मानव शरीर के तन्त्र (Systems of Human Body)
मानव शरीर के तन्त्र (Systems of Human Body)
मानव शरीर के तन्त्र (Systems of Human Body)
रासायनिक रूप से मानव शरीर विभिन्न तत्वों का बना है। एक वयस्क मानव शरीर में लगभग 57% पानी पाया जाता है, जिसमें 11% हाइड्रोजन भार के रूप में तथा 67% हाइड्रोजन आण्विक रूप से पाई जाती है। शरीर के भार के अनुसार 99% मानव शरीर 6 तत्वों का बना होता है, जो ऑक्सीजन, कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कैल्शियम तथा फॉस्फोरस हैं। शरीर में 0.85% पाँच अन्य तत्व ( पोटैशियम, सल्फर, सोडियम, क्लोरीन, मैग्नीशियम) पाए जाते हैं तथा अतिरिक्त कुछ अन्य सूक्ष्म तत्व (जैसे फ्लोरीन) पाए जाते हैं। ये सभी मानव शरीर के संघटन तथा कार्यिकी हेतु अनिवार्य तत्व हैं, जिनका अच्छे स्वास्थ्य के निर्माण में महत्त्वपूर्ण कार्य होता है।
मानव शरीर में विभिन्न तन्त्र पाए जाते हैं जैसे पाचन तन्त्र, श्वसन तन्त्र, परिवहन तन्त्र, उत्सर्जन तन्त्र, कंकाल तन्त्र, तन्त्रिका तन्त्र, रासायनिक नियन्त्रण तथा प्रजनन तन्त्र, आदि ।
मानव शरीर के ये सभी तन्त्र सुचारु (proper) रुप से क्रियान्वयन हेतु एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं जैसे रुधिर परिवहन तन्त्र ऑक्सीजन की पूर्ति के लिए श्वसन तन्त्र पर निर्भर होता है। श्वसन तन्त्र अन्तः श्वसन हेतु पेशीय तन्त्र पर निर्भर होता है। रोग प्रतिरोधक तन्त्र के अन्तर्गत भक्षक कोशिकाओं का परिवहन रुधिर द्वारा होता है। इस प्रकार लगभग सभी तन्त्र परिवहन हेतु रुधिर परिवहन तन्त्र पर तथा नियन्त्रण हेतु तन्त्रिका तन्त्र पर निर्भर होते हैं अर्थात् एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं या जुड़े रहते हैं।
(अ)
मानव पाचन तन्त्र (Human Digestive System)
दीर्घ जैविक अणु, जिन्हें हम भोजन में लेते है, उन्हें शरीर को प्रयोग करने हेतु अपघटित करना होता है, जो पाचन प्रक्रिया द्वारा होता है, जिसके लिए मानव शरीर में एक पूर्ण पाचन तन्त्र होता है।
मानव पाचन तन्त्र में भोजन को खाने, पचाने तथा अपच भोजन के निष्कासन हेतु विभिन्न अंग तथा ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। मानव पाचन तन्त्र में मुख्यतया आहारनाल तथा ग्रन्थियाँ होती हैं।
आहारनाल के विभिन्न अंग निम्नलिखित चित्र में प्रदर्शित है
आहारनाल (Alimentary Canal)
मानव की आहारनाल 8-10 मीटर लम्बाई की होती है, जो मुख से मलद्वार तक लम्बी होती है। आहारनाल में निम्नलिखित भाग पाए जाते हैं
1. मुख (Mouth)
यह दरार के समान दो मुलायम व चलनशील होठों से घिरा होता है। यह जबड़ों के बीच खुलता है, जिसे मुखगुहा (buccal cavity) कहते हैं।
2. प्रकोष्ठ (Vestibule)
मुख अन्दर की तरफ प्रकोष्ठ में खुलता है, जोकि होंठ व गाल तथा दाँत व जबड़ों के बीच स्थित स्थान होता है। यह श्लेष्म ग्रन्थि के आवरण से ढका रहता है ।
3. मुखगुहा (Buccal Cavity)
मुखगुहा गाल व होठों द्वारा घिरी एक गुहा होती है। मुखगुहा में दाँत, जीभ तथा लार ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। मुखगुहा के ऊपरी भाग को तालू (palate) कहते हैं। ऊपरी व निचले जबड़े में दाँतों के दो अलग क्रम लगे होते हैं।
दाँत (Teeth)
मुखगुहा के ऊपरी तथा निचले जबड़ों पर मजबूत दाँत पाए जाते हैं। मनुष्य में दाँत जबड़ों की हड्डियों में धँसे रहते हैं। मानव में विभिन्न प्रकार के दाँत पाए जाते हैं
विभिन्न प्रकार के दाँतों के लक्षण व कार्य
(i) कृन्तक ( Incisor) ये आगे की तरफ लगे, चपटे, धारदार दाँत होते हैं, जो खाने को काटने का कार्य करते हैं।
(ii) रदनक (Canine) ये कृन्तक से सटे नुकीले धारदार दाँत होते हैं, जो भोजन को फाड़ने का कार्य करते हैं।
(iii) अग्रचवर्णक तथा चवर्णक (Premolar and Molar) ये मोटे दाँत होते हैं, जो भोजन को पीसने का कार्य करते हैं।
5 ग्रसनी (Pharynx)
यह 12 सेमी लम्बी, तालू के पीछे स्थित नली होती है। ग्रसनी में मुखगृहा व नासामार्ग मिलते हैं। यह वायु व भोजन का सहमार्ग होती है। इसके अतिरिक्त यह बोलने में ध्वनि की गूँज उत्पन्न करती है। भोजन निगलते समय श्वास नाल एपिग्लोटिस से ढक जाता है, जो इसमें भोजन जाने से रोकती है।
कार्य (Functions) यह भोजन को ग्रासनली तक पहुँचाती है।
6. ग्रासनली (Oesophagus )
यह पतली, पेशीय, संकुचनशील (23.27 सेमी) लम्बी नली है। ग्रसनी, निगलवार (gullet) द्वारा आहारनाल के दूसरे भाग ग्रासनली में खुलती है। इसकी दीवार में पाचन ग्रन्थियाँ नहीं होती परन्तु श्लेष्म ग्रन्थियाँ होती है, जिससे भोजन फिसलता हुआ आमाशय में पहुँच जाता है। एक पेशीय, संकुचनशील ढक्कन आमाशय में इसके खुलने को नियन्त्रित करता है।
कार्य (Functions) यह भोजन को आमाशय तक पहुँचाती है।
7. आमाशय (Stomach)
यह लगभग 25 सेमी लम्बा, आहारनाल का सबसे चौड़ा थैलीनुमा भाग होता है। यह J के आकार का होता है। इसमें जठर ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं, जो भोजन के पाचन हेतु जठर रस का प्रावण करती है। प्रत्येक व्यक्ति के आमाशय की दीवार में लगभग 3.5 करोड़ जठर ग्रन्थियाँ होती हैं। आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI), पेप्सिन, लाइपेज नामक एन्जाइम का प्रावण होता है।
आमाशय के तीन प्रमुख भाग होते हैं
(a) कार्डियक आमाशाय (Cardiac Stomach) आमाशय का ऊपरी भाग, जिसमें ग्रासनली खुलती है।
(b) फंडिक (Fundic Stomach) मध्य आमाशय।
(c) पायलोरिक (Pyloric) यह आमाशय का निचला भाग है, जो छोटी आंत में खुलता है अर्थात् शेषाग्र। इसका अन्तिम भाग पायलोरिक संकोचक द्वारा सुरक्षित रहता है।
कार्य (Functions) यह भोजन को कुछ समय के लिए एकत्रित रखता है। फिर उसे पीसकर व तोड़कर उसका आंशिक पाचन करता है। इस कार्य में जठर रस का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है।
8. आँत (Intestine)
छोटी आँत (Small Intestine) यह 6 मीटर लम्बी तथा लगभग 2.5 सेमी मोटी होती है, जो अत्यधिक कुण्डलितं होती है, जो आहारनाल का सबसे लम्बा भाग है।
यह तीन भागों में विभाजित होती है
(i) ग्रहणी (Duodenum) यह लगभग 25 सेमी लम्बा, अकुण्डलित प्रारम्भिक भाग होता है, जो C की आकृति का होता है। इसकी भुजाओं के मध्य अग्न्याशय होता है।
(ii) मध्यान्त्र (Jejunum) नीचे की ओर ग्रहणी मध्यान्त्र में खुलती है, जो लगभग 2.4 मीटर लम्बी कुण्डलित नलिका होती है तथा इसका व्यास लगभग 4 सेमी होता है।
(iii) शेषान्त्र (Ileum) मध्यान्त्र लगभग 3.4 मीटर लम्बी कुण्डलित नलिका में खुलती है, जो छोटी आँत का अन्तिम हिस्सा है। इसकी दीवार मध्यान्त्र से पतली होती है। यह छोटी आँत का सबसे लम्बा भाग है। यह बड़ी आँत के उण्डुक (caecum) में खुलता है।
◆ लोहा मुख्यतया ग्रहणी में अवशोषित होता है।
कार्य (Functions) छोटी आँत में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, न्यूक्लिक अम्ल व वसा का पूर्ण रूप से पाचन होता है। यह पचे हुए पोषण पदार्थों का अवशोषण कर उन्हें रुधिर व लसीका में मिलता भी है।
रसांकुर व सूक्ष्मांकुर (Villi and Microvilli)
छोटी आँत की सतह पर अवशोषण सतह बढ़ाने हेतु महत्त्वपूर्ण भाग पाए जाते हैं, जो निम्न हैं
√ रसांकुर छोटी आँत की आन्तरिक श्लेष्म परत पर रसांकुर (लगभग 1 मिमी ऊँचाई वाले) पाए जाते हैं, जो स्तम्भाकार एपीथिलयम ऊतक से ढ़के होते हैं।
√ सूक्ष्मांकुर रसांकुर की सतह कोशिकाओं द्वारा बहुत से सूक्ष्मदर्शी सूक्ष्मांकुर निकले होते हैं, जो आँत में अवशोषण हेतु सतह को बढ़ा देते हैं।
बड़ी आँत (Large Intestine) शेषान्त्र, 1.5 सेमी लम्बी तथा 6-7 सेमी मोटी बड़ी आँत में खुलती है। यह छोटी आँत से छोटी परन्तु व्यास में अधिक होती है। इसमें तीन भाग होते हैं
(i) उण्डुक (Caecum) यह 6 सेमी लम्बी थैलीनुमा रचना होती है। इसकी दीवार पर श्लेष्मिका रसिका ग्रन्थियाँ होती हैं। इसके बन्द छोर पर लगभग 8 सेमी लम्बी कृमिरूप परिशेषिका (vermiform appendix) होती है, जो आहारनाल का अवशेषी भाग है।
(ii) बृहदान्त्र (Colon) यह 1.3 मीटर लम्बी नाल होती है, जो उल्टे U के आकार की होती है, जिसमें 15 सेमी लम्बा आरोही खण्ड, 50 सेमी लम्बा अनुप्रस्थ खण्ड, 25 सेमी लम्बा अवरोही खण्ड तथा 40 सेमी लम्बा सिग्माकार खण्ड होता है।
(iii) मलाशय (Rectum) यह 20 सेमी लम्बी नाल होती है। इसके अन्तिम 2.5-3 सेमी लम्बे भाग को गुदननाल (anal canal) कहते हैं, जो गुदा ( anus) द्वारा बाहर खुलती है। गुदा का नियन्त्रण दो गुद संकोचक पेशियों (anal sphincter muscles) द्वारा होता है।
कार्य (Functions) बड़ी आँत का मुख्य कार्य पानी का अवशोषण तथा अपच भोजन को शरीर के बाहर निकालना है।
पाचन ग्रन्थियाँ (Digestive Glands)
भोजन को पचाते हुए विभिन्न पाचन ग्रन्थियों से विभिन्न प्रकार के रस निकलते हैं। मनुष्य के पाचन तन्त्र में निम्न प्रकार की पाचन ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं
1. लार ग्रन्थियाँ (Salivary Glands)
लार ग्रन्थियाँ मुखगुहा में पाई जाती हैं जिनसे लार का स्रावण होता है तथा मुखगुहिका गीली बनी रहती है। यह भोजन को चबाने हेतु चिकना बनाती है। लार ग्रन्थियाँ अधोजिव्हा (sublingual), कर्णपूर्व (parotid) तथा अधोहनु (submandibular) प्रकार की होती है।
लार ग्रन्थियों द्वारा स्रावित रस को लार कहते हैं, जिसकी pH 6-8 होती है। यह मुख्यतया जल आयन जैसे Na+, K+, Cl–, HCO–3 होते हैं, जो रुधिर प्लाज्मा, श्लेष्म, सीरम व एन्जाइम से बनते हैं। लार में α-एमाइलेज (α-amylases) नामक पाचन एन्जाइम होता है, जो स्टार्च को शर्करा में परिवर्तित कर भोजन को मीठा बनाता है। इसमें लाइसोजाइम भी होता है, जो प्रतिजीवाणु कारक है।
2. जठर ग्रन्थियाँ (Gastric Glands)
ये आमाशय में पाई जाती हैं, जिनसे भोजन के पाचन हेतु जठर रस का स्रावण होता है। ये संख्या में ज्यादा, सूक्ष्मदर्शी होती है। जठर रस की प्रकृति के अनुसार ये तीन प्रकार की होती हैं
(i) शलेष्मिक ग्रीवा कोकिाएँ (Mucous neck cells) ये श्लेष्म का स्रावण करती हैं।
(ii) पैराइटल कोशिकाएँ (Parietal or oxyntic cells) इनसे HCl का स्रावण होता है।
(iii) प्रधान कोशिकाएँ (Chief or zymogenes cells) इनसे पेप्सिन, प्रोएन्जाइम, लाइपेज का स्रावण होता है।
इन कोशिकाओं से जठर रस का स्रावण होता है, जिसकी pH 1.5-2.5 होती है। इसमें पेप्सिनोजन व प्रोरेनिन नामक प्रोएन्जाइम तथा जठर लाइपेज, एमाइलेज, श्लेष्म व HCl होते हैं।
प्रतिदिन लगभग 2000-3000 मिली जठर रस का स्रावण होता है, जो अम्लीय प्रकृति का होता है।
3. यकृत (Liver)
यकृत मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि व सबसे बड़ा अंग है। यह शरीर के ऊपरी भाग में उदर गुहा में डायफ्राम के नीचे होता है। यह लगभग 15-22 सेमी लम्बा व चौड़ा तथा भार में लगभग 1.5 किग्रा का होता है। यह पुरुषों में (1.4-1.8 किग्रा) स्त्रियों की अपेक्षा (1.2-1.5 किग्रा) भारी होता है। यह चॉकलेटी रंग का कोमल, ठोस द्विपालित अंग होता है। आन्तरिक रुप से, यकृत की कार्यात्मक व संरचनात्मक इकाई हिपेटिक लोब्यूल्स है, जो ग्लिसन कैप्सूल नामक पतली संयोजी ऊतक की परत से ढ़का रहता है। यकृत में वसा संयोजी कोशिकाएँ भी उपस्थित होती हैं।
यकृत के कार्य (Functions of Liver)
यकृत मानव पाचन तन्त्र में निम्न कार्य करता है
(i) पित्त का स्रावण (Secretion of bile) पित्त हरे रंग का क्षारीय तरल (pH 8.6) होता है, जिसमें पित्त लवण, पित्त रंग पाए जाते हैं, जो वसा के पाचन में कार्य करते हैं। यकृत द्वारा प्रतिदिन लगभग 500-1000 मिली पित्त का स्रावण होता है।
(ii) ग्लाइकोजिनेसिस (Glycogenesis) यकृत कोशिकाएँ आवश्यकता से अधिक शर्करा को ग्लाइकोजन में परिवर्तित कर संग्रह करती है। इसे ग्लाइकोजिनोसिस (glycogenesis) कहते हैं । रुधिर में शर्करा की कमी पड़ने पर यह संग्रहित ग्लाइकोजन को शर्करा में परिवर्तित करती है। इसे ग्लाइकोजिनेसिस कहते हैं।
(iii) विऐमेनीकरण (Deamination) यह आवश्यकता से अधिक अमीनो अम्लों को पाइरुविक अम्ल व अमोनिया में विखण्डित कर देती है |
(iv) उत्सर्जन (Excretion) ये यूरिया का संश्लेषण करती है, जिसे वृक्क रुधिर से लेकर मूत्र के साथ उत्सर्जन करते हैं। यूरिया के अतिरिक्त कुछ अन्य निरर्थक पदार्थों के उत्सर्जन में भी यकृत सहायता करता है।
(v) ग्लाइकोजीनोलिसिस (Glycogenolysis) यह ग्लाइकोजन का यकृत कोशिकाओं द्वारा ग्लूकोज में परिवर्तन है, जो अग्न्याशय द्वारा स्रावित इन्सुलिन हार्मोन की सहायता से होता है।
(vi) रुधिराणुओं का निर्माण (Haemopoiesis) कशेरुकियों की भ्रूणावस्था में यकृत रुधिरोत्पादक (haemopoietic) होता है।
(vii) एन्जाइमों का स्रावण (Secretion of Enzyme) यकृत कोशिकाएँ प्रोटिन्स, वसाओं, कार्बोहाइड्रेट, आदि के उपापचय हेतु एन्जाइम का स्रावण करती है।
