नाभिकीय भौतिकी तथा रेडियोएक्टिवता (Nuclear Physics and Radioactivity)

नाभिकीय भौतिकी तथा रेडियोएक्टिवता (Nuclear Physics and Radioactivity)

नाभिकीय भौतिकी तथा रेडियोएक्टिवता (Nuclear Physics and Radioactivity)

हम जानते हैं, कि परमाणु में नाभिक धनावेशित होता है जिसके चारों ओर इलेक्ट्रॉन घुमते रहते हैं। नाभिकीय भौतिकी के अन्तर्गत नाभिक के स्थायित्व तथा नाभिकीय परिवर्तन का अध्ययन किया जाता है। रेडियोएक्टिवता, कृत्रिम परिवर्तन की क्रिया, आदि घटनाएँ नाभिकीय विखण्डन और नाभिकीय संलयन के उदाहरण होते हैं।
नाभिकीय बल (Nuclear Force)
वह बल, जो न्यूक्लिऑनों (प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन) को नाभिक के अन्दर बाँधे रखता है, नाभिकीय बल कहलाता है।
नाभिकीय बल की प्रकृति (Nature of Nuclear Force) 
◆ नाभिकीय बल लघु परासी बल है तथा 10-15 मी से अधिक दूरी होने पर यह बल कार्य नहीं करता है।
◆ ये प्रकृति के सभी बलों से शक्तिशाली हैं।
◆ ये आकर्षी प्रकृति के बल हैं व ये नाभिक को स्थायित्व प्रदान करते हैं।
◆ ये बल आवेश पर निर्भर नहीं करते हैं।
◆ ये बल केन्द्रीय बल नहीं हैं ।
◆ नाभिकीय बल विनिमय बल हैं। वैज्ञानिक युकावा के अनुसार, दो न्यूक्लिऑनों के बीच कार्यरत् नाभिकीय बल तथा न्यूक्लिऑनों के बीच π- मेसॉन कणों के विनिमय के फलस्वरूप उत्पन्न होता है।
नाभिक का स्थायित्व तथा न्यूट्रॉन/प्रोटॉन का अनुपात (Nucleus Stability and Neutron / Proton Ratio) 
नाभिकीय स्थायित्व, नाभिकीय दूरियों पर लगने वाले प्रबल न्यूट्रॉन-प्रोटॉन जैसे प्रोटॉन-प्रोटॉन आकर्षित बलों को बताता है। भारी नाभिकों में, प्रोटॉनों की संख्या अधिक होने के कारण इनके बीच आकर्षण बल अधिक हो जाता है अर्थात् यदि न्यूट्रॉन तथा प्रोटॉन का अनुपात अधिक है, तो नाभिक स्थायी होता है परन्तु हल्के तत्वों (20 से कम) के लिए न्यूट्रॉन/प्रोटॉन का मान 1 के बराबर होता है।
द्रव्यमान क्षति (Mass Defect)
नाभिक में उपस्थित न्यूट्रॉनों एवं प्रोटॉनों के द्रव्यमानों का योग नाभिक के वास्तविक द्रव्यमान से अधिक होता है। अतः द्रव्यमानों के अन्तर को द्रव्यमान क्षति कहते हैं।
द्रव्यमान क्षति Δm = प्रोटॉन की संख्या x प्रोटॉन का द्रव्यमान + न्यूट्रॉनों की संख्या × न्यूट्रॉन का द्रव्यमान – नाभिक का वास्तविक द्रव्यमान
रेडियोएक्टिवता (Radioactivity) 
किसी पदार्थ से स्वतः ही अदृश्य किरणों (विकिरणों) के उत्सर्जित होते रहने की परिघटना को रेडियोएक्टिवता कहते हैं तथा ऐसे पदार्थ को रेडियोएक्टिव पदार्थ (radioactive substance) कहते हैं और पदार्थों से स्वतः निकलने वाली किरणों को रेडियोएक्टिव किरणें (radioactive rays) कहते हैं। यह सम्पूर्ण रूप से नाभिकीय अभिक्रिया है तथा यह गैस, ताप, दाब आदि बाह्य कारकों के द्वारा प्रभावित नहीं होती है। वह तत्व जो रेडियोएक्टिवता प्रदर्शित करता है, रेडियोएक्टिव तत्व कहलाता है। रेडियोएक्टिवता के गुण शुद्ध यूरेनियम धातु के अतिरिक्त कुछ अन्य तत्त्व; जैसे थोरियम, रेडॉन, पोलेनियम, ऐक्टिनियम, आदि में भी होते हैं।
सन् 1896 में, पियरे क्यूरी तथा उनकी पत्नी मैडम क्यूरी ने यूरेनियम से दस लाख गुनी रेडियोसक्रियता वाले तत्व रेडियम (radium) की खोज की, जिसके लिए क्यूरी दम्पत्ति को सन् 1903, में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। रेडियोएक्टिव पदार्थों से तीन प्रकार का विकिरण उत्सर्जित होता है।
◆ अब तक 40 प्राकृतिक समस्थानिक और उसके यौगिक प्राप्त हैं, जिनमें रेडियोएक्टिवता पाई जाती है।
◆ रेडियम बहुत ज्यादा शक्तिशाली रेडियोएक्टिव तत्व है, जिसे मैडम क्यूरी द्वारा खोजा गया।
◆ रेडियोएक्टिवता मैडम क्यूरी द्वारा दी गई ।
◆ सबसे पहले सोडी ने नाभिक से अधिक स्थायी न्यूक्लियाई विकिरण के स्वतः उत्सर्जन को बताया।
