर जनन अंग पुँकेसर (stamen) तथा मादा जनन अंग स्त्रीकेसर (pistil/carpel) कहलाता है।
(c) इनमें द्विनिषेचन (double fertilisation) होता है, जिसमें द्विगुणित युग्मनज तथा त्रिगुणित भ्रूणषोष (triploid endosperm) बनता है।
(d) इनमें संवहन ऊतक पाया जाता है।
(e) ये मृतोपजीवी, सहजीवी, स्वयंपोषी तथा परजीवी भी होते हैं।
आवृतबीजी पादपों का वर्गीकरण (Classification of Angiosperms)
इन्हें बीजपत्र (cotyledon) के आधार पर दो वर्गों में विभाजित किया जाता है
(a) एकबीजपत्री (Monocotyledons) इनमें भ्रूण में एक बीजपत्र पाया जाता है। उदाहरण घास, बाँस, गन्ना, अनाज, केला, लिली, ऑर्किड, प्याज, आदि।
एकबीजपत्री बीजों के सामान्य लक्षण निम्न हैं
◆ रन्ध्र डम्बैल आकार के होते हैं।
◆ जड़ विकसित नहीं होती है।
◆ द्वितीयक वृद्धि नहीं होती है। –
◆ पुष्पीय भाग तीन के सैट में पाए जाते हैं। –
◆ कैम्बियम अनुपस्थित होता है। –
◆ संवहन ऊतक बिखरे व बन्द होते हैं।
(b) द्विबीजपत्री (Dicotyledons) इनमें भ्रूण में दो बीजपत्र पाए जाते हैं। उदाहरण मोटी लकड़ी वाले पेड़, दालें, फलों वाले पेड़, सब्जियाँ, मसाले, आदि।
द्विबीजपत्री बीजों के सामान्य लक्षण निम्न हैं
◆ रन्ध्र वृक्क की आकृति के होते हैं।
◆ जड़, मूलांकूर से निकलती हैं।
◆ द्वितीयक वृद्धि होती है।
◆ पुष्पीय भाग, 4 या 5 के सैट में होते हैं।
◆ संवहन ऊतक में कैम्बियम होता है। संवहन ऊतक चक्र में लगे रहते हैं।
आवृतबीजी पादपों का आर्थिक महत्त्व ( Economic Importance of Angiosperms) 
(a) ये भोजन, रेशे, मसाले तथा सब्जी के रूप में प्रयोग किए जाते हैं।
(b) आवृतबीजी पादपों से बहुत-सी औषधि, इत्र, रबड़, साबुन व सौन्दर्य प्रसाधन बनाए जाते हैं।
◆ सिकोया सिम्परविरेंस (Sequoia sempervirens) सबसे लम्बा अनावृतबीजी पादप है तथा इसे विशाल लाल लकड़ी पेड़ (giant red wood tree) भी कहते हैं।
◆ साइकस सबसे प्राचीन अनावृतबीजी पादप है।
◆ जैमिया पिग्मिया (Zamia pigmia) सूक्ष्मतम अनावृतबीजी पादप है।
◆ सिक्युया गिगेंटिया (Sequoia gigantia) को जंगल का पिता (Father of Forest ) कहा जाता है।
जन्तु जगत (Kingdom- Animalia)
जन्तु जगत में आज तक लाखों जन्तुओं का विवरण हो चुका है। अतः इनका वर्गीकरण बहुत आवश्यक है। जन्तु जगत में स्पंज से लेकर स्तनधारी वर्ग के सभी जीव सम्मिलित हैं। जन्तु जगत का वर्गीकरण उनकी शारीरिक बनावट के आधार पर किया गया है। जन्तु जगत के जीव बहुकोशिकीय परपोषी यूकैरियोटिक होते हैं परन्तु सभी में समान संघठन नहीं पाया जाता। जन्तु जगत का वर्गीकरण इनकी शारीरिक बनावट व संघठन के आधार पर किया गया है।
जन्तु जगत के लक्षण (Characteristics of Kingdom-Animalia)
(i) ये बहुकोशिकीय, सुकेन्द्रकीय, यूकैरियोटिक तथा विषमपोषी जीव होते हैं।
(ii) इनमें कोशिका भित्ति अनुपस्थित होती है।
(iii) बहुकोशिकीय जन्तुओं को मेटाजोआ कहते हैं।
(iv) जन्तुओं में निम्न चार प्रकार का संगठन पाया जाता है
(a) जीवद्रव्य स्तर, उदाहरण प्रोटोजोआ
(b) कोशिकीय स्तर, उदाहरण स्पंज, मीसोजोआ
(c) ऊतक स्तर, उदाहरण प्लैटीहेल्मिन्थीज
(d) अंगक स्तर, उदाहरण कशेरुकी व अकशेरुकी
(v) शारीरिक सममिति, शारीरिक भागों की दिशा एवं उनकी समानता को कहते हैं। यह तीन प्रकार की होती है. असममिति (asymmetrical), अरीय सममिति (radial) तथा द्विपार्श्वीय सममिति (bilateral)।
