आनुवंशिकी (Genetics)

आनुवंशिकी (Genetics)

आनुवंशिकी (Genetics)

‘आनुवंशिकी’ जीव विज्ञान की वह शाखा है, जो वंशागति व विविधताओं (diversities) का अध्ययन करती है। ‘आनुवंशिकी’ शब्द सर्वप्रथम बेटसन (Bateson) ने वर्ष 1905 में दिया था। मेण्डल को आनुवंशिकी का पिता (Father of Genetics) कहा जाता है । वंशागति (Inheritance) वह प्रक्रम है, जिससे जनक के लक्षण उनकी सन्तानों में जाते हैं। वंशागति आनुवंशिकी (Genetics) का आधार है। विविधता जनक व सन्तान के लक्षणों की असमानता की अवस्था है। विविधता का आधार लैंगिक जनन है, जिसके फलस्वरूप सन्तान में कुछ लक्षण माँ तथा कुछ लक्षण पिता जैसे होते हैं।
मेण्डल के प्रयोग (Mendel’s Experiment)
ग्रेगर जॉन मेण्डल (Gregor Johann Mendel) (1822-84 ई) आस्ट्रिया के वैज्ञानिक थे, जिन्होंने आनुवंशिकी पर सर्वप्रथम प्रयोग किए थे। मेण्डल को विज्ञान की एक नई शाखा आनुवंशिकता का जनक माना जाता है। 1856-1863 के दौरान, मेण्डल ने साधारण मटर (Pisum sativum) के पौधे पर अपने आनुवंशिकी के प्रयोग किए तथा अपने आनुवंशिकता के नियमों को बताया।
मेण्डल के प्रयोगों के पदार्थ (Mendel’s Experimental Material)
मेण्डल ने अपने बगीचे में मटर के पौधे उगाए तथा उसके 7 जोड़ी लक्षणों को अपने प्रयोगों के लिए चुना। ये सात लक्षण उन्होंने उन सात जोड़ी प्रजातियों से लिए जिन्होंने लगातार पीढ़ियों तक एकसमान लक्षण दिखाए ।
मेण्डल के अवलोकन (Mendel’s Observation)
मेण्डल के इस प्रयोग में, अगली पीढ़ी के पादप सभी लम्बे थे। मेण्डल द्वारा दो पादपों के संकरण से बनी सन्तति पादपों को हाइब्रिड (hybrid) कहा गया। प्रथम पीढ़ी के पादपों को F1 -पीढ़ी तथा दूसरी पीढ़ी के पादपों को F2 -पीढ़ी कहा गया। मेण्डल ने अपने प्रयोगों के दौरान दो अन्य शब्द दिए जैसे प्रभावी (dominant) एवं अप्रभावी (recessive) दिये। प्रभावी कारक को अंग्रेजी के बड़े अक्षर जैसे लम्बेपन का T तथा अप्रभावी कारक को अंग्रेजी के छोटे अक्षर जैसे बौनेपन के लिए t से प्रदर्शित किया जाता है। मेण्डल ने पता लगाया कि प्रत्येक प्रजनन कोशिका में एक लक्षण के लिए दो कारक होते हैं। यदि वे दो कारक समान होते तो उसे समयुग्मजी (homozygous) अर्थात् TT कहते हैं और यदि वे कारक असमान हों, तो उसे विषमयुग्मजी ( heterozygous) अर्थात् Tt कहते हैं।
मेण्डल द्वारा चयनित मटर के पौधे के सात लक्षणों की सारणी (List of Contrasting Traits Studied by Mendel in Pea Plant)
लक्षण प्रभावी अप्रभावी
तने की लम्बाई लम्बा बौना
बीज का आकार गोल झुर्रीदार
बीज का रंग पीला हरा
फली का आकार फूला हुआ दबा हुआ
फली का रंग हरा पीला
फूल का स्थान अक्षीय अन्तिम छोर पर
फूल का रंग लाल सफेद
मेण्डल के आनुवंशिकी के नियम (Mendel’s Laws of Inheritance) 
मेण्डल द्वारा किए गए प्रयोगों के आधार पर, मेण्डल ने एकसंकरण व द्विसंकरण दो प्रकार के क्रॉस किए तथा उनके परिणामों के आधार पर मेण्डल ने आनुवंशिकी के तीन नियम दिए हैं
(i) प्रभाविता का नियम
(ii) विसंयोजन का नियम