(viii) हिपैरिन का स्रावण (Secretion of Heparin) यकृत कोशिकाएँ हिपैरिन नामक प्रोटीन का निर्माण करती हैं, जो रुधिर को जमने से रोकती हैं।
(ix) विटामिन का संश्लेषण (Synthesis of Vitamin) विटामिन-A का निर्माण B-कैरोटिन से करता है।
(x) संचय (Storage) यकृत में ग्लाइकोजन, वसा, विटामिन (A एवं D), पित्त, रुधिर, पानी, लौहा, ताँबा तथा पोटैशियम का संचय होता है।
4. अग्न्याशय (Pancreas)
यह C की आकृति का अंग होता है, जो एक मिश्रित ग्रन्थि (mixed gland) होती है। यह यकृत के बाद शरीर की दूसरी सबसे बड़ी ग्रन्थि है। यह 12-15 सेमी लम्बी होती है। यह उदर गुहा में आमाशय व शेषान्त्र के बीच स्थित होता है। सामान्य व्यक्ति में इसका भार 60-90 ग्राम होता है। यह एक मिश्रित ग्रन्थि है। अतः इसका बाह्यस्रावी भाग क्षारीय आमाशय रस का स्रावण करता है तथा अग्न्याशय के अन्तःस्रावी भाग में लैंगरहैन्स की द्वीपिकाएँ (islets of Langerhans) होती हैं, जो हार्मोन्स का स्रावण करती हैं। प्रत्येक लैंगरहैन्स की द्वीपिकाओं में α, β, δ तथा अग्न्याशय पॉलीपेटाइड कोशिकाएँ पाई जाती हैं, जो रुधिर में मिलाने हेतु हॉर्मोन्स का स्रावण करती हैं।
अग्न्याशय से अग्न्याशय रस का स्रावण होता है, जिससे हॉर्मोन्स व एन्जाइम का स्रावण होता है, जो भोजन के पाचन एवं शर्करा उपापचय हेतु कार्य करते हैं ।
5. आन्त्रीय ग्रन्थियाँ (Intestinal Glands)
उपरोक्त सभी ग्रन्थियों के अतिरिक्त छोटी आँत की दीवार पर आन्त्रीय ग्रन्थियाँ भी पायी जाती हैं, जो आँत रस (लिपिड पाचक, प्रोटीन पाचन व कार्बोहाइड्रेट पाचक) का स्रावण करती हैं। इसे सक्कस एन्टेरिकस (succus entericus) कहते हैं।
पाचन की विधि (Mechanism of Digestion)
भोजन पाचन के पाँच चरण होते हैं जैसे अन्तर्ग्रहण, पाचन, अवशोषण, परित्याग एवं स्वांगीकरण। प्रथम चरण अन्तर्ग्रहण (ingestion) होता है (जिसमें मुख द्वारा भोजन लेते हैं)। दूसरा चरण पाचन (digestion) होता है (जिसमें भोजन में उपस्थित जटिल यौगिकों का सरल यौगिकों में परिवर्तन होता है।) यह मुख में प्रारम्भ होकर छोटी आँत में सम्पूर्ण होता है। इसके बाद अवशोषण (absorption) में पचे हुए भोजन का आँत द्वारा अवशोषण होता है तथा फिर सारा पाचक भोजन आँत के रसांकुरों द्वारा तथा लेक्टिल्स (छोटी लसिका केशनलिका जो रसांकुर में पाई जाती है) द्वारा अवशोषित किया जाता है।
पाचन तन्त्र के विभिन्न भागों द्वारा अवशोषण का सारांश (Summary of Absorption in Different Parts of Digestive System)
मुख (Mouth) कुछ दवाइयाँ, जो मुख की श्लेष्म ग्रन्थियों के सम्पर्क में तथा जीभ की निचली सतह के सम्पर्क में आती हैं। यहाँ से ये दवाइयाँ रुधिर केशनलिकाओं में अवशोषित हो जाती हैं।
पेट (Stomach) जल, सरल शर्करा, एल्कोहॉल, आदि का अवशोषण ।
छोटी आँत (Small Intestine) पोषण पदार्थों के अवशोषण का मुख्य अंग। पाचन के अन्तिम पदार्थ जैसे ग्लूकोज, फ्रक्टोज, फैट्टी अम्ल, ग्लिसरॉल तथा अमीनो अम्लों का अवशोषण इसकी श्लेष्म परत द्वारा रुधिर धारा व लसिका में होता है।
बड़ी आँत (Large Intestine) जल, कुछ खनिज व दवाइयों का अवशोषण।
अन्त में स्वांगीकरण (assimilation) में रुधिर द्वारा पचे पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुँचाया जाता है।
परित्याग (Egestion) अपचित भोजन का बड़ी आँत के द्वारा गुदा से बाहर निकलना है। अपचित भोजन को बड़ी आँत में भेजा जाता है, जहाँ उसमें से जल अवशोषित होता है। क्रमाकुंचन द्वारा अपाचित भोजन को छोटी आँत से बड़ी आँत में भेजते हैं। जल के पुनः अवशोषण के बाद बचे पदार्थ को गुदा द्वारा बाहर निकालते हैं।
पाचन तन्त्र से सम्बन्धित रोग (Disorders of Digestive System)
पाचन तन्त्र से सम्बन्धित कुछ सामान्य रोग निम्नलिखित हैं
(ब)
(मानव श्वसन तन्त्र Human Respiratory System)
सभी सजीवों को अपनी कोशिकाएँ एवं उपापचयी अभिक्रियाएँ करने के लिए निरन्तर जैव ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह जैव ऊर्जा सजीवों को पचे हुए पोषण पदार्थों के ऑक्सीकर विघटन से प्राप्त होती है जिसमें ग्लूकोज का उपयोग किया जाता है अत: ग्लूकोज को ‘कोशिकीय ईंधन (cellular fuel)’ भी कहते हैं। ऊर्जा के उत्पादन हेतु पोषण पदार्थों का ऑक्सीकर विघटन ‘श्वसन’ कहलाता है। श्वसन क्रिया में वायुमण्डल से ऑक्सीजन लेकर पोषण पदार्थों का ऑक्सीकरण किया जाता है जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड, जल तथा ऊर्जा (ATP) उत्पन्न होती है।
श्वसन क्रिया में पाँच प्रमुख चरण होते हैं
(i) वातावरण से ऑक्सीजन ग्रहण करना।
(ii) ऑक्सीजन से भोजन का ऑक्सीकर विघटन करना ।
(iii) इस क्रिया में बनी कार्बन डाइऑक्साइड का मुक्त होना।
(iv) ऑक्सीकरण क्रिया में जल का बनना।
(v) ATP के रूप में ऊर्जा का संचय करना।
श्वसन के प्रकार एवं चरण (Types and Phases of Respiration)
यह दो प्रकार का होता है
वायवीय श्वसन (Aerobic Respiration )
वायवीय श्वसन में जीव वायुमण्डल से ऑक्सीजन लेकर ग्लूकोज व अन्य पदार्थों का जैव रासायनिक विघटन करके कार्बन डाइ-ऑक्साइड, जल व ऊर्जा मुक्त करते हैं। इस श्वसन क्रिया को ‘ऑक्सी श्वसन’ भी कहते हैं जिन जीवों में वायवीय श्वसन होता है उन्हें वायवीय जीव (aerobes) कहते हैं।
यह दो प्रकार से हो सकता है
(i) प्रत्यक्ष श्वसन (Direct Respiration ) यक्ष श्वसन में वातावरणीय ऑक्सीजन का कार्बन डाइ-ऑक्साइड के साथ गैसीय विनिमय श्वसन अंगों व रुधिर के उपयोग के बिना किया जाता है। उदाहरण यह वायवीय जीवाणु, प्रोटिस्टा, पादप, स्पंज, सीलेन्टेटा, चपटेकृमि, गोलकृमि व आर्थ्रोपोडा संघ के जीवों में होता हैं।
(ii) अप्रत्यक्ष श्वसन (Indirect Respiration ) यह श्वास क्रिया विशिष्ट श्वसनांगों द्वारा होती है, जैसे त्वचा, क्लोन, फेफड़े व रुधिर द्वारा । उदाहरण क्रिस्टेसियन्स, उभयचरी, एनीलीडा, मोलस्का, सरीसृप, पक्षी व स्तनधारी वर्ग के जीव ।
अप्रत्यक्ष वायवीय श्वसन के चरण (Phases of Indirect Aerobic Respiration) वायवीय श्वसन प्रक्रिया दो प्रमुख चरणों में पूर्ण होती है बाह्य व अन्तः श्वसन जो श्वास क्रिया (breathing) के बाद शुरू होते हैं।
श्वास क्रिया (Breathing : A Preliminary Phase )
यह श्वसन का अनुलोम नहीं है, परन्तु यह श्वसन का पहला चरण है। यह एक भौतिक प्रक्रिया है जिसे वायु के शरीर में अन्दर जाने व बाहर आने को कहते हैं।
(a) बाह्य श्वसन (External Respiration ) रुधिर द्वारा जल से O2 का लेना तथा शरीर के ऊतकों से CO2 का निकलना बाह्य श्वसन कहलाता है।
(b) अन्त: श्वसन (Internal Respiration) इसे कोशिकीय श्वसन (cellular respiration) भी कहते हैं। इसमें 4 प्रक्रियाएँ होती हैं अर्थात्
◆ ऊतकों से रुधिर द्वारा O2 का लेना ।
◆ ऊतकों में भोजन का ऊर्जा, जल व CO2 हेतु ऑक्सीकरण ।
◆ इस प्रक्रिया में बनी ऊर्जा का ATP के फॉस्फेट बन्धों के बीच संचय |
◆ ऊतकों की CO2 का रुधिर द्वारा बाहर निकलना ।
अवायवीय श्वसन (Anaerobic Respiration )
कुछ निम्न कोटि के जीवों, जीवाणुओं, यीस्ट तथा कुछ जन्तु ऊतकों में ऊर्जा के लिए ग्लूकोज का लैक्टिक अम्ल (lactic acid) या एथिल एल्कोहॉल (ethyl alcohol) में आंशिक विघटन होता है। इसे अवायवीय या अनॉक्सी श्वसन कहते हैं। इसमें O2 का उपयोग नहीं होता है, परन्तु CO2 बनती है। इसे किण्वन (fermentation) भी कहते हैं। उदाहरण यीस्ट द्वारा ग्लूकोज से एल्कोहॉल का बनना
C6H12O6 → 2C2H5OH + 2CO2 + ऊर्जा
ग्लूकोज एथिल एल्कोहॉल
मानव पेशियों में लैक्टिक अम्ल का निर्माण अवायवीय श्वसन के फलस्वरूप वनता है जिससे पेशियों में अकड़न व दर्द होता है।
C6H12O6 → 2CH2CHOHCOOH + ऊर्जा
श्वसन में ग्लूकोज के ऑक्सीकरण का रेखाचित्र
मानव श्वसन तन्त्र के विभिन्न अंग (Various Organs of Human Respiratory System)
मानव के प्रमुख श्वसनांग फेफड़े होते हैं, जो वक्षगुहा में कशेरुकदण्ड तथा पसलियों द्वारा बने एक कटहरे में स्थित होते हैं। मानव के श्वसन तन्त्र में वायुमार्ग होता है जिससे गैसीय विनिमय होता है। मानव श्वसन तन्त्र के मुख्य अंग निम्नलिखित हैं
(i) नासिका एवं नासा मार्ग (Nose and Nasal Passage) नासिका एक उभरी हुई संरचना होती है जिसमें दो नासाद्वार (nostrils) होते हैं। नासाद्वार, नासिका में दो पृथक् नासामार्गों में खुलते हैं जिन्हें पृथक् करने के लिए बीच में लम्बा एवं खड़ा नासापट्ट (nasal septum) होता है।
कार्य नासाद्वार द्वारा ऑक्सीजन ली जाती है एवं कार्बन डाइऑक्साइड बाहर निकाली जाती है।
(ii) ग्रसनी (Pharynx) नासामार्ग ग्रसनी में खुलता है। ग्रसनी का अग्र भाग नासाग्रसनी (nasopharynx) कहलाता है। इसका निचला भाग मुखग्रसनी (oropharynx) तथा पिछला भाग कण्ठग्रसनी (laryngopharynx) कहलाता है।
(iii) वाक्यन्त्र या कण्ठ (Larynx or Voice Box) यह एक खोखले उपास्थिमय बॉक्स के समान रचना है। किशोरावस्था तक लडकी तथा लडके के कण्ठ में अधिक अन्तर नहीं होता है। यह ग्रीवा के ऊपरी भाग के मध्य में तथा कण्ठग्रसनी के सामने होता है। इस यन्त्र में सामने की ओर सपाट उभार होता है जिसे टेटुआ या एडम्स एप्पल कहा जाता है। जिव्हा मूल तथा श्वासनली के मध्य स्थित यह संरचना वायु को वायुनली में पहुँचने की अनुमति प्रदान करता है। यौवनावस्था में लड़कों के कण्ठ लड़कियों के सापेक्ष बड़े तथा परिमाण में अधिक हो जाते हैं।
(iv) श्वासनाल (Trachea) कण्ठ के थोड़ा ऊपर घाँटीढ़ापन (epiglottis) होता है, जो भोजन निगलने की क्रिया में कण्ठद्वार ढक देता है जिससे भोजन वायुनली में नहीं जा पाता।
(v) श्वासनली एवं श्वसनी ( Trachea and Bronchi) कण्ठ लगभग 12 सेमी लम्बी और 2.5 सेमी चौड़ी नलिका में खुलता है जिसे श्वासनाल कहते हैं। ग्रासनली से चिपकी ग्रीवा में होती है, जो वक्ष भाग में पहुँचकर दाएँ व बाएँ दो छोटी शाखाओं में बँट जाती है। इन्हें प्राथमिक श्वसनियाँ कहते हैं। दोनों श्वसनियाँ अपनी ओर वाले फेफड़ों में घुस जाती हैं।
श्वासनली एवं श्वसनियों की दीवार में प्रभासी उपास्थि (cartilage) के बने उपास्थि छल्ले (cartilaginous rings) होते हैं, जो श्वासनाल व श्वसनियों को चिपकने व पिचकने से रोकते हैं ताकि इनमें वायु स्वतन्त्रतापूर्वक जा सके।
(vi) वायुकोष्ठक (Alveoli) प्राथमिक श्वसनियाँ फेफड़ों में जाकर पुन: विभाजित होती हैं तथा द्वितीयक एवं तृतीयक श्वसनियाँ बनाती हैं, जो व्यास में कम होती जाती हैं। श्वसनियों की अन्तिम शाखा को घोर श्वसनी कहते हैं, जो श्वसनिकाओं तथा फिर कूपिका नलिकाओं (alveolar duct) में बँट जाती है, जो अन्त में वायुकोष्ठ (alveoli) के एक गोल समूह में घुस जाती है। इस समूह को वायुकोष (alveolar sac) कहते हैं जिसमें दो या तीन वायुकोष्ठक (alveoli) होते हैं। हमारे प्रत्येक फेफड़े में लगभग 15 करोड़ वायुकोष्ठक (alveoli) होते हैं। प्रत्येक वायुकोष्ठक में साँस की वायु तथा रुधिर के बीच गैसीय विनिमय होता है।
(vii) फेफड़े (Lungs) मानव में दो फेफड़े पाए जाते हैं, जो शंक्वाकार होते हैं। ये हृदय एवं मध्यावकाश (mediastinum) के इधर-उधर वक्ष में स्थित होते हैं। ये गुलाबी, कोमल व लचीले अंग होते हैं। फेफड़ों पर प्यूरल कला (pleural membrane) का महीन आवरण होता है।
दाहिना फेफड़ा, बाएँ फेफड़े से कुछ बड़ा तथा चौड़ा परन्तु लम्बाई में छोटा होता है। फेफड़े तन्तुपट (diaphragm) पर उभरे हिस्से पर चिपका रहता है इसे फेफड़े का आधार (base) कहते हैं तथा शंक्वाकार छोर को शीर्ष (apex) कहते हैं। फेफड़े में जाने वाली प्राथमिक श्वसनी के प्रवेश स्थान को नाभिका (hilus) कहते हैं।
◆ केन्द्रिक तन्त्रिकातन्त्र के साथ-साथ श्वसन केन्द्रों के तनाव को परिगलन (nacrosis) कहते हैं।
◆ ग्रसनी की सूजन को कन्न नलिका का रंग (pharyngitis or sore throat) कहते हैं।
◆ एक व्यक्ति एक फेफड़े पर भी जीवित रह सकता है परन्तु उसकी कार्य क्षमता कम हो जाती है।
श्वसन तन्त्र में वायु का प्रवाह (Movement of Air through Respiratory System)
नासामार्ग → ग्रसनी (गला) → कण्ठ → श्वासनाल → श्वसनी → वायुकोष्ठक → रुधिर केशनलिका → ऊतक
श्वसन की क्रिया (Mechanism of Respiration)
श्वसन तीन मुख्य चरणों में होता है – श्वास क्रिया, गैसों का विनिमय तथा गैसों का परिवहन ।
श्वास क्रिया में O2 का अंत:करण तथा CO2 का बहिःकरण होता है। गैसीय विनिमय में वायुकोष्ठों (विनिमय का प्राथमिक स्थान) तथा रुधिर के बीच आंशिक दाब के कारण गैस का आदान-प्रदान होता है।
गैसीय विनिमय के दाब O2 तथा CO2 विभिन्न अवस्थाओं में अपने तय स्थान तक जाती है। O2 3% घुली अवस्था में तथा 97% ऑक्सीहीमोग्लोबिन अवस्था में विभिन्न ऊतकों तक जाती है। CO2 7% घुली अवस्था में, 70% बाइकार्बोनेट तथा 23% कार्बामिनोहीमोग्लोबिन की अवस्था में फेफड़ों तक जाती है।
कोशिकीय श्वसन (Cellular Respiration)