◆ पदार्थ की रेडियोएक्टिवता गीगर भुतर काउण्टर उपकरण द्वारा मापी जाती है, जो गैसों के आयनीकरण पर आधारित है। यह उपकरण 90% ऑर्गन और 10% ईथाइल एल्कोहॉल की वाष्प को 10 मिमी दाब पर रखता है। आयनीकरण धारा का प्रवाह एम्पलीफायर द्वारा मापा जाता है।
रेडियोएक्टिव और बैकुरल किरणें (Radioactive and Becquerel Rays) 
रदरफोर्ड ने बताया कि वैद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र में, रेडियोएक्टिव पदार्थ से विकिरणों का उत्सर्जन तीन प्रकार से होता है।
(i) विकिरण का वह भाग, जो ऋणात्मक प्लेट की ओर गति करता है वह किरणें धनात्मक आवेशित (α-किरणें) कहलाती हैं। ये चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा विक्षेपित (deflected) हो सकती हैं।
(ii) विकिरण का वह भाग, जो धनात्मक प्लेट की ओर गति करता है वह किरणें ऋणात्मक आवेशित (β-किरणें ) कहलाती हैं। ये चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा विक्षेपित (deflected) हो सकती हैं।
(iii) विकिरण का वह भाग, जो वैद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र में अप्रभावित रहता है। वह किरणें y-किरणें कहलाती हैं।
◆ जिंक सल्फाइड स्क्रीन पर विकिरण गिरने पर प्रकाश की चमक के उत्पादन को स्किनटीलेशन कहते हैं। कणों की संख्या प्रति समय दर से उत्सर्जित होती है, जोकि उपकरण की सहायता से जिंक सल्फाइड स्क्रीन पर उत्पादित होने वाली स्किनटीलेशन की संख्या को जोड़कर ज्ञात की जाती है। यह उपकरण स्पिन थैरी स्कोप (spin thariscope) कहलाता है।
◆ पिच-ब्लेण्ड की क्रियाशीलता यूरेनियम से चार गुना ज्यादा होती है।
रेडियोएक्टिव विघटन का सिद्धान्त (Theory of Radioactive Disintegration or Decay)
सन् 1903 में रदरफोर्ड तथा सोडी ने रेडियोएक्टिव विघटन का सिद्धान्त दिया । रेडियोएक्टिवता एक नाभिकीय होता है तथा सभी रेडियोएक्टिव परिवर्तन नाभिक के अन्दर ही होते हैं। उनके अनुसार,
(i) नियत रूप से टूटने पर विघटन स्वतः होता है। टूटने की प्रक्रिया बाह्य कारकों जैसे ताप, दाब, रासायनिक संगठन आदि के द्वारा प्रभावित नहीं होती है।
(ii) विघटन के समय नये तत्वों के परमाणु पुत्री तत्व कहलाते हैं, जोकि उपस्थित तत्व की तुलना में विभिन्न भौतिक व विभिन्न रासायनिक गुण रखते हैं।
(iii) विघटन के समय α तथा β कण नाभिक से उत्सर्जित होते हैं।
(iv) किसी भी क्षण (time) रेडियोएक्टिव परमाणुओं के क्षय होने की दर, उस क्षण उपस्थित परमाणुओं की संख्या के अनुक्रमानुपाती होती है।
उपरोक्त समीकरण से यह ज्ञात होता है, कि रेडियोएक्टिव पदार्थ की मात्रा समय के साथ घटती जाती है। (आरम्भ में शीघ्र तथा बाद में धीमी हो जाती है) ऐसा इसलिए है क्योंकि रेडियोएक्टिव पदार्थ की आयु अनन्त होती है, जोकि सम्पूर्ण विघटन के लिए अनन्त समय लेता है।
रेडियोएक्टिवता की इकाई (Unit of Radioactivity)
रेडियोएक्टिव पदार्थ के सक्रियता का SI मात्रक बेकुरल तथा अन्य प्रमुख मात्रक क्यूरी व रदरफोर्ड हैं जिनको निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया गया है।
(i) क्यूरी ( Curie) यदि किसी रेडियोएक्टिव पदार्थ में 3.7×1010 विघटन प्रति सेकण्ड हों, तो उस पदार्थ की सक्रियता 1 क्यूरी कहलाती है। ‘
अर्थात्                                                          1 क्यूरी = 3.7 × 1010 विघटन / से
                                             1 मिली-क्यूरी (1 mCi)  = 10-3 क्यूरी
                                             1 माइक्रो-क्यूरी (1μCi) = 10-6 क्यूरी )
(ii) रदरफोर्ड (Rutherford) यदि किसी रेडियोएक्टिव पदार्थ में 106 विघटन प्रति सेकण्ड हों, तो उस पदार्थ की सक्रियता 1 रदरफोर्ड कहलाती है।
अर्थात्                                    1 रदरफोर्ड = 1 Rd = 106 विघटन / से
                                  1 माइक्रो रदरफोर्ड = 106 रदरफोर्ड