(iii) स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम
मेण्डल का प्रथम नियम: प्रभाविता का नियम (Mendel’s First Law:Law of Dominance) 
किसी लक्षण के दोनों एलील में से एक-दूसरे पर प्रभावी होता है तथा दूसरा अप्रभावी होता है जैसे लम्बेपन का कारक बौनेपन के कारक पर प्रभावी होता है, जिस कारण F1 – पीढ़ी में सभी पौधे लम्बे होते हैं। गोल बीज झुर्रीदार बीज पर वी होता है।
मेण्डल का द्वितीय नियम: विसंयोजन का नियम (Mendel’s Second Law : Law of Segregation)
विसंयोजन के नियम के अनुसार अलील आपस में सम्मिश्र न होकर दूसरी पीढ़ी (F2 -पीढ़ी) में फिर से स्वतन्त्र तौर पर अभिव्यक्त हो जाते हैं। युग्मक बनने के समय एलील के सदस्य विसंयोजित हो जाते हैं। इसलिए, किसी लक्षण के दो कारक एक-दूसरे से अलग होकर अलग-अलग युग्मकों में जाते हैं अतः इसे युग्मकों की शुद्धता का नियम भी कहते हैं। मेण्डल के प्रथम व द्वितीय नियम निम्न क्रॉस के आधार पर परिभाषित किए गए हैं
एकल संकर (Monohybrid Cross)
◆ मेण्डल ने मटर के लम्बे तथा बौने पौधे का संकर कराया।
◆ इससे उत्पन्न बीज प्रथम सन्तति पीढ़ी (F1 -progeny) के थे, जिनसे सभी लम्बे पौधे बने। मेण्डल ने फिर सभी F1 – पौधों को स्वयं परागित (self-cross) किया।
◆ F2-पीढ़ी में, मेण्डल ने देखा कि सभी पादप लम्बे न होकर, उनमें से कुछ छोटे भी हुए तथा तीन-चौथाई पादप लम्बे तथा एक-चौथाई पादप बौने थे। मेण्डल के इस अवलोकन से पता चला कि F1 – पीढ़ी में लम्बा व बौना दोनों ही आकार का कारक गया था परन्तु प्रदर्शित सिर्फ लम्बा कारक हुआ अर्थात् छोटे पर प्रभावी था।
◆ किसी भी एक लक्षण के लिए, किसी भी जीव में दो कारक होते हैं।
◆ TT तथा Tt दोनों ही आकार में लम्बे तथा सिर्फ Tt आकार में बौने हों अतः लम्बेपन का कारक ‘T’, अकेला ही इस गुण को प्रदर्शित करता है अतः “T” प्रभावी तथा ‘’ अप्रभावी कारक सिद्ध हुआ। यह युग्मकों की शुद्धता तथा विसंयोजन नियम को सिद्ध करता है।
मेण्डल का तृतीय नियम: स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम (Mendel’s Third Law : Law of Independent Assortment) 
इसे आनुवंशिकी नियम भी कहते हैं। मेण्डल के तृतीय नियम के अनुसार, किसी भी संकर में लक्षणों के दो जोड़े लिए जाते हैं, तो किसी एक जोड़े का लक्षण-विसंयोजन दूसरे जोड़े से स्वतन्त्र होता है। इस नियम को मेण्डल ने द्विसंकर द्वारा सत्यापित किया।
मेण्डल के इस नियम को निम्न क्रॉस द्वारा प्रदर्शित किया गया है
द्विसंकर (Dihybrid Cross)
मेण्डल ने मटर के पौधे पर दो लक्षणों को एक साथ लेकर प्रयोग किए। मटर के पीले तथा गोल बीज (YYRR) एवं हरे तथा झुर्रीदार बीज (yyrr) बीज वाले पौधों का संकरण कराया गया। द्विसंकर क्रॉस के आधार पर मेण्डल ने वंशागति का तृतीय नियम प्रस्तावित किया। युग्मक निर्माण के समय कोई भी लक्षण दूसरे से प्रभावित नहीं हुआ।
जीन (Gene) ‘जीन’ शब्द जोहनसन (Johanson) ने वर्ष 1909 में दिया था। मेण्डल ने बाद में इसे एक नया नाम कारक (factor) दिया।
फीनोटाइप (Phenotype) किसी व्यक्ति की दिखाई देने वाली आकारिकी।