कोशिकीय ऑक्सीकरण की प्रक्रिया को कोशिकीय श्वसन कहते हैं। इसमें ग्लूकोज का रासायनिक ऑक्सीकरण होता है जिससे ऊर्जा, CO2 व जल प्राप्त होते हैं। यह विधि एन्जाइमों, हॉर्मोन्स एवं सहएन्जाइमों आदि द्वारा नियन्त्रित अनेक रासायनिक अभिक्रियाओं की एक जटिल शृंखला होती है।
इसके तीन प्रमुख चरण होते हैं
श्वसन तन्त्र से सम्बन्धित रोग (Disorders of Respiratory System)
सामान्य श्वसन तन्त्र निम्न रोगों से व्याधित हो सकता है
◆ परिगलन (Nacrosis) शरीर के किसी अंग के ऊतक के कोशिकाओं के गलने की स्थिति को कहते हैं।
◆ अल्प ऑक्सीयता (Hypoxia) ऊतकों में ऑक्सीजन की कमी से होता है।
◆ एटिलैक्टॉसिस (Atelectasis) फेफड़ों के चिपकने से पूर्ण रूप से ऑक्सीजन रहित हो जाने की स्थिति को कहते हैं।
◆ परागज ज्वर (Hay Fever) रोग में एलर्जी के कारण नाक के वायुमार्ग रुक जाते हैं तथा नाक में खुजली व आँख से पानी गिरता है। इसे ‘स्वर्णदण्ड ज्वर’ या गुलाब ज्वर’ भी कहते हैं।
◆ अनॉक्सिकता (Anoxia) रुधिर, ऊतक या वातावरण में पूर्ण रूप से ऑक्सीजन खत्म हो जाने को कहते हैं।
(स)
मानव परिसंचरण तन्त्र (Human Circulatory System)
परिसंचरण तन्त्र जंतु शरीर में एक विस्तृत तन्त्र होता है जिसका कार्य शरीर के विभिन्न ऊतकों के बीच पदार्थों का निरन्तर रासायनिक आदान-प्रदान करना होता है। जैसे पचे हुए पोषण पदार्थों, O2, हॉर्मोन्स, CO2, यूरिया आदि का परिसंचरण इसी तन्त्र द्वारा होता है।
जंतुओं में दो निम्न प्रकार के परिसंचरण तन्त्र पाए जाते हैं
(i) खुला परिसंचरण तन्त्र (Open Circulatory System)
यह परिसंचरण तन्त्र ऊतक द्रव्य एवं रुधिर में भरे असममित पात्रों का बना होता है, जो सब मिलकर हीमोसील गुहा बनाते हैं। इनका तरल हीमोग्लोबिन की अनुपस्थिति के कारण लाल नहीं होता। अतः इसे हीमोलिम्फ (haemolymph) कहते हैं। उदाहरण अधिकांश आर्थ्रोपोडा तथा कुछ सिफेलोपोड।
(ii) बन्द परिसंचरण तन्त्र (Closed Circulatory System)
इस परिसंचरण तन्त्र में रुधिर नलिकाओं में बहता है, जो शरीर के ऊतकों के साथ सीधे सम्पर्क में नहीं आता है। रुधिर का आना व जाना सिर्फ नलिकाओं द्वारा होता है। उदाहरण एनीलिडा व कॉर्डेटा। यह सबसे उपयुक्त तरीका है शारीरिक ऊतकों में रुधिर पहुँचाने का।
मानव में बन्द परिसंचरण तन्त्र पाया जाता है जिसमें दो प्रकार के तरल होते हैं रुधिर एवं लसीका। अत: परिसंचरण तन्त्र को दो तन्त्रों में बाँटा गया है
1. रुधिर परिसंचरण तन्त्र (Blood Circulatory System)
2. लसीका तन्त्र (Lymphatic System)
रुधिर परिसंचरण तन्त्र (Blood Circulatory System)
इसे हृदयीसंचरण तन्त्र भी कहते हैं, क्योंकि रुधिर को नलिकाओं में पम्प करने का कार्य हृदय करता है। इसे तीन भागों में बाँटा गया है- रुधिर, हृदय एवं रुधिर वाहिनियाँ ।
रुधिर (Blood)
रुधिर तरल संयोजी ऊतक है, जो सम्पूर्ण बाह्यकोशिकीय तरल का 30-32% होता है। रुधिर लाल रंग का, जल से भारी, क्षारीय तरल होता है, जो रुधिर वाहिनियों में निरन्तर परिक्रमा करता रहता है। मानव शरीर में औसतन 5-6 लीटर रुधिर होता है। स्त्रियों में 20-25% रुधिर कम पाया जाता है। रुधिर का लाल रंग रंगा पदार्थ हीमोग्लोबिन की उपस्थिति के कारण होता है।
रुधिर के अवयव (Components of Blood)
रुधिर दो भागों से मिलकर बना होता है तरल प्लाज्मा तथा रुधिर कणिकाएँ। ये दोनों ही शरीर में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं जिनका वितरण निम्न है।
प्लाज्मा (Plasma)
यह हल्के पीले रंग का, साफ, पारदर्शक अन्तराकोशिकीय तरल होता है, जो रुधिर का लगभग 55% भाग बनाता है।
प्लाज्मा का संगठन (Composition of Plasma)
इसमें 91% जल होता है शेष कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ होते हैं। यह प्लाज्मा प्रोटिन्स, हॉर्मोन्स, गैस आदि का संवहन करता है तथा सुरक्षा प्रदान करता है, क्योंकि इनमें प्रतिरक्षी पदार्थ (antibodies) पाई जाती हैं। प्लाज्मा में 6-8% विलेय घुले होते हैं, जोकि विभिन्न आयन (Na+, Mg2+, Ca2+, HCO–3 आदि), ग्लूकोज व अन्य शर्करा, प्लाज्मा प्रोटीन, अमीनो अम्ल, हॉर्मोन्स, कोलेस्ट्रॉल, वसा, यूरिया, अन्य अपशिष्ट तथा कार्बनिक अम्ल हैं।
◆ सीरम (Serum) रुधिर के थक्के हेतु कारक भी प्लाज्मा में होते हैं। इन कारकों रहित प्लाज्मा को सीरम कहते हैं।
◆ प्लाज्मा प्रोटीन (Plasma Protein) प्लाज्मा में उपस्थित प्रोटीन प्लाज्मा को गाढ़ापन (viscosity) देते हैं। प्लाज्मा में घुली मुख्य प्रोटीन फाइब्रीनोजन, ग्लोब्यूलिन्स तथा एलब्युमिन्स है।
◆ प्लाज्मा में प्रोटीन की कमी से टाँगों व हाथों में सूजन जल के जमा होने से आती है। 70 से ज्यादा प्लाज्मा प्रोटीन का पता लगाया जा चुका है।
◆ खनिज एवं अकार्बनिक लवण (Minerals and Inorganic Salts) ये प्लाज्मा में आयन के रूप में होते हैं; जैसे K+, Mg+, Ca2+, Fe2+ तथा Mn2+ सोडियम तथा क्लोराइड मुख्य धनात्मक तथा ऋणात्मक अणु है। बाइकार्बोनेट व फॉस्फेट भी कम मात्रा में होते हैं।
◆ अकार्बनिक लवण को कभी-कभी रुधिर विद्युत् अपघट्य (electrolyte) भी मानते हैं जिसकी सान्द्रता को होमीयोस्टेसिस द्वारा वृक्क बनाए रखते हैं।
◆ एन्टीकोगूलेन्ट (Anticogulant) प्लाज्मा में एक मजबूत विषमपॉली सैकेराइड एन्टीप्रोथ्रोम्बिन (antiprothrombin) होता है, जो अधिक रुधिर का थक्का नहीं जमने देता। इसे हिपेरिन भी कहते हैं। यह प्रोथ्रोम्बिन को चोट मुक्त नलिका में सक्रिय थ्रोम्बिन में परिवर्तित होने से रोकता है। यह यकृत द्वारा निर्मित होता है।
प्लाज्मा के कार्य (Functions of Plasma)
यह रुधिर में विभिन्न कार्य करता है जैसे
◆ ऊष्मा के परिवहन में सहायता
◆ प्रतिरक्षी तन्त्र में सहायता
◆ रुधिर pH का नियमन व रख-रखाव
◆ रुधिर हानि से बचाव
◆ फाइब्रिनोजन रुधिर के थक्के में सहायता, ग्लोब्यूलिन प्रतिरक्षी तन्त्र तथा एल्ब्यूमिन परासरण सन्तुलन बनाए रखता है।
रुधिराणु या बने हुए तत्व (Blood Corpuscles or Formed Element)
रुधिर का शेष भाग (45%) रुधिराणुओं का होता है।
रुधिर के कार्य (Functions of Blood)
रुधिर के मुख्य कार्य निम्न हैं
◆ शरीर में pH जल व आयनों का सन्तुलन –
◆ चोट के भरने में सहायता
◆ अंत: स्रावी ग्रन्थियों से लक्षित अंगों तक हॉर्मोन का परिवहन
◆ रुधिर के थक्के बनने में
◆ शरीर के विभिन्न अंगों से वृक्कों तथा अपशिष्ट पदार्थों का परिवहन
◆ शारीरिक ताप सन्तुलन
◆ बाहरी रोगाणुओं से रक्षा
◆ गैसों (O21, CO2) का परिवहन
महिलाओं के शरीर में 4.5 लीटर रुधिर तथा पुरुषों में 5.6 लीटर रुधिर होता है।
रुधिर वर्ग (Blood Groups)
देखने में सभी जीवों रुधिर एकसमान होता है, परन्तु वह अलग होता है। लाल रुधिराणुओं की प्लाज्मा झिल्ली पर ग्लाइकोप्रोटीन अणु जन्तु ‘प्रतिजन’ होता है, जो विभिन्न लोगों में अलग होती है। अत: उनका रुधिर वर्ग अलग होता है।
मानवों में दो मुख्य प्रकार के रुधिर वर्ग पाए जाते हैं
1. ABO रुधिर वर्ग जन्तु ऊतक पाठ में हमने पढा है कि ABO रुधिर वर्ग प्रतिजन A या प्रतिजन B की लाल रुधिराणुओं की उपस्थिति के आधार पर होता है। समान रूप से विभिन्न लोगों के प्लाज्मा में 2 प्राकृतिक प्रतिबॉडी, प्रतिजन की प्रतिक्रिया हेतु उपस्थित होती है।
2. Rh रुधिर वर्ग Rh प्रतिजन (रिसस बन्दर के प्रतिजन के समान) भी लाल रुधिराणुओं के सतह पर मिलता है। (लगभग 80% लोगों में) जिनमें Rh प्रतिजन होता है उन्हें Rh+ तथा जिनमें Rh प्रतिजन नहीं होता है उन्हें Rh– कहते हैं।
◆ ORh+ रुधिर वर्ग के लोग सार्वजनिक दाता (universal donor) तथा AB Rh+ वाले लोग सार्वजनिक ग्राही (universal receivers) होते हैं।
◆ Rh+ रुधिर, Rh– रुधिर वाले व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता है, परन्तु Rh– रुधिर Rh+ वाले व्यक्ति को दिया जा सकता है। अत: ORh+ रुधिर AB Rh– को नहीं दिया जा सकता।
गर्भावस्था के दौरान Rh असंगति (Rh Incornpatibility During Pregnancy)
यदि माता का रुधिर वर्ग Rh– तथा गर्भस्त शिशु का Rh+ होता है, जो उनके रुधिर में असमानता के कारण बन जाता है। इन किस्सों में, माता Rh+ गर्भस्त शिशु के दौरान अति संवेदनशील हो जाती है, क्योंकि विकासशील शिशु की कुछ लाल रुधिराणु माता की रुधिर धारा में मिल जाती है जिससे माता में प्रति Rh-प्रतिबॉडी का निर्माण हो जाता है। यह प्रथम गर्भावस्था में नहीं होता, क्योंकि शिशु व माता का रुधिर आवनाल द्वारा पृथक रहता है।
परन्तु दूसरी या तीसरी गर्भावस्था में Rh’ शिशु, इन प्रति Rh प्रतिबॉडी के सम्पर्क में आता है तथा शिशु के रुधिर में ये प्रतिबॉडी आकर लाल रुधिराणुओं को नष्ट कर देते हैं। यह शिशु के लिए जानलेवा हो सकता है या उसे एनीमिया, पीलिया जैसे रोग लग सकते हैं। इस स्थिति को इरिथ्रोब्लास्टोसिस फिटेलिस ( erythroblastosis foetalis) कहते हैं। अत: इस स्थिति से बचाव हेतु पहली गर्भावस्था के बाद माता को प्रति Rh प्रतिबॉडी दे दी जाती है।
लसीका (Lymph)
यह रंगहीन तरल है जिसका संगठन ऊतक द्रव्य के तथा रुधिर प्लाज्मा के समान होता है। इसमें बहुत कम पोषक पदार्थ व O2 होती है, परन्तु अत्यधिक CO2 तथा उपापचयी अपशिष्ट होती है। इसमें अमीबा के आकार की सफेद रुधिराणु भी होती है।
लसीका का निर्माण (Formation of Lymph)
जब रुधिर धमनी तन्त्र से ऊतकों में जाने के लिए केशनलिकाओं में प्रवेश करता है कुछ जल तथा उसमें घुले पदार्थ ऊतक की कोशिकाओं के मध्य स्थित स्थान में चले जाते हैं, परन्तु कुछ प्रोटीन की मात्रा प्लाज्मा के साथ वहाँ से बाहर आ जाती है (बड़ी प्रोटीन तथा रुधिराणुओं को छोड़कर ) ।
अत: इस प्रोटीन युक्त प्लाज्मा को ऊतक द्रव्य या बाहरी कोशिकीय द्रव्य (extra cellular fluid or ECF) कहते हैं। लसीका नलिका में प्रवेश के बाद ECF को लसीका कहते हैं।
लसीका के कार्य (Functions of Lymph)
लसीका के मुख्य कार्य निम्न हैं
◆ यह पोषक तत्वों तथा हार्मोन्स का वाहक है।
◆ ECF के पुर्नजनन में सहायता करता है।
◆ आँत के रसांकुर के लेक्टेल्स में लसीका द्वारा वसा का अवशोषण होता है।
◆ ऊतक कोशिकाओं को नम रखता है।
◆ लसीका गाँठ द्वारा B- कोशिका व T- कोशिका का परिपक्वन ।
हृदय (Heart : The Pumping Organ)
सभी कशेरुकियों में पेशीय कक्षों का बना होता है। हृदय में परिसंचरण के आधार पर हृदय निम्न तीन प्रकार के होते हैं
मानव का हृदय (Human Heart)
मानव का हृदय गुलाबी रंग का शंक्वाकार, खोखला व स्पन्दनशील होता है, जो फेफड़ों के बीच कुछ बाईं ओर होता है। यह मुट्ठी के बराबर लगभग 12 सेमी लम्बा, 9 सेमी चौड़ा व 6 सेमी मोटा होता है। इसका औसतन भार पुरुषों में 300 ग्राम तथा स्त्रियों में 250gm होता है। हृदय की संरचना एवं कार्यिकी के अध्ययन की शाखा को हृदय विज्ञान (cardiology) कहते हैं। हमारा हृदय महीन दीवार की बनी एक बन्द थैली द्वारा घिरा होता है, जिसे हृदयावरणी थैली (pericardial sac) या हृदयावरण (pericardium) कहते हैं। हृदय रुधिर को पूर्ण शरीर में ले जाने के लिए पम्प करता है।
मानव में हृदय चार कक्षों में बँटा होता हैं
(i) आलिंद (Atrium) हृदय का ऊपरी भाग चौड़ा होता है जिसे आलिंद (atrium) कहते हैं, जिसे आंतरअलिंदीय खाँच दाएँ व बाएँ आलिंद में विभेदित करती है |
इनकी दीवार पतली होती है। दाएँ आलिंद में महाशिरा (vena cava) खुलती है, जो शरीर के ऊतकों से अशुद्ध रुधिर लाकर दाएँ आलिंद में भर देती है |
बाएँ आलिंद में फुफ्फुसीय शिराएँ (pulmonary veins) खुलती है, जो फेफड़ों से शुद्ध रुधिर हृदय तक लाती है।
(ii) निलय (Ventricles) हृदय का निचला लम्बा व शंक्वाकार भाग निलय (ventricle) कहलाता है, जिसे आंतरनिलयी खाँच दाएँ व बाएँ निलय में विभेदित करती है। हृदय की दीवार का अधिकांश भाग हृदय पेशियाँ (cardiac muscles) बनाती हैं जिनमें संकुचन व शिथिलन होता है इसलिए हृदय निरन्तर धड़कता है।
इनकी दीवार मोटी होती है। दाएँ निलय से फुफ्फुसीय धमनी (pulmonary artery) द्वारा अशुद्ध रुधिर फेफड़ों तक जाता है। बाएँ निलय में धमनियाँ (arteries) खुलती हैं, जो बाएँ आलिंद से बाएँ निलय में आए शुद्ध रुधिर को ऊतकों तक पहुँचाती है।
मानव हृदय के भाग व कार्य (Parts of Human Heart and their Functions)
(i) बायाँ आलिंद यह फुफ्फुसीय शिरा द्वारा फेफड़ों से ऑक्सीकृत रुधिर लेता है।
(ii) बायाँ निलय यह शिरा द्वारा रुधिर को फेफड़ों के अलावा सभी भागों में भेजता है।
(iii) दायाँ आलिंद यह शरीर से अनॉक्सीकृत रुधिर को लेता है।
(iv) दायोँ निलय यह रुधिर के ऑक्सीकरण हेतु रुधिर को फेफड़ों तक भेजता है।
(v) कपाट (Valves) हृदय में निम्न कपाट पाए जाते हैं
(a) आलिंद – निलय छिद्र (Atrio-Ventricular Apertures) इन छिद्रों द्वारा आलिंद अपने नीचे के निलयों में खुलते हैं जिनका नियन्त्रण करने हेतु तंतुकीय ऊतक के बने भंजों का कपाट होता है। दायाँ आलिंद व निलय के बीच त्रिवलनी कपाट (tricuspid value) होता है तथा बाएँ आलिंद व निलय के बीच द्विवलनी कपाट (bicuspid value) पाया जाता है। इसे मिट्रल कपाट (mitral valve) भी कहते हैं।