                                                             = 1 विघटन प्रति सेकण्ड
                                                             = 1Bq (बेकुरल)
(iii) बेकुरल (Becquerel) यह रेडियोएक्टिवता का SI मात्रक होता है तथा रेडियोएक्टिव पदार्थ की मात्रा 1 विघटन प्रति सेकण्ड के द्वारा प्रदर्शित की जाती है।
∴                                           1 बेकुरल (1 Bq) = 1 विघटन प्रति सेकण्ड 
अर्द्ध-आयु (Half-Life)
किसी रेडियोएक्टिव पदार्थ की आधी मात्रा विघटित होने में जितना समय लगता है, उसे उस पदार्थ की अर्द्ध-आयु कहते हैं। इसे t1/2 से व्यक्त करते हैं।
इस सम्बन्ध को विघटन के द्वारा प्रदर्शित करते हैं। अतः
                                         t1/2 = loge2/λ = 0.693/λ
यह एक पदार्थ के लिए नियतांक परन्तु विभिन्न पदार्थों के लिए भिन्न-भिन्न होता है। यह पदार्थ की प्रारम्भिक मात्रा पर निर्भर नहीं करता है। रेडियोएक्टिवता ज्यादा होने पर अर्द्ध-आयु कम होती है।
माध्य आयु अथवा औसत आयु (Mean Life or Average Life)
किसी नाभिक के क्षय का समय शून्य से लेकर अनन्त तक कुछ भी हो सकता है। सभी नाभिकों की आयु के औसत को रेडियोएक्टिव पदार्थ की औसत आयु या माध्य आयु कहते हैं। इसे प्रायः τ से प्रदर्शित करते हैं। किसी रेडियोएक्टिव पदार्थ की औसत आयु विघटन नियतांक (λ) के व्युत्क्रम के बराबर होती है अर्थात्
τ = 1/λ
नाभिक से -कण के उत्सर्जन की व्याख्या (Explanation of Emission of a-Particles from Nucleus)
परमाणु क्रमांक और परमाणु भार नाभिक के दो प्रमुख गुण हैं। λ, β, y- विकिरण के उत्सर्जन के बाद इसमें निम्नलिखित परिवर्तन होते हैं
α- कण का उत्सर्जन (Emission of a Particles)
α-कण दो प्रोटॉनों व दो न्यूट्रॉनों से मिलकर बना है तथा प्रोटॉन व न्यूट्रॉन नाभिक में उपस्थित रहते हैं। चूँकि α-कण हीलियम का नाभिक होता है, जिसका परमाणु क्रमांक 2 तथा द्रव्यमान संख्या 4 है। अतः रेडियोएक्टिव परमाणु के नाभिक में से α-कण उत्सर्जित होने पर उसके परमाणु क्रमांक के मान में 2 इकाई की तथा द्रव्यमान संख्या के मान में 4 इकाई की कमी हो जाती है। इस प्रकार मूल नाभिक किसी अन्य नाभिक में बदल जाता है। इस α-उत्सर्जन को निम्न प्रकार लिखा जा सकता है
2. यूरेनियम डेटिंग (Uranium Dating)
यह पृथ्वी और पत्थरों की आयु निर्धारण में प्रयोग होता है। सामान्यतः यूरेनियम का अयस्क अरेडियोएक्टिव (non-radioactive) की तरह कार्य करता है, जो यूरेनियम के रेडियोएक्टिव विघटन का अन्तिम उत्पाद है। यूरेनियम की चट्टान का नमूना U238 और Pb206 से प्राप्त होता है। इस विश्लेषण में मात्राएँ (मान) मोल में होते हैं ।
3. पोटैशियम- ऑर्गन विधि (Potassium-Argon Method)
इसका प्रयोग बहुत पुरानी भू-गर्भीय चट्टानों की आयु निर्धारण में किया जाता है। भू-वैज्ञानिक इस तकनीक में चट्टानों के सैम्पल पर दिनांक डालते हैं क्योंकि पौटेशियम-40, माइका, फैल्डस्पार तथा होर्नब्लैण्डी में पाया जाता है।
◆ 125°C तापमान से ऊपर चट्टान का विघटन होने पर ऑर्गन का क्षरण (leakage) कम होता है।
4. रुबीडियम – स्ट्रॉन्शियम विधि (Rubidium-Strontium Method)
इस तकनीक का प्रयोग आग्नेय तथा रूपांतरित स्थलीय चट्टानों (metamorphic terrestrial rocks) साथ ही साथ चंद्र नमूनों (lunar samples) की आयु निर्धारण में किया जाता है। यह 87 Rb से 87 Sr के क्षय के विघटन पर आधारित है। इस तकनीक का प्रयोग पोटैशियम-ऑर्गन की दिनांक पता करने में किया जाता है क्योंकि स्ट्रान्शियम (daughter) तत्व ऑर्गन की तरह बहुत गर्म करने पर नष्ट नहीं होते हैं।
5. y – किरणों के उपयोग (Uses of y-rays)
(i) y-किरणों का उपयोग खाद्य संरक्षण तथा खाद्य कणों को infection से बचाने के लिए किया जाता है।