असममिति (Asymmetrical) सममिति में जन्तु शरीर को किसी भी प्रकार से काटने पर वह समान भागों में नहीं बँटता । उदाहरण अमीबा, कुछ स्पंज l
अरीय (Radial) सममिति में शरीर को एक से अधिक व्यासों पर समान अर्धभागों में विभाजित किया जा सकता है। उदाहरण पोरीफेरा, सीलेन्ट्रेटा, टिनोफोरा तथा इकाइनोडर्मेटा, इत्यादि।
द्विपार्श्वीय (Bilateral) सममिति में शरीर के दाएँ-बाएँ भागों में इस प्रकार व्यवस्थित होता है कि लम्बाई में ही काटने पर शरीर को समान भागों में विभाजित किया जा सकता है।
उदाहरण प्लैटीहेल्मिन्थीज, निमेटोड़ा, एनीलिडा, मोलस्का, आर्थ्रोपोडा, कॉर्डेटा।
जन्तु जगत का वर्गीकरण (Classification of Animalia) 
नवीन जन्तु – जगत को दो उप-जगत में वर्गीकृत किया गया है
(i) उप-जगत प्रोटोजोआ
(ii) उप-जगत मेटाजोआ
उप-जगत प्रोटोजोआ (Sub-kingdom Protozoa)
प्रोटोजोआ में मुख्यतया एककोशिकीय यूकैरियोटिक जीव पाए जाते हैं, जिनमें से अधिकांश चलनशील होते हैं। प्रोटोजोआ उप-जगत के अधिकांश जन्तु परपोषी होते हैं, जिनमें अतन्तुमय संरचनाएँ पाई जाती हैं। ये पुराने जीव होते हैं तथा धरती की सतह पर पाए जाने वाले सबसे सरल जन्तु हैं। उदाहरण अमीबा, ई. कोलाई, लीशमानिया, प्लाज्मोडियम, यूग्लीना, आदि ।
उप-जगत प्रोटोजोआ के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Sub-kingdom Protozoa) 
◆ ये बहुत छोटे जीव होते हैं, जिनकी लम्बाई 10-52 माइक्रोमीटर होती है, परन्तु कुछ 1 मिमी तक भी होते हैं।
◆ ये पहले प्रोटिस्टा जगत के सदस्य माने जाते हैं।
◆ ये पूँछ जैसी फ्लैजिला (5-10um लम्बा) द्वारा तथा सिलिया द्वारा चलते हैं। इनमें पाद (pseudopodia – 2-20um मोटे) भी पाए जाते हैं।
◆ ये अपने भोजन को रिक्तिका ( vacuoles) नामक पेट जैसी संरचनाओं में पचाते हैं।
◆ ये मुख्यतया मृतोपजीवी, परजीवी, सहजीवी या पूर्णपोषी होते हैं।
◆ ये श्वसन व उत्सर्जन क्रियाएँ बाह्य क्रियाओं द्वारा करते हैं।
◆ इनमें प्रजनन लैंगिक व अलैंगिक दोनों प्रकार का होता है।
उप-जगत मेटाजोआ (Sub-kingdom Metazoa)
मेटाजोआ बहुकोशिकीय जीव होते हैं, जिनमें श्रम विभाजन पाया जाता है, क्योंकि इनमें विभिन्न कोशिकाएँ व अंग पाए जाते हैं, जो विभिन्न कार्य करते हैं। इनमें कोशिकीय ऊतक, अंग तथा अंग तन्त्र संघटन पाया जाता है। उप-जगत- मेटाजोआ में स्पंज से लेकर कॉर्डेटा संघ तक के जीव आते हैं।
इनका विवरण निम्न हैं
संघ-पोरीफेरा (Phylum Porifera)
इस संघ का अध्ययन आर ई ग्राउट (RE Graut) ने 1825 ई में किया था। संघ -पोरीफेरा में बहुकोशिकीय जन्तु आते हैं। ‘पोरीफेरा’ शब्द का अर्थ छिद्र धारक है। इस संघ के सदस्यों को स्पंज कहते हैं, जिनमें पानी सोखने की क्षमता होती है। इनमें बहुत से छिद्र पाए जाते हैं, जो नाल तन्त्र बनाते हैं, जिससे इनमें भोजन व ऑक्सीजन का परिवहन पूरे शरीर में होता है। उदाहरण साइकॉन, स्पांजिला, यूस्पॉन्जिया (bath sponge)।
संघ-पोरीफेरा के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Phylum-Porifera ) 
◆ इन जन्तुओं के शरीर पर कंकाल पाया जाता है।
◆ ये जलीय, समुद्री पत्थरों एवं शिलाओं, आदि पर चिपकी निर्जीव सी अपवृद्धियों (aggravation) के रूप में दिखाई देते हैं ।
◆ इनका शरीर असममिति, कोशिकीय स्तर का बना होता है।
◆ इनके शरीर में नाल प्रणाली (canal system) पाई जाती है, जिसे स्पंज गुहा कहते हैं।
◆ देहभित्ति पर पाए जाने वाले अंसख्य सूक्ष्म छिद्रों (ostia) द्वारा जल स्पंज गुहा में पहुँचकर शरीर के स्वतन्त्र छोर पर अर्थात् ऑस्कुलम (osculum) द्वारा बाहर निकलता रहता है।
