प्रकाशिकी (Optics)

प्रकाशिकी (Optics)

प्रकाशिकी (Optics)

प्रकाश (light) ऊर्जा का एक रूप है, जो हमें देखने में सहायता करता है। जब किसी वस्तु पर प्रकाश डाला जाता है या टकराता है, तो यह प्रकाश परावर्तित होकर हमारी आँखों तक पहुँचता है जिससे वस्तु दिखाई देती है। हम प्रकाश को रूपान्तरित माध्यम में ही देख सकते हैं। निर्वात् में प्रकाश की चाल 3×108 मी/से होती है। यह विज्ञान की वह शाखा है जिसमें प्रकाश तथा इसके गुणों, प्रकृति, आदि का अध्ययन किया जाता है। प्रकाशिकी को दो भागों में बाटा गया है. प्रकाशिकी किरणें तथा तरंग प्रकाशिकी।
प्रकाशिकी किरणें (Ray Optics)
प्रकाश की किरणों का परावर्तन, अपवर्तन, फैलाव, आदि रेखीय गठबन्धन के रूप में होता है।
तरंग प्रकाशिकी (Wave Optics)
ध्रुवण तथा विवर्तन, आदि प्रकाश की तरंग प्रकृति को दर्शाता है।
प्रकाश के गुण (Properties of Light)
(i) प्रकाश सीधी रेखा में चलता है।
(ii) निर्वात् में प्रकाश की चाल 3 x 108 मी / से होती है तथा भिन्न-भिन्न माध्यमों में प्रकाश की चाल भिन्न-भिन्न होती है।
(iii) जब प्रकाश एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाता है, तो प्रकाश की चाल तथा तरंगदैर्ध्य बदल जाती है, परन्तु इसकी आवृत्ति नहीं बदलती है।
(iv) प्रकाश की दिशा में एक सीधी रेखा का फैलाव प्रकाश की किरण कहलाती है।
(v) आसन्न किरणों के बण्डल को प्रकाश की किरण कहते हैं।
अन्तरिक्ष में सूर्य, तारे तथा अन्य नक्षत्र पिण्ड (astronomical bodies) प्रकाश के प्राकृतिक स्रोत हैं। मानव निर्मित प्रकाश के कुछ कृत्रिम स्रोत (artificial sources) भी हैं। जैसे विद्युत बल्ब, माचिस, मोमबत्ती, आदि। इसके अतिरिक्त कुछ पदार्थ (स्रोत) भी होते हैं, जिन पर पराबैंगनी प्रकाश आपतित करने पर वे इसे अवशोषित कर लेते हैं और दृश्य प्रकाश उत्सर्जित करते हैं। कैल्शियम, टंगस्टन, जिंक सिलिकेट, आदि प्रतिदीप्ति स्रोत कहलाते हैं।
प्रतिबिम्ब या छाया ( Shadow )
परन्तु जब प्रकाश किरणों के रास्ते में कोई अपारदर्शी वस्तु आ जाती है, तो प्रकाश की किरणें आगे नहीं जा पाती हैं। वस्तु के आगे परदा रहने पर परदे के प्रकाशित भाग के बीच कुछ भाग ऐसा होता है, जो काला दिखता है, क्योंकि वहाँ अंधकार रहता है, इस भाग को प्रतिबिम्ब या छाया कहते हैं।
◆ छाया का बनना प्रकाश के विभिन्न प्रकार के स्रोतों पर निर्भर करता है। यदि प्रकाश का स्रोत बिन्दु स्रोत है, तो छाया का बनना प्रतिछाया (umbra) कहलाता है। इसी प्रकार प्रकाश के बढ़े हुए स्रोत को उपछाया (penumbra) कहते हैं।
ग्रहण (Eclipse)
यह सूर्य के प्रकाश के कारण होने वाली एक प्राकृतिक घटना है। यह दो प्रकार का होता है
(i) सूर्यग्रहण (Solar Eclipse) अपनी कक्षा में परिभ्रमण करते समय जब चन्द्रमा, पृथ्वी एवं सूर्य के बीच आ जाता है, तो सूर्य का कुछ अंश चन्द्रमा से ढक जाने के कारण पृथ्वी से दिखाई नहीं पड़ता है, इसी स्थिति को सूर्यग्रहण कहते हैं। जब सूर्य का एक भाग मात्र चन्द्रमा की ओट में छिप जाता है, तो इसे आंशिक सूर्यग्रहण (partial solar eclipse) कहते हैं, परन्तु जब चन्द्रमा, सूर्य से पूर्णतः ढक जाता है, तो इसे पूर्ण सूर्यग्रहण (total solar eclipse) कहते हैं। यह अमावस्या के दिन होता है।
(ii) चन्द्रग्रहण (Lunar Eclipse) जब पृथ्वी, सूर्य एवं चन्द्रमा के बीच आ जाती है, तो सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा पर नहीं पड़ता है और इस स्थिति में चन्द्रमा, पृथ्वी से दिखाई नहीं पड़ता है, इस स्थिति को चन्द्रग्रहण कहते हैं। यदि चन्द्रमा, पृथ्वी के प्रच्छाया वाले भाग पर पड़ जाता है, तो वह पूर्णतः ढक जाता है, जिसे पूर्ण चन्द्रग्रहण कहते हैं जब वह पृथ्वी के उपच्छाया वाले भाग में पड़ता है तो वह अंशतः ही ढक पाता है, इस स्थिति को आंशिक चन्द्रग्रहण कहते हैं। यह पूर्णिमा के दिन होता है।
पृथ्वी का कक्ष तल चन्द्रमा के अक्षीय अक्ष के साथ 5° से 7° का कोण बनाता है, इसलिए हर महीने ग्रहण नहीं दिखाई देता है।
प्रकाश का परावर्तन (Reflection of Light)
प्रकाश के किसी वस्तु की सतह से टकराकर लौटने की घटना प्रकाश का परावर्तन कहलाता है। तथा समतल दर्पण (plane mirror) प्रकाश का एक अच्छा परावर्तक होता है।
परावर्तन के नियम निम्नलिखित हैं
(i) आपतित किरण, परावर्तित किरण तथा आपतन बिन्दु पर डाला गया लम्ब तीनों एक ही तल में होते हैं।
(ii) परावर्तन (reflection) कोण आपतन (incidence) कोण के बराबर होता है।
◆ चाँदी प्रकाश के परावर्तन का सबसे अच्छा उदाहरण है।
◆ परावर्तन का नियम, सभी प्रकार के परावर्तक पृष्ठ पर लागू होता है।
दर्पण (Mirror)
दर्पण काँच की तरह होता है, जिसकी एक सतह पर पॉलिश होती है। जब इस पर प्रकाश डाला जाता है, तो ये अधिकतम प्रकाश का परावर्तन कर देता है।
दर्पण के प्रकार (Types of Mirror) 
दर्पण दो प्रकार के होते हैं
1. समतल दर्पण (Plane Mirror)
यदि परावर्तक सतह समतल हो, तो उसे समतल दर्पण कहते हैं। इसमें शीशे पर चाँदी या पारे की परत की पॉलिश कर दी जाती है।
समतल दर्पण से बनने वाले प्रतिबिम्बों के गुण निम्नलिखित हैं
(i) समतल दर्पण द्वारा बना प्रतिबिम्ब सदैव आभासी तथा सीधा होता हैं।
(ii) प्रतिबिम्ब का आकार वस्तु के आकार के बराबर होता है।
(iii) यदि दर्पण, वस्तु से दूर या वस्तु की ओर α दूरी तक विस्थापित होता है, तो प्रतिबिम्ब 2α दूरी तक विस्थापित होता है।