(b) अर्द्धचन्द्राकार कपाट (Semilunar Valves) दाएँ निलय से निकलने वाली फुफ्फुसीय महाधमनी तथा बाएँ निलय से निकलने वाली दैहिक महाधमनी के बीच द्वार पर अर्द्धचन्द्रकार कपाट (semilunar valves) होते हैं, जो रुधिर को निलयों में वापस नहीं आने देते हैं।
(vi) मुख्य धमनी (Aorta) यह ऑक्सीकृत रुधिर वहन करता है।
(vii) सेप्टम (Septum) यह रुधिर के मिश्रण को रोकता है।
(viii) फुफ्फुसीय धमनी (Pulmonary Artery) ये फेफड़ों तथा अनॉक्सीकृत रुधिर को ले जाता है।
(ix) फुफ्फुसीय शिरा (Pulmonary Vein) ये फेफड़ों से ऑक्सीकृत रुधिर को हृदय तक लाती है।
(x) ऊपरी मद्य शिरा (Superior Vena Cava) ये अनॉक्सीकृत रुधिर को सिर व भुजाओं से हृदय तक लाती है।
(xi) निचला मद्य शिरा (Inferior Vena Cava) ये अनॉक्सीकृत रुधिर को निचले उपाँगों तथा अंगों से हृदय तक लाते हैं।
◆ रुधिर परिसंचरण तन्त्र का पता विलियम हार्वे ने लगाया।
◆ बाएँ निलय की दीवार, मानव हृदय का सबसे मोटा भाग होती है।
◆ SA नोड द्वारा हृदय लयबद्ध संकुचन होता है अत: इसे पेसमेकर कहते हैं।
◆ हृदय का आकार एक मुट्ठी के आकार जितना होता है।
◆ सरीसृपों में मगरमच्छ एक अपवाद है जिसमें 4 कक्षीय हृदय होता है जबकि अन्य सरीसृपों में 3 कक्षीय हृदय होता है।
मानव हृदय की कार्यिकी (Working of Human Heart)
हृदय की कार्यिकी में नियमित व कृमिक संकुचन होते हैं जिन्हें स्पंदन (beating) कहते हैं जिसकी दो प्रावस्थाएँ होती हैं—प्रकुंचन एवं प्रसारण (systole and diastole)। हृदय के प्रत्येक स्पंदन को हृदयी चक्र (cardiac cycle) कहते हैं। आलिंद व निलय एक के बाद एक संकुचित होते हैं तथा एक धड़कन बनाते हैं।
शिरा आलिंद घुण्डी (SA node) द्वारा संकुचन धारा आलिंद की दीवारों तक जाकर शिरा धमनी निलय घुण्डी (AV node) तक जाती है तथा वहाँ से दोनों निलय एक साथ संकुचित होते हैं। ( पुरकिन्जे तंतु व हिस बण्डल द्वारा उत्तेजना से) दोनों निलय रुधिर को धमनियों द्वारा हृदय से बाहर भेजते हैं।
हृदय की पम्पिंग कार्यिकी (Pumping Action of Heart)
मानव हृदय ऑक्सीकृत रुधिर (बायाँ भाग) तथा अनॉक्सीकृत रुधिर (दाएँ भाग) को विभिन्न अंगों तक प्रवाहित करता है।
दोहरा परिसंचरण (Double Circulation)
हृदय में रुधिर का परिसंचरण दो बार भिन्न प्रकार से होता है जिसे दोहरा परिसंचरण कहते हैं। इसमें दो चरण हाते हैं
(i) फुफ्फुसीय परिसंचरण (Pulmonary Circulation) फेफड़ों में फुफ्फुसीय शिरा (pulmonary veins) के द्वारा शुद्ध रुधिर का बाएँ आलिंद में आना तथा दाएँ निलय से अशुद्ध रुधिर का फुफ्फुसीय धमनी (pulmonary artery) द्वारा फेफड़ों में जाना फुफ्फुसीय परिसंचरण कहलाता है।
(ii) दैहिक परिसंचरण (Systemic Circulation) ऊतकों से अशुद्ध रुधिर का शिराओं द्वारा दाएँ आलिंद में आना तथा बाएँ निलय में धमनियों का शुद्ध रुधिर का ऊतकों तक जाना दैहिक परिसंचरण कहलाता है। दोहरा परिसंचरण तन्त्र मत्स्य, उभयचर, पक्षी, सरीसृप तथा मानव में पाया जाता है। दोहरे परिसंचरण द्वारा फेफड़ों में रुधिर को O2 लेने हेतु तथा फिर हृदय में शारीरिक अंगों तक पहुँचने से पहले भेजा जाता है
मानव शरीर में रुधिर परिसंचरण का मार्ग निम्न है
धड़कन व उसका नियन्त्रण (Heartbeat and its Regulation)
हृदय पेशियों का एक क्रम में आंकुचन तथा प्रसारण धड़कन कहलाता है। एक स्वस्थ मानव का हृदय 72 बार / मिनट की दर से धड़कता है तथा कठोर परिश्रम के समय एक मजदूर का हृदय 180 बार / मिनट तक धड़क सकता है। हृदय धड़कन का नियन्त्रण हृदय संकुचन की दर द्वारा होता है।
त्रिवलनी एवं द्विवलनी कपाट के बन्द होने पर लब (lubb) की आवाज तथा अर्द्धचन्द्राकार कपाटों के बन्द होने पर डप (dupp) की आवाज सुनाई देती है। इन्हीं ध्वनियों को स्टेथोस्कोप से सुनकर डॉक्टर हृदय स्पन्दन की जाँच करते हैं।
विद्युत हृदयलेखन (Electrocardiography or ECG)
हृदय पेशियों में आंकुचनों द्वारा एक विद्युत उत्पन्न होती है जिसे विद्युत संवेदी उपकरण द्वारा नापा जाता है। इससे हृदय स्पन्दन के हृदय चक्रों को एक ग्राफ के रूप में अभिलेखन किया जाता है। इस प्रक्रिया को विद्युत् हृदयलेखन तथा उपकरण को विद्युत हृदयलेखी (electrocardiograpy) कहते हैं। इस विधि द्वारा हृदय स्पन्दन की अनियमितताओं का पता लगाते हैं।
रुधिर वाहिनियाँ (Blood Vessels)
हृदय में होता हुआ, रुधिर पूर्ण शरीर में विस्तृत रूप से फैली मोटी-पतली रुधिर वाहिनियों में निरन्तर बहता रहता है। रुधिर वाहिनियों के तीन तन्त्र होते हैं
(i) धमनी तन्त्र (Arterial System)
(ii) शिरा तन्त्र (Venous System)
(iii) केशनलिका (Capillaries)
रुधिर नलिकाएँ (केशनलिका के अतिरिक्त) तीन परतों की बनी होती है, जैसे बाह्य ट्यूनिका, मध्य ट्यूनिका तथा आन्तरिक ट्यूनिका।
(i) धमनी (Arteries) धमनियाँ रुधिर को हृदय से शरीर के सभी विभिन्न अंगों एवं ऊतकों में पहुँचाती हैं। अत: स्पष्ट है कि इनमें आदर्श रूप से O2 (oxygenated) शुद्ध रुधिर (pure blood) होता है। केवल फुफ्फुसीय धमनियाँ (pulmonary arteries) इसका अपवाद होती हैं, क्योंकि ये हृदय से अशुद्ध रुधिर (impure blood) को शुद्धिकरण के लिए फेफड़ों में ले जाती हैं। शरीर के सारे भागों में जाने वाले शुद्ध रुधिर को हृदय एक ही मोटी महाधमनी में पम्प करता है जिसे दैहिक चाप या महाधमनी चाप या केवल महाधमनी (systemic acrh or aortic arch or aorta) कहते हैं। इसी प्रकार अशुद्ध रुधिर को फेफड़े में भेजने के लिए हृदय एक ही मोटी महाधमनी में पम्प करता है जिसे फुफ्फुसीय चाप (pulmonary arch) कहते हैं।
(ii) शिरा (Veins) शिराएँ शरीर के सब अंगों एवं ऊतकों से रुधिर को वापस हृदय में लाती हैं। अत: इनमें अशुद्ध रुधिर होता है। फुफ्फुसीय शिराएँ (pulmonary veins) इसका अपवाद होती हैं जिनमें शुद्ध रुधिर होता है, क्योंकि ये फेफड़ों में O2 युक्त रुधिर को हृदय में लाती है। हृदय से फेफड़ों से शुद्ध रुधिर की वापसी दो जोड़ी फुफ्फुसीय शिरा द्वारा तथा शरीर के समस्त भागों से अशुद्ध रुधिर की वापसी एक उच्च महाशिरा (superior vena cava) तथा एक निम्न महाशिरा (inferior vena cava) द्वारा होती है।
(iii) केशनलिका (Capillaries) ये धमनी से शिरा तक रुधिर को ले जाने वाली छोटी नलिकाएँ होती हैं, जो शरीर में ऊतकों के अन्दर होती है। इनकी पतली दीवारों से अपशिष्ट, पोषक पदार्थों, CO2 तथा O2 का विनिमय होता है।
रुधिर दाब (Blood Pressure)
जब निलय अपने आंकुचन द्वारा धमनियों में रुधिर पम्प करते हैं तो रुधिर का दाब धमनियों की दीवार पर पड़ता है इसी दाब को रुधिर दाब कहते हैं। निलयों के आंकुचन पर रुधिर दाब बढ़ जाता है तथा प्रसारण पर रुधिर दाब कम हो जाता है। मनुष्य में ये दाब क्रमश: 120 मिमी Hg तथा 80 मिमी Hg होता है। इन्हें स्फिग्नोमैनोमीटर (sphygnomanometer) द्वारा नापते हैं।
जब बायाँ निलय संकुचित होता है तो उसे संकुचन दाब (120 mm Hg) तथा पूर्ण आंकुचन पर दाब को आंकुचन दाब (80 mm Hg) कहते हैं।
हृदय उत्पादन (Cardiac Output)
हृदय द्वारा प्रतिमिनट पम्प किए गए रुधिर की मात्रा को हृदय उत्पादन कहते हैं। यह बाएँ या दाएँ निलय द्वारा प्रति मिनट धमनी में गए रुधिर की मात्रा है।
हृदय उत्पादन = एक बार में पम्प की गई रुधिर की मात्रा (Stroke Volume (SN)
× हृदय दर (Heart Rate HR) = 70mL × 75 = 5250m2/min
अर्थात् लगभग 5 लीटर / मिनट, जो शरीर के पूरे रुधिर की मात्रा के बराबर है।
लसिका तन्त्र (Lymphatic System)
लसिका को वापस रुधिर में पहुँचाने हेतु एक लसिका तन्त्र (lymphatic system) होता है जिसमें लसिका कोशिकाएँ (lymph capillaries), लसिका वाहिनियाँ (lymph vessels) तथा लसिका गुहा (lymphatic duct) होते हैं।
लसिका कोशिकाएँ पतली दीवार वाली एक एण्डोथीलियल परत वाली नलिकाएँ होती हैं, जो एक साथ जुड़कर लसिका शिराएँ बनाती हैं जिनमें कई कपाट होते हैं। ये फिर मिलकर लसिका नलिका बनाती हैं, जो अंत में वक्ष नलिका तथा दाईं लसिका नलिका में चली जाती हैं।
यह लसिका वाहिकाओं पर पाई जाने वाली छोटी गोल संरचनाएँ होती हैं जिनका कार्य B व T लिम्फोसाइट्स बनाने का होता है। इसमें फैगोसाइटिक श्वेत रुधिराणु तथा मेक्रोफेजिस होती है, जो बाहरी सूक्ष्मजीव तथा रोगाणुओं को नष्ट करती है।
परिसंचरण तन्त्र से सम्बन्धित रोग (Disorders of Circulatory System)
परिसंचरण तन्त्र से सम्बन्धित कुछ रोग निम्नलिखित हैं
(द)
मानव उत्सर्जन तन्त्र (Human Excretory System)
शरीर के लिए हानिकारक एवं आवश्यक पदार्थों को शरीर के बाहरी वातावरण में विसर्जित करने को उत्सर्जन कहते हैं। शरीर की कोशिकाओं में उपापचय (metabolism) के फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), जल, अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल, आदि पदार्थ अपशिष्ट (waste) होते हैं, जिनका शरीर से उत्सर्जन होता है तथा इन सब पदार्थों को उत्सर्जी पदार्थ (excretory substances) कहते हैं।
उत्सर्जन के प्रकार (Modes of Excretion)
जन्तुओं के उत्सर्जी पदार्थ विभिन्न प्रकार के होते हैं। उत्सर्जी पदार्थों के प्रकार के आधार पर उत्सर्जन तीन प्रकार का होता है
विभिन्न उत्सर्जी अंग (Different Excretory Organs)
विभिन्न जन्तुओं में उत्सर्जन हेतु विभिन्न प्रकार के उत्सर्जी अंग पाए जाते हैं। इनका विवरण निम्न तालिका में उल्लेखित है
जीव | उत्सर्जी अंग |
अमीबा | शरीर की सतह एवं रिक्तिका |
सीलेन्ट्रेटा | शरीर की सतह एवं मुख |
आर्थ्रोपोडा | मैल्पीघी नलिका |
केंचुआ | उत्सर्जिकाएँ |
फीताकृमि | फ्लेम कोशिकाएँ |
झींगा मछली | हरी ग्रन्थियाँ |
मानव | वृक्क |
परासरण नियन्त्रण (Osmoregulation)
शरीर में लवणों एवं जल की मात्रा का नियन्त्रण करना परासरण नियन्त्रण कहलाता है। यह भी वृक्कों द्वारा किया जाता है। शरीर में जल की मात्रा के बढ़ जाने पर मूत्र पतला एवं जल की मात्रा घट जाने पर मूत्र गाढ़ा हो जाता है। विभिन्न जन्तुओं में विभिन्न उत्सर्जक अंग होते हैं।
मनुष्य का उत्सर्जी तन्त्र (Excretory System of Humans)
मानव के उत्सर्जी तन्त्र में निम्नलिखित अंग होते हैं
(i) वृक्क (Kidney )
(ii) मूत्र नलिका (Ureters)
(iii) मूत्राशय (Urinary bladder)
(iv) मूत्रमार्ग (Urethra)
मानव में वृक्क मुख्य उत्सर्जन का कार्य करते हैं परन्तु कुछ अन्य अंग भी उत्सर्जन का कार्य करते है। उनका उल्लेख निम्नलिखित है
त्वचा (Skin) त्वचा में पसीने की ग्रन्थियाँ होती हैं, जिनसे जब यूरिया एवं लवणों का उत्सर्जन होता है।
फेफड़े (Lungs) इससे CO2 के रूप में उत्सर्जन होता है।
यकृत (Liver) इससे पित्त का ग्रावण होता है तथा कोलेस्ट्रॉल का भी प्रावण होता है।
1. वृक्क (Kidneys)
मनुष्य में वृक्क मुख्य उत्सर्जी अंग है। वृक्क एक जोड़ी होते हैं, जो भूरे लाल रंग के, राजमा के दाने के आकार जैसे, मेरुरज्जु के दोनों ओर उदर भाग में पाए जाते हैं। वृक्क आखिरी थोरेसिक (thoracic) एवं तीसरी कटि (lumbar) मेरुदण्ड के वीच स्थित होते हैं। प्रत्येक वृक्क का आकार में 10-12 सेमी लम्बाई, 5.7 सेमी चौड़ाई एवं 2-3 सेमी मोटाई की होती है। प्रत्येक वृक्क का औसत भार 120-170 ग्राम होता है।
संरचना (Structure)
प्रत्येक वृक्क एक पतले, तन्तुमय वृक्क खोल (capsule) में पाए जाते हैं। वृक्क धमनी (renal artery) द्वारा वृक्क में अशुद्ध रुधिर लाया जाता है, जिसमें मुख्यतया नाइट्रोजन उत्सर्जी पदार्थ पाए जाते है। निस्यंदन (filtration) के पश्चात् वृक्क शिरा (renal veins) द्वारा रुधिर वृक्क शुद्ध से बाहर निकल जाता है।
वृक्कों के अन्दर का भाग दो भागों में विभाजित रहता है
◆ बाहरी, गहरा भाग वल्कुट (cortex)
◆ आन्तरिक हल्का मध्यांश भाग (medulla)
वृक्क खोल के नीचे का कुछ सँकरा भाग, अर्थात् वल्कुट या कॉर्टेक्स (cortex) कहलाता है, जबकि अन्दर की ओर का शेष मोटा मध्यांश भाग (medulla) कहलाता है । वृक्कों की आन्तरिक संरचना मध्यांश भाग 8-18 सूची स्तम्भों के आकार के पिण्डों में बँटा होता है, जिन्हें पिरैमिड्स (pyramids) कहते हैं। प्रत्येक पिरॅमिड का मोटा भाग, इसका आधा भाग (basal part) होता है, जो वल्कुट की ओर होता है। पिरैमिड का शंक्वाकार भाग वृक्क कोटर में उभरा इसे वृक्क अंकुर ( renal papilla) कहते हैं।
वृक्काणु (Nephrons)
प्रत्येक वृक्क में लगभग 10 लाख लम्बी, महीन एवं कुण्डलित नलिकाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें वृक्क नलिका या वृक्काण (nephrons) कहते हैं। ये वृक्कों की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाइयाँ होती हैं। इन्हीं में सूत्र का निर्माण होता है।
(i) मैल्पीघियन बॉडी (Malpighian Body) ग्लोमेरुलस तथा बोमैन सम्पुट को संयुक्त रूप से मैल्पीघियन बॉडी कहते हैं, जो रुधिर को जानकर उसमें से बड़े विलेय को निकालता है तथा छोटे निलय को वृक्क नलिका में भेजता है।