◆ इनकी शारीरिक कोशिकाओं में श्रम विभाजन पाया जाता है।
◆ इनका शरीर मिक्ष्य द्विस्तरीय (pseudodiploblastic) होता है, क्योंकि कोशिकाएँ निश्चित परत नहीं बनाती है। इनमें कण्टिकाओं (spicules) अथवा स्पॉजिन प्रोटीन के धागों (spongin fibres) का कंकाल होता है।
◆ इनका पाचन अन्तः कोशिकीय होता है।
◆ इनमें जनन लैंगिक व अलैंगिक दोनों प्रकार का होता है।
संघ-सीलेन्ट्रेटा (Phylum-Coelenterata) 
इस संघ में अरीय सममिति वाले ऊतकीय स्तर के जन्तु आते हैं। इनमें देहभित्ति से घिरी सीलेन्ट्रॉन नामक गुहा होती है, जिसमें भोजन का पाचन एवं पचे भोजन का वितरण होता है। यह निडेरिया एवं टिनोफोरा दो संघों में विभाजित होता है। उदाहरण फाइसेलिया, एडन्सिया, पिन्नातुला, गॉरगोनिया, हाइड्रा, ओबीलिया, ऑरिलिया।
संघ-सीलेन्ट्रेटा के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Phylum-Coelenterata)
◆ ये मुख्यतया जलीय, एकाकी अथवा संघचारी होते हैं ।
◆ शरीर की आकृति बेलनाकार अथवा छतरीनुमा होती है।
◆ इनमें अरीय सममिति पाई जाती है। कोशिकाओं में श्रम विभाजन पाया जाता है।
◆ शरीर दो स्तरों उपकला व अन्तः गेस्ट्रोडर्मिस का बना होता है।
◆ निम्न कोटी का जालवत तन्त्रिका तन्त्र, द्विष्टी बिन्दु एवं स्टैटोसिस्ट्स (statocyst) नामक सन्तुलन रचनाएँ पार्थ जाती हैं।
◆ मेडुसा में लैंगिक व पॉलिप में अलैंगिक प्रकार का जनन होता है।
काइटिन (perioare) व कैल्शियम (corals) का बाह्यकंकाल होता है।
संघ-टीनोफोरा (Phylum-Ctenophora)
टीनोफोरा संघ एक छोटा संघ है, जिसमें सामान्यतया समुद्री जन्तु आते हैं, जिन्हें संयुक्त रूप से समुद्री अखरोट (sea walnut) या कॉम्ब जैली (comb jellies) कहते हैं। इसमें सिर्फ 50 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
संघ-टीनोफोरा के सामान्य लक्षण (General Characteristic of Phylum-Ctenophora) 
ये मुक्त तैराक होते हैं जिनमें कशाभ (flagella) होते हैं। ये द्विस्तरीय होते हैं। शरीर मुलायम, पारदर्शी व जिलेटिन जैसा होता है। शरीर पर 8 काम्ब प्लेट होती है। उदाहरण फ्लूरोक्रेंकिया तथा टीनोप्लैना | पाचन अन्तः व बाह्यः कोशिकीय दोनों प्रकार का होता है। इनमें कोरल जन्तु; सत्य सैली, समुद्री एनीमोन व समुद्री पैन इत्यादि आते हैं।
संघ-प्लैटीहेल्मिन्थीज (Phylum-Platyhelminthes) 
इस संघ में अंगीय स्तर के द्विपार्वीय जन्तु आते हैं, जिनमें देहगुहा नहीं होती है। प्लैटीहेल्मिन्थीज का शाब्दिक अर्थ चपटे कृमि (flatworms) है। इन्हें सामान्य रूप से तन्तु (filaments) कहते हैं। ये प्रथम त्रिस्तरीय (triploblastic) जीव होते हैं, जिनमें अंगों के ऊपर परत पाई जाती है।
संघ-प्लैटीहेल्मिन्थीज के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Phylum – Platyhelminthes )
◆ ये अधिकांश सदस्य परजीवी व कुछ रोगोत्पादक होते हैं।
◆ इनमें ऊतकीय स्तर की शारीरिक संरचना एवं मिथ्य खण्ड (false clause) पाए जाते हैं।
◆ इनका पोषद चिपकने हेतु चूषक (suckers) पाए जाते हैं।
◆ इनका शरीर त्रिस्तरीय एवं द्विपार्वीय सममिति का बना होता है।
◆ इनमें स्पष्ट अंगों एवं अंग तन्त्रों का विकास आरम्भ होता है।
◆ देहगुहा अनुपस्थित होती है।
◆ इनमें उत्सर्जन ज्वाला कोशिकाओं (flame cells) द्वारा होता है।
◆ इनमें अधूरा पाचन तन्त्र पाया जाता है।
◆ ये द्विलिंगी होते हैं, जिसमें आन्तरिक निषेचन होता है।
