भाषा विकास प्रक्रिया में एल. एस. डब्ल्यू. आर. (LSWR) क्या है?
भाषा विकास प्रक्रिया में एल. एस. डब्ल्यू. आर. (LSWR) क्या है?
अथवा
भाषा कौशलों को स्पष्ट करें।
उत्तर— शिक्षा का एक अंश भाषा शिक्षण भी है। शिक्षण शब्द का अर्थ है- शिक्षा देना अर्थात् ज्ञान प्रदान करना यानी कुशलता उत्पन्न करना, अतः भाषा-शिक्षण का अर्थ है- भाषा (के कौशलों) की व्यवहारकुशलता उत्पन्न करना। भाषा शिक्षण का लक्ष्य है- शिक्षार्थी को भाषाव्यवहार में प्रवीण या कुशल बनाना। भाषा-व्यवहार की यह कुशलता / प्रवीणता भाषा के विभिन्न कौशलों (श्रवण, भाषण, वाचन तथा लेखन) के सम्यक् विकास पर निर्भर है। किसी भाषा (मातृ भाषा या मात्रेतर भाषा) पर अधिकार करने का अर्थ है- जीवन के विभिन्न व्यवहार क्षेत्रों में उस भाषा का कुशलतापूर्वक प्रयोग कर सकना । किसी भाषा का कुशलतापूर्वक प्रभावपूर्ण प्रयोगे विचार तत्त्व, भाषा तत्त्व तथा शैली तत्त्व का प्रसंगानुकूल उपयुक्त प्रयोग है।
भाषा-शिक्षण के सन्दर्भ में भाषा के चारों कौशलों (LSWR) में प्राप्तव्य कुशलता का स्वरूप निम्न प्रकार का माना जाता है—
(1) श्रवण कौशल– श्रवणेन्द्रिय या कानों द्वारा किसी या किन्हीं ध्वनि/वाक्यों का श्रणव (सुनना) मात्र विज्ञान की दृष्टि से ‘श्रवण’ कहा जाता है। भाषा-शिक्षण की दृष्टि से श्रवण का अर्थ कुछ अधिक विस्तृत है- श्रोता द्वारा वक्ता के कथन को सुनते हुए वक्ता के अभिप्राय को समझाना ‘श्रवण’ कहलाता है । श्रवण-कौशल में प्रवीणता प्राप्त करने की दृष्टि से निम्न बिन्दु माने गये हैं—(1) लक्ष्य भाषा की एकाकी ध्वनियों को स्पष्टतः सुन सकता, (2) सामान्य तथा द्रुतगामी से बोले गए शब्द/पद/पदबन्ध/वाक्य में आए विभिन्न ध्वनि-समुच्चयों तथा ध्वनिक्रमों को स्पष्टतः सुन सकना, (3) परोक्ष वक्ता के भाषण के पदबन्धसमुच्चयों तथा वाक्यों को सुनते हुए अर्थ-ग्रहण करते जाना, (4) प्रत्यक्ष वक्ता के हाव-भावों को समझाते हुए उस के कथन को सुनकर अभीप्सित अर्थ को ग्रहण करते जाना, (5) प्रत्यक्ष या परोक्ष वक्ता के भाषण को अवधान के साथ सुनते हुए उसमें आई व्याजोक्तियों, वक्रोक्तियाँ, व्यंग्योक्तियों का अर्थ-ग्रहण करने की क्षमता विकसित होना, (6) प्रत्यक्ष या परोक्ष वक्ता के अपूर्ण कथनों को सुन कर उनका अभीप्सित अर्थ ग्रहण कर सकना ।
(2) भाषण कौशल– वागिन्द्रिय या जिह्वा द्वारा ध्वनि/ ध्वनियाँ/ शब्दों/पदों/पदबन्धों/वाक्यों का सामान्य रूप से बोलना ‘उच्चारण’ तथा प्रसंगानुकल उपयुक्त वाक्यों का प्रयोग/उच्चारण ‘भाषण’ कहा जाता है। भाषा का शिक्षार्थी अपने भावों-विचारों को सफलतापूर्वक मौखिक रूप से उसी स्थिति में व्यक्त कर सकता है जब तक वह (i) अवसर विशेष के लिए प्रसंगानुकूल भावों-विचारों से सम्बद्ध उपयुक्त शब्दावली से परिचित हो, (ii) आवश्यक पदों/पदबन्धों को शुद्ध संरचना में प्रयुक्त करने की योग्यता रखता हो, (iii) शुद्ध संरचनायुक्त वाक्यों को प्रभावकारी शैली में व्यक्त करने की क्षमता रखता हो। इस प्रकार भाषण-कौशल में प्रवीणता प्राप्त करने की दृष्टि से निम्न बिन्दु माने गये हैं—(1) लक्ष्य भाषा की एकाकी ध्वनियों का शुद्ध उच्चारण कर सकना, (2) दो या अधिक