(a) ग्लोमेरुलस (Glomerulus) केशनलिकाओं का जाल होता है, जो अपवाही तथा अभिवाही धमनिका से बनता है। अभिवाही धमनिका (afferent arterioles) रुधिर को वृक्कों तक लाती है तथा अपवाही धमनिका (efferent arterioles) वृक्कों से रुधिर को ले जाती है।
(b) बोमैन सम्पुट (Bowman’s Capsule/Glomerular Capsule) वे दीवारों वाली कप जैसी संरचना है, जो ग्लोमेरुलस को घेरती है।
(ii) वृक्क नलिकाएँ (Renal tubules) यह बोमैन सम्पुट से जुड़ी पतली, लम्बी नलिका होती है, जिसमें तीन भाग होते हैं।
(a) समीपस्थ कुण्डलित नलिका (PCT) बोमैन सम्पुट से एक कुण्डलित नलिका निकली होती है जिसे सपीपस्थ कुण्डित नलिका कहते हैं।
(b) हेनले का लूप (Henle’s Loops) यह U के आकार की नलिका होती है, जो PCT के नीचे निकली होती है। इसमें मूत्र का उचित सांद्रता के अनुसार निर्माण होता है। यह मध्यांश भाग में पाई जाती है।
(c) दूरस्थ कुण्डलित नलिका (DCT) हेनले के लूप के आखिरी भाग तथा संयुक्त नलिका (collecting duct) को जोड़ने वाली कुण्डलित नलिका दूरस्थ कुण्डलिन नलिका होती है।
◆ हेनले का लूप मध्यांश में धँसा रहता है तथा ग्लोमेरुलस, बोमैन सम्पुट PCT EDCT वल्कुट भाग में उपस्थित होते हैं।
◆ जब हेनले का लूप छोटा एवं मध्यांश में कम धँसा होता है तो उसे वृक्काणु को वल्कुटीय वृक्काणु (cortical nephron) कहते हैं। जब हेनले का लूप बड़ा एवं मध्यांश में अन्दर तक धँसा होता है तो उसे जुकस्टा मध्यांशीय वृक्काणु (juxta medullary nephron) कहते हैं।
वृक्क के कार्य (Functions of Kidney)
(i) रुधिर से मूत्र के रूप में अत्यधिक जल व नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों (यूरिया एवं यूरिक अम्ल) का निष्कासन ।
(ii) रुधिर प्लाज्मा की सांद्रता का नियमन (परासरण नियन्त्रण ) |
(iii) रुधिर pH का नियमन ।
2. मूत्रवाहिनी (Ureters)
प्रत्येक वृक्क के नीचे से मूत्रवाहिनी निकलती है, जो लम्बी, पेशीय नलिका है। ये दोनों वृक्कों से निलकर पीछे की ओर मूत्राशय तक जाती हैं।
3. मूत्राशय (Urinary Bladder)
ये पतली दीवार वाला, नाशपाती के आकार की. सफेद, पारदर्शी थैली है, जो श्रोणि गुहा में स्थित होती है। इसमें मूत्र का कुछ समय के लिए संचय होता है।
4. मूत्रमार्ग (Urethra)
यह एक झिल्लिय नलिका है, जो मूत्र को बाहर ले जाती है। मूत्र के निष्कासन के समय मूत्रमार्ग स्फिन्क्टर (sphinctor) इसे खोलते हैं।
वृक्कों द्वारा मूत्र का सृजन (Formation of Urine by Kidneys)
सूत्र निर्माण का कार्य यकृत द्वारा यूरिया निर्माण (ऑर्निथीन चक्र) से आरम्भ होता है तथा मूत्र फिर वृक्कों में रुधिर को छानकर अपशिष्ट पदार्थों को हटा लिया जाता है तथा जल की कुछ मात्रा मूत्र (urine) के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है। मूत्र सृजन की क्रियाविधि में तीन चरण होते हैं–परानिस्यन्दन, चयनात्मक पुनर्वशोषण तथा नलिकीय स्रावण ।
परानिस्यन्दन (ultrafiltration) में उच्च रुधिर दाब के कारण रुधिर प्लाज्मा का लगभग 20% तरल अंश छनकर बोमैन सम्पुट में चला जाता हैं। इस तरल को ग्लोमेरुलर निस्यंद (glomerular filtrate) कहते हैं।
चयनात्मक पुनर्वशोषण (selective reabsorption) में बोमैन सम्पुट से कुण्डलित नलिका में जाते समय तरल से कुछ आवश्यक पदार्थ निकलकर वापस क्रियाशील व निष्क्रिय अवशोषण द्वारा रुधिर में मिल जाते हैं।
नलिकीय स्रावण ( tubular secretion) में नलिकीय स्रावण में पुन: रुधिर से अपशिष्ट पदार्थ मूत्र में मिलते हैं। यह शरीर का आयनिक सन्तुलन बनाए रखता है।
मूत्र (Urine)
मूत्र हल्के पीले रंग का तरल है जिसमें अपशिष्ट पदार्थ मुख्यतया नाइट्रोजन युक्त अपशिष्ट पदार्थ पाए जाते हैं।
भौतिक गुण (Physical Properties)
मूत्र का हल्का पीला रंग उसमें पाए जाने वाले यूरोक्रोम रंजक के कारण होता है, जो मृत लाल रुधिराणुओं के हीमोग्लोबिन के विघटन से बनता है। मूत्र की मात्रा, जल, शारीरिक कार्य, शोधन एवं वातावरणीय तापमान पर निर्भर करती है।
कृत्रिम वृक्क (Artificial Kidney or Haemodialysis)
वृक्क जीवन हेतु अति आवश्यक अंग है। चोट, संक्रमण तथा रुधिर के बहाव में रुकाव जैसे कुछ कारकों से वृक्कों की क्षमता कम हो जाती है जिससे शरीर में हानिकारक पदार्थ जम जाते हैं, जिनसे मृत्यु भी हो सकती है। अत: इस सब से बचाव हेतु कृत्रिम वृक्क बनाए गए है, जो शरीर से डायलिसिस (dialysis) द्वारा हानिकारक पदार्थों को बाहर निकालते हैं।
यह प्राकृतिक वृक्क से अलग होती है क्योंकि इसमें पुनःअवशोषण नहीं होता है। एक स्वस्थ वयस्क में 180 लीटर निस्पन्द प्रतिदिन निकलता है, परन्तु सिर्फ 1 से 1.8 लीटर ही उत्सर्जित होता है क्योंकि बाकी वृक्क नलिकाओं द्वारा पुनः अवशोषित कर लिया जाता है।
उत्सर्जन तन्त्र से सम्बन्धित विकार (Disorders of Excretory System)
उत्सर्जन तन्त्र से सम्बन्धित कुछ विकार निम्नलिखित हैं
(i) मूत्राशय शोथ (Cystitis) मूत्राशय में सूजन आ जाना मूत्राशय शोथ या सिस्टाइटिस (cystitis) कहलाता है। कभी-कभी प्रोस्टेट ग्रन्थि के बढ़ जाने से भी मूत्राशय शोथ हो जाता है। इस रोग में जल्दी-जल्दी दर्द व जलन के साथ मूत्र आने लगता है।
(ii) वृक्क पथरी (Renal stones) वृक्क के ऊतकों में कैल्शियम ऑक्सेलेट (calcium oxalate) तथा फॉस्फेट्स (phosphates) के जमाव से पथरी का निर्माण होता है। वृक्क की पथरी को ऑपरेशन द्वारा या लिथोट्रॉपी (lithotropy) की सहायता से हटाया जाता है।
(iii) जलीय शोथ (Oedema) ऊतकों में अधिक मात्रा में तरल एकत्र हो जाने से सूजन आ जाती है, जिसे जलीय शोथ (oedema) कहते हैं। प्लाज्मा प्रोटीन की मात्रा में कमी होने पर भी सूजन आ जाती है।
(iv) असंयम (Incontinence) मूत्र त्याग का नियन्त्रण न करने की अवस्था को असंयम कहते हैं। ऐसा बाह्य अवरोधनी के तन्त्रिका मार्ग (nervous pathway) का पूरी तरह से निर्माण न हो पाने के कारण होता है।
(v) वृक्क नलिका अम्लता (Renal tubular acidosis) इस अवस्था में व्यक्ति हाइड्रोजन आयनों का स्रावण उचित मात्रा में नहीं कर पाता है, जिससे मूत्र में सोडियम बाइकार्बोनेट अधिक मात्रा में उत्सर्जित होने लगता है।
(य)
मानव कंकाल तन्त्र (Human Skeleton System)
कशेरुकियों में सुदृढ़ कंकाल रचनाओं का एक मजबूत तन्त्र पाया जाता है, जो अस्थियों एवं कार्टिलेज का बना होता है। कंकाल तन्त्र से शरीर की रक्षा एवं चलन में सहायता मिलती है।
विविध प्रकार की कंकाल रचनाओं से बने दो प्रकार के कंकाल तन्त्र पाए जाते हैं
(i) बाह्य कंकाल (Exoskeleton) यह त्वचा की बाहरी सतह पर पाए जाने वाली संरचनाएँ होती हैं; जैसे नरख, सींग, खुर इत्यादि। ये अधिचर्म (epidermis) तथा चर्म (dermis) दोनों से ही बनती है।
(ii) अन्तःकंकाल (Endoskeleton) ये त्वचा के नीचे तथा शरीर के भीतर पाया जाता है, जो उपास्थियों (cartilage) एवं अस्थियों (bones) का बना होता है। ये विविध प्रकार के जोड़ों से जुड़ी रहती है, जिन्हें अस्थि सन्धियाँ (bone joints) कहते हैं। ये रचनाएँ पूरे शरीर में फैला अस्थि पन्जर (skeletal framework) बनाती है।
अन्तः कंकाल एवं बाह्य कंकाल में अन्तर (Difference between Exoskeleton and Endoskeleton)
अन्तः कंकाल | बाह्य कंकाल |
यह शरीर के अन्दर होता है। | यह शरीर की सतह पर होता है। |
यह मध्यचर्म से बनता है। | यह शरीर मध्यचर्म तथा बाह्य चर्म से बनता है। |
जीवित ऊतक पाए जाते हैं। | मृत ऊतक पाए जाते हैं। |
पेशी तन्तु बाह्य सतह पर जुड़े होते हैं। | पेशी तन्तु आन्तरिक सतह पर जुड़े होते हैं। |
शारीरिक वृद्धि में बाधा नहीं डालते । | शारीरिक वृद्धि में बाधा डाल सकते हैं। |
कंकाल के कार्य (Functions of Skeleton)
(i) सुरक्षा यह आन्तरिक अंगों की सुरक्षा करता है, जैसे मस्तिष्क, कपालीय हड्डियों (cranial bones) द्वारा, मेरुरज्जु, कशेरुक दण्ड ( vertebral columm) द्वारा तथा हृदय, वक्षीय कटहरे (thoracic cage) द्वारा सुरक्षित रहता है।
(ii) सहारा कंकाल तन्त्र के मुलायम भागों को सहारा तथा आकृति प्रदान करता है।
(iii) चलनशीलता पादों को साधकर एवं इनकी पेशियों को सन्धि स्थान देकर गमन में सहयोग देता है।
(iv) खनिज संग्रहन शरीर का लगभग 97% कैल्शियम तथा कैल्शियम फॉस्फेट हड्डियों के रूप में रहता है। इन्हीं से शरीर में कैल्शियम तथा फॉस्फेट आयनों की मात्रा का नियमन एवं नियन्त्रण होता है।
(v) रुधिरोत्पादक (Haemopoietic) पादों की लम्बी हड्डियों खोखली होती है। इनकी गुहाओं में भरा कोमल ऊतक अस्थि मज्जा (bone marrow) होती है, जिसमें रुधिरोत्पादक (haemopoietic) क्षमता होती है अर्थात् इनमें रुधिराणु बनती है।
(vi) साँस लेने व सुनने में सहायक फेफड़ों के आस-पास पसलियाँ स्टर्नम (उरोस्थि) वक्षीय पिंजरा बनाकर साँस लेने में सहायता करती हैं। कान में उपस्थित अस्थि ध्वनि कंपन को संचरित करती हैं।
(vii) मूल शारीरिक आकार व आकृति अन्तः कंकाल कशेरुकिओं द्वारा शरीर को एक निश्चित आकार, आकृति प्रदान करके, दिपार्श्व सममित स्वरूप बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान हैं।
(viii) शारीरिक सन्तुलन मुख्य अक्ष के चारों ओर अन्त:कंकालीय विवरण तथा सक्रिय गति के दौरान सन्तुलन में सहायक है।
मानव का कंकाल तन्त्र अस्थि एवं उपास्थियों का बना होता हैं।
अस्थि (Bones)
वयस्कों में 206 एवं शिशुओं में 213 हड्डियाँ पाई जाती है। हड्डी के बनने की प्रक्रिया को अस्थिजनन (osteogenesis) कहते हैं। अस्थि शरीर के जीवित ऊतक होते हैं, जिनमें अपनी रुधिर नलिकाएँ पाई जाती हैं। अस्थियों में वृद्धि होती है। अस्थियाँ प्रोटीन, खनिज लवण, विटामिन एवं कैल्शियम फॉस्फेट का बना होता हैं। हड्डियों (अस्थियों) का बाहरी आवरण तन्तुमय होता है जिसे पनः अस्थिकला (periosteum) कहते है।
हड्डियों के प्रकार (Types of Bones)
आकृति के आधार पर अस्थियों को निम्न प्रकार में विभाजित किया गया है
उपास्थि (Cartilage)
उपास्थि एक संयोजी ऊतक है, जिसमें कॉण्ड्रिन लवण का बना तरल पाया जाता है। इसके तरल में ग्लाइकोप्रोटीन पाया जाता है। इसके तरल को मैट्रिक्स कहते हैं, जो अर्द्धठोस, पारदर्शी एवं इलास्टिक तरल होता है तथा उपास्थि को लचीलापन प्रदान करता है।
कंकाल तन्त्र के प्रकार (Types of Skeletal System)
कंकाल को अक्षीय (axial) एवं उपांगीय (appendicular) भागों में विभाजित किया गया है। इनमें हड्डियाँ निम्न संख्या में होती हैं
सन्धियाँ (Joints)
हड्डियाँ एक-दूसरी से विभिन्न प्रकार से जुड़ी होती हैं और अधिकांश जोड़ों पर ये विशेष प्रकार की आवश्यक गतियाँ कर सकती हैं। हड्डियों के इन जोड़ों को सन्धियाँ (articulations or joints) कहते हैं। इनके अध्ययन को आयोलॉजी (arthrology) कहते हैं। गति की सीमा के आधार पर अस्थिपंजर की सारी सन्धियों को तीन प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जाता है – पूर्णरूपेण चल (freely movable), अल्प चल (slightly movable) तथा अचल (immovable) सन्धियाँ
1. अचल सन्धियाँ (Immovable Joints)
करोटि की विभिन्न हड्डियों के बीच टेढ़ी-मेढ़ी सीवनों (sutures) जैसी सन्धियाँ होती हैं। प्रत्येक सीवन पर जुड़ी हड्डियों के किनारे आरी की भाँति कटे होते हैं और प्रत्येक के उभार दूसरी के गड्ढों में फँसे रहते हैं। यही नहीं, हड्डियों के किनारे आरी की भाँति कटे होते हैं और प्रत्येक के उभार दूसरी के गड्ढों में फंसे रहते हैं। यही नहीं हड्डियों के किनारे एक महीन, परन्तु सघन तन्तुकीय स्तर द्वारा भी परस्पर दृढ़तापूर्वक जुड़े रहते हैं। ये हड्डियाँ हिल-डुल नहीं सकतीं। उदाहरण करोटि की अस्थियों, दाँत के जबड़े के बीच की सन्धियाँ ।
2. अल्प चल सन्धियाँ (Slightly Movable or Imperfect Joints)
इस प्रकार के सन्धि-ऊतक के कारण हड्डियों को गति की कुछ स्वतन्त्रता मिल जाती है। कशेरुकदण्ड की कशेरुकाओं के सेन्ट्रा के बीच-बीच में उपस्थित तन्तुकीय उपास्थि (fibrocartilage) की बनी आन्तरकशेरुक गद्दियाँ (intervertebral discs) ऐसे ही सन्धि- ऊतक का काम करती हैं। श्रोणिमेखला की प्यूबिस हड्डियों के बीच का जोड़, श्रोणि सिम्फाइसिस (pubic symphysis), भी स्नायुओं का बना ऐसी ही जोड़ होता है।
3. पूर्णरूपेण चल सन्धियाँ (Freely Movable or Synovial Joints)
अस्थिपंजर की बहुत-सी सन्धियाँ पूर्णरूपेण चल होती हैं, अर्थात् इन पर जुड़ी हड्डियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक हिल-डुल सकती हैं।
ऐसी सन्धि द्वारा जुड़ी हड्डियों के सिरों पर हायलाइन अर्थात् प्रभासी उपास्थि की टोपी मढ़ी रहती है और दोनों हड्डियों के सिरों के बीच एक सँकरा स्थान बचा रहता है। पूरा सन्धि-स्थान दृढ़ स्नायुओं (ligaments) से बने एक सन्धि-सम्पुट (joints capsule) में बन्द रहता है। सम्पुट की दीवार दोनों हड्डियों के परिअस्थिक (periosteum) से जुड़ी रहती है। सम्पुट के भीतर, दोनों हड्डियों के बीच के सँकरे से स्थान में, एक चिपचिपा गाढ़ा तरल भरा होता है। इस स्थान को साइनोवियल या सन्धि गुहा (synovial or joint cavity) तथा गाढ़े तरल को साइनोवियल तरल (synovial fluid) कहते हैं ।