देहगुहा (Coelom or Body Cavity)
√ देहगुहा का अर्थ शरीर के अन्दर पाई जाने वाली वह गुहा है, जिसमें अंग तन्त्र उपस्थित होते हैं।
√ देहगुहा पर मीसोडर्म की परत पाई जाती है, जिसे सीलोम (coelom) कहते हैं।
√ जिन जन्तुओं में वास्तविक सीलोम पाई जाती है, उन्हें सीलोमेट (coelomates) कहते हैं; जैसे एनीलिडा, मोलस्का, आर्थ्रोपोडा, इकाइनोडर्मेटा, हेमीकॉर्डेट एवं कॉर्डेट संघ के जन्तु।
उदाहरण- टीनिया ( फीताकृमि) एवं फैशिओला (यकृत कृमि)
√ कुछ जन्तुओं में मिथ्य देहगुहा ( pseudocoelom) पाई जाती है, जो मीसोडर्म के एक्टोडर्म एवं एण्डोडर्म के मध्य उपस्थित होने से बनती है।
√ इन जन्तुओं को स्यूडोसीलोमेट (pseudocoelomate) कहते हैं।
√ स्पंज व सीलेन्ट्रेटा में देहगुहा नहीं पाई जाती ।
√ इन जन्तुओं को एसीलोमेट (acoelomate) कहते हैं।
संघ – निमेटोडा अथवा एस्केहेल्मिन्थीज (Phylum_Nematoda or Aschelminthes) 
इस संघ में अंगीय स्तर के द्विपार्श्वीय जन्तु आते हैं, जिनमें मिथ्य देहगुहा होती है। निमेटोडा का शाब्दिक अर्थ सूत्रकृमि है। उदाहरण ऐस्कैरिस (गोलकृमि), वाऊचेरिया (फाइलेरिया वर्म), आदि ।
संघ-निमेटोडा के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Phylum – Nematoda )
◆ ये अधिकांश जलीय, स्वतन्त्रजीवी अथवा परजीवी होते हैं।
◆ इनका शरीर द्विपार्वीय सममिति एवं त्रिस्तरीय होता है।
◆ इनमें मिथ्य सीलोम पाई जाती है, जिस पर मीसोडर्म का आवरण नहीं पाया जाता है।
◆ इनमें पूर्ण पाचन तन्त्र पाया जाता है, जिसमें अपेशीय आँत एवं गुदा पाई जाती है।
◆ इनमें परिवहन तन्त्र एवं श्वसन तन्त्र अनुपस्थित होते हैं।
◆ इनका तन्त्रिका तन्त्र गेंगलिया का बना होता है।
◆ ये परजीवी रोगाणु होते हैं, जो एलीफेन्टियासिस (elephantiasis) जैसी बीमारी करते हैं।
संघ – एनीलिडा (Phylum-Annelida)
इस संघ के जन्तु स्वच्छ जल, समुद्री जल तथा धरती पर पाए जाते हैं। इनमें लम्बे शरीर वाले द्विपार्श्वीय सममितित्रिस्तरीय शरीर वाले जीव पाए जाते हैं। इनके शरीर में खण्ड पाए जाते हैं। उदाहरण नेरीस, केंचुआ, जोंकइत्यादि।
संघ – एनीलिडा के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Phylum Annedia)
◆ ये मुख्यतया जलीय होते हैं, परन्तु कुछ धरातलीय भी होते हैं।
◆ कुछ परजीवी भी होते हैं।
◆ इनमें सीटी (setae) नामक चलन अंग भी पाया जाता है, जो काइटिन युक्त व शरीर में धँसे रहते हैं।
◆ ये द्विस्तरीय शरीर वाले होते हैं।
◆ इनमें देहगुहा पाई जाती हैं।
◆ इनमें पूर्ण विकसित पाचन तन्त्र होता है।
◆ इनमें उत्सर्जन हेतु वृक्क होते हैं।
◆ इनमें रुधिर परिवहन तन्त्र पाया जाता है तथा लाल रुधिर कणिकाओं में हीमोग्लोबिन पाया जाता है।
◆ इस संघ के जन्तु लम्बे शरीर वाले, शरीर खण्डों में बँटा होता है। अतः इन्हें सत्य वर्ग कहते हैं।
◆ इनमें श्वसन गीली त्वचा अथवा क्लोमों द्वारा होता है।
संघ-आर्थोपोडा (Phylum – Arthropoda)
इस संघ के जन्तुओं का शरीर द्विपार्श्वीय सममिति होता है तथा खण्डों में विभाजित होता है। इनका शरीर त्रिस्तरीय होता है। यह जन्तु जगत का सबसे बड़ा संघ है। उदाहरण मधुमक्खी, रेशम का कीट, मच्छर (Anopheles, Culex, Aedes), बिच्छू, मकड़ी, झींगा, केकड़ा, तिलचट्टा, कनखजूरा, आदि ।
संघ-आर्थ्रोपोडा के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Phylum-Arthropoda)
◆ इनका शारीरिक संघटन अंगतन्त्र स्तर का होता है।