ध्वनि-योग से बने शब्दों/पदों/पदबन्धों का सामान्य तथा द्रुतगति से शुद्ध उच्चारण कर सकना, (3) प्रसंगोचित भाव-विचारों की अभिव्यक्ति के लिए चुने उपयुक्त शब्दों/पदौं/उपबन्धों का शुद्ध वाक्यों में प्रयोग कर सकना, (4) मौखिक अभिव्यक्ति के समय स्वाभाविकता तथा प्रभावकारिता के लिए उपयुक्त हाव-हाव (मुखचेष्टादि) का प्रयोग कर सकना, (5) किसी विषय विशेष से सम्बन्धित भावों-विचारों को परस्पर सम्बद्ध वाक्यों में गुम्फित करते हुए प्रभावकारी शैली में व्यक्त करना सकना ।
(3) लेखन कौशल– भाषा (मौखिक रूप) की ध्वनियों को किसी लिपि के प्रतीकात्मक चिह्नों में अंकित करना लेखन कहलाता है। भाषण को वक्ता की मौखिक अभिव्यक्ति कहा जाता है तो लेखन को उसकी लिखित अभिव्यक्ति । लेखन के समय वक्ता पाठक / वाचक (श्रोता का परिवर्तित रूप) के समक्ष लेखक के रूप में रहता है । लेखन-कौशल में प्रवीणता प्राप्त करने की दृष्टि से निम्न बिन्दु माने गये हैं— (1) सम्बन्धित ध्वनि/ ध्वनियों को एकाकी लिपि-चिन्हों में अंकित कर सकता, (2) शब्दों/पदों की संयुक्त ध्वनियों को संयुक्त लिपि-चिह्नों में अंकित कर सकना, (3) सामान्य तथा द्रुतगति से शुद्ध वर्तनी में विरामादि चिन्हों के साथ अनुलेखन तथा श्रुतलेखन कर सकना, (4) शुद्ध वर्तनी में शब्दों/पदबन्धों/वाक्यों/अनुच् छेदों को सुवाच्य वर्णों में लिख सकना, (5) प्रसंगोचिंत/अवसरानुकूल भाव-विचार अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त शब्दों/पदों का चयन करते हुए उन्हें शुद्ध वाक्यों में अंकित कर सकना, (6) अपने भावों-विचारों को नियंत्रित या मुक्त रचना के रूप में परस्पर सम्बद्ध वाक्यों में गुम्फित करते हुए अंकित कर सकना ।
(4) पठन कौशलप्रवीणता– भाषा के लिखित (टंकित/मुद्रित / आलेखित) रूप को आँखों के माध्यम से (अन्धे व्यक्तियों के सन्दर्भ में उँगलियों के स्पर्श से) मौन या सस्वर / मुखर रूप से बाँचते हुए ग्रहण करना ‘वाचन’ कहलाता है । वक्ता तथा श्रोता जब लिखित रूप में परोक्षत: एक दूसरे के समक्ष आते हैं तो यह लेखन तथा वाचन का क्षेत्र बन जाता है । लेखक के रूप में वक्ता अपने भाव-विचारों की अभिव्यक्ति किन्हीं लिपि-चिह्नों के माध्यम से करता है तथा वाचक / पाठक के रूप में श्रोता लिपि-चिह्नों में रूपान्तरित ध्वनि- समुच्चयों को ध्वनियों में परिवर्तित करते हुए लेखक के भावों – विचारों को ग्रहण करता है । वाचन-कौशल में प्रवीणता प्राप्त करने की दृष्टि से निम्न बिन्दु माने गये हैं—(1) एकाकी लिपि-चिह्नों को उन से सम्बन्धित ध्वनि/ ध्वनियों में रूपान्तरित कर सकना, (2) शब्दों/पदों में संयुक्त लिपि-चिह्नों को उन से सम्बन्धित ध्वनियों में रूपान्तरित कर सकना, (3) सामान्य तथा द्रुतगति से सस्वर और मौन वाचन कर सकना, (4) सस्वर / मुखर तथा मौन वाचन करते हुए लेखक के भावों-विचारों को ग्रहण करते जाना, इतना ही नहीं, वरन्, कभी-कभी पाठ्यवस्तु को सरसरी दृष्टि से पढ़ कर या उसका कुछ अंश ही पढ़कर निष्कर्ष या सार समझ लेना, (5) भाषा के टंकित/मुद्रित / लिखित/ आलेखित रूप का उपयुक्त सुर, आघात तथा हाव-भाव के साथ वाचन कर सकना ।
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