ये पाँच प्रकार की होती हैं
(i) कन्दुक – 6-खल्लिका सन्धियाँ (Ball and Socket Joints) ऐसी सन्धि में एक हड्डी का गेंद या कन्दुक (ball) जैसा गोल उभरा सिरा दूसरी के एक प्यालेनुमा गड्ढे या खल्लिका (cavity or socket) में फिट होता है। उभरे सिरे वाली हड्डी चारों ओर घूम सकती है। मेखलाओं के साथ पदों की सन्धियाँ ऐसी ही होती हैं।
(ii) कब्जा सन्धियाँ (Hinge Joints) ऐसी सन्धि में एक हड्डी के सिरे का उभार दूसरी हड्डी के गड्ढे में ऐसे फिट होता है, कि उभरे सिरे वाली हड्डी किवाड़ की भाँति केवल एक ही दिशा में पूरी मुड़ सकती है। कोहनी, घुटने तथा अँगुलियों के पोरों पर ऐसी सन्धियाँ होती हैं।
(iii) धुराग्र या खाँटीदार सन्धियाँ (Pivotal Joints) ऐसी सन्धि में एक हड्डी धुरी की भाँति स्थिर रहती है तथा दूसरी हड्डी अपने गड्ढे द्वारा इसके ऊपर फिट होकर, इधर-उधर गोलाई में घूमती है। दूसरी कशेरुका के दन्ताभ अर्थात् ओडोन्टॉएड प्रवर्ध या डेन्स (odontoid process or dens) के ऊपर करोटि को धारण किए हुए एटलस कशेरुका की ऐसी ही सन्धि होती है।
(iv) सैडल सन्धि (Saddle Joint) यह कन्दुक-खल्लिका सन्धि जैसी होती है, लेकिन इसमें कन्दुक अर्थात् बॉल (ball) और खल्लिका (socket) कम विकसित होते हैं अत: बॉल वाली हड्डी चारों ओर अच्छी तरह नहीं घूमती। अँगूठे की मेटाकार्पल और कार्पल के बीच ऐसी ही सन्धि होती हैं इसी कारण अँगूठा अन्य अँगुलियों की अपेक्षा अधिक इधर-उधर घुमाया जा सकता है।
(v) प्रसार या विसर्पी सन्धियाँ (Gliding Joints) ऐसी सन्धि में सन्धि-स्थान पर हड्डियाँ एक-दूसरी पर आगे-पीछे या इधर-उधर फिसल सकती हैं कशेरुकाओं के सन्धि प्रवर्धो (zygopophyses) के वीच, क्लैविकल (clavicle or collarbone) तथा उरोस्थि के बीच, जँघा की टिविओ-फिब्ला तथा गुल्फ (टखने) की हड्डियों के बीच तथा प्रबाहु की रेडिया अन्ना और कलाई की हड्डियों के बीच ऐसी ही सन्धियाँ होती हैं।
सन्धियों में होने वाली कुछ सामान्य चोटें (Some Common Injuries of the Joints)
(i) सन्धिभंग (Dislocation) | खिंचाव, सूजन व जोड़ के न चलने के कारण हड्डी का जोड़ से हट जाना। |
(ii) कार्टिलेज का फटना ( Cartilage tear) | जोड़ों में घुमाव या उन पर पात्र के कारण कार्टिलेज फट जाती है। |
(iii) खिंचाव या मोच (Sprian) | कण्डरा का आशिंक या पूर्णतः फट जाना। |
सन्धियों के कार्य (Functions of Joints)
मानव शरीर में सन्धियों के निम्न कार्य होते हैं
(i) ये शरीर को लचीला बनाती हैं।
(ii) कुछ सन्धियाँ उनसे जुड़ी संरचनाओं की वृद्धि के लिए जिम्मेदार होती हैं।
(iii) ये सभी प्रकार की चलनशीलता के लिए आवश्यक होती है।
मानव कंकाल तन्त्र से सम्बन्धित कुछ रोग (Some Diseases Related of Human Skeletal System)
रोग | व्याख्या |
गठिया (arthritis) | यह जोड़ों में सूजन का आना होता है, जो विभिन्न प्रकार का होता है। |
ऑस्टियोपोरोसिस (osteoporosis) | इस रोग में अस्थियों से तन्तु व तरल कम जो जाता है, जिससे हड्डियों में कमजोरी आ जाती है। इसका कारण, कैल्सिटोनिन हॉर्मोन, पैराथोर्मोन, सेक्स हॉर्मोन में असन्तुलन तथा कैल्शियम एवं विटामिन-D की कमी है। |
सूखा रोग (rickets or osteomalacia) | कैल्शियम व फॉस्फोरस की कमी से बच्चों की हड्डियों में आने वाली कमजोरी को सूखा रोग कहते हैं। |
खिंचाव (Sprain) | यह जोड़ में अपनी ही जगह रहते हुए खिंचाव आना है जिससे उपास्थि, स्नायु, कण्डरा, रुधिरनलिकाओं को क्षति पहुँचती है। |
पैगट्स रोग (paget’s disease) | इसमें हड्डियों पतली व कमजोर हो जाती है। |
पेशीय डायस्ट्रॉफी (muscular dystrophy) | इस रोग में मेखला की पेशियों में कम उम्र में क्षति होने पर 12 वर्ष की आयु क़े पश्चात् चलने में असमर्थता आती है। यह नरों में सामान्य है। अन्त में हृदयघात तथा दिमागी बिमारी से मृत्यु भी हो सकती है। |
मिस्थिनिया गेविस (mysthenia gravis) | यह एक स्वयं प्रतिरक्षण रोग है, जो तन्त्रिकापेशीय जोड़ों को प्रभावित करता है। |
टिटेनी (Tetany) | शारीरिक तरल में कैल्शियम की कमी होने पर पेशियों में जल्दी-जल्दी हाने वाले संकुचन को टिटेनी कहते हैं। पेशियों के दर्द को मयालगिया (myalgia) कहते हैं। पेशियों के संकुचन के बल व चाल के मापन को मायोग्राम (myogram) कहते हैं। |
(र)
मानव तन्त्रिका तन्त्र (Human Nervous System)
शरीर की प्रत्येक प्रतिक्रिया में भाग लेने वाले विविध ऊतकों तथा अंगों की क्रियाओं के समन्वयन (coordination) हेतु एक संचार तन्त्र पाया जाता है, जिसे तन्त्रिका तन्त्र (nervous system) कहते हैं। यह केवल जन्तुओं में होता है तथा वातावरणीय परिवर्तनों को संवेदी (sensory) सूचनाओं के रूप में लेकर उसे प्रसारित कर प्रतिक्रियाओं (quick reactions) का संचालन करता है। यह भ्रूण की बाह्यचर्म (ectoderm) से बनता है। तन्त्रिका तन्त्र के साथ अन्त:स्रावी तन्त्र (endocrine system) भी शरीर की क्रियाओं का समन्वयन एवं नियन्त्रण करता है। तन्त्रिका तन्त्र के मुख्य घटक अथवा मुख्य कोशिका को तन्त्रिका कोशिकाएँ या न्यूरॉन (nerve cells or neuron) कहते हैं।
तन्त्रिका कोशिकाओं की रचना (Structure of Nerve Cells)
तन्त्रिका कोशिकाएँ रचना में शरीर की सबसे जटिल कोशिकाएँ होती हैं। इनका मुख्य कार्य शरीर के विभिन्न ग्राही अंगों से सूचना लेना है तथा उसका प्रसारण केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र तक करना है। न्यूरॉन या तन्त्रिका कोशिका तन्त्रिका ऊतक की एक संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई है। ये मानव शरीर की सबसे लम्बी कोशिकाएँ होती हैं। मानव तन्त्रिका तन्त्र में लगभग 100 बिलियन तन्त्रिका कोशिकाएँ पाई जाती हैं, जिनका लगभग 90% भाग मस्तिष्क में होता है। प्रत्येक तन्त्रिका कोशिका को दो प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है
कोशिकापिण्ड या कोशिकाकाय अर्थात् साइटॉन (Cell Body or Soma, Cyton or Perikaryon )
यह तन्त्रिका कोशिका का प्रमुख, अण्डाकार या गोलीय, केन्द्रीय भाग होता है। इसमें एक बड़ा एवं गोल केन्द्रक (nucleus), महीन तन्त्रितन्तुक (neurofibrils), माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria), गॉल्जीकाय (Golgi bodies), सूक्ष्मनलिकाएँ (microtubules), वसा बिन्दुक, अन्तःप्रद्रव्यी जालिका (endoplasmic reticulum), राइबोसोम्स (ribosomes) तथा अनेक असममित आकार के बड़े-बड़े निस्सल के कण (Nissl’s granules) होते हैं। निस्सल के कण खुरदरे अन्तःप्रद्रव्यी जालिका (rough endoplasmic reticulum) के बने होते हैं, क्योंकि इस जाल पर राइबोसोम्स लगे रहते हैं जिन पर सक्रिय प्रोटीन-संश्लेषण होता है। मस्तिष्क की कुछ तन्त्रिका कोशिकाओं में लाइपोफुस्सिन (lipofuscin) नामक रंगा (pigment) पदार्थ पाया जाता है।
तन्त्रिका कोशिकाओं के कोशिकापिण्ड अधिकांश केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र (central nervous system), मुख्यतः मस्तिष्क के धूसर द्रव्य (grey matter), में होते हैं। केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र के बाहर थोड़े से कोशिकापिण्ड छोटे-छोटे समूहों में पाए जाते हैं, जिन्हें गुच्छक या गैंग्लिया (ganglia) कहते हैं।
कोशिका प्रवर्ध या न्यूराइट्स (Cell Processes or Neurites)
तन्त्रिका कोशिकाओं के प्रवर्ध दो प्रकार के होते हैं— वृक्षाभ या डेन्ड्राइट्स (dendrites dendrons) तथा अक्ष तन्तु या एक्सॉन (axon, or axis cylinder, or neuraxon)।
(i) डेन्ड्राट्स (Dendrites) संख्या में एक या अधिक और आधार भाग में मोटे, परन्तु सिरों की ओर क्रमश: पतले (tapering) होते हैं। कोशिकापिण्ड के निकट से ही ये अत्यधिक शाखान्वित होकर झाड़नुमा (bushy) हो जाते हैं। इनमें विभिन्न अंगक, तन्त्रितन्तुक (neurofibrils) तथा निस्सल के कण भी होते हैं।
(ii) एक्सॉन (Axon) यह एक, काफी लम्बा और लगभग समान मोटाई का-सा बेलनाकार प्रवर्ध होता है। एक्सॉन का आधार भाग, जिससे यह साइटॉन से जुड़ा हुआ लगता है, शंक्वाकार- सा होता है। इसे एक्सॉन गिरिका (axon hillock) कहते हैं। इनमें प्रोटीन्स का संश्लेषण नहीं होता। डेन्ड्राइट्स चेतनाओं को संवेदी कोशिकाओं या अन्य तन्त्रिका कोशिकाओं से प्राप्त करके साइटॉन में लाते हैं। स्वयं साइटॉन भी अन्य तन्त्रिका कोशिकाओं से चेतनाओं को सीधे ही प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत एक्सॉन प्रेरणाओं को साइटॉन से अन्य तन्त्रिका कोशिकाओं में या क्रियान्वयन ऊतकों (पेशियों एवं ग्रन्थियों) में ले जाने का काम करता है इसीलिए डेन्ड्राइट्स को अभिवाही या एफेरेन्ट (afferent) और एक्सॉन को अपवाही या इफेरेन्ट (efferent) प्रवर्ध कहते हैं। एक्सॉन दो पकार के होते हैं
◆ मायलिनेटिड तन्तु (Myelinated Fibre) न्यूरीलेमा और एक्सॉन के बीच श्वान कोशिकाओं की ही कोशिकाकला से बना एक अतिरिक्त खोल बन जाता है, जिसे मायलिन खोल (myelin sheath) कहते हैं। इस खोल का प्रोटीनयुक्त लिपिड पदार्थ सफेद-सा होता है। इसे मायलिन (myelin) कहते हैं। मायलिन खोलयुक्त तन्त्रिका तन्तुओं को मायलिनेट या मेड्यूलेटेड तन्तु (myelinated or medullated fibres) कहते हैं। मायलिन खोल के प्रत्येक उस खण्ड को जिसे एक श्वान कोशिका बनाती है पर्वसन्धि (internode) कहते हैं । निकटवर्ती पर्वसन्धियों के बीच-बीच के बिन्दुओं पर केवल तन्त्रिकाच्छद अर्थात् न्यूरीलेमा होती है, मायलिन खोल नहीं होता। अत: इन बिन्दुओं को रैनवियर के नोड (nodes of ranvier) कहते हैं।
◆ एमायलिनेटिड तन्तु (Amyelinated Fibre) एमायलिनेट या नॉन-मेड्यूलेटेड (amyelinate, or non-myelinated, or non-medullated) में तन्त्रिकाच्छद अर्थात् न्यूरीलेमा तो होती है, लेकिन मायलिन खोल नहीं होता। एक ही श्वान कोशिका की सतह पर कई निकटवर्ती तन्त्रिका कोशिकाओं के अक्ष तन्तु धँसे होते हैं और श्वान कोशिका इन सब अक्ष तन्तुओं की तन्त्रिकाच्छद अर्थात् न्यूरीलेमा का काम करती है।
तन्त्रिका के प्रकार (Types of Neurons)
तन्त्रिका कोशिका मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं
संवेदी तन्त्रिका कोशिका (Sensory neurons) ये ग्राही से केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र तक संवेदन को ले जाती है। डेन्ड्राइट का अन्तिम भाग ग्राही बनकर संवेदी की भाँति कार्य करता है।
मध्य तन्त्रिका कोशिका (Inter neruons) संवेदी तथा मोटर तन्त्रिका ऊतक के बीच संयोजी कड़ी का कार्य करते हैं। ये मस्तिष्क व मेरुरज्जु तथा संवेदन को ले जाती है।
मोटर तन्त्रिका कोशिका (Motor neurons) ये केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र से प्रभावी तक उद्दीपन को ले जाते हैं; जैसे मस्तिष्क से पेशी या ग्रन्थि तक जो उद्दीपन के अनुरूप क्रिया करते हैं।
डेन्ड्राइट की संख्या के आधार पर तन्त्रिका कोशिका तीन प्रकार की होती है
◆ बहुध्रुवीय ( एक एक्सॉन व दो या अधिक डेन्ड्राइट युक्त)
◆ द्विध्रुवीय ( एक एक्सॉन व एक या अधिक डेन्ड्राइट युक्त)
◆ एकध्रुवीय (एक एक्सॉन युक्त)
मानव तन्त्रिका तन्त्र के भाग (Parts of Human Nervous System)
मानव के तन्त्रिका तन्त्र में तीन भाग होते हैं
(i) केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र (Central nervous system)
(ii) परिधीय तन्त्रिका तन्त्र (Peripheral nervous system)
(iii) स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र (Autonomic nervous system)
केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र (Central Nervous System or CNS)
इसके दो भाग होते हैं; जैसे मस्तिष्क एवं सुषुम्ना ।
1. मस्तिष्क (Brain)
यह केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र का मुख्य भाग होता है, जो कपाल गुहा (cranial cavity) में हड्डियों के बीच सुरक्षित रहता है। इसका भाग लगभग 1.3 किग्रा होता है।
संरचना (Structure)
कपाल गुहा में मस्तिष्क को सहारा देने वाली 3 झिल्लियों का आवरण होता है, जो तन्तुमय संयोजी ऊतक की बनी होती है। ये झिल्लियाँ—दृढ़तानिका dura mater), जालतानिका (arachoid) तथा मृदुतानिका (piamater) होती है। जालतानिका एवं दृढ़तानिका के मध्य एक सँकरी सबड्यूरल गुहा होती है, जिसमें सिरमी तरल (serous fluid के भरा रहता है। मृदुतानिका कोयल व पारदर्शी, जालतानिका कोलेजन व इलास्टिक तथा दृढ़तानिका संयोजी ऊतक की बनी मोटी झिल्ली होती है।
सेरेब्रोस्पाइनल तरल (Cerebrospinal Fluid)