जीनोटाइप (Genotype) किसी व्यक्ति का पूर्ण जीनीय संगठन
एलील (Alleles) किसी के लक्षण या गुण के जीन के दो पूरक कारक, जो समघात गुणसूत्रों में एक ही स्थान पर लगे हों।
बैक क्रॉस (Back Cross) F1 – पीढी का किसी भी एक माता-पिता के साथ कराया संकरण |
टेस्ट क्रॉस (Test Cross) F1 – पीढ़ी का अप्रभावी (recessive) माता-पिता के साथ कराया गया संकरण| 1
मेण्डलवाद के अपवाद (Exceptions of Mendelism)
मेण्डल के नियम पूर्ण रूप से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मान्य नहीं है अपितु कुछ अपवाद भी हैं। उनमें से कुछ निम्न हैं
 1. अपूर्ण प्रभाविता (Incomplete Dominance)
कभी-कभी F1 -पीढ़ी में ऐसा लक्षण आ जाता है, जो किसी भी जनक से नहीं मिलता है। यह श्वान (Snapdragon ) पुष्प में देखने को मिलता है, जहाँ लाल पुष्प व सफेद पुष्प वाली प्रजातियों के संकरण से F1 – पीढ़ी में गुलाबी पुष्पों वाली प्रजाति उद्भव होती है। F1 – पीढ़ी का स्वयं संकर कराने पर F2 – पीढ़ी में लाल, गुलाबी व सफेद 1 : 2 : 1 के  अनुपात में आते हैं। अतः इसमें लाल व सफेद लक्षण दोनों ही न तो पूर्ण प्रभावी हैं और न पूर्ण अप्रभावी अपितु ये अपूर्ण प्रभावी हैं।
2. सह – प्रभाविता (Codominance)
सह-प्रभाविता में F1-पीढ़ी दोनों जनकों से मिलती-जुलती होती है। उदाहरण मानव रुधिर वर्ग । मानव में रुधिर वर्ग के लिए तीन एलील IA, IB एवं i होते हैं, जिसमें IAIB, i पर प्रभावी, परन्तु एक साथ सह प्रभावी होते हैं। IAIB एक साथ AB रुधिर वर्ग बनाती है। यदि IA IA अथवा IA i अलील साथ होते हैं, तो A रुधिर वर्ग तथा IB IB अथवा IB i साथ होने पर B रुधिर वर्ग बनता है।
मानव के ABO टाइप रुधिर के 6 विभिन्न जीनोटाइप निम्न सारणी में प्रदर्शित हैं
मानव जनसंख्या में रुधिर वर्ग का जीनीय आधार (Genetic Basis of Blood Groups in Human Population)
3. विभिन्न युग्म विकल्पी (Multiple Allelism)
द्विगुणित जीवों में अधिकांशतया किसी भी एक गुण के लिए दो ही कारक पाए जाते हैं, जो एक-एक जनक से आए होते हैं परन्तु कुछ किस्सों में किसी भी एक गुण या लक्षण के लिए दो से अधिक कारक पाए जाते हैं, जो जीन पूल में विभिन्न जीवों में होते हैं। उदाहरण मानव का ABO रुधिर वर्ग विभिन्न युग्म विकल्पी का एक अच्छा उदाहरण है। इस उदाहरण में रुधिर वर्ग के जीन को तीन कारक निर्धारित करते हैं। विभिन्न युग्म विकल्पी के उदाहरण केवल उनके अध्ययन द्वारा ही खोजे जा सकते हैं।
आनुवंशिकता का गुणसूत्रीय सिद्धान्त (Chromosomal Theory of Inheritance)
वर्ष 1900 में, डी व्रीज (de Vries), कॉरेन्स (Correns) तथा वॉन शेरमाक (Von Tschermak) तीन वैज्ञानिक थे, जिन्होंने लक्षणों की वंशानुगति पर स्वतन्त्र रूप से अध्ययन व प्रयोग किए। इन्होंने मेण्डल द्वारा किए गए कार्य को पुनः खोजा तथा केन्द्रक में उपस्थित धागेनुमा रचनाओं को गुणसूत्रों का नाम दिया।
वाल्टर सटन (Walter Sutton) तथा थियोडोर बोवेरी (Theodore Boveri) ने कहा की गुणसूत्रों का व्यवहार, जीन्स के व्यवहार के समान्तर है तथा उन्होंने मेण्डल के नियमों को गुणसूत्रों के द्वारा समझाया।
