भवानी प्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र

1.
है गीत बेचना वैसे बिल्कुल पाप 
क्या करूँ, मगर लाचार हारकर
गीत बेचता हूँ।
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ। 
भवानी प्रसाद मिश्र हिंदी के वरिष्ठ और गंभीर कवि के रूप में जाने जाते हैं। गीत-फरोश उनकी अत्यंत प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण कविता है। । इस कविता में दीनता के कारण कला के बेचने की विवशता अत्यंत अवसाद और व्यंग्यात्मक रूप में व्यक्त हुई है। कवि कहते हैं कि यद्यपि अपनी कला की कीमत लगाना, उसे बेचना अत्यंत गलत-कार्य है। गीत बेचना भी उसी तरह पाप- कर्म है। लेकिन आज कला की हैसियत यह है कि अगर उसे कलाकार न बेचे तो उसका पेट भरना मुश्किल हो जाय। इसलिए कवि लाचार होकर गीत बेचने पर विवश होता है।
उक्त कविता में ध्यान देने की बात यह है कि कवि रूप से स्वीकार करता है कि मैं मजबूरीवश ही सही किंतु अपना गीत बेचता
हूँ। कवि की यह स्वीकारोक्ति महत्वपूर्ण है।
2.
पी के फूटे आज प्यार के पानी बरसा री। 
हरियाली छा गयी, हमारे सावन सरसरी । 
बादल आये आसमान में, धरती फूली री 
अरी सुहागिन, भरी मांग में भूली-भूली री, 
अंध त्राण ही बही, उड़े पंक्षी अनमोले री। 
आशा और उम्मीद कविता के प्रधान तत्व माने गए हैं। कवि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘मंगल-वर्षा’ इसी आशावादिता को उद्घाटित करती है। आलोच्य पंक्तियाँ ‘मंगल वर्षा’ में कवि का जीवन के प्रति उम्मीद का भाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। कवि इन पंक्तियों में कहता है कि प्यार का ही दूसरा नाम हरियाली है। जहाँ स्नेह और प्यार है वहाँ वर्षा होगी ही और जहाँ वर्षा होगी वहाँ हरियाली भी रहेगी ही। सावन के छाये बादल को आकाश में देखकर धरती फूले नहीं समाती। चतुर्दिक हरियाली के छा जाने से धरती की मांग भरी सुहागिन जैसी दिखायी देती है। धरती के प्राणियों को दुख से छुटकारा मिल गया है जिसकी प्रतीति पक्षियों के उड़ते अनमोल दृश्य को देखने से होती है।
3.
जिसे भी रंगना चाहो 
रंगों आज अपने रक्त से 
आँखें मत चुराओ वक्त से
हर बात का वक्त होता है।
उपर्युक्त काव्यांश भवानी प्रसाद मिश्र लिखित ‘रक्त क्षण’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। युगीन सामाजिक परिस्थितियों के प्रति सजग मिश्रजी का कवि वर्तमान आर्थिक विषमता से क्षुब्ध होकर क्रांति का आह्वान करता है। यहाँ भवानी प्रसाद मिश्र का कवि वर्तमान आर्थिक विषमता से क्षुब्ध होकर क्रांति का आह्वान करता है। यहाँ कवि प्रगतिवादी या जनवादी विचार से प्रभावित दिखते हैं। कवि का परिवर्तनकारी रूप रेखांकन योग्य है।
इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि वर्तमान सामाजिक यथार्थ से आँखें चुराने का आज वक्त नहीं है। चूँकि हर बात का एक वक्त होता है सो आज की परिस्थितियाँ आमूल परिवर्तन चाहती हैं जिसके लिये वह क्रांति का आह्वान करता है।
4,
सुंदर को छुए 
मुझे बहुत दिन हुए
जमाना बीत गया
सुंदर को मैंने नहीं छुआ,
और ऐसा कोई पल नहीं निकला
जिसमें चाहे जाने चाहे अनजाने
असुंदर मेरा नहीं हुआ। 
प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ कवि भवानी प्रसाद रचित ‘असुंदर से गाँठ’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। कवि सुख की अभिलाषा रखते हुए अपनी कविताओं में प्राकृतिक उपमान से प्रेम का चित्र प्रस्तुत करता है, किंतु सामाजिक यथार्थ से साक्षात्कार के पश्चात् अपनी वाणी की पवित्रता एवं निर्मलता पर अटूट विश्वास रखने वाले कवि की कविता एक नया मोड़ लेती है।
कवि के अनुसार वह स्नेह के व्यवहार से मानव पर विजय प्राप्त करने की ओर अग्रसर था। अपनी कविताओं में वियोग-संयोग के चित्र खींच रहा था। सुंदर की ओर आकृष्ट कवि को सामाजिक यथार्थ रूपी असुंदर ने जाने-अनजाने उसे कभी पुन: लौटने नहीं दिया। पर सच्चाई है कि असुंदर कभी उसका अपना नहीं हुआ।
इस कविता में सुंदर और असुंदर की व्याख्या की गई है। कवि की आकांक्षा है कि समाज सुंदर हो। यहाँ असुंदर के लिए यानी बुराई के लिए कोई स्थान न हो।

Sujeet Jha

Editor-in-Chief at Jaankari Rakho Web Portal

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