(iv) समतल दर्पण का रेखीय आवर्धन 1 होता है।
(v) किसी व्यक्ति को अपना पूरा प्रतिबिम्ब देखने के लिए दर्पण की ऊँचाई व्यक्ति की ऊँचाई की आधी होनी चाहिए।
(vi) समतल दर्पण की फोकस दूरी अनन्त व क्षमता शून्य होती हैं।
(vii) समतल दर्पण द्वारा बना प्रतिबिम्ब दर्पण से उतनी ही दूरी पर होता है, जितनी दूरी पर वस्तु रखी होती है।
(viii) वस्तु तथा प्रतिबिम्ब को मिलाने वाली रेखा, समतल दर्पण पर लम्ब होती है।
(ix) जब एक दर्पण को किसी निश्चित कोण से घुमाया जाता है, तो परावर्तित किरण दोगुने कोण (2θ) से घूम जाती है।
(x) एक व्यक्ति एक कमरे के ठीक बीच में खड़ा होकर अपने पीछे की सम्पूर्ण दीवार का प्रतिबिम्ब सामने की दीवार में लगे समतल दर्पण में देखना चाहे, तो दर्पण का न्यूनतम आकार दीवार की आकार का एक-तिहाई होना चाहिए।
(xi) यदि दो समतल दर्पण एक-दूसरे से θ कोण पर झुके हों तथा वस्तु उनके बीच स्थित हो, तो दर्पणों द्वारा बने प्रतिबिम्बों की संख्या
2. गोलीय दर्पण ( Spherical Mirror)
गोलीय दर्पण काँच के किसी खोखले (hollow) गोले का भाग है, जिसके एक पृष्ठ पर कलई होती है तथा दूसरा पृष्ठ परावर्तक होता है। गोलीय दर्पण दो प्रकार के होते हैं
(i) अवतल दर्पण (Concave Mirror) ऐसे दर्पण जिनमें परावर्तन दबी हुई सतह (bent in surface) से होता है, अवतल दर्पण कहलाते हैं। इसे अभिसारी दर्पण (converging mirror) भी कहा जाता है, क्योंकि यह अनन्त से आने वाली किरणों को सिकोड़ता है, ये दर्पण किरणों को अभिसारित करते हैं। इनका उपयोग सर्चलाइट में, दूरदर्शी में, सिनेमा के प्रोजेक्टर में, दाढ़ी बनाने वाले दर्पण के रूप में किया जाता है।
(ii) उत्तल दर्पण (Convex Mirror) ऐसे दर्पण जिनमें परावर्तन उभरी हुई सतह (bulging out surface) से होता है, उत्तल दर्पण कहलाते हैं। इसे अपसारी दर्पण (diverging mirror) भी कहा जाता है, क्योंकि यह अनन्त से आने वाली किरणों को फैलाता है, ये किरणों को अपसारित करते हैं। इनका उपयोग सड़क के किनारे लगे लैम्पों में, गाड़ियों के पश्च दृश्य दर्पण (rear view mirror) के रूप में होता है।
गोलीय दर्पण से सम्बन्धित कुछ परिभाषाएँ (Some Definitions Related to Spherical Mirror)
(i) वक्रता केन्द्र C (Centre of Curvature) गोलीय दर्पण काँच के जिस खोखले गोले का भाग होता है, उस गोले के केन्द्र को दर्पण का वक्रता केन्द्र कहते हैं ।
(ii) वक्रता त्रिज्या R (Radius of Curvature ) गोलीय दर्पण काँच के जिस गोले का भाग होता है उसकी त्रिज्या को दर्पण की वक्रता त्रिज्या कहते हैं |
(iii) मुख्य अक्ष (Principal Axis) दर्पण के ध्रुव तथा वक्रता केन्द्र को मिलाने वाली रेखा दर्पण की मुख्य अक्ष कहलाती है।
(iv) ध्रुव P (Pole) दर्पण की परावर्तक (reflecting) सतह के मध्य बिन्दु को दर्पण का ध्रुव कहते हैं।
(v) द्वारक (Aperture) दर्पण के प्रकाश परावर्तक क्षेत्रफल का प्रभावी व्यास, दर्पण का द्वारक कहलाता है।
(vi) फोकस तल (Focal Plane) फोकस बिन्दु से होकर जाने वाले तथा मुख्य अक्ष के लम्बवत् तल को फोकस तल कहते हैं।
(vii) फोकस दूरी f (Focal Length) गोलीय दर्पण के ध्रुव तथा मुख्य फोकस के बीच की दूरी को उस दर्पण की फोकस दूरी कहते हैं।
यदि दर्पण का द्वारक कम है, तब f = R/2 होगा।
(viii) मुख्य फोकस F (Principal Focus) दर्पण के मुख्य अक्ष के समान्तर आने वाली प्रकाश की किरणें दर्पण से परावर्तन के पश्चात् जिस बिन्दु पर मिलती हैं या मिलती हुई प्रतीत होती हैं, वह बिन्दु दर्पण का मुख्य फोकस कहलाता है।
प्रतिबिम्ब (Real Image)
जब प्रकाश की किरणें किसी बिन्दु से चलकर परावर्तन के पश्चात् किसी दूसरे बिन्दु पर जाकर मिलती हैं अथवा दूसरे विन्दु से आती हुई प्रतीत होती हैं, तो इस दूसरे बिन्दु को पहले बिन्दु का प्रतिबिम्ब कहते हैं।
प्रतिबिम्ब के प्रकार (Types of Image)
प्रतिबिम्ब दो प्रकार के होते हैं
(i) वास्तविक  यदि किसी बिन्दु वस्तु से चलने वाली प्रकाश किरणें परावर्तन (अथवा अपवर्तन) के पश्चात् किसी दूसरे बिन्दु पर वास्तव में मिलती हैं, तो इस दूसरे बिन्दु पर बने प्रतिबिम्ब को वस्तु का वास्तविक प्रतिबिम्ब कहते हैं। वास्तविक प्रतिबिम्ब को पर्दे पर प्राप्त किया जा सकता है।
(ii) आभासी प्रतिबिम्ब (Virtual Image) यदि किसी बिन्दु वस्तु से चलने वाली प्रकाश किरणें परावर्तन ( अथवा अपवर्तन) के पश्चात् किसी दूसरे बिन्दु पर वास्तव में नहीं मिलती हैं, बल्कि दूसरे बिन्दु से आती हुई प्रतीत होती हैं तो इस बिन्दु पर, जहाँ से किरणें आती हुई प्रतीत होती हैं, बने प्रतिबिम्ब को वस्तु का आभासी प्रतिबिम्ब कहते हैं। आभासी प्रतिबिम्ब को पर्दे पर प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
◆ यदि दर्पण आधा ढका हुआ है, तब दर्पण पर पूरा प्रतिबिम्ब बनेगा परन्तु इसकी तीव्रता घटेगी, क्योंकि दर्पण पर प्रकाश की मात्रा परावर्तन के बाद घट जाती है।
◆ किसी दर्पण में अधिक प्रतिबिम्ब बनने पर प्रकाश का परावर्तन आगे तथा पीछे वाले भाग पर एक से अधिक होता हैजब प्रकाश काँच की सतह पर आंशिक रूप से गिरता है, तो वह उसे परावर्तित कर देता है। तब अपवर्तित किरणेंपरावर्तित किरणों के पिछले पृष्ठ पर प्राप्त होती हैं। यह बहुआयामी (multiple) परिवर्तित काँच की मोटाई ( thickness) के कारण होता है, यह प्रक्रिया बहुआयामी प्रतिबिम्ब के कारण होती है।
