भारतीय नाट्यकला का सविस्तार विवेचन कीजिए ।

भारतीय नाट्यकला का सविस्तार विवेचन कीजिए ।

उत्तर— भारत में नाट्यकला का इतिहास लगभग 5000 साल पुराना है। ऐसा माना जाता है कि संवादमयीगीतों के रूप में नाट्यकला ऋग्वेद काल में भी अस्तित्व में थी । विश्वभर में प्राचीनतम मानी जाने वाली भरतमुनि द्वारा रखी गई नाट्य की व्याकरण, नाट्यशास्त्र (जो कि लगभग 200 ई.पू. और चौथी शताब्दी के बीच लिखा गया) नाटक, प्रदर्शन व दार्शनिक कला पर एक विस्तृत दस्तावेज है। यह प्राचीन युग का नाट्यशास्त्र का विवरण देने वाली पहली और सबसे सम्पूर्ण रचना है। किसी भी कला या गतिविधि को अपने नियम और विचारधारा को स्थापित करने के लिए बहुत लम्बा समय और अत्यधिक अभ्यास की आवश्यकता होती है ।
भारत में नाट्यकला की शुरुआत कथनात्मक स्वरूप में प्रस्तुत एक अनोखी कहानी के रूप में हुई होगी । कथा सुनाने के अलावा, संगीत व नृत्य शुरुआत से ही भारतीय नाट्यकला के अभिन्न अंग रहे हैं। भारतीय नाट्यकला को मुख्यतया तीन चरणों में बाँटा जाता है—
(1) शास्त्रीय काल–नाट्यकला के पहले चरण में 1000 ई.पू तक रचे व प्रस्तुत किए गए नाटक शामिल हैं। ये नाटक नाट्यशास्त्र में विस्तृत नियम, व्यवस्थापन व शोधों पर आधारित है। इन नाटकों के निर्माण, अभिनय स्थान और मंचन सम्बन्धित परम्पराओं पर लागू होते हैं। संस्कृत की अपनी रचनाओं में भाषा, कालिदास, शूद्रक, विशाखादत्तव भवभूति आदि नाटककारों ने भारी मात्रा में योगदान दिया है। उनकी रचनाएँ महाकाव्यों, इतिहास, लोकोक्तियों व दंतकथाओं पर आधारित थीं। उस समय नट या अभिनेता को सभी काल के सभी रूपों में पारंगत होना पड़ता था।
(2) पारम्परिक काल–दूसरे चरण में मौखिक किस्सागोई परम्पराओं पर आधारित नाटक की उत्पत्ति राजनैतिक उथल-पुथल व बहुत सारी क्षेत्रीय भाषाओं के समकालीन अस्तित्व व विकास के कारण हुई। 1000 ई.पू. से लेकर 1700 ई. तक की कालावधि में कई सारी क्षेत्रीय भाषाएँ अस्तित्व में आईं, परन्तु तब इनके लिखित रूप होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। इसी कारण इस चरण को लोक या पारम्परिक लिहाज से जाना जाता है, अर्थात् वह नाट्यकला जो केवल मौखिक माध्यमों से पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिली।
शास्त्रीय नाट्यकला का स्वरूप बहुत ही जटिल, सख्त और जड़ था । वही लोक नाट्यकला की उत्पत्ति ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में हुई। इसका उद्देश्य मुख्यत: मनोरंजन था और व्याकरण व नियम प्राथमिक नहीं थे, हालांकि लोकनाट्य में भी संगीत, माइम, नृत्य व कथन आदि तत्त्व मौजूद थे। यह सरल, तत्कालीन और आशुरचना पर निर्भर था जो इसे एक विशेष समय और क्षेत्र की सीमा में प्रतिबद्ध करता है। इसके अलावा, क्लासिकल नाट्यकला का अभिमंचन एक समय में पूरे भारत में एक समान हुआ होगा, जबकि पारम्परिक नाट्यकला के प्रदर्शन में भिन्नता रही होगी ।
भारतीय संस्कृति व विरासत का स्वरूप निर्धारित व मध्य एशियाई संस्कृति का महान संलयन हुआ जिसका प्रभाव नाट्यकला के दोनों ही पहलुओं में देखा गया । विषयवस्तु और प्रदर्शन स्वरूप । इस प्रक्रिया से प्रदर्शन कलाओं का एक केलाइडोस्कोप उभर के आया जिसे लोकनाट्य कहा जाने लगा।
भारत में लोकनाट्य का एक बहुत ही रंग-बिरंगा विन्यास मौजूद है। बंगाल, ओडिशा व पूर्वी बिहार में ‘जात्रा’ तो महाराष्ट्र में यह ‘तमाशा’ कहलाया जाने लगा; उत्तर प्रदेश, राजस्थान व पंजाब में यह नौटंकी के नाम से प्रसिद्ध है, तो गुजरात में भवाई और कर्नाटका में यक्षगान और तमिलनाडु में थेरूबुटू और राजस्थान में गवरी के नाम से प्रसिद्ध लोकनाट्य नाटक का वह रूप है जो जनसंख्या के एक बड़े वर्ग को छूता है।
(iii) आधुनिक काल–भारत में नाट्यशास्त्र का तीसरा चरण दुबारा राजनीतिक बदलावों के साथ जुड़ा है। ब्रिटिश शासन में बिताए गए 200 सालों की समयावधि के कारण भारतीय नाट्यशास्त्र, पाश्चात्य नाट्यशास्त्र के सीधे सम्पर्क में आया । भारत में पहली बाहर नाट्यशास्त्र (नाटक) लेखन और अभ्यास पूर्ण रूप से यथार्थवादी और प्राकृतिक प्रस्तुति की तरफ बढ़ा। यथार्थवाद और प्रकृतिवाद हमारी संस्कृति में पूर्णत: अनुपस्थित नहीं था । फिर भी इस चरण में यथार्थवाद को और ज्यादा आयाम मिले। अभी तक कहानी के पीछे की सोच रूपान्तरित हो गई। अब कहानी बड़े-बड़े अभिनेता या भगवान के इर्द-गिर्द नहीं घूमती, बल्कि अब एक आम आदमी का चित्र प्रस्तुत करती है। यह चरण नाट्यशास्त्र को विदेशी शासन के विरुद्ध प्रतिरोध और जन-विद्रोह के यंत्र के रूप में प्रयोग करता है।
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