एरिक्नॉइड झिल्ली व पायमैटर के मध्य के स्थान को सब एरेक्नॉइड (subarachnoid) स्थान कहते हैं, जिसमें सेरेब्रोसाइल तरल भरा रहता है, जो केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र को झटके से बचाता है। यह खाद्य, अपशिष्ट, गैसों तथा अन्य पदार्थों के विनिमय हेतु माध्यम का भी कार्य करता है।
हमारा मस्तिष्क निम्नलिखित तीन प्रमुख भागों में विभेदित होता है
(i) अग्रमस्तिष्क या प्रोसेनसेफैलॉन (Forebrain or Prosencephalon) यह प्रमस्तिष्क या टेलेनसेफैलन (cerebrum or telencephalon) तथा डाइएनसेफैलॉन (diencephalon) में विभेदित होता है।
(ii) मध्यमस्तिष्क या मेसेनसेफैलॉन (Midbrain or Mesencephalon)
(iii) पश्चमस्तिष्क या रॉम्बेनसेफैलॉल (Hindbrain or Rhombencephalon)
अग्रमस्तिष्क (Forebrain)
यह प्रमस्तिष्क एवं डाइएनसेफैलॉन में विभाजित होता है।
प्रमस्तिष्क (Cerebrum) यह बुद्धि का केन्द्र होता है। अत: मनुष्य में अन्य सभी जन्तुओं की तुलना में यह बहुत बड़ा, पूरे मस्तिष्क का लगभग 80% भाग होता है और लगभग पूरे मस्तिष्क पर फैला रहता है। एक गहरा अनुलम्ब विदर (longitudinal fissure) दाएँ-बाएँ प्रमस्तिष्क गोलार्द्धे (cerebral hemispheres) में बाँटता है, परन्तु श्वेत द्रव्य के अनुप्रस्थ संयोजक तन्तुओं (transverse commissural fibres) का बना एक मोटा गुच्छा भीतर-ही-भीतर दोनों गोलार्द्धां को परस्पर बाँधे रहता है। इस गुच्छे को कॉर्पस कैलोसम (corpus callosum) कहते हैं।
डाइएनसिफैलॉन (Diencephalon) यह ऊपर से नीचे की ओर तीन भागों में विभेदित होती है जैसे; एपिथैलेमस, थैलेमस तथा हाइपोथैलेमस ।
अग्रमस्तिष्क के कार्य (Functions of Forebrain) अग्रमस्तिष्क के फ्रॉन्टल पिण्ड़ों द्वारा गूढ चिन्तन, नियोजन भावुकता, स्मृति, तर्क, संकल्प आदि संवेदनाओं की व्याख्या होती है। पैराइटल पिण्ड द्वारा पूरे शरीर की त्वचा एवं पेशियों के कार्य नियन्त्रक होते हैं। टेम्पोरल पिण्ड में श्रवण एवं दृष्टि संवेदनाओं के स्मृति केन्द्र होते हैं। फ्रॉन्टल पिण्डों के निचले भाग पर घ्राण पिण्ड (olfactory lobe) होता है।
मध्यमस्तिष्क (Midbrain)
यह मस्तिष्क का छोटा (2.5 सेमी लम्बा) भाग होता है। इसे सिल्वियस की एक्वीडक्ट कहते हैं। इनमें प्रमस्तिष्क से पश्चमस्तिष्क तथा सुषुम्ना में जाने वाले चालक तन्तु (motor fibres) तथा कुछ संवेदी तन्तु (sensory fibres) होती है।
मध्यमस्तिष्क के कार्य (Functions of Midbrain) मध्यमस्तिष्क द्वारा दृष्टि, सिर, ग्रीवा तथा धड़ की गतियों का नियन्त्रण होता है। मध्यमस्तिष्क में अर्द्धचेतना की अवस्था में पेशीय क्रियाओं, नेत्रगोलकों तथा पुतलियों की गतियों आदि के नियन्त्रण केन्द्र होते हैं।
पश्चमस्तिष्क (Hindbrain)
इसमें पोन्स (pons), निमस्तिष्क (cerebellum) एवं मस्तिष्क पुच्छ (medulla oblongata) आते हैं। पोन्स (Pons) पोन्स मस्तिष्क के निचले तल पर, लगभग 2.5 सेमी लम्बे गोल से उभार के रूप में होता है। इसके ऊपर की ओर मध्यमस्तिष्क तथा नीचे की ओर मस्तिष्क पुच्छ (medulla oblongata) होती है। इसमें अनुप्रस्थ तथा अनुलम्ब तन्त्रिका तन्तु तथा इनके बीच-बीच में केन्द्रक (nuclei) होते हैं। इसके अनुप्रस्थ तन्त्रिका तन्तु एक जोड़ी निमस्तिष्क वृन्त ( cerebellar peduncles) बनाते हैं, जो अनुमस्तिष्क गोलार्द्धां (cerebellar hemispheres) को परस्पर जोड़ते हैं। इसके अनुलम्ब तन्त्रिका तन्तु मस्तिष्क पुच्छ को प्रमस्तिष्क से जोड़ने का काम करते हैं। इनमें संवेदी तथा चालक, दोनों प्रकार के तन्तु होते हैं।
अनुमस्तिष्क (Cerebellum) यह प्रमस्तिष्क के नीचे तथा पोन्स के ठीक पीछे स्थित, प्रमस्तिष्क के बाद, मस्तिष्क का दूसरा सबसे बड़ा भाग होता है। यह तितली की आकृति का होता है, क्योंकि इसमें दाएँ-बाएँ दो फूले हुए निमस्तिष्क गोलार्द्ध (cerebellar hemispheres) होते हैं वर्मिस (vermis) नाम के सँकरे दण्डनुमा मध्यवर्ती भाग द्वारा जुड़े हुए रहते हैं। प्रत्येक निमस्तिष्क गोलार्द्ध अपनी ओर के प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध के अनुकपालीय पिण्ड से केवल एक गहरी अनुप्रस्थ खाँच (transverse fissure) द्वारा पृथक् रहता है। इस खाँच में भी दृढ़तानिका अर्थात् ड्यूरामोटर होता है।
मस्तिष्क ऑब्लॉगेटा (Medulla Oblongata)
यह लगभग तीन सेमी लम्बा होता है। यह ऊपर की ओर पोन्स से तथा नीचे की ओर सुषुम्ना से जुड़ा होता है। सुषुम्ना से मस्तिष्क में जाने वाले सारे संवेदी तन्त्रिका तन्तुओं तथा मस्तिष्क से सुषुम्ना में जाने वाले सारे चालक तन्त्रिका तन्तुओं की डोरियाँ मेड्यूला का श्वेत द्रव्य बनाती हैं।
मेड्यूला के ऊपरी भाग में आगे की ओर दो उभार होते हैं जिन्हें पिरैमिड्स (pyramids) कहते हैं। प्रमस्तिष्क से आने वाले अधिकांश चालक तन्तु इन्हीं उभारों में होकर सुषुम्ना में जाते हैं।
मेड्यूला में हृद्-स्पन्दन की दर एवं प्रबलता, रुधिरवाहिनियों के व्यास, श्वास की लय, भोजन-निगरण (swallowing), वमन (vomiting), खाँसने (coughing ), छींकने (sneezing), हिचकी (hicupping), स्वाद, लाल के स्रावण, श्रवणों- सन्तुलन, जीभ की गतियों आदि के समन्वयन केन्द्र होते हैं।
पश्चमस्तिष्क के कार्य (Functions of Hindbrain) यदि प्रमस्तिष्क प्रेरणाओं द्वारा सही कार्य नहीं होता तो, निमस्तिष्क (cerebellum) पेशीय क्रियाओं के संशोधन हेतु प्रमस्तिष्क को पुननिवेशन संकेत (feedback signals) भेजता है।
2. सुषुम्ना या मेरुरज्जु (Spinal cord)
मस्तिष्क पुच्छ (medulla oblongata) करोटि के महारन्द्व (foramen magnum) पर सुषुम्ना या मेरुरज्जु (spinal cord) बन जाती है, जो कशेरुकदण्ड में केवल प्रथम कटि (first lumbar) कशेरुका तक फैली रहती है। इससे नीचे मेरुरज्जु के आवरण की मृदुतानिका (piametar) ही रह जाती है।
मेरुरज्जु के कार्य मेरुरज्जु पीड़ा, ताप, स्पर्श, दबाव, स्पन्दन आदि की सूचनाओं को मस्तिष्क में पहुँचाने तथा मस्तिष्क से इन भागों की पेशियों एवं ग्रन्थियों में चालक प्रेरणाओं को पहुँचाने का कार्य करते हैं। ये अनेक क्रियाओं का समन्वय करती है जिससे शरीर की समस्थैतिकता (homeostasis) बनी रहती है।
प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया एवं प्रतिवर्ती चाप (Reflex Action and Reflex Arc)
प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया किसी उद्दीपन (impulse) के लिए की गई ऑक्समिक प्रतिक्रिया है। संवेदागों (sensory organs) से संवेदी सूचना सुषुम्ना (spinal cord) तक पहुँचते हैं तथा वहाँ से तुरन्त प्रक्रिया हो जाती है। उदाहरण मुँह में पानी आना, अचानक पलकों का झपकाना, आग से सम्पर्क आने पर हाथ या पैर का झटकना।
प्रतिवर्ती प्रक्रिया में संवेदाग से ऊतक तक एक चाँदनुमा तन्त्रिकीय प्रेरणा परिपथ (nerve impulse path) स्थापित होता है। इस परिपथ को प्रतिवर्ती चाप (reflex arch) कहते हैं।
प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया की महत्ता (Importance of Relfex Action )
√ बहुत-सी शारीरिक गतिविधियों का नियन्त्रण
√ हानिकारक उद्दीपन के लिए जल्द प्रतिक्रिया
√ सही एवं उपयोगी उद्दीपन प्रतिक्रिया
परिधीय तन्त्रिका तन्त्र (Peripheral Nervous System)
केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र को शरीर के विभिन्न संवेदी भागों से जोड़ने वाली धागेनुमा तन्त्रिकाएँ (nerves), परिधीय तन्त्रिका तन्त्र बनाती है। प्रत्येक तन्त्रिका अनेक तन्त्रिका तन्तुओं का गुच्छा होती है। अधिकांश तन्त्रिका तन्तु ऐच्छिक (voluntary) प्रतिक्रियाओं से सम्बन्धित होते हैं। तन्त्रिकाएँ दो प्रकार की होती है। मस्तिष्क से सम्बन्धित कपालीय तन्त्रिकाएँ (cranial nerves) तथा मेरुरज्जु से सम्बन्धित सुषुम्नीय तन्त्रिकाएँ (spinal nerves)। कपालीय तन्त्रिकाएँ 12 जोड़ी तथा सुषुम्नीय तन्त्रिकाएँ 31 जोड़ी होती है।
स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र (Autonomic Nervous System)
यह वास्तव में परिधीय तन्त्रिका तन्त्र का ही भाग होता है, जो आंतरागों (viceral organs) कि क्रियाओं का नियन्त्रण व नियमन करता है। ये संवेदी सूचनाओं को आंतरागों से केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र तक लाती है। इसमें आंतरागों का दोहरा परस्पर विरोधात्मक (antogonistic) नियन्त्रण होता है।
अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र (Symphathetic Nervous System)
इसका सम्बन्ध उन आंतरागों प्रतिक्रियाओं से होता है, जो ऊर्जा के व्यय के साथ प्रतिकूल (adverse) वातावरणीय दशाओं में शरीर की सुरक्षा बढ़ाती है। ये हृदय स्पन्दन दर को बढ़ाता हैं। रुधिर नलिकाओं में सिकुड़न, रुधिरदाब को ज्यादा, मूत्राशय का शिथिलन तथा लार के स्रावण को कम करता है।
परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र (Parasympathetic Nervous System)
यह उन प्रक्रियाओं से सम्बन्धित होती है जिनमें ऊर्जा का संरक्षण होता है। वह हृदय स्पन्दन हृदय को कम, रुधिर नलिकाओं का शिथिलन, लार स्रावण में बढ़ोत्तरी, क्रमाकुंचन (peristalsis) को बढ़ाता है। इससे इन्सुलिन का स्रावण उत्तेजित करता है। यह बाह्य जननांगों को उत्तेजित करता है।
मनुष्य के संवेद ग्राही अंग (Human Sensory Receptors or Sense Organs)
शरीर के बाह्य वातावरण तथा अन्त: वातावरण में होने वाले उद्दीपन ( stimuli) को ग्रहण करके इन्हें विद्युत् रासायनिक आवेगों (electro chemical impulses) का रूप देने वाले अंगों को संवेदाँग कहते हैं।
प्रकाशग्राही संवेदाँग अथवा आँख (Photoreceptors or Organ of Vision or Eye)
दो नेत्र दर्शनेन्द्रियाँ होती है, जिनके अध्ययन की शाखा को नेत्रविज्ञान (ophthaemology) कहते हैं। आँख लगभग 2.5 मी व्यास के नेत्र गोलक के रूप में होता है, जिसका उभरा भाग पारदर्शी होता है। संरचना नेत्र के मुख्य भाग निम्नलिखित हैं।
◆ दृढ़ पटल (Sclera)
मनुष्य का नेत्र एक खोखले गोले के समान होता है। यह बाहर से एक दृढ़ व अपारदर्शी श्वेत परत से ढका रहता है। इस परत को दृढ़ पटल कहते हैं। यह नेत्र के भीतरी भागों की सुरक्षा तथा प्रकाश के अपवर्तन में सहायता करता है।
◆ रक्तक पटल (Choroid)
रक्तक पटल आँख पर आपतित होने वाले प्रकाश का अवशोषण करता है तथा आन्तरिक परावर्तन को रोकता है।
◆ कॉर्निया (Cornea)
नेत्र में प्रकाश इसी भाग से होकर प्रवेश करता है।
◆ आइरिस (Iris)
कॉनिया के पीछे एक रंगीन एवं अपारदर्शी झिल्ली का पर्दा होता है। यह पुतली के आकार को नियंत्रित रखता है।
◆ पुतली (Pupil)
कॉनिया से आया प्रकाश पुतली से होकर ही लेन्स पर पड़ता है। पुतली की यह विशेषता होती है, कि अन्धकार में यह अपने आप बड़ी व अधिक प्रकाश में अपने आप छोटी हो जाती है। इस प्रकार नेत्र में सीमित प्रकाश ही जा पाता है। इस क्रिया को पुतली समायोजन कहते हैं।
◆ नेत्र लेन्स (Eye Lens)
आइरिस के ठीक पीछे पारदर्शी ऊतक का बना द्वि-उत्तल लेन्स होता है, जिसे नेत्र लेन्स कहते हैं । नेत्र लेन्स का अपवर्तनांक लगभग 1.44 होता है। नेत्र लेन्स अपने ही स्थान पर माँसपेशियों के बीच टिका रहता है।
◆ जलीय द्रव (Aqueous Humour)
कॉर्निया तथा लेन्स के बीच के भाग में जल के समान एक नमकीन पारदर्शी द्रव भरा रहता है, जिसे जलीय द्रव कहते हैं। इसका अपवर्तनांक 1.336 होता है।
◆ काँचाभ कक्ष तथा काँचाभ द्रव (Vitreous Humour )
नेत्र लेन्स तथा रेटिना के बीच के भाग को काँचाभ कक्ष कहते हैं। इसमें गाढ़ा, पारदर्शी एवं उच्च अपवर्तनांक वाला द्रव भरा रहता है, इसे काँचाभ द्रव कहते हैं।
◆ रेटिना (Retina)
रक्तक पटल के नीचे तथा नेत्र के सबसे अन्दर की ओर एक पारदर्शी झिल्ली होती है, जिसे रेटिना कहते हैं, इसे दृष्टिपटल भी कहा जाता है। यह प्रकाश सुग्राही होती है तथा इस पर दृष्टि तन्त्रिकाओं (optic nerves) का जाल फैला रहता है। किसी भी वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनता है। रेटिना के अन्दर प्रकाश सुग्राही दो प्रकार की सेलें पाई जाती हैं।
◆ अन्ध बिन्दु (Blind Spot )
रेटिना के जिस स्थान को छेदकर दृष्टि तन्त्रिकाएँ मस्तिष्क को जाती हैं, वहाँ पर प्रकाश का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इस स्थान पर प्रकाश सुग्राहिता शून्य होती है, इसे अन्ध बिन्दु कहते हैं।
आयु (वर्षों में) | अलग-अलग दृष्टि की कम से कम दूरी |
10 | 18 सेमी |
20 | 25 सेमी |
40 | 50 सेमी |
60 | 200 सेमी या उससे अधिक |
◆ सिलियरी माँसपेशियाँ (Ciliary Muscles) यह मस्तिष्क को रेटिना से दृश्य जानकारी पहुँचाता है।
◆ ऑप्टिक तन्त्रिका (Optic Nerve) यह मस्तिष्क में वैद्युत संकेतों को पहुँचाता है।
◆ आइरिस प्रकाश की मात्रा को आँखों तक पहुँचाता है जिसके द्वारा पुतली के आकार को व्यवस्थित किया जाता है।
◆ पुतली का रंग काला होता है, क्योंकि यह किसी भी रंग को परावर्तित नहीं करती है ।
◆ नेत्र गोलक गोलाकार आकृति के रूप में होता है, जिसका व्यास 2.3 मिमी होता है। .