गोलीय दर्पण द्वारा प्रतिबिम्ब का बनना (Image Formation by Spherical Mirror) 
अवतल तथा उत्तल दर्पणों द्वारा प्रतिबिम्बों का बनना अलग-अलग दर्शाया गया है ।
अवतल दर्पण द्वारा प्रतिबिम्ब का बनना (Image Formation by a Concave Mirror) 
अवतल दर्पण के सामने विभिन्न स्थितियों में रखने में प्राप्त प्रतिबिम्ब की स्थिति, उसके आकार एवं प्रकृति का विवरण नीचे दिया गया है
उत्तल दर्पण द्वारा प्रतिबिम्ब बनना (Image Formation by a Convex Mirror) 
उत्तल दर्पण द्वारा बने प्रतिबिम्ब का अध्ययन करने के लिए हम बिम्ब की दो स्थितियों पर विचार करते हैं। पहली स्थिति में, बिम्ब अनन्त दूरी पर है तथा दूसरी स्थिति में बिम्ब दर्पण से एक निश्चित दूरी पर है। विम्ब की इन दो स्थितियों के लिए उत्तल दर्पण द्वारा बनाए गए प्रतिबिम्बों के किरण आरेखों को दर्शाया गया है।
प्रतिबिम्बों के उपयोग (Uses of Minors)
(i) समतल दर्पणों के उपयोग (Uses of Plane Mirrors)
◆ चेहरा देखने वाले दर्पण के रूप में समतल दर्पण का उपयोग किया जाता है।
◆ समतल दर्पणों का उपयोग परिदर्शी के बनाने में किया जाता है, जिसका उपयोग युद्ध के समय बंकर में छिपे सैनिक जमीन पर चल रहे दुश्मनों की गतिविधियों को देखने के लिए करते हैं।
◆ पनडुब्बी के जहाज में परिदर्शी का उपयोग किया जाता है। के
◆ समतल दर्पणों का उपयोग बहुरूपदर्शी (kaleidoscope) बनाने में किया जाता है।
(ii) अवतल दर्पणों के उपयोग (Uses of Concave Mirrors)
◆ अवतल दर्पणों का उपयोग सामान्यतः टार्च, सर्चलाइट तथा वाहनों के अग्रदीपों (headlights ) में प्रकाश का शक्तिशाली समान्तर किरण पुंज प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
◆ अवतल दर्पणों का उपयोग चेहरे का बड़ा प्रतिदिग्व देखने के लिए शेविंग दर्पणों (shaving mirrors) के रूप में उपयोग करते हैं।
◆ दन्त विशेषज्ञ अवतल दर्पणों का उपयोग मरीजों के दाँतों का बड़ा प्रतिबिम्ब देखने के लिए करते हैं।
◆ सौर भट्टियों में सूर्य के प्रकाश को केन्द्रित करने के लिए बड़े अवतल दर्पणों का उपयोग किया जाता है।
◆ टेबिल लैम्पों के शेडों में अवतल दर्पण लगाने से थोड़े स्थान को अधिक प्रकाशित किया जा सकता है।
◆ रेलगाड़ी के इंजनों, मोटरकारों, स्टीमरों तथा सर्चलाइट के लैम्पों को अवतल दर्पण के फोकस पर रखकर समान्तर किरण पुंज प्राप्त किया जाता है, जोकि बहुत दूर तक वस्तुओं को प्रकाशित करता है।
(iii) उत्तल दर्पणों के उपयोग (Uses of Convex Mirrors) .
◆ उत्तल दर्पण का उपयोग स्कूटर, मोटरकार, आदि वाहनों में साइड दर्पण के रूप में किया जाता है, क्योंकि इनमें बना प्रतिबिम्ब न सिर्फ सीधा होता है बल्कि इनका दृष्टि क्षेत्र (field of view) भी काफी बड़ा होता है। इनमें ड्राइवर अपने पीछे के वाहनों को देख सकते हैं जिससे वें सुरक्षित रूप से वाहन चला सकें।
◆ बाजारों व गलियों में लगे लैम्पों का प्रकाश उत्तल दर्पण से परावर्तित होकर अपसारी (फैलते हुए) किरण पुंज के रूप में सड़क के बड़े क्षेत्र को प्रकाशित करता है।
◆ उत्तल दर्पणों का प्रयोग बड़े-बड़े शोरूम (showrooms) में किया जाता है। इसका कारण यह है कि छोटे से उत्तल दर्पण में भी बहुत बड़े क्षेत्र की वस्तुओं की स्थिति का आभास मिल जाता है।
गोलीय दर्पणों द्वारा परावर्तन के लिए चिह्न परिपाटी (Sign Convention for Reflection Through Spherical Mirrors) 
गोलीय दर्पणों द्वारा प्रकाश के परावर्तन पर विचार करते समय हम एक निश्चित चिह्न परिपाटी का पालन करेंगे, जिसे नयी कार्तीय परिपाटी कहते हैं। इस परिपाटी में दर्पण के ध्रुव (P) को मूल बिन्दु मानते हैं। दर्पण के मुख्य अक्ष को निर्देशांक पद्धति का x- अक्ष (XX) लिया जाता है। यह परिपाटी निम्न प्रकार हैं
(i) विम्ब सदैव दर्पण के बाईं ओर रखा जाता है। इसका अर्थ है कि दर्पण पर बिम्ब से प्रकाश बाईं ओर से आपतित होता है।
(ii) मुख्य अक्ष के समान्तर सभी दूरियाँ दर्पण के ध्रुव से मापी जाती हैं।
(iii) मूल बिन्दु के दाईं ओर (+ x-अक्ष के अनुदिश) मापी गई सभी दूरियाँ धनात्मक मानी जाती हैं, जबकि मूल बिन्दु के बाईं ओर (- x-अक्ष के अनुदिश) मापी हुई दूरियाँ ऋणात्मक मानी जाती हैं।
(iv) मुख्य अक्ष के लम्बवत् तथा ऊपर की ओर (+ y- अक्ष के अनुदिश) मापी जाने वाली दूरियाँ धनात्मक मानी जाती हैं।
(v) मुख्य अक्ष के लम्बवत् तथा नीचे की ओर (- y-अक्ष के अनुदिश) मापी जाने वाली दूरियाँ ऋणात्मक मानी जाती हैं।
दर्पण सूत्र (Mirror Formula) 
गोलीय दर्पण (spherical mirror) में इसके ध्रुव से बिम्ब या वस्तु की दूरी, वस्तु की दूरी या बिम्ब दूरी (u) कहलाती है। दर्पण के ध्रुव से प्रतिबिम्ब की दूरी प्रतिबिम्ब दूरी (υ) कहलाती है तथा ध्रुव के से मुख्य फोकस की दूरी, फोकस दूरी (f) कहलाती है। इन तीनों राशियों के बीच एक सम्बन्ध होता है जिसे दर्पण सूत्र द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
इस सूत्र को निम्न प्रकार व्यक्त करते हैं
यह सम्बन्ध सभी प्रकार के गोलीय दर्पणों के लिए तथा बिम्ब की सभी स्थितियों के लिए मान्य होता है।
रेखीय आवर्धन (Linear Magnification) 
किसी दर्पण के द्वारा बने प्रतिबिम्ब की ऊँचाई (I) व वस्तु की ऊँचाई (O) के अनुपात को दर्पण का रेखीय आवर्धन कहते हैं। इसे m से प्रदर्शित करते हैं।
◆ अवतल तथा उत्तल दर्पण दोनों के लिए रेखीय आवर्धन का सूत्र समान होता है।
◆ जब m >1 या धनात्मक तब, प्रतिबिम्ब आभासी, सदैव सीधा तथा वस्तु से बड़ा होता हैं।
◆ जब m < 1 या ऋणात्मक तब, प्रतिबिम्ब वास्तविक, सदैव उल्टा तथा वस्तु से छोटा, बराबर अथवा बड़ा हो सकता है।
◆ m >1 होने पर, प्रतिबिम्ब की लम्बाई वस्तु की लम्बाई से अधिक होती है।
◆ m < 1 होने पर प्रतिबिम्ब की लम्बाई वस्तु की लम्बाई से छोटी होती है।
◆ अवतल दर्पण में रेखीय आवर्धन (m) धनात्मक या ऋणात्मक हो सकता है। परन्तु उत्तल दर्पण में m का मान केवल धनात्मक होता है।
प्रकाश का अपवर्तन (Refraction of Light)
जब प्रकाश की किरण एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती है, तो दोनों माध्यमों को अलग करने वाले तल पर प्रकाश की किरण अपने मार्ग से विचलित हो जाती है। इस घटना को प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं। जब प्रकाश की किरण विरल माध्यम से सघन माध्यम में जाती है, तो यह अभिलम्ब की ओर झुक जाती है तथा जब प्रकाश की किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में जाती है, तो यह अभिलम्ब से दूर हट जाती है। यदि प्रकाश की किरण दोनों माध्यमों को अलग करने वाले तल पर लम्बवत् आपतित होती है, तो यह अपने मार्ग से विचलित नहीं होती। प्रथम माध्यम में चलने वाली किरण, आपतित किरण तथा दूसरे माध्यम में जाने पर यही किरण, अपवर्तित किरण कहलाती है। आपतित किरण और अभिलम्ब के बीच बना कोण आपतन कोण (i) कहलाता है तथा अपवर्तित किरण और अभिलम्ब के बीच का कोण अपवर्तन कोण (r) कहलाता है।
◆ वह माध्यम जिसमें प्रकाश का वेग अधिकतम होता है, प्रकाशीय विरल माध्यम (optically rarer medium) तथा जिसमें प्रकाश का वेग न्यूनतम होता है, प्रकाशीय सघन माध्यम (optically denser medium) कहलाता है।
अपवर्तन के कारण (Cause of Refraction) 
प्रकाश की चाल भिन्न-भिन्न माध्यमों में भिन्न-भिन्न होती है। प्रकाश की चाल सघन माध्यम (denser medium) में कम तथा विरल माध्यम (rarer medium) में अधिक होती है। इसलिए जब प्रकाश सघन माध्यम में प्रवेश करता है। तब प्रकाश की चाल घट जाती है तथा वह अभिलम्ब की ओर झुक जाती है। जब प्रकाश विरल माध्यम में प्रवेश करता है। तब प्रकाश की चाल बढ़ती है तथा वह अभिलम्ब से दूर हट जाती है।
अपवर्तनांक (Refractive Index)
अपवर्तनांक माध्यम का वह गुण है, जो माध्यम में प्रकाश की चाल निर्धारित करता है। निर्वात् में प्रकाश की चाल तथा उस माध्यम में प्रकाश की चाल के अनुपात को माध्यम का निरपेक्ष अपवर्तनांक (absolute refractive index) कहते हैं। अपवर्तनांक का मान दोनों माध्यमों तथा आपतित प्रकाश के रंग (आवृत्ति) पर निर्भर करता है। यदि पहला माध्यम निर्वात् हो तो इस अपवर्तनांक को दूसरे माध्यम का परम अपवर्तनांक कहते हैं।
अपवर्तन के नियम या स्नैल के नियम (Laws of Refraction or Snell’s Laws) 
अपवर्तन के दो नियम हैं
(i) आपतित किरण, आपतन बिन्दु पर अभिलम्ब व अपवर्तित किरण तीनों एक ही तल में होते हैं।
(ii) आपतन कोण की ज्या (sin i) व अपवर्तन कोण की ज्या (sin r) का अनुपात किन्हीं दो माध्यमों के लिए एक नियतांक होता है, जिसे दूसरे माध्यम का पहले माध्यम के सापेक्ष अपवर्तनांक कहते हैं।
वायुमण्डलीय अपवर्तन (Atmospheric Refraction)
पृथ्वी पर वायुमण्डल सभी स्थानों पर एकसमान नहीं होता है, इसका घनत्व पृथ्वी सतह से ऊपर या नीचे जाने पर परिवर्तित होता रहता है। इसके वायुमण्डल को भिन्न-भिन्न घनत्वों की परतों में मान सकते हैं, जो एक-दूसरे के प्रति सघन व विरल माध्यम का कार्य करती हैं। इन परतों के कारण प्रकाश के अपवर्तन को वायुमण्डलीय अपवर्तन कहते हैं।
◆ सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य वायुमण्डलीय अपवर्तन के कारण चपटा दिखाई देता है।
वायुमण्डलीय अपवर्तन पर आधारित कुछ घटनाएँ (Some Phenomena Based on Atmospheric Refraction)
(i) तारों का टिमटिमाना (Twinkling of Stars) तारों के प्रकाश के वायुमण्डलीय अपवर्तन के कारण ही तारे टिमटिमाते प्रतीत होते हैं, क्योंकि पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करने के पश्चात् पृथ्वी के पृष्ठ पर पहुँचने तक तारे का प्रकाश निरन्तर अपवर्तत होता जाता है। चूँकि तारे बहुत दूर हैं। अतः वे प्रकाश के बिन्दु-स्रोत के सन्निकट हैं, क्योंकि तारों से आने वाली प्रकाश किरणों का पथ थोड़ा-थोड़ा परिवर्तित होता रहता है। अतः तारे की आभासी स्थिति विचलित होती रहती है तथा आँखों में प्रवेश करने वाले तारों के प्रकाश की मात्रा झिलमिलाती रहती है, जिसके कारण कोई तारा कभी चमकीला प्रतीत होता है तो कभी धुँधला, जोकि टिमटिमाहट का प्रभाव है।
(ii) तारे की आभासी स्थिति उसकी वास्तविक स्थिति से भिन्न होती है (The Stars Seem Higher than They Actually are) तारे की यह आभासी स्थिति भी स्थायी न होकर धीरे-धीरे थोड़ी बदलती भी रहती है, क्योंकि पृथ्वी के वायुमण्डल की भौतिक अवस्थाएँ स्थायी नहीं होती हैं। वायुमण्डलीय अपवर्तन उसी माध्यम में होता है जिसका क्रमिक परिवर्ती अपवर्तनांक हो क्योंकि वायुमण्डल तारे के प्रकाश को अभिलम्ब की ओर झुका देता है। अतः तारे की आभासी स्थिति उसकी वास्तविक स्थिति से कुछ भिन्न प्रतीत होती है। क्षितिज के निकट देखने पर कोई तारा अपनी वास्तविक स्थिति से कुछ ऊँचाई पर प्रतीत होता है।
(iii) अग्रिम सूर्योदय तथा विलंबित सूर्यास्त (Advance Sunrise and Delayed Sunset) वायुमण्डलीय अपवर्तन के कारण सूर्य हमें वास्तविक सूर्योदय से लगभग दो मिनट पूर्व दिखाई देने लगता है तथा वास्तविक सूर्यास्त के लगभग दो मिनट पश्चात् तक दिखाई देता रहता है। वास्तविक सूर्योदय से अर्थ है, कि सूर्य वास्तव में क्षितिज को पार करता है। वास्तविक सूर्यास्त तथा आभासी सूर्यास्त के बीच समय का अन्तर लगभग दो मिनट है। इसी परिघटना के कारण ही सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य की चक्रिका चपटी प्रतीत होती है।
प्रकाश का प्रकीर्णन (Scattering of Light)
जब प्रकाश किसी ऐसे माध्य से होकर गुजरता है, जिसमें कुछ कण उपस्थित हों, जिनका आकार, प्रकाश की तरंगदैर्ध्य की कोटि का हो जब प्रकाश उनसे टकराकर भिन्न-भिन्न दिशाओं में विचलित हो जाता है। यह घटना प्रकाश का प्रकीर्णन कहलाती है।
लॉर्ड रैले के अनुसार, “किसी रंग का प्रकीर्णन उसकी तरंगदैर्ध्य पर निर्भर करता है तथा जिस रंग की तरंगदैर्ध्य कम होती है उसका प्रकीर्णन ज्यादा होता है और जिसकी तरंगदैर्ध्य ज्यादा होती है, उसका प्रकीर्णन कम होता है।
◆ बैगनी रंग के प्रकाश का प्रकीर्णन सबसे अधिक व लाल रंग के प्रकाश का प्रकीर्णन सबसे कम होता है।
◆ नीले रंग के प्रकाश का प्रकीर्णन लाल रंग के प्रकाश की अपेक्षा 10 गुना होता है।
स्वच्छ आकाश का रंग नीला क्यों होता है? (Why is the Colour of the Sky Blue?) 
दिन के समय आकाश नीला दिखाई देता है। इसका कारण यह है कि वायुमण्डल में वायु के अणु तथा अन्य सूक्ष्म कणों का साइज दृश्य प्रकाश की तरंगदैर्ध्य के प्रकाश की अपेक्षा नीचे वर्ण की ओर के कम तरंगदैर्ध्य के प्रकाश को प्रकीणित करने में अधिक प्रभावी होता है। लाल वर्ण के प्रकाश की तरंगदैर्ध्य नीले प्रकाश की अपेक्षा लगभग 1.8 गुनी होती है। अतः जब सूर्य का प्रकाश वायुमण्डल से गुजरता है, वायु के सूक्ष्म कण लाल रंग की अपेक्षा नीले रंग (छोटी तरंगदैर्ध्य) को अधिक प्रबलता से प्रकीर्ण करते हैं। प्रकीणित हुआ नीला प्रकाश हमारे नेत्रों में प्रवेश करता है। यदि पृथ्वी पर वायुमण्डल न होता, तो कोई प्रकीर्णन न हो पाता तब, आकाश काला प्रतीत होता । अत्यधिक ऊँचाई पर उड़ते हुए यात्रियों को आकाश काला प्रतीत होता है, क्योंकि इतनी ऊँचाई पर प्रकीर्णन सुस्पष्ट नहीं होता।
सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य का रंग (Colour of the Sun at Sunrise and Sunset) 
सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य तथा उसके आसपास का आकाश रक्ताभ (appears red) दिखाई देता है, क्योंकि क्षितिज के समीप स्थित सूर्य से आने वाला प्रकाश हमारे नेत्रों तक पहुँचने से पहले पृथ्वी के वायुमण्डल में वायु की मोटी परतों से होकर गुजरता है।
जब सूर्य सिर से ठीक ऊपर (ऊर्ध्वस्थ) हो तो सूर्य से आने वाला प्रकाश, अपेक्षाकृत कम दूरी चलेगा। दोपहर के समय सूर्य श्वेत प्रतीत होता है, क्योंकि नीले तथा बैंगनी वर्ण का बहुत थोड़ा भाग ही प्रकीर्ण हो पाता है। क्षितिज के समीप नीले तथा कम तरंगदैर्ध्य के प्रकाश का अधिकांश भाग कणों द्वारा प्रकीर्ण हो जाता है। इसीलिए, हमारे नेत्रों तक पहुँचने वाला प्रकाश अधिक तरंगदैर्ध्य का होता है। इससे सूर्योदय या सूर्यास्त के समय सूर्य रक्ताभ प्रतीत होता है।
◆ यदि पृथ्वी पर वायुमण्डल न हो तो प्रकीर्णन नहीं होगा और आकाश काला दिखाई देगा।
◆ खतरे के सिग्नल (संकेतों) के लिए लाल रंग का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि लाल रंग के प्रकाश के लिए प्रकीर्णन सबसे कम होता है जिससे यह दूर तक स्पष्ट दिखाई देता है।
◆ चन्द्रमा पर वायुमण्डल नहीं होने के कारण वहाँ पर प्रकाश का प्रकीर्णन नहीं होता है, जिससे अन्तरिक्ष यात्री को चन्द्रमा से आकाश काला दिखाई देता है।
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन (Total Internal Reflection-TIR) 
यदि प्रकाश की कोई किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में जा रही हो तथा आपतन कोण का मान क्रान्तिक कोण से अधिक हो, तो ऐसी स्थिति में प्रकाश की किरण दूसरे माध्यम में जाकर पुनः पूर्व माध्यम में ही लौट आती है। यह घटना प्रकाश का पूर्ण आन्तरिक परावर्तन कहलाती है।
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के लिए निम्न दो प्रतिबन्ध आवश्यक होते हैं
(i) प्रकाश सघन माध्यम से विरल माध्यम की ओर चलता है।
(ii) सघन माध्यम में आपतन कोण का मान क्रान्तिक कोण से बड़ा होता है (i> θc) |
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के प्रायोगात्मक अनुप्रयोग (Practical Applications of Total Internal Reflection)
1. प्रकाशिक तन्तु (Optical Fibre)
प्रकाशिक तन्तु पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के सिद्धान्त पर आधारित युक्ति है। प्रकाशिक तन्तु एक ऐसी युक्ति है, जो विना संकेतों के ह्रॉस के उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने के लिए प्रयुक्त की जाती है। इसके द्वारा सिंग्नल को, इसकी तीव्रता में बिना क्षय हुए, एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानान्तरित किया जा सकता है। प्रकाशिक तन्तु क्वार्ट्ज काँच के बहुत लम्बे तथा पतले हजारों रेशों से मिलकर बना होता है। प्रत्येक रेशे की मोटाई लगभग 10-4 सेमी होती है। जब प्रकाश किरण तन्तु के एक सिरे पर अल्प कोण बनाती हुई आपतित होती है, तो यह इसके अन्दर अपवर्तित हो जाती है तथा तन्तु के अन्दर यह किरण बार-बार पूर्ण आन्तरिक परावर्तित होती हुई तन्तु के दूसरे सिरे से बाहर निकल जाती है। यदि तन्तु को मोड़ भी दिया जाए, तब भी प्रकाश किरण सुगमतापूर्वक दूसरे सिरे से बाहर निकल जाती है।