(ii) y-किरणों के विकिरण (irradiation) से प्याज, आलू, फल और मछली, आदि को लम्बे समय तक संरक्षित रख सकते हैं।
(iii) अधिक मात्रा में नाभिकीय विकिरण का परिणाम यह होता है, कि गेहूँ, चावल, मूँगफली, जूट, आदि में विभिन्न प्रकार की बीमारी की प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाती हैं।
(iv) y- विकिरण का उपयोग कैंसर के इलाज में किया जाता है। कोबाल्ट-60 के उत्सर्जन द्वारा y – विकिरण होता है, जो कैंसर कोशिकाओं को जला सकता है।
(v) मैडिकल उपकरणों; जैसे सिरींज, रक्त आद्यान सेन्ट, आदि सामान्यतः y- विकिरण द्वारा किए जाते हैं। इन विकिरणों द्वारा प्लास्टिक पदार्थों और रबर की ऊष्मा प्रतिरोधकता बढ़ाई जाती है।
कैंसर की रेडियोथैरेपी में विकिरण की मात्रा (Radiation Dosage in the Radiotherapy of Cancer) 
रेडियोएक्टिव न्यूक्लियाई के द्वारा उत्सर्जित विकिरण और कण जीवित प्राणियों के लिए हानिकारक हैं। ये विकिरण DNA को प्रभावित करते हैं जिससे आनुवांशिक परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं।
जैव-विकिरण का प्रभाव RAD मात्रक के रूप में मापा जाता है।
RAD विकिरण की अवशोषण मात्रा
1 RAD = वह विकिरण, जो ऊतकों में 1 × 10-2J की ऊर्जा प्रति किलोग्राम संग्रहीत (deposite) होता है। विकिरण के द्वारा जैवक्षय (destruction) को ज्ञात करने के लिए, दूसरा मात्रक REM प्रस्तुत किया गया। REM = RAD x RBE
RBE = आपेक्षिक बायोलॉजिक प्रभावहीन
α- कणों के लिए                  RBE = 10 unit (मात्रक)
β और y – विकिरण के लिए   RBE = 1 unit ( मात्रक)
न्यूट्रॉन के लिए                     RBE = 5 unit ( मात्रक)
6. रेडियो समस्थानिकों या ट्रेसर के उपयोग (Uses of Radio Isotopes or Tracers) 
रेडियोएक्टिव ट्रेस का निम्नलिखित क्षेत्रों में उपयोग किया जाता है
(i) औषधि में (In Medicine) रेडियोएक्टिव समस्थानिक बहुत से रोगों के उपचार में प्रयोग किए जाते हैं।
उदाहरणतः
(a) ट्यूमर की उपस्थिति का पता लगाने में आर्सेनिक-74 ट्रेसर का उपयोग किया जाता है।
(b) रक्त-क्लोट की उपस्थिति का पता लगाने में सोडियम-24 ट्रेसर का उपयोग किया जाता है।
(c) थॉयराइड ग्रन्थि की क्रियाशीलता के अध्ययन में आयोडीन- 131 ट्रेसर का उपयोग किया जाता है।
(d) वहाव सील (joint effusion) और आर्राथटिस (arthritis) के उपचार में Y90 का उपयोग किया जाता है।
(e) F59 का उपयोग ऐनीमिया, ट्यूबरकूलोसिस और दूसरी अपोषणीय बिमारियों ( malnutrient diseases) को ज्ञात करने में किया जाता है।
(f) P32 का उपयोग पॉलीसाइथीमिया, थ्रोम्बोसाइथीमिया, स्केलेटल मेटास्टेसिस, अस्थियों के रोगों, प्रोस्टेट SR और ब्रेस्ट SR के उपचार में किया जाता है।
(g) Ra (रेडियम) का उपयोग कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने और जलाने में किया जाता है।
(ii) विश्लेषण अध्ययन में (In Analytical Studies) रेडियोएक्टिव ट्रेसर का उपयोग बहुत-सी विश्लेषणात्मक प्रक्रियाओं में किया जाता है।
(a) आयन – विनिमय तकनीक (Ion Exchange Technique) पृथक्करण की आयन-विनिमय प्रक्रिया का उपयोग रेडियोएक्टिव समस्थानिकों को अलग करने में किया जाता है। इस प्रक्रिया में कॉलम से क्रमबद्ध भाग की क्रियाशीलता मापी जाती है।
(b) अभिक्रिया क्रियाविधि (Reaction Mechanism) किसी तत्व की लेबलिंग के द्वारा अभिक्रिया को  क्रियाविधि का प्रेक्षण कर सकते हैं।
उदाहरण- पानी की ऑक्सीजन के लेबल द्वारा, ऐस्टर के हाइड्रोजनीकरण की क्रियाविधि का अध्ययन करते हैं।
रेडियोएक्टिव कार्बन का उपयोग विभिन्न क्रियाओं की क्रियाविधि के अध्ययन में ट्रेसर की भाँति किया जाता है तथा इसका उपयोग कारखानों में एल्काइलेसन, बहुलीकरण, उत्प्रेरकीय संश्लेषण (catalytic synthesis), आदि में भी होता है।