◆ इनमें जुड़े हुए उपाँग (jointed appendages) पाए जाते हैं। इनमें जबड़े पाए जाते हैं।
◆ इनमें पाचन तन्त्र पूरा होता है, जिसमें मुख से गुदा तक सभी अंग पाए जाते हैं। इनका मुख सभी प्रकार के भोजन के लिए अनुकूलित होता है।
◆ इनमें श्वसन शारीरिक स्तर, क्लोम, ट्रेकिया अथवा बुक-फेफड़ों द्वारा होता है।
◆ इनमें उत्सर्जी तन्त्र में ग्रीन ग्रन्थियाँ (green glands) या मैल्पीघियन ट्यूबूल्स (Malpighian tubules) पाई जाती हैं l
◆ इनमें तन्त्रिका तन्त्र विकसित होता है, जिनमें तन्त्रिका घेरा (nerve ring) पाया जाता है।
◆ इनमें आँख के रूप में ग्राही अंग पाया जाता है।
◆ ये एकलिंगी होते हैं।
संघ-मोलस्का (Phylum – Mollusca)
यह सबसे बड़ा अकशेरुकी जन्तु संघ है। इस संघ में मुलायम शरीर वाले अकशेरुकी जन्तु आते हैं। यह आर्थ्रोपोडा के बाद जन्तु जगत का सबसे बड़ा संघ है। इसमें लगभग 85000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। मोलस्का शब्द जोहनस्टोनिन (Johnstonin) ने सन् 1650 में दिया था। उदाहरण पाइला ( apple snail), पिंकटाडा (pearl oyster), सीपिया, काइटन, नियोपीलिना, सीप, ऑक्टोपस, आदि ।
संघ मोलस्का के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Phylum-Mollusca) 
◆ इस संघ के जन्तु मुख्यतया समुद्री होते हैं, परन्तु कुछ स्वच्छ जल एवं धरती पर भी पाए जाते हैं।
◆ ये कोमल शरीर वाले जन्तु होते हैं, जिन पर मैंटल (mantle) की एक पतली झिल्ली पाई जाती है। मैंटल के चारों तरफ एक कठोर खोल या कवच (shell) होता है।
◆ इनमें पूर्ण पाचन तन्त्र पाया जाता है, जिसमें यकृत तथा दाँत भी पाए जाते हैं।
◆ इनमें उत्सर्जी तन्त्र में वृक्क पाए जाते हैं। इनका उत्सर्जी पदार्थ अमोनिया या यूरिक अम्ल होता है।
◆ इनमें श्वसन क्लोमो (ctenidia) अथवा मैंटल द्वारा होता है।
◆ इनमें चलन हेतु पेशीय पादप पाया जाता है।
◆ ये मुख्यतया एकलिंगी होते हैं। निषेचन आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार का हो सकता है।
संघ- एकाइनोडर्मेटा (Phylum-Echinodermata)
इस संघ के जन्तु कंटका युक्त त्वचा वाले होते हैं। इनका शरीर द्विपार्वीय सममिति वाला युक्त होता है, शरीर में देहगुहा पाई जाती है तथा शरीर पर खण्ड पाए जाते हैं। उदाहरण एस्टेरियास (स्टार मछली), एकाइनस (समुद्री अचिन), एण्टीडॉन (फर सितारा), समुद्री खीरा ऑफीक्यूरा (ब्रिटल स्टार), आदि ।
संघ- एकाइनोडर्मेटा के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Phylum-Echinodermata) 
◆ इनका अंगतन्त्र स्तर का शारीरिक संघटन, त्रिस्तरीय तथा सीलोम युक्त शरीर होता है।
◆ इनमें लारवा में द्विपार्श्वीय सममिति तथा वयस्कों में पंचकोणीय अरीय सममिति पाई जाती है।
◆ इनके शरीर पर कण्टिकाएँ सुरक्षा हेतु पाई जाती हैं।
◆ पाचन तन्त्र पूर्ण पाया जाता है। परिवहन तन्त्र खुले प्रकार का होता है, जिसमें हीमल तन्त्र (haemal system) तथा पेरीहीमल (parihaemal system) तन्त्र पाया जाता है। इनमें हृदय नहीं पाया जाता है। श्वसन तन्त्र में ट्यूब फीट, श्वसन पेड़ पाया जाता है। तन्त्रिका तन्त्र कम विकसित होता है।
◆ उत्सर्जी तन्त्र भी कम विकसित होता है ।
◆ इनका तन्त्रिका तन्त्र मस्तिष्क हीन होता है।
संघ – हेमीकॉर्डेटा (Phylum-Hemichordata) 
हेमीकॉर्डेटा को पहले उप-संघ को रूप में कॉर्डेटा संघ में रखा जाता था, परन्तु अब इसे एक अलग संघ के रूप में रखा गया है। इन्हें अर्द्ध कॉर्डेटा (half chordata) भी कहते हैं। इनमें कीड़े जैसे छोटे जीव आते हैं। उदाहरण बैलेनोग्लोसस, सिफैलोडिस्कस, आदि।