प्रकाशिक तन्तु के उपयोग (Uses of Optical Fibre)
प्रकाशिक तन्तु के निम्न उपयोग हैं
(i) आजकल दूरसंचार कम्पनियाँ सिग्नल के संचरण के लिए, इन्टरनेट संचार (internet communication) तथा मोबाइल फोन (mobile phone), आदि में प्रकाशिक तन्तु का प्रयोग कर रही हैं।
(ii) प्रकाशिक तन्तु डाइलेक्ट्रिक तरंगों के पथ प्रदर्शक होते हैं तथा वैद्युत चुम्बकीय अवरोध और रेडियो आवृत्ति अवरोधक से युक्त होते हैं।
(iii) विद्युत संकेत को प्रकाश संकेत में बदलकर प्रेषित करने तथा अभिग्रहण करने में।
(iv) शरीर के अन्दर लेजर किरणों को भेजने में।
(v) प्रकाश संकेतों के दूर संचार में होता है। प्रत्येक प्रकाशीय तन्तु में बहुत सिग्नल होते हैं तथा प्रत्येक सिग्नल का उपयोग प्रकाश की विभिन्न तरंगदैर्ध्या में किया जाता है।
(vi) इसका उपयोग सजावटी टेबिल लैम्पों में किया जाता है।
2. रेगिस्तान की मरीचिका (Mirage)
रेगिस्तान में गर्मी के दिनों में कुछ दूरी पर पानी के होने का भ्रम होता है, जबकि वहाँ दूर-दूर तक पानी नहीं होता है यह प्रकाशीय भ्रम, मरीचिका कहलाता है। इसका कारण है कि रेगिस्तान में रेत के निकट वायु की पर्तें गर्म एवं विरल होती हैं, जो ऊँचाई के साथ कम गर्म एवं सघन होती हैं। जब प्रकाश किसी पेड़-पक्षी आदि से परावर्तित होकर धरातल की ओर आता है, तो विभिन्न पर्तों पर अपवर्तित होकर अभिलम्ब से दूर विचलित होता है। जब इसका आपतन कोण, क्रान्तिक कोण से बड़ा हो जाता है, तो यह पूर्ण आन्तरिक परावर्तित होकर अभिलम्ब की ओर झुकते हुए प्रेक्षक तक पहुँचता है, अतः प्रेक्षक को पेड़, पक्षी आदि का उल्टा प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, जिस कारण वहाँ पानी के होने का भ्रम हो जाता है।
3. हीरा (Diamond)
हीरे से वायु में आने वाली किरण के लिए क्रान्तिक कोण बहुत ही कम (24°) होता है। अतः जब बाहर का प्रकाश किसी कटे हुए हीरे में प्रवेश करता है, तो वह उसके भीतर विभिन्न तलों पर बार-बार पूर्ण परावर्तित होता रहता है। जब किसी तल पर आपतन कोण 24° से कम हो जाता है, तब ही प्रकाश हीरे से बाहर आ पाता है। इस प्रकार हीरे में सभी दिशाओं से प्रवेश करने वाला प्रकाश केवल कुछ ही दिशाओं में हीरे से बाहर निकलता है। अतः इन दिशाओं से देखने पर हीरा अत्यन्त चमकदार दिखाई देता है।
वस्तुओं का रंग (Colour of Objects)
सामान्य प्रकाश में रखी गई वस्तु जिस रंग के प्रकाश को परावर्तन अथवा अपवर्तन द्वारा हमारी आँख में भेजती है, वह वस्तु हमें उसी रंग की दिखाई पड़ती है। वस्तुओं के रंग दो बातों पर निर्भर करते हैं
(i) वह वस्तु किस रंग के प्रकाश में देखी जा रही है।
(ii) वह वस्तु किस रंग का परावर्तन अथवा अपवर्तन करती है तथा किस रंग को अवशोषित कर लेती है। उदाहरण जब गुलाब पर श्वेत प्रकाश डाला जाता है, तो लाल दिखाई देता है क्योंकि गुलाव केवल लाल रंग को परावर्तित तथा बाकी सभी रंगों को अवशोषित कर लेता है। जब कुछ गुलावों पर हरा प्रकाश डाला जाता है तो ये काले दिखाई देते हैं, क्योंकि ये प्रत्येक रंग को अवशोषित कर लेते हैं। परन्तु प्रकाश के किसी भी रंग को परावर्तित नहीं करते हैं।
रंग (Colours)
रंग को निम्नलिखित तीन भागों में वर्गीकृत किया जाता है
(i) प्राथमिक रंग (Primary Colours) वे रंग जो किन्हीं अन्य रंगों के मिश्रण से प्राप्त नहीं किए जा सकते तथा उचित अनुपात में मिश्रित करने पर अन्य सभी रंगों को उत्पन्न करते हैं, प्राथमिक रंग कहलाते हैं जैसे लाल, हरा तथा नीला रंग प्राथमिक रंगों की श्रेणी में आते हैं।
(ii) द्वितीयक रंग (Secondary Colours) प्राथमिक रंगों के मिश्रण से बने रंग द्वितीयक रंग कहलाते है; जैसे मैजेन्टा, पीला तथा मोरपंखी नीला द्वितीयक रंग कहलाते हैं।
उदाहरण                                                     हरा + लाल = पीला
                                                                 नीला + लाल = मैजेन्टा
                                                                 नीला + हरा = मोरपंखी नीला
                                               
(iii) पूरक रंग (Complementary Colours)  प्राथमिक तथा द्वितीयक रंगों के मिश्रण से प्राप्त सफेद रंग पूरक रंग कहलाते हैं।
उदाहरण                                                  लाल + मैजेन्टा = सफेद
                                                               हरा + मैजेन्टा = सफेद
                                                               नीला + पीला = सफेद
मिश्रित रंग द्रव्य (Mixed Coloured Pigments)
रंग द्रव्य साधारणतः अशुद्धि रंगों के लिए प्रयोग होता है। जहाँ पर विभिन्न रंगों को मिलाकर एक मुख्य रंग बनाते हैं। तब तीन रंग एकसाथ मिलकर त्रिभुजाकार रंग नहीं बनाते हैं। उदाहरण- जब नीले तथा पीले रंग को मिश्रित किया जाता है, तो वह दूधिया हरा रंग बनाते हैं।
गोलीय लेन्सों द्वारा अपवर्तन (Refraction by Spherical Lenses) 
दो पृष्ठों से घिरा हुआ कोई पारदर्शी माध्यम, जिसका एक या दोनों पृष्ठ गोलीय होते हैं, लेन्स कहलाता हैं। लेन्स दो प्रकार के होते हैं
1. उत्तल या अभिसारी लेन्स (Convex or Converging Lens)
दोनों ओर से उभरी हुई सतहों से घिरे पारदर्शी माध्यम को उत्तल लेन्स कहते हैं। इसका मध्य भाग मोटा एवं किनारे पतले होते हैं। उत्तल लेन्स निम्न तीन प्रकार के होते हैं
◆ उत्तल लेन्स को अभिसारी लेन्स भी कहते हैं क्योंकि यह आपतित प्रकाश किरणों को अभिसारित करता है।
◆ साधारणतः द्वि-उत्तल लेन्स को उत्तल लेन्स कहते हैं।
2. अवतल या अपसारी लेन्स (Concave or Diverging Lens)
दोनों ओर से दबी हुई सतहों से घिरे पारदर्शी माध्यम को अवतल लेन्स कहते हैं। इसका मध्य भाग पतला एवं किनारे मोटे होते हैं। अवतल लेन्स निम्न तीन प्रकार के होते हैं
◆ अवतल लेन्स को अपसारी लेन्स भी कहते हैं, क्योंकि यह आपतित प्रकाश किरणों को अपसारित करता है।
◆ साधारणतः द्वि-अवतल लेन्स को अवतल लेन्स कहते हैं ।
लेन्सों से सम्बन्धित कुछ परिभाषाएँ (Some Definitions Related to Lenses)
(i) प्रकाशिक केन्द्र (Optical Centre) लेन्स की मुख्य अक्ष पर स्थित वह बिन्दु, जिससे होकर जाने वाली प्रकाश किरण अपवर्तन के पश्चात् आपतित किरण के समान्तर मिलती है, प्रकाशिक केन्द्र कहते हैं।
(ii) वक्रता केन्द्र (Centre of Curvature) दो गोलीय पृष्ठ, जिनमें से प्रत्येक पृष्ठ एक गोले का भाग होता है। अतः इन गोलों के केन्द्रों को लेन्स का वक्रता केन्द्र कहते हैं।
(iii) वक्रता त्रिज्या (Radius of Curvature) लेन्स जिस गोलीय पृष्ठ का भाग होता है। उसकी त्रिज्या को लेन्स की वक्रता त्रिज्या कहते हैं।
(iv) मुख्य अक्ष (Principal Axis) लेन्स के दोनों वक्रता केन्द्रों को मिलाने वाली रेखा मुख्य अक्ष कहलाती है, मुख्य अक्ष प्रकाशिक केन्द्र से भी होकर गुजरती है।
(v) मुख्य फोकस (Principal Focus) लेन्स के दो मुख्य फोकस होते हैं
(a) प्रथम मुख्य फोकस (First Principal Focus) लेन्स की मुख्य अक्ष पर स्थित वह विन्दु जिससे चलने वाली किरणें लेन्स से अपवर्तन के पश्चात् मुख्य अक्ष के समान्तर हो जाती हैं, लेन्स का प्रथम फोकस कहलाता है।
(b) द्वितीय मुख्य फोकस (Second Principal Focus) लेन्स के मुख्य अक्ष के समान्तर आने वाली प्रकाश की किरणें लेन्स से अपवर्तन के पश्चात् जिस बिन्दु पर मिलती हैं या जिस विन्दु से आती हुई प्रतीत होती हैं, लेन्स का द्वितीय फोकस कहलाता है।
(vi) फोकस दूरी (Focal Length) लेन्स के प्रकाशिक केन्द्र व फोकस के बीच की दूरी को लेन्स की फोकस दूरी कहते हैं। उत्तल लेन्स की फोकस दूरी धनात्मक व अवतल लेन्स की फोकस दूरी ऋणात्मक होती है।
(vii) द्वारक (Aperture) लेन्स के उस क्षेत्रफल का प्रभावी व्यास, जिसमें से होकर प्रकाश पारगमिक होता है, लेन्स का द्वारक कहलाता है।
लेन्सों द्वारा प्रतिबिम्ब का बजना (Image Formation by Lens)
अवतल तथा उत्तल लेन्स द्वारा प्रतिबिम्ब का बनना अलग-अलग बताया गया है।
उत्तल लेन्स द्वारा प्रतिबिम्ब का बनना (Formation of Image by a Convex Lens) 
प्रतिबिम्ब की प्रकृति, आकार, स्थिति, आदि लेन्स की फोकस दूरी पर निर्भर करती हैं। उत्तल लेन्स के सामने विभिन्न स्थितियों में रखने पर प्राप्त प्रतिबिम्ब की स्थिति, उसके आकार एवं प्रकृति का विवरण नीचे सारणी में दिया गया है।
अवतल लेन्स द्वारा प्रतिबिम्ब का बनना (Formation of Image by a Concave Lens)
अवतल लेन्स द्वारा प्रतिबिम्ब के बनने के लिए एक वस्तु की दो स्थितियों का अध्ययन करते हैं। अवतल लेन्स से प्रतिबिम्ब हमेशा वस्तु की ओर ही लेन्स तथा फोकस के बीच बनता है। यह आभासी, सीधा तथा वस्तु से छोटा होता है।
प्रिज्म: समतल सतह से अपवर्तन (Prism: Refraction at a Plane Surface)
किसी कोण पर झुके दो समतल पृष्ठों के बीच घिरे किसी पारदर्शक माध्यम को प्रिज्म (prism) कहते हैं। जब प्रकाश की एक किरण प्रिज्म पर आपतित होती है, तो यह किरण इसके आधार की ओर मुड़ जाती है। अतः यह प्रकाश के अपवर्तन की क्रिया कहलाती है।
काँच के प्रिज्म के द्वारा श्वेत प्रकाश का वर्ण विक्षेपण (Dispersion of White Light by a Glass Prism)
न्यूटन के अनुसार, जब प्रकाश की किरण एक पतले प्रिज्म से गुजरती है, तो निर्गत किरण अपने मार्ग से विचलित होने के साथ-साथ सात विभिन्न रंगों के प्रकाश में विभक्त हो जाती है। इस घटना को वर्ण विक्षेपण कहते हैं। प्रिज्म से श्वेत प्रकाश के कारण प्राप्त सात रंगों की पट्टिका (band) को वर्णक्रम या स्पेक्ट्रम (spectrum) कहते हैं। इस स्पेक्ट्रम में रंगों का क्रम इस प्रकार होता है बैंगनी (Violet), आसमानी ( Indigo), नीला (Blue), हरा (Green), पीला (Yellow), नारंगी (Orange) तथा लाल (Red) या अंग्रेजी में VIBGYOR| वास्तव में वर्णक्रम या स्पेक्ट्रम को एक ऐसे चित्र के रूप में परिभाषित करते हैं जिसमें विभिन्न विकिरण अपनी तरंगदैर्ध्य के बढ़ते हुए क्रम या अपनी आवृत्ति के घटते हुए क्रम में लगी होते हैं। आइजक न्यूटन ने सर्वप्रथम सूर्य का स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के लिए काँच के प्रिज्म का उपयोग किया।
◆ जब विद्युत बल्ब का श्वेत प्रकाश एक त्रिभुजाकार काँच के प्रिज्म पर गिरता है, तो यह सात रंगों का एक समूह बनाता है।
वर्ण विक्षेपण के कारण (Causes of Dispersion)
पारदर्शी माध्यम में जैसे-जैसे प्रकाश के रंगों का अपवर्तनांक बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे पदार्थ में उसकी चाल कम होती जाती है जैसे काँच में बैंगनी रंग के प्रकाश की चाल सबसे कम तथा अपवर्तनांक सबसे अधिक होता है तथा लाल रंग की चाल सबसे अधिक एवं अपवर्तनांक सबसे कम होता है। लाल रंग की तरंगदैर्ध्य सबसे अधिक तथा बैंगनी रंग की तरंगदैर्ध्य सबसे कम होती है इसलिए लाल रंग किसी माध्यम में सबसे तेज चलता है जबकि बैंगनी रंग धीमा चलता है। अतः लाल रंग का विचलन सबसे कम होता है।
इन्द्रधनुष (Rainbow)
इन्द्रधनुष, वर्षा के पश्चात् आकाश में जल के सूक्ष्म कणों में दिखाई देने वाला प्राकृतिक स्पेक्ट्रम है। यह वायुमण्डल में उपस्थित जल की सूक्ष्म बूँदों द्वारा सूर्य के प्रकाश के परिक्षेपण के कारण प्राप्त होता है। इन्द्रधनुष सदैव सूर्य के विपरीत दिशा में बनता है। जबकी सूक्ष्म बूँदें छोटे प्रिज्मों की भाँति कार्य करती हैं। सूर्य के आपतित प्रकाश को ये बूँदें अपवर्तित तथा विक्षेपित करती हैं, तत्पश्चात् इसे आन्तरिक परावर्तित करती हैं, अन्ततः जल की बूँद से बाहर निकलते समय प्रकाश को पुनः अपवर्तित करती हैं। प्रकाश के परिक्षेपण तथा आन्तरिक परावर्तन के कारण विभिन्न वर्ण प्रेक्षक के नेत्रों तक पहुँचते हैं।
यदि सूर्य आपकी पीठ की ओर हो और आप आकाश की ओर धूप वाले किसी दिन किसी जल प्रपात अथवा जल के फव्वारे से देखें तो आप इन्द्रधनुष का दृश्य देख सकते हैं। इन्द्रधनुष में लाल रंग ऊपरी सतह पर तथा बैंगनी रंग निचली सतह पर बनता है।
प्रकाशिक यन्त्र (Optical Instruments) 
प्रकाशिक यन्त्र एक युक्ति (device) है, जो दर्पणों, प्रिज्मों तथा लेन्सों के उपयुक्त संयोग से बनी होती है। एक प्रकाशिक यन्त्र के कार्य करने का सिद्धान्त परावर्तन के नियमों तथा प्रकाश के अपवर्तन पर निर्भर करता है।
लेन्स कैमरा ( Lens Camera)
लेन्स कैमरा एक परिवर्तनीय द्वारक वाला उत्तल लेन्स है, जिसकी सहायता से वस्तु के प्रतिबिम्ब को फोटोग्राफी फिल्म पर फोकस किया जाता है। लेन्स के द्वारक के किसी निश्चित मान के लिए शटर द्वारा फोटोग्राफी फिल्म को एक निश्चित समय के लिए उद्भासित (exposed) करते हैं। लेन्स प्रणाली द्वारा एक फिल्म पर वस्तु का प्रतिबिम्ब वास्तविक व उल्टा होता है।
दूरदर्शी (Telescope)
दूरदर्शी एक ऐसा प्रकाशिक यंत्र है, जिसकी सहायता से आकाशीय पिण्डों (जैसे तारे, ग्रह, आदि) अथवा बहुत अधिक दूरी पर स्थित वस्तुओं को आसानी से स्पष्ट रूप से देखा जाता है।
खगोलीय दूरदर्शी (Astronomical Telescope)
इसमें धातु की एक बेलनाकार नली में दो उत्तल लेन्स लगे होते हैं। इनमें एक लेन्स की फोकस दूरी व द्वारक बड़े होते हैं। यह वस्तु की ओर होता है तथा इसे अभिदृश्यक लेन्स कहते हैं। दूसरे उत्तल लेन्स की फोकस दूरी व द्वारक छोटे होते हैं। यह आँख की ओर होता है तथा इसे अभिनेत्र लेन्स कहते हैं। इसका उपयोग भारी पिण्डों (जैसे तारे, ग्रह, आदि) की आकृति का परीक्षण करने में किया जाता है।
प्रकाशिक यन्त्र की विभेदन क्षमता (Resolving Power of an Optical Instrument) 
किसी प्रकाशिक यन्त्र की दो निकट स्थित वस्तुओं के प्रतिबिम्बों को अलग-अलग करने की क्षमता को उस यन्त्र की विभेदन क्षमता कहते हैं तथा निकट स्थित वस्तुओं के बीच की वह न्यूनतम कोणीय दूरी जिस पर वे वस्तुएँ उस यन्त्र द्वारा अलग-अलग दिखाई देती हैं, यन्त्र की विभेदन सीमा कहलाती हैं। अतः प्रकाशिक यन्त्रों की विभेदन सीमा कम तथा विभेदन क्षमता अधिक होती है।
सूक्ष्मदर्शी की विभेदन क्षमता (Resolving Power of a Microscope) 
दो रेखाओं के बीच की वह न्यूनतम दूरी जिस पर वे ठीक अलग-अलग देखी जा सकती हैं सूक्ष्मदर्शी की विभेदन सीमा (RL) कहलाती है एवं इसके व्युत्क्रम को विभेदन क्षमता (RP) कहते हैं। विभेदन क्षमता निर्भर करती है
(i) तरंगदैर्ध्य पर
(ii) वस्तु एवं अभिदृश्यक के बीच उपस्थित माध्यम के अपवर्तनांक पर
(iii) वस्तु के प्रकाश शंकु के अर्द्ध शीर्ष कोण पर
दूरदर्शी की विभेदन सीमा (Resolving Power of a Telescope) 
दो वस्तुओं के बीच वह न्यूनतम कोणीय अन्तराल जिस पर स्थित इन वस्तुओं के प्रतिबिम्बों को दूरदर्शी में ठीक अलग-अलग प्राप्त किया जा सके, दूरदर्शी की विभेदन सीमा कहलाती है तथा इसके व्युत्क्रम को विभेदन क्षमता कहते हैं।
                                                         विभेदन क्षमता = D/1.22λ
यहाँ, d = दूरदर्शी के अभिदृश्यक का द्वारक (व्यास) है।
अतः दूरदर्शी की विभेदन क्षमता, बड़े द्वारक का अभिदृश्यक प्रयुक्त करके बढ़ाई जा सकती है तथा यह प्रयुक्त प्रकाश की तरंगदैर्ध्य तथा अभिदृश्यक लेन्स के व्यास पर निर्भर करती है।
प्रकाश का व्यतिकरण (Interference of Light)
जब किसी माध्यम में एक ही आवृत्ति की दो तरंगें एक साथ एक ही दिशा में जाती हैं, तो उनके अध्यारोपण से माध्यम के विभिन्न बिन्दुओं पर परिणामी तीव्रता उन तरंगों की अलग-अलग तीव्रताओं के योग से भिन्न होती है। कुछ बिन्दुओं पर परिणामी तरंग की तीव्रता बहुत अधिक तथा कुछ बिन्दुओं पर बहुत कम पाई जाती है। इस घटना को व्यतिकरण (interference) कहते हैं।
जब तरंगें समान कला में मिलती हैं अर्थात् प्रकाश की तीव्रता अधिकतम होती है, तब व्यतिकरण को सम्पोषी व्यतिकरण (constructive interference) कहते हैं। जब तरंगें विपरीत कला में मिलती हैं अर्थात् प्रकाश की तीव्रता न्यूनतम होती है, तब व्यतिकरण को विनाