भारतीय चुनावी राजनीति में जाति की भूमिका का आकलन कीजिए। बिहार के 2015 चुनाव को जाति की भूमिका ने किस सीमा तक प्रभावित किया ?
भारतीय चुनावी राजनीति में जाति की भूमिका का आकलन कीजिए। बिहार के 2015 चुनाव को जाति की भूमिका ने किस सीमा तक प्रभावित किया ?
अथवा
भारतीय चुनावी राजनीति में जाति के महत्व की चर्चा कीजिए। बिहार 2015 के चुनाव में जाति किस हद तक प्रभावशाली थी? विवेचना कीजिए।
उत्तर – भारतीय राजनीति में जाति का संबंध अटूट है। वर्तमान में चुनावी राजनीति के हरेक दांव-पेंच जातिगत समीकरण को देखते हुए ही अपनाये जाते हैं। आज जाति, राजनीति का सर्वस्तरीय पर्याय बन गया है। इसकी भूमिका इतनी महत्वपूर्ण हो गई है कि राजनीतिक दलों का निर्माण भी जाति के आधार पर होता है।
चुनाव में राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चयन भी जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर ही करती हैं। पार्टियों के बीच चुनावी गठबंधन का आधार भी जातिगत हो गया है। ये जातियां वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ‘वोट बैंक’ का काम करती हैं। लगभग हरेक राजनीतिक पार्टी का अपना एक ‘वोट बैंक’ है जिसके आधार पर राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार को खड़ा करता है। यद्यपि प्रत्येक चुनाव का आधार मात्र जाति ही नहीं, अपितु विकास के एजेंडे एवं सामयिक कारकों से भी चुनाव जीते जाते हैं। वर्तमान बिहार चुनाव में महागठबंधन समर्थित नीतीश कुमार को महिलाओं का भी वोट मिला, ये महिलाएं प्रत्येक जाति से थीं, इसी तरह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार बनी। हालिया लोक सभा चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को भी विकास के एजेंडे अथवा साम्प्रदायिक तुष्टिकरण के आधार पर ही वोट दिया गया। बावजूद इसके जाति आज के राजनीतिक दर्शन की आवश्यक कुंजी बन गई है।
ये जातियां दबाव समूह के रूप में कार्य करती हैं, तथा इनके द्वारा राजनीतिक सौदेबाजी भी देखने को मिलती है। गुजरात में पटेल, राजस्थान-हरियाणा में जाट एवं गुर्जरों के द्वारा आरक्षण मनवाने की घटना इसके उदारहण हैं। जातिगत आधार या आरक्षण से भी प्रशासन में जाति की भूमिका मजबूत हुई है। ऐसा माना जाता है कि अनेक पार्टियों का आधार कुछ जातियां हैं, जैसे बिहार में राजद का आधार मुसलमान और यादव, जदयू का आधार कुर्मी जाति, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का आधार मुसलमान – यादव – राजपूत, बसपा का दलित और भाजपा का आधार ब्राम्हण एवं वैश्य वर्ग की जातियां हैं।
आज अनेक ऐसे नेताओं का दावा, जो स्वयं को किसी जाति विशेष के नेता होने का दावा करते हैं, यदा-कदा सच्चाई भी है। इसका एक सकारात्मक तथ्य यह है कि दबी – कुचली जातियां भी भारतीय राजनीति के मंच पर स्वयं को प्रकट करने में सफल हुईं तथा उनके उत्थान की भी बात होने लगी है।
जाति आधारित राजनीति के कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं, जैसे:
> निम्न क्रम पर रहने वाली जातियों का राजनीतिक समानता के कारण राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक सुधार हो रहा है ।
> एक दबाव समूह के तौर पर ये जातियां अनेक महत्वपूर्ण निर्णय को अपने पक्ष में करवाने में सफल हुई हैं।
> सार्वजनिक जीवन में महत्व बढ़ा तो अनेक जातियां प्रभावी जाति के रूप में उभरी, जैसे- यादव, कुर्मी।
• इसके कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं:
> नेताओं का जातिगत आधार मजबूत होने के कारण विकास कार्यों के अनदेखी के बावजूद चुनाव में जीत जाना।
> सामाजिक विघटन को बढ़ावा मिला है।
> प्रशासन का जातीयकरण होना आदि।
बिहार के 2015 का चुनावी मुकाबला राजनीतिक रूप से महागठबंधन एवं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के बीच ही मुख्य रूप से हुआ, फिर भी जाति एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में विद्यमान थी। महागठबंधन के घटक राजद एवं जदयू के पास यादव, मुसलमान, कुर्मी आदि जातियों का समर्थन था, दूसरी ओर भाजपा के पास वैश्य एवं ब्राह्मण, लोजपा के पास दलित जातियों का समर्थन था। सीटों का बंटवारा एवं उम्मीदवार का चुनाव भी जाति के आधार पर हुआ ।
इस चुनाव में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का ब्यान भी महागठबन्धन के पक्ष में गया, जिनसे गैर- आरक्षित जातियां महागठबंधन के पक्ष में जा मिलीं। मुसलमानों का रूझान सदा की तरह इस बार भी राजद की तरफ रहा। हर समुदाय में भाजपा की तुलना में महागठबंधन का प्रदर्शन बेहतर रहा। इस तरह बिहार विधान सभा चुनाव 2015 में भी कुल मिलाकर राजनीतिक दलों का आधार जाति ही रहा।
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