संघ-हेमीकॉर्डेटा के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Phylum-Hemichordata)
◆ ये पूर्णतया समुद्री जीव होते हैं, जो बिलों में रहते हैं।
◆ इनमें वास्तविक देहगुहा पाई जाती है।
◆ पाचन तन्त्र पूर्ण होता है।
◆ उपकला की संवेदी कोशिकाएँ संवेदी अंगों का कार्य करती हैं।
◆ परिसंचरण तन्त्र खुला होता है।
◆ एपिडर्मिस की तन्त्रिका कोशिका, ग्राही अंगों की भाँति कार्य करते हैं।
◆ लैंगिग जनन होता है तथा सेक्स अलग-अलग होता है।
◆ क्लोम दरारों तथा शारीरिक सतह द्वारा श्वसन होता है।
संघ-कॉर्डेटा (Phylum-Chordata)
संघ-कॉर्डेटा की स्थापना बैल्फोर (Balfour) नामक वैज्ञानिक ने सन् 1880 में की थी। इस संघ के जन्तु बहुत विकसित होते हैं।
संघ-कॉर्डेटा के सामान्य लक्षण (General Characteristics of Phylum-Chordata)
◆ इनमें मेरुदण्ड (ठोस, रोड जैसा) पाया जाता है, जो उसे सहारा देता है तथा पेशियों को जोड़ने का कार्य करता है।
◆ इनमें पृष्ठ तन्त्रिका रज्जु (dorsal nerve chord) भी पाई जाती है, जो भ्रूण की एक्टोडर्म से बनती है, जो मेरुदण्ड के पास पाई जाती है। ·
◆ इनमें परिवहन तन्त्र पूर्ण विकसित एवं बन्द प्रकार का होता है।
◆ इसमें ग्रसनी दरार (pharyngeal slits) पाई जाती है, जो वयस्कों में जबड़े को सहारा देने हेतु रूपान्तरित हो जाती हैं।
◆ इनमें पूर्ण विकसित तन्त्रिका तन्त्र, पाचन तन्त्र, उत्सर्जी तन्त्र एवं प्रजनन तन्त्र पाया जाता है।
◆ इस संघ के जन्तुओं में द्विपार्श्वीय सममिति, त्रिस्तरीय शरीर एवं सीलोम पाई जाती हैं, जिसमें अंगतन्त्र स्तर का संघटन पाया जाता है।
संघ-कॉर्डेटा को पुनः दो उप-संघों में विभाजित किया गया है; प्रोटोकॉर्डेटा एवं वर्टीब्रेटा l
प्रोटोकॉर्डेटा (Protochordata)
यह उप-संघ-यूरोकॉर्डेटा एवं सिफैलोकॉर्डेटा नामक दो छोटे वर्गों से मिलकर बना है। इनमें कशेरुकदण्ड नहीं पाया जाता है, अतः इन्हें अकशेरुकी कहते हैं। उदाहरण बैलैनोग्लोसस, हर्डमानिया एवं एम्फीऑक्सस, आदि। प्रोटोकॉर्डेटा के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं
◆ ये द्विपार्श्वीय सममिति युक्त, त्रिस्तरीय एवं देहगुहा युक्त होती है।
◆ इनमें मेरुदण्ड (कुछ अवस्थाओं में) पाई जाती है, जो पेशियों को जुड़ने का स्थान व चलने के लिए सहारा देती है।
कशेरुकी (Vertebrates)
ये उच्च कॉर्डेटा होते हैं। इन्हें यूरोकॉर्डेटा भी कहते हैं।
कशेरुकी के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं
◆ इस उप-संघ के जन्तुओं में कशेरुक दण्ड तथा अन्तः कंकाल पाया जाता है, जो पशियों को चलन हेतु सहारा देता है।
◆ इनका शरीर चार भागों में बँटा होता है जैसे सिर, गर्दन, धड़ एवं पूँछ। मंटक में कभी-कभी गर्दन व पैठ नहीं पाई जाती।
◆ ये द्विपाशवीय सममिति, त्रिस्तरीय, सीलोम युक्त एवं खण्डयुक्त शरीर रखते हैं।
◆ इनका शरीर ऊतक एवं अंगों का बना होता है, जो सवन संघटन का बना होता है।
◆ इनमें पूर्ण विकसित जैविक तन्त्र पाए जाते हैं जैसे पाचन, तन्त्रिका, उत्सर्जी, परिवहन एवं प्रजनन तन्त्र । कशेरुकी को पाँच वर्गों में विभाजित किया गया है
मत्स्य वर्ग (Class – Pisces) 