(iii) कृषि में (In Agriculture) रेडियोएक्टिव फॉस्फोरस P32 का प्रयोग उर्वरक की भाँति किया जाता है। फॉस्फोरस पौधों द्वारा अवशोषित की जाती है। इसका उपयोग उर्वरकों को बनाने के सुधार में किया जाता है। C14 का उपयोग प्रकाश संश्लेषण की क्रियाविधि के अध्ययन में किया जाता है।
(iv). उद्योगों में (In Industry ) रेडियो समस्थानिकों का उपयोग उद्योगों, जल के पाइप, गैस पाइप लाइन तथा तेल पाइप लाइनों के अन्दर क्षरण (leakage) ज्ञात करने में किया जाता है। यह पदार्थों की मोटाई ज्ञात करने में, कार के इन्जन में तथा विभिन्न स्नेहों की प्रभाविता ज्ञात करने में भी सहायक होता है।
नाभिकीय ऊर्जा (Nuclear Energy)
नाभिकीय रुपान्तरण के द्वारा द्रव्यमान में कमी, ऊर्जा के रूप में होती है जिसे नाभिकीय ऊर्जा कहते हैं। नाभिकीय ऊर्जा के दो मुख्य स्रोत निम्न हैं
नाभिकीय विखण्डन (Nuclear Fission)
नाभिकीय विखण्डन वह कृत्रिम विघटन है जिसमें एक भारी नाभिक लगभग दो छोटे असमान नाभिकों में टूट जाता है तथा अपार ऊर्जा उत्पन्न करता है। इसकी खोज दो जर्मन वैज्ञानिक ऑटो होन तथा फ्रिज स्ट्रास मैन ने 1939 की थी। जब उसने यूरेनियम -235 पर ब्यूट्रॉन की बमवारी की, तब उसे निम्नलिखित अभिक्रियाएँ प्राप्त हुई
इस अभिक्रिया में एक विखण्डन से लगभग 0.215 amu द्रव्यमान की हानि होती है तब यूरेनियम के प्रत्येक विखण्डन से लगभग 0.215 × 931 ≈ 200 MeV ऊर्जा प्राप्त होती है। U235 के विखण्डन में औसतन 2.5 न्यूटन उत्पन्न होते हैं। यूरेनियम परमाणु को पुनः अभिक्रिया कराने पर नाभिकीय विखण्डन अभिक्रिया में न्यूट्रॉन उत्पन्न होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप यह श्रृंखला अभिक्रिया का रूप ले लेती है तथा अन्त में यह विखण्डन के पश्चात् बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा मुक्त करती है। न्यूट्रॉनों के बनने तथा खपत होने (consumption) के अनुपात को पुनरुत्पादन कारक (reproductive factor) कहते हैं ।
यदि शृंखला अभिक्रिया का मान 1 से कम है तो अभिक्रिया स्थिर नहीं होती है। यदि K का मान 1 के बराबर है, तो अभिक्रिया थोड़ी-सी स्थिर होती है। यदि K का मान 1 से अधिक है, तो अभिक्रिया पूर्णतः स्थिर होगी।
◆ प्राकृतिक यूरेनियम तीन समस्थानिक का मिश्रण होता है। जैसे U238= 99.29%, U235 = 0.7%, U234 = 0.006% तथा (दो अभिक्रिया होने के कारण) ये श्रृंखला अभिक्रिया के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं।  उपकरणों से न्यूट्रॉनों का क्षरण (leakage) अविखण्डनीय पदार्थों की उपस्थिति।
◆ विखण्डन के समय परमाणु में प्रोटॉन से अधिक न्यूट्रॉन होते हैं। 1 ग्राम यूरेनियम में लगभग 2 × 107 किलो कैलोरी ऊर्जा होती है।
नाभिकीय श्रृंखला अभिक्रिया दो भागों में बाँटी जा सकती है
1. अनियन्त्रित श्रृंखला- अभिक्रिया (Uncontrolled Chain Reaction)
इस अभिक्रिया में प्रत्येक विखण्डन से प्राप्त नए न्यूट्रॉन, नए नाभिकों का विखण्डन करते हैं, फलस्वरूप विखण्डनों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ती है। इस प्रकार, यह अभिक्रिया अति तीव्र गति से होती है तथा अति सूक्ष्म समय में ही समस्त पदार्थ का विखण्डन हो जाता है। इसमें ऊर्जा की बहुत अधिक मात्रा मुक्त होती है तथा एक भयानक विस्फोट का रूप ले लेती है। परमाणु बम में इसी अभिक्रिया का उपयोग किया जाता है।
परमाणु बम (Atom Bomb)
परमाणु बम को नाभिकीय बम (nuclear bomb) भी कहते हैं। यह नाभिकीय विखण्डन की अनियन्त्रित श्रृंखला अभिक्रिया पर आधारित है। इसमें यूरेनियम – 235 ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। शुद्ध यूरेनियम (U235 ) के दो टुकड़े इस प्रकार लिए जाते हैं, कि प्रत्येक का द्रव्यमान क्रान्तिक द्रव्यमान के आधे से कुछ अधिक हो ।