दृष्टि की क्रियाविधि (Mechanism of Vision)
दृष्टि ज्ञान की क्रियाविधि निम्न चरणों में पूर्ण होती है
(i) दर्शनीय तरंगदैर्ध्य की प्रकाश किरणें रेटिना पर कॉर्निया तथा लेन्स द्वारा भेजे उद्दीपन से शंकु तथा शलाकाओं पर केन्द्रित होती है।
(ii) रेटिना से आये प्रकाश में आँख की ऑप्सिन प्रोटीन की संरचना में परिवर्तन होता है, जिससे झिल्ली की पारगम्यता में परिवर्तन होता है।
(iii) साथ ही साथ प्रकाशग्राही कोशिकाओं में एक सिग्नल जाता है, जो प्रकाश तन्त्रिका तन्तुओं द्वारा मस्तिष्क के कॉर्टेक्स में जाता है तथा मस्तिष्क द्वारा ग्रहण करके रेटिना पर एक छवि बनाता है।
श्रवणसन्तुलन ज्ञानेन्द्री अथवा कर्ण (Statoacoustic Receptor or Ear)
कान द्वारा दो कार्य होते हैं – सुनना तथा शारीरिक सन्तुलन बनाना। कान मुख्यतया तीन भागों में विभक्त होता है; बाह्य कर्ण, मध्य कर्ण तथा आन्तरिक कर्ण।
बाह्य कर्ण इनका बाहरी भाग कर्ण पिन्ना (ear pinna) कहलाता है, जो अस्थि का बना होता है। इसका दूसरा भाग बाह्य कर्ण कुहर (external auditory meatus) होती है, जो टेम्पोरल हड्डी से घिरी 2.5 सेमी लम्बी नलिका होती है। इसके भीतरी सिरे पर कर्णपटल झिल्ली (tympanum) होती है, जिसे कान का परदा (eardrum) कहते हैं।
मध्य कर्ण इसे कर्णगुहा (tympanic cavity) कहते हैं, जिसमें तीन छोटी-छोटी कर्ण अस्थियाँ होती हैं; जैसे मैलियस (malleus), इनकस (incus) तथा स्टैपीज (stapes)। ये कम्पनों को यान्त्रिक कम्पनों के रूप में अन्त: कर्ण में पहुँचते हैं। ये ध्वनि ऊर्जा को यान्त्रिक ऊर्जा में बदलते हैं।
अन्तः कर्ण यह अर्द्धपारदर्शक झिल्ली की बनी संरचना होती है, जिसे कलागहन (membranous labyrinth) कहते हैं। कलागहन अस्थिय गहन (bony labyrinth) होता है अन्त: कर्ण में कोष्ठीय उपकरण (vestibular apparatus) होता है, जो सन्तुलन बनाए रखता है तथा कॉक्लिय उपकरण (cochlear apparatus) होता है, जो सुनने का कार्य करने के लिए उत्तरदायी होती है।
श्रवण क्रिया की कार्यिकी (Physiology of Hearing)
(i) वायु की ध्वनि तरंगें हमारे कर्ण पल्लवों से टकराकर कर्ण मार्ग में जाती है, जहाँ कम्पन्न उत्पन्न होता है।
(ii) यह कम्पन्न कर्ण अस्थियों में होता हुआ अन्त: कर्ण में पहुँचता है।
(iii) अन्त: कर्ण में कॉक्लिय उपकरण द्वारा यह प्रेरणा मस्तिष्क में श्रवण तन्त्रिका तक पहुँचती है।
(iv) मस्तिष्क से उपयुक्त अपवाहक अंगों ( effector organs) को आवश्यक प्रतिक्रिया भेजी जाती है जिससे ध्वनि तरंगों को सुना जाता है।
अन्य ग्राही अंग (Other Sense Organs)
नाक (महक इन्द्री) (Nose)
नाक महक संवदेन को ग्रहण करता है, नाक की गुहा पर श्लेष्म झिल्ली पाई जाती है जिसमें महक ग्राही कोशिका पाई जाती है जहाँ घ्राण तन्त्रिका (olfactory gland) उपस्थित होती है।
महक के साथ विभिन्न पदार्थों की वाष्प भी होती है, जिनसे महक ग्राही क्रियाएँ होती हैं, जो संवेदन को मस्तिष्क तक भेजते हैं। नाक में वोमिरोनासल अंग होता है, जो प्रजनन चक्र को उत्तेजित करने वाले फेरोमोन्स के लिए संवेनदशील होता है। झुकाम के समय घ्राण शक्ति कुछ समय के लिए समाप्त हो जाती है। कुत्ते में मानव से कई गुना अधिक घ्राण शक्ति होती है
त्वचा (स्पर्शेन्द्रियाँ) (Skin)
स्पर्श की संवेदनशीलता पूरे शरीर में फैली होती है। त्वचा व अन्य भागों की तन्त्रिका कोशिका के अंतिम छोर स्पर्श संवेदन को मस्तिष्क तक पहुँचाते है। शरीर के कुछ भागों में ये अधिक होते हैं अत: ये अंग स्पर्श के लिए अधिक संवेदनशील होते हैं। चार प्रकार के स्पर्श; जैसे ठण्डा, गर्म, सम्पर्क व दर्द संवेदित होती है।
त्वचा के बाल इस संवेदन का बढ़ा देती है तथा पूर्व चेतावनी तन्त्र की भाँति कार्य करते हैं। अँगुली के घोर तथा प्रजनन अंग स्पर्श संवेदना को सबसे अधिक महसूस करते हैं।
(ल)
मानव अन्तःस्रावी तन्त्र (Human Endocrine System)
शरीर में होने वाली विभिन्न जैव रासायनिक क्रियाओं, उपापचय तथा शारीरिक सन्तुलन व समन्वयन हेतु तन्त्रिका तन्त्र व अन्त:स्रावी तन्त्र साथ में कार्य करते हैं। अन्त: स्रावी तन्त्र में मुख्यतया अन्त: स्रावी ग्रन्थियाँ, उनके हॉर्मोन्स तथा उनकी कार्यिकी सम्मिलित होती है। शारीरिक रासायनिक समन्वयन भी अन्त:स्रावी तन्त्र द्वारा ही संचालित होता है। मानव शरीर में तीन प्रकार की ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं।
ग्रन्थियों के प्रकार (Types of Glands)
कशेरुकियों में नलिकाओं के आधार पर अन्त: स्रावी व बहिःस्रावी दो प्रकार की ग्रन्थियाँ होती हैं।
अन्त: स्रावी ग्रन्थि (Endocrine Glands)
ये नलिकारहित ग्रन्थियाँ होती हैं। ये अपना स्रावण रुधिर में स्रावित करती हैं। इनके स्रावण को हॉर्मोन कहते हैं, जो रुधिर से सीधे उन अंगों में जाते हैं जहाँ इनकी आवश्यकता होती है। उदाहरण थायरॉइड पेराथायरॉइड, पीयूष, अधिवृक्क, आदि ।
बहि:स्रावी ग्रन्थि (Exocrine Glands)
ये नलिकायुक्त ग्रन्थियाँ होती हैं। इनके स्रावण को एन्जाइम कहते हैं। उदाहरण लार ग्रन्थियाँ, यकृत, आदि ।
मिश्रित ग्रन्थि (Mixed Glands)
ये ग्रन्थियाँ हॉर्मोन व एन्जाइम दोनों स्रावित करती हैं। उदाहरण अग्न्याशय (pancreas)।
हॉर्मोन्स (Hormones)
हॉर्मोन्स मुख्यतया अमीनो अम्ल, स्टीरॉइड के बने अरासायनिक पदार्थ होते हैं। ये बाह्य तथा अन्त: वातावरण की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप अन्त:स्रावी ग्रन्थियों से स्रावित होते हैं। हॉर्मोन्स को अन्तरकोशिकीय मध्यान्तर (inter cellular messenger) कहते हैं। ये बहुत कम मात्रा में बनते हैं। अर्नेस्ट एच स्टॉरलिंग (Ernest H Starling) ने सन् 1905 में हार्मोन शब्द का प्रयोग किया। प्रथम हॉर्मोन सिक्रिटिन (secretin) की खोज विलियम एम बैयलिसस (William M Bayliss) तथा अर्नेस्ट एच स्टारलिंग (Ernest H Starling) ने सन् 1903 में की थी। प्रथम पृथक (isolated) हॉर्मोन इन्सुलिन है, जिसे बैटिंग तथा मैकड ने निष्कासित किया था।
हॉर्मोन्स के लक्षण (Characteristics of Hormones)
(i) ये सीधे रुधिर में स्रावित होते हैं तथा शरीर में नियन्त्रक क्रियाएँ करते हुए संचारित होते हैं।
(ii) ये बहुत कम मात्रा में निकलते हैं।
(iii) ये शरीर के कई कार्यों का नियमन करते हैं, जैसे वृद्धि, विकास, व्यवहार, प्रजनन, लक्षण, प्रजनन क्रियाएँ तथा उपापचयी क्रियाएँ, आदि।
(iv) ये शारीरिक सन्तुलन बनाने में भी सहायता करते हैं। मनुष्य के अन्त: स्रावी तन्त्र में अन्त: स्रावी ग्रन्थियों तथा मिश्रित ग्रन्थियों के साथ-साथ कुछ अन्य संरचनाएँ भी आते हैं जैसे हृदय, वृक्क, त्वचा, जनन अंग (gonads) अपरा तथा यकृत। अन्त: स्रावी तन्त्र के अध्ययन को एण्डोक्राइनोलॉजी (endocrinology) कहते हैं। अन्तःस्रावी तन्त्र की विभिन्न प्रकार की ग्रन्थियाँ निम्न हैं।
अन्त: स्रावी ग्रन्थियाँ अवटु, परावटु, अधिवृक्क, पीयूष, थाइमस तथा पिनियल ।
मिश्रित ग्रन्थियाँ अग्न्याशय
अन्य हाइपोथैलेमस, त्वचा, आमाश्यान्त्र श्लेष्मिका, हृदय, वृक्क, प्रजननांग (अण्डाशय तथा शुक्राशय), अपरा तथा यकृत।
◆ अन्तःस्रावी ग्रन्थियों तथा हॉर्मोन्स के अध्ययन को एण्डोक्राइनोलॉजी कहते हैं।
◆ पहला खोजित हॉर्मोन सिक्रिटिन तथा पहला निष्कृत हॉर्मोन (बेटिंग तथा मैकियोड द्वारा) इन्सुलिन है।
◆ हाइपोथैलेमस का अन्त: स्रावी तन्त्र का सुप्रिम कमाण्डर कहते हैं।
◆ पीयूष ग्रन्थि को शरीर की मास्टर ग्रन्थि कहते हैं तथा आज इसे इस तन्त्र का आर्केस्ट्रा कहते हैं।
◆ पीयूष ग्रन्थि शरीर की सबसे छोटी ग्रन्थि होती है।
◆ आवटु ग्रन्थि शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि होती है।
अन्तःस्रावी तन्त्र से सम्बन्धित कुछ रोग (Some Disorders of Endocrine System)
1. बौनापन (Dwarfism) यह वृद्धि हॉर्मोन की कमी से होता है।
2. भीमकायता (Gigantism) यह वृद्धि हॉर्मोन की बढ़त से होता है। यह रोग बालपन में होता है जिसमें शरीर की सामान्य से अधिक वृद्धि हो जाती है।
3. एक्रोमिगैली (Acromegaly) यह वयस्क अवस्था में वृद्धि हॉर्मोन के ज्यादा स्रावण से होता है, जिसमें जबड़े व पादों का आकार बढ़ जाता है परन्तु शरीर के अन्य अंग सामान्य रहते हैं।
4. जड़मानवता (Cretinism) यह थायरॉक्सिन की कमी से बच्चों में होता है, जिसमें हृदय स्पन्दन पर, तापमान, वृद्धि, मानसिक विकास तथा जनन क्षमता में कमी आ जाती है।
5. एडिसन्स रोग ( Addison’s disease) यह मिनरेलोकॉर्टिकॉइड तथा ग्लूकोकॉर्टिकॉइड की कमी से होता है।
6. कुशिंग सिन्ड्रोम (Cushing s syndrome) यह कार्टिकॉइड की अधिकता से होता है जिसमें रुधिर शर्करा अधिक मोटापा, रुधिर दाब में अधिकता हो जाती है। प्रोटीन अपचय (protein catabolism) बढ़ जाता है तथा हड्डियाँ अनियमित हो जाती है।
7. एल्डोस्टेरोनिस्म (Aldosteronism) यह एल्डोस्टीरॉन हार्मोन की अधिकता से होता है।
8. एड्रीनल विरिलिज्म (Adrenal virilism) इसमें स्त्रियों में पुरुषों जैसे लक्षण आ जाते है; जैसे मूँछ, दाढ़ी। यह रोग नर लिंग हॉर्मोन के अधिक स्रावण से होता है।
9. गायनिकोमेस्टिया (Gynaecomastia) यह पुरुषों में लिंग हॉर्मोन के अधिक स्रावण से होता है, जिसमें पुरुषों में स्तनों का अधिक विकास हो जाता है।
10. प्रकोशियस प्यूबर्टी (Precocious puberty) लड़कियों में 9 वर्ष की आयु से पूर्व अण्डाणुजनन तथा लड़कों में 10 वर्ष की आयु से कम में शुक्राणुजनन को प्रीकोशियस प्यूबर्टी (precocious puberty) कहते हैं।
11. नपुंसकता (Eunchodism) यह टेस्टोस्टेरॉन हॉर्मोन की कमी के कारण पुरुषों में होता है, जिसमें निष्क्रिय द्वितीयक प्रजनन अंग बनते हैं, जिस कारण बाह्य तथा अन्य प्रजनन लक्षण नहीं होते तथा शुक्राणु नहीं बनते हैं।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
- Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Facebook पर फॉलो करे – Click Here
- Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Google News ज्वाइन करे – Click Here