इस वर्ग में जलीय जन्तु आते हैं। उदाहरण मंडरियन मछली (Synchirpus splendidus), एंटर मछली (Caulophyryne jordant), लायन मछली (Plerois volitans), विद्युत रे (Torpedo), स्टिंग रे, डॉग मछली (Scoliodon), रोहू (Labeo rohita), समुद्री घोड़ा (Nale hippocampus), एनावास (climbing berch), कैट मछली (Mangur) ।
मत्स्य वर्ग के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं
◆ इनके शरीर के ऊपर कंटकों एवं स्केल का बना बाह्य कंकाल पाया जाता है।
◆ इनमें युग्मित उपाँग पाए जाते हैं, जो चलन में सहायता करते हैं।
◆ इनमें द्विवेश्मी (bilobed) हृदय पाया जाता है।
◆ ये क्लोमों द्वारा श्वसन करते हैं, जो पानी में घुलनशील ऑक्सीजन लेते हैं।
◆ ये पूर्णतः जलीय होते हैं, जो स्वच्छ व समुद्री दोनों जल में मिलते हैं।
◆ इनमें वायु थैली होती है, जो जल दाव नियन्त्रित करती है तथा जल की गहराई में मछलियों की रक्षा करती है।
◆ ये अनियततापी जन्तु (cold-blooded) होते हैं।
अनियततापी तथा नियततापी जन्तु (Cold and Warm – Blooded Animals)
√ अनियततापी जन्तु (cold-blooded animals) अपने ताप को वातावरण से लेते हैं। अतः ये वातावरण के तापमान के अनुसार अपना ताप बदलते हैं। वातावरणीय ताप अधिक व कम होने पर इनके शरीर का ताप भी अधिक व कम होता जाता है। उदाहरण मत्स्य, उभयचारी एवं सरीसृप ।
√ नियततापी जन्तु ( warm-blooded animal) अपने शरीर का ताप एक नियत स्थान पर रखते हैं, जो वातावरण के ताप के अनुसार नहीं बदलते हैं। उदाहरण स्तनधारी एवं पक्षी।
मत्स्य वर्ग को पुनः निम्न तीन उप-वर्गों में विभाजित किया गया है
(i) उप-वर्ग-साइक्लोक्टोमेटा उदाहरण पेट्रोमाइजॉन (लैम्प्रे), मिक्सीन ( हैग मछली ) ।
(ii) उप-वर्ग-कॉण्ड्रियोकाइट्स ( उपास्थि युक्त मछली) उदाहरण स्कॉलियोडॉन (शार्क / डॉग फिश), प्रिंस्टिस (सॉफिश), स्फाइन (हैमर हैडीड फिश)।
(iii) उप-वर्ग-ऑस्टियोकाइट्स (पेशीय मछली) उदाहरण लेवियो (रोहू), कटला, हिप्पोकैम्पस (समुद्री घोड़ा), रिमोरा (sucker fish) एनाबस (climbing perch)।
उभयचर वर्ग (Class- Amphibia)
उभयचर वर्ग के जन्तु जल एवं धरती दोनों पर निवास करते हैं। लाखा अवस्था में ये पानी में रहते हैं तथा मत्स्य जैसा व्यवहार करते हैं। ये तैरने के लिए पूँछ एवं श्वसन के लिए क्लोमों का उपयोग करते हैं।
वयस्क अवस्था में ये धरती पर रहते हैं तथा धरातलीय जन्तुओं की भाँति व्यवहार करते हैं। ये उपांगों द्वारा चलते हैं तथा त्वचा एवं फेफड़ों द्वारा श्वसन लेते हैं। उदाहरण सेलामेण्डर (Salamander), टोड, मेंढ़क (Rana tigrina), हाइला (Hyla-tree frog) तथा इकोथोफिस (Ecothophis), आदि।
उभयचर वर्ग के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं
◆ इनकी शारीरिक संरचना लम्बी, पतली या छोटी व चौड़ी हो सकती है।
◆ इनका शरीर सिर, गर्दन, धड़ एवं पूँछ अथवा सिर व धड़ में विभाजित होता है।
◆ इनमें कंटक नहीं पाया जाता है, परन्तु श्लेष्म ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं।
◆ इनमें अस्थियों का बना अन्तः कंकाल पाया जाता है। इनमें एटलस (atlas) नामक प्रथम कशेरुक पाई जाती है. जो सिर की चलनशीलता हेतु पाई जाती है।
◆ उभयचर प्रथम जन्तु है, जिनमें सत्य जीभ पाई जाती है।
◆ इनमें दाँत युक्त मुख तथा श्लेष्म युक्त जीभ पाई जाती है, जो पाचन में सहायता करती है।
◆ इनमें श्वसन क्लोम द्वारा, फेफड़ों द्वारा अथवा त्वचा द्वारा होता है।
◆ इनमें हृदय त्रिवेश्मी (three-chambered) होता है।
◆ ये जनन हेतु अण्डों को जन्म देते हैं, जो बाह्य वातावरण में विकसित होते हैं। ये अनियततापी होते हैं।