गुणसूत्र व जीन्स दोनों के ही युग्मों में पाए जाते हैं। जीन्स के दो पूरक कारक दो समजात गुणसूत्रों पर एक ही स्थान पर लगे होते हैं। सटन तथा बोवेरी ने कहा की गुणसूत्रों को युग्म द्वारा या उनके विभाजन द्वारा कारकों का विभाजन या विसंयोजन एक नए जीव में होता है।
थॉमस हन्ट मॉर्गन (Thomas Hunt Morgan) व उसके साथियों ने प्रयोगों द्वारा आनुवंशिकता के गुणसूत्रीय सिद्धान्त को सही सत्यापित किया।
संयोजन एवं पुनः संयोजन (Linkage and Recombination)
गुणसूत्र पर किन्ही दो जीनों का एक-दूसरे के अत्याधिक पास लगा होना तथा फिर पीढ़ी तक साथ पहुँचना संयोजन कहलाता है तथा पुनः संयोजन जीन्स का सन्तति में दोबारा से संयोजन होना है, जिससे सन्तति के गुणसूत्रों पर जीन्स जनक से भिन्न होते हैं। मॉर्गन (Morgan) तथा उसके समूह ने पता लगाया कि गुणसूत्रों पर कुछ जीन्स बहुत पास-पास जुड़े रहते हैं, जिससे उनमें पुनः संयोजन नहीं होता है। अतः संयोजन अधिक होने से पुनः संयोजन कम हो जाता है तथा यदि गुणसूत्र पर दो जीन्स एक-दूसरे से दूर स्थित होते हैं, तो उनमें पुनः संयोजन की सम्भावना अधिक रहती है।
मनुष्यों में लिंग निर्धारण (Sex Determination in Human Beings) 
लैंगिक जनन में भाग लेने वाले दो एकल जीव एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। अतः मानव शिशु में लिंग का निर्धारण आनुवंशिक होता है। मानव में XX-XY प्रकार का लिंग निर्धारण होता है। मानव में कुल 23 जोड़े गुणसूत्र होते हैं, जिनमें 22 जोड़े स्त्री व पुरुष दोनों में समान होते हैं। इन्हें अलिंग गुणसूत्र (autosomes) कहते हैं परन्तु एक जोड़ी गुणसूत्र स्त्री व पुरुष में भिन्न होते हैं। इन्हें लिंग गुणसूत्र (sex chromosome) कहते हैं। मनुष्यों में दो व्यक्तियों द्वारा लैंगिक जनन होता है, जिसमें नर व मादा के लिंग गुणसूत्रों में अन्तर पाया जाता है, जिसके आधार पर सन्तान के लिंग का निर्धारण होता है।
स्त्री व पुरुषों के लिंग का निर्धारण X तथा y गुणसूत्रों द्वारा होता है। पुरुष में एक X तथा Y गुणसूत्र होता है, जबकि स्त्री में X गुणसूत्र का जोड़ा पाया जाता है अर्थात् पुरुष में 44 + XY स्त्री में 44 + XX l स्त्रियों में Y गुणसूत्र नहीं होता है।
जर्मन वनस्पति वैज्ञानिक हेन्किग (Hanking) ने 1891 ई. में कीटों में शुक्राणुजनन के दौरान एक विशेष संरचना देखी तथा यह अवलोकित किया कि 50% जीवों में यह पाई जाती है तथा शेष 50% में नहीं, तब उन्होंने इसे ‘X’ बॉडी नाम दिया। कीटों में XO प्रकार का लिंग निर्धारण होता है अतः सभी अण्डों में एक अतिरिक्त X-गुणसूत्र होता है। नर में युग्मक दो प्रकार के बनते है, जो (22 + X) तथा (22 + Y) होते हैं। मादा में (22 + X) प्रकार के ही युग्मक बनते हैं, शिशु का लिंग इस बात पर निर्धारित होता है कि उसे अपने पिता से कौन-सा गुणसूत्र प्राप्त हुआ है, जिस बच्चे को अपने पिता से ‘X’ गुणसूत्र वंशानुगत हुआ है वह लड़की एवं जिसे पिता से ‘Y’ गुणसूत्र वशांनुगत हुआ है, वह लड़का होगा।
उत्परिवर्तन (Mutation)
उत्परिवर्तन DNA के अनुक्रम में अचानक आया परिवर्तन है, जिसके फलस्वरूप DNA द्वारा संचालित लक्षण में भी परिवर्तन आ जाते हैं तथा कई प्रकार के आनुवंशिक विकास उत्पन्न हो जाते हैं DNA उत्परिवर्तन से जीवों में विविधता (diversity) भी आती है।
जिन कारकों से उत्परिवर्तन होता है, उन्हें म्यूटाजीन्स (mutagens) कहते हैं। ये रासायनिक या भौतिक किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। उत्परिवर्तन दो प्रकार से होता है
1. जीन उत्परिवर्तन (Gene Mutation)
यह उत्परिवर्तन DNA के न्यूक्लियोटाइड के अनुक्रम में आए किसी परिवर्तन द्वारा होता है। यह भी दो प्रकार का होता है।
(i) बिन्दु उत्परिवर्तन (Point Mutation) गुणसूत्र में DNA का कुण्डल विद्यमान होता है। यदि केवल एक क्षार युग्म (base pair) में परिवर्तन होता है, तो उस परिवर्तन को बिन्दु उत्परिवर्तन कहते हैं। उदाहरण इस प्रकार के उत्परिवर्तन से दात्र-कोशिका अरक्तता (sickle-cell anaemia) रोग उत्पन्न होता है।
(ii) फ्रेमशिफ्ट उत्परिवर्तन (Frameshift Mutation) एक या दो क्षारों के निवेशन (insertion) अथवा विलोपन (deletion) से DNA के पढ़ने के फ्रेमशिफ्ट (reading frameshift) में परिवर्तन होता है। इस प्रकार से उत्पन्न हुए परिवर्तन को फ्रेमशिफ्ट उत्परिवर्तन कहते हैं।
2. गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन (Chromosomal Mutation)
प्रत्येक गुणसूत्र की अर्द्धशाखा में DNA की एक शाखा कुण्डलित अवस्था में छोर से अन्त तक फैली होती है। गुणसूत्र की संख्या व आकार में आए किसी भी परिवर्तन को गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन कहते हैं।
यह दो प्रकार का होता है
(i) आकृति परिवर्तन (Structural Alteration) DNA के एक भाग के खत्म हो जाने अथवा अतिरिक्त हो जाने से होता है जैसे कैंसर कोशिकाओं में गुणसूत्र में आकृति परिवर्तन होता है।
(ii) सांख्यिकी परिवर्तन (Numerical Alteration) गुणसूत्र के बढ़ने-घटने अथवा पूरे जीनोम में घटने-बढ़ने से होता है। कोशिका विभाजन के दौरान अर्द्धगुणसूत्र के अलग न होने से, गुणसूत्र की संख्या के घटने व बढने को एन्यूप्लॉइडी (aneuploidy) कहते हैं, जबकि अन्तावस्था के पश्चात् कोशिकाद्रव्य विभाजन न होने से गुणसूत्र का एक पूरा समूह ही बढ़ जाता है, जिसे पॉलीप्लॉइडी (polyploidy) कहते हैं। यह अधिकांश पादपों में होती है।
आनुवंशिक विकार (Genetic Disorders)
किसी जीव का प्रत्येक लक्षण गुणसूत्र में विद्यमान DNA पर स्थित जीन में निहित होता है । DNA ही आनुवंशिक सूचना का वाहक है, परन्तु कभी-कभी DNA में परिवर्तन के फलस्वरूप कुछ विकार उत्पन्न हो जाते हैं, जो आनुवंशिक भी होते हैं। ये विकार दो प्रकार के होते हैं
मेण्डल के विकार (Mendelian Disorders)
ये विकार मुख्यतया किसी एक जीन में परिवर्तन होने से होते हैं तथा आनुवंशिकता के सिद्धान्तों के अनुसार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाते हैं।
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