ये दोनों टुकड़े एक सघन आवरण (dense cover) में किसी यान्त्रिक विधि से अलग-अलग रखे जाते हैं। इस दशा में अन्तरिक्ष किरणों द्वारा उत्पन्न न्यूट्रॉनों के कारण इन टुकड़ों के विखण्डित होने का भय नहीं रहता है, जब बम का विस्फोट करना होता है, तो बम के ऊपर लगी चावी द्वारा दोनों टुकड़ों को परस्पर मिला दिया जाता है।
इन दोनों टुकड़ों के मिलते ही विखण्डनीय पदार्थ का कुल द्रव्यमान क्रान्तिक द्रव्यमान से अधिक हो जाता है. अतः अन्तरिक्ष किरणों द्वारा उत्पन्न न्यूट्रॉनों द्वारा नाभिकीय विखण्डन की अनियन्त्रित श्रृंखला अभिक्रिया अत्यन्त तीव्र गति से होने लगती है तथा कुछ ही क्षणों में अपार ऊर्जा मुक्त हो जाती है तथा परमाणु बम का विनाश (disaster) आरम्भ हो जाता है।
चित्र (a), (b) तथा (c) परमाणु बम की विभिन्न प्रकार की आकृति दर्शाते हैं। परमाणु बम दो या दो से अधिक विखण्डनीय पदार्थों से बना होता है, जो अपने मूल (critical) आकार से छोटा होता है।
◆ सन् 1945 में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा नगर पर 92U235 से युक्त परमाणु बम को गिराया गया था। इस विस्फोट से इतनी विकिरण ऊर्जा उत्सर्जित हुई थी कि वहाँ आज तक जन्म लेने वाले बच्चे इस विकिरण से प्रभावित है। नाभिकीय ईंधन दो प्रकार के होते हैं
(i) विखण्डनीय पदार्थ (Fissile Material) जब विखण्डनीय पदार्थ पर न्यूट्रॉनों की बमबारी धीरे-धीरे कराई जाती है, तो श्रृंखला अभिक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है। इस अभिक्रिया में तीन विखण्डनीय पदार्थ उपयोग किए जाते हैं। ये प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त होने वाले U235. Pu239 तथा U233 है जबकि Pu239 तथा V233 कृत्रिम विधि द्वारा प्राप्त होते हैं।
(ii) अविखण्डनीय पदार्थ (Fertile Material) वे पदार्थ, जो प्रकृति में अविखण्डनीय रूप में प्राप्त होते हैं परन्तु ये विखण्डनीय पदार्थों में न्यूटॉन की अभिक्रिया द्वारा बदले जा सकते हैं। U238 तथा Th232 अविखण्डनीय पदार्थ है। U238 को Pu239 में निम्नलिखित नाभिकीय अभिक्रिया द्वारा बदला जा सकता है।
2. नियन्त्रित श्रृंखला अभिक्रिया (Controlled Chain Reaction)
इस अभिक्रिया में कृत्रिम उपायों द्वारा (मन्दक एवं नियन्त्रक पदार्थों की सहायता से) इस प्रकार का प्रबन्ध किया जाता हैं, कि प्रत्येक विखण्डन से प्राप्त न्यूट्रॉनों में से केवल एक ही न्यूट्रॉन आगे विखण्डन कर पाए, फलस्वरूप विखण्डनों की दर नियत रहती हैं। इस प्रकार यह अभिक्रिया धीरे-धीरे होती है। इस अभिक्रिया से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग शान्तिमय एवं रचनात्मक कार्यों में किया जा सकता है। नाभिकीय रिएक्टर में इसी अभिक्रिया का उपयोग किया जाता है।
नाभिकीय रिएक्टर या परमाणु भट्टी (Nuclear Reactor or Atomic Pile) 
यह नियिन्त्रित श्रृंखला अभिक्रिया पर आधारित ऐसी युक्ति है, जिसकी सहायता से नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग शान्तिमय एवं रचनात्मक कार्यों जैसे वैद्युत् उत्पादन में किया जाता हैं।
इसके प्रमुख भाग निम्नलिखित हैं
(i) नाभिकीय ईंधन (Nuclear Fuel) नाभिकीय रिऐक्टर में प्रयुक्त होने वाला ईंधन जिसे परिष्कृत करने की आवश्यकता नहीं होती है, विखण्डनीय ईंधन कहलाता है। इसके उदाहरण U235, U233, Pu239 हैं।
(ii) मन्दक (Moderator) यूरेनियम-235 के विखण्डन के लिए मन्दगामी न्यूट्रॉनों की आवश्यकता होती है जबकि विखण्डन से तीव्रगामी न्यूट्रॉन उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार शृंखला अभिक्रिया को जारी रखने के लिए न्यूट्रॉनों की ऊर्जा को कम करने में न्यूट्रॉन मन्दक पदार्थ; जैसे भारी जल, ग्रेफाइट, बेरीलियम, आदि प्रयुक्त होते हैं। मन्दक के रूप में भारी जल सबसे उत्तम होता है। न्यूट्रॉन की गति के नियन्त्रण के प्रक्रम को थर्मेलेशन (thermalisation) कहते हैं।
(iii) शीतलक (Coolant) विखण्डन के फलस्वरूप अत्यधिक मात्रा में ऊष्मा उत्पन्न होती है, जिसे शीतलक द्वारा दूर किया जाता है। इसके लिए वायु, ठण्डा जल, भारी जल He, Hg अथवा CO2 को रिएक्टर के अन्दर पाइपों द्वारा प्रवाहित किया जाता है। इस ऊष्मा से जल को भाप में बदलकर इस भाप से टरबाइन चलाकर वैद्युत् ऊर्जा उत्पन्न कर लेते हैं और फिर वैद्युत् ऊर्जा का उपयोग मनोवांछित कार्यों में किया जाता है।
(iv) नियन्त्रक छड़ें (Control Reds) नाभिकीय विखण्डन की दर न्यूट्रॉनों की संख्या पर निर्भर करती है। अतः विखण्डन की दर को नियन्त्रित करने के लिए न्यूट्रॉनों की संख्या पर नियन्त्रण किया जाता है। कैडमियम न्यूट्रॉनों को अवशोषित कर लेता है। अतः विखण्डन की दर को नियन्त्रति करने के लिए कैडमियम की छड़ें प्रयोग की जाती हैं।
(v) परिरक्षक ( Shielding) रिऐक्टर में अनेक प्रकार के तीव्र विकिरण भी निकलते हैं, जो रिएक्टर के पास काम करने वालों के लिए हानिकारक होते हैं। अतः इन घातक विकिरणों से कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए रिएक्टर को कंक्रीट की मोटी दीवारों के अन्दर बन्द कर दिया जाता है।
नाभिकीय भट्टी के उपयोग (Uses of Nuclear Reactor)
नाभिकीय भट्टी के उपयोग निम्न प्रकार हैं
(i) विद्युत ऊर्जा के उत्पादन में।
(ii) रेडियो समस्थानिकों के उत्पादन में, जिसका उपयोग चिकित्सा विज्ञान, कृषि एवं उद्योगों में होता है।
(iii) Pu239 के निर्माण में, जिसका उपयोग परमाणु बम में होता है। में होता है।
(iv) तीव्रग्रामी न्यूट्रॉनों के उत्पादन में, जिसका उपयोग कैंसर उपचार में एवं नाभिकीय अनुसंधान
(v) नाभिकीय पावर प्लांट में, विद्युत उत्पादन करने में।
◆ आजकल भारतीय वैज्ञानिक 11 मई 1974 के इतिहास को दोहरा रहे हैं। भारत के वैज्ञानिकों ने पोखरन के राजस्थान में भूमि के अन्दर पाँच नाभिकीय परीक्षण किए। चौबीस साल बाद, पहली बार राष्ट्र में ऐसा परीक्षण किया गया। तीन परीक्षण शाम को 3.45 बजे 1998 को आयोजित किए गए और बाद में दो परीक्षण 13 मई को आयोजित किए गए। ये सभी परीक्षण हमारी आशाओं के अनुरूप सिद्ध हुए।
◆ सबसे पहला नाभिकीय रिएक्टर सन् 1942 में ऐनरिको फर्मी (Enrico Fermi) के निर्देशन में शिकागो यूनिवर्सिटी में बना था।
◆ भारत में पहली नाभिकीय अभिक्रिया 1956 में ट्राम्बे में हुई थी। यह एक स्वीमिंग पुल रिएक्टर है जिसमें भारी जल से भरे टैंक में U235 की रॉड़ लटकाई थी।
◆ भारत में और दूसरे नाभिकीय रिएक्टर सिरस, जरलीना, पूर्णिमा और R-5 ट्रॉम्बे में हैं।
ब्रीडर रिएक्टर (Breeder Reactor)
परावर्तकों का उपयोग दूसरे रिऐक्टरों के लिए ईंधन को उत्पन्न करने के लिए भी किया जाता है। इनमें विखण्डनीय पदार्थ U238 या Th232 के खर्च होने पर अनुसंधान योग्य न्यूट्रॉन एवं ऊष्मा के साथ-साथ दूसरा विखण्डनीय पदार्थ Pu239 या U233 भी प्राप्त होता है। इस प्रकार के रिऐक्टर को ब्रीडर रिएक्टर कहते हैं।
Th232 का स्वयं विखण्डन सम्भव नहीं है, परन्तु इसे नाभिकीय रिएक्टर द्वारा U233 में परिवर्तित करके प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार U238 को Pu239 में परिवर्तित करते हैं। कोर के बहुत अधिक तापमान 9000°C के कारण पिघली हुई धातु का उपयोग शीतलक के रूप में किया जाता है।
ब्रीडर रिएक्टर का प्रयोग विद्युत ऊर्जा के उत्पादन में भी किया जाता है। इस रिएक्टर में मन्दक की आवश्यकता नहीं होती।
◆ वह भट्टी जिसमें ईंधन और मन्दक एक-दूसरे से मिले होते हैं समजात (homogeneous) कहलाते हैं और जिसमें ईंधन और मन्दक अलग बर्तन में रखे होते हैं, विषमजात (heterogeneous) कहलाते हैं।
नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion)
वह नाभिकीय अभिक्रिया, जिसमें दो हल्के नाभिक मिलकर एक भारी नाभिक बनाते हैं. नाभिकीय संलयन कहलाती है। नाभिकीय संलयन में उत्पन्न ऊर्जा नाभिकीय विखण्डन में उत्पन्न हुई ऊर्जा से कई गुना अधिक होती है, क्योंकि नाभिकीय संलयन में द्रव्यमान अति अधिक होती है।
नाभिकीय संलयन क्रिया साधारण ताप पर नहीं होती है। नाभिकीय संलयन अभिक्रिया बहुत उच्च ताप (एक करोड़ डिग्री) पर होती है क्योंकि दो नाभिकों के बीच में प्रतिकर्षण वल लगता है। अतः इन अभिक्रियाओं को ताप नाभिकीय अभिक्रियाएँ (thermonuclear reactions) भी कहते हैं। हाइड्रोजन बम तथा सूर्य की ऊर्जा (energy of the sun) नाभिकीय संलयन की क्रिया पर आधारित हैं।
नाभिकीय संलयन अभिक्रियाएँ ऊष्माक्षेपी होती हैं। नाभिकीय संलयन की क्रिया एक बार प्रारम्भ होने के पश्चात् नियन्त्रित नहीं की जा सकती। उदाहरण दो ड्यूट्रॉनों (1H2), भारी हाइड्रोजन नाभिक) को संलयित करके एक ट्राइटॉन (ट्राइटियम का नाभिक) बनाया जा सकता है।
इसके लिए अभिक्रिया निम्नलिखित होगी
                                          1H2 + 1H2 1H3 + 1H1 + 4.0 MeV (ऊर्जा) 
इस प्रकार बनी ट्राइट्रान (1H3) पुनः एक तीसरे ड्यूट्रॉन से संलयित होकर एक हीलियम नाभिक बना सकती है।
                                  1H3 + 1H22He4 + 0n1 + 17.6 MeV (ऊर्जा)  
इस प्रकार दोनों अभिक्रियाओं में तीन ड्यूट्रॉन संलयित होकर एक हीलियम नाभिक (2He4), एक प्रोटॉन (1H1) तथा एक न्यूट्रॉन (0n1) बनाते हैं तथा 21.6 MeV ऊर्जा मुक्त होती है, जोकि प्रोटॉन (1H1) तथा न्यूट्रॉन (0n1) की गतिज ऊर्जा के रूप में होती हैं।
उपरोक्त संलयनों से प्राप्त ऊर्जा (21.6 MeV), U235 के एक नाभिक के विखण्डन से प्राप्त ऊर्जा (190 MeV) से काफी कम है। इससे ऐसा लगता है, कि संलयन से प्राप्त ऊर्जा विखण्डन से प्राप्त ऊर्जा से कम होती है परन्तु ऐसी बात नहीं है। 1 ग्राम भारी हाइड्रोजन में हाइड्रोजन के नाभिकों (ड्यूट्रॉनों) की संख्या, 1 ग्राम U235 में U235 के नाभिकों की संख्या से बहुत अधिक होती है। अतः भारी हाइड्रोजन के नाभिकों के संलयन से प्राप्त ऊर्जा, उतने ही द्रव्यमान के U235 के विखण्डन से प्राप्त ऊर्जा से कहीं अधिक होती है।
◆ सूर्य की विकिरण ऊर्जा की दर 1026 जूल/ से परन्तु प्रति सेकण्ड क्षय पदार्थ 4 × 106 टन है क्योंकि इसका द्रव्यमान (1030 किग्रा) बहुत अधिक होता है। इसलिए सूर्य लगातार कई बिलियन सालों तक ऊर्जा देता रहेगा।
हाइड्रोजन बम (Hydrogen Bomb)
सन् 1952 में अमेरिका के वैज्ञानिकों ने सर्वप्रथम हाइड्रोजन बम बनाया था। हाइड्रोजन बम का निर्माण ड्यूटीरियम और ट्राइटियम के नाभिकों के संलयन से होता है। इस क्रिया को प्रारम्भ करने के लिए अत्यधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जिसे हाइड्रोजन बम में रखे छोटे परमाणु बम में विस्फोट द्वारा प्राप्त किया जाता है। संलयन क्रिया प्रारम्भ होने के फलस्वरूप अथाह ऊर्जा मुक्त होती है, यह ऊर्जा कई लाख डिग्री सेन्टीग्रेड तक हो सकती है। भारत ने 11 मई, 1998 को खेतोलोई (पोखरन) में परीक्षण हेतु हाइड्रोजन बम का विस्फोट किया था।
प्लाज्मा निहितीकरण तथा संलयन नियन्त्रण (Plasma Confinement and Control Fusion) 
नाभिकीय संलयन के लिए आवश्यक 108 K के क्रम का तापक्रम हल्के तत्वों के परमाणु को पूर्णतः आयनित कर देता है। इलेक्ट्रॉन बादल एवं मूल नाभिकों के मिश्रण को प्लाज्मा कहा जाता है। सूर्य का प्रचुर गुरुत्वीय क्षेत्र अपने अन्दर प्लाज्मा अवस्था को आकर्षित किए हुए है।
प्रयोगशाला में नाभिकीय संलयन की क्रिया सम्पादित करने में मुख्य कठिनाई उच्च तापक्रम 108 K पर प्लाज्मा को निहित रखना है, क्योंकि कोई ठोस बर्तन इस उच्च तापक्रम को सहन नहीं कर सकता है। यदि इस समस्या (प्लाज्मा को निहित रखना) का हल कर लिया जाए, तो समुद्री जल में बहुत अधिक परिमाण में उपस्थित ड्यूट्रॉन नहीं खत्म होने वाले ऊर्जा स्रोत की तरह कार्य करेगा।
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