◆ डीएमिनेशन मनुष्य के यकृत में भी होता है, जिससे हानिकारक अमोनिया का उत्सर्जन होता है।
◆ ये अमोनिया का उत्सर्जन करते हैं। अमोनिया का निर्माण डीएमिनेशन द्वारा होता है।
सरीसृप वर्ग (Class – Reptilia)
इस वर्ग के जन्तु रेंगने वाले होते हैं। ये धरातलीय जन्तु होते हैं। उदाहरण कोहरा, ड्रेको (flying lizard-Dracoघरेलू छिपकली (Hemidactylus)।
सरीसृप वर्ग के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं
◆ इनका शरीर सिर, गर्दन, धड़ एवं पूँछ में विभाजित होता है।
◆ इनकी त्वचा सूखी एवं श्लेष्मरहित होती है।
◆ इन पर काँटेंदार शल्क का आवरण पाया जाता है, जो इनका बाह्य कंकाल बनाता है।
◆ इनमें अस्थियों का अन्तः कंकाल पाया जाता है।
◆ कुछ जन्तु पानी में भी रहते हैं परन्तु प्रजनन हेतु ये फिर धरातल पर आ जाते हैं।
◆ ये असमतापी होते हैं।
◆ इनमें श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है।
◆ ये कैल्शियम कार्बोनेट से ढके अण्डों को देते हैं, जिनसे शिशुओं का जन्म होता है।
◆ इनमें साँप, छिपकली, मगरमच्छ एवं कछुए आते हैं।
◆ इनका हृदय त्रिवेश्मी (three-chambered) होता है परन्तु मगरमच्छ का हृदय चार वेश्मों का बना होता है।
पक्षी वर्ग (Class – Aves)
इस वर्ग के जन्तुओं में अग्रपाद पँखों में रूपान्तरित हो जाते हैं, जो उड़ने में सहायता करते हैं। उदाहरण कबूतर, गौरेया, कौआ, कीवी (Apteryx), ऑस्ट्रिच (Ostrich), नर टफ्ट बत्तख (Aythya fuligula), सफेद स्टार्क (Ciconia ciconia), आदि ।
पक्षी वर्ग के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं
◆ इनका शरीर सिर, गर्दन, धड़ एवं पूँछ में विभाजित होता है।
◆ इनमें पश्चपाद चलने, कूदने तथा अग्रपाद उड़ने हेतु होते हैं।
◆ इनकी त्वचा पतली एवं रुखी होती है। अस्थियों का बना हल्का अन्तःकंकाल पाया जाता है।
◆ इनका हृदय चार वेश्मों का बना होता है।
◆ ये नियतमापी जीव होते हैं।
◆ ये शिशु जन्म हेतु अण्डे देते हैं।
स्तनधारी वर्ग (Class-Mammalia)
इस वर्ग के जन्तुओं में मादा में स्तन ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। उदाहरण कुत्ता, बिल्ली, मनुष्य, चमगादड़, चूहा प्लेटीपस (अण्डे देने वाला स्तनधारी), आदि।
स्तनधारी वर्ग के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं
◆ इनकी त्वचा में स्वेद, दुग्ध, तेल एवं श्लेष्म ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं।
◆ इनके शरीर पर बाल पाए जाते हैं, जो शारीरिक तापमान को नियत रखने में सहायता करते हैं।
◆ इनका शरीर सिर, गर्दन, धड़ एवं पूँछ में विभाजित तथा शारीरिक आकार अनेक प्रकार के हो सकते हैं।
◆ इनमें अग्रपाद व पश्चपाद पाए जाते हैं, जो चलने, उछलने, पकड़ने का कार्य करते हैं।
◆ इनमें अस्थियों का बना अन्तःकंकाल पाया जाता है।
◆ इनका मुख छोटा तथा इनमें सीड़ीदार होठ, दाँत तथा जबड़े पाए जाते हैं।
◆ इनमें पूर्ण पाचन तन्त्र, श्वसन तन्त्र पाया जाता है। श्वसन फेफड़ों (फेफड़े स्पंजी, श्लास्तिक व अस्थि पंजर से सुरक्षित होते हैं) द्वारा होता है।
◆ इनमें परिवहन तन्त्र बन्द प्रकार का होता है। हृदय चार वेश्मों में बँटा होता है।
◆ ये एकलिंगी होते हैं, जिनमें आन्तरिक निषेचन पाया जाता है। ये शिशु को जन्म देते हैं।
◆ ये नियततापी होते हैं।
स्तनधारी वर्ग को पुनः दो उपवर्गों में विभाजित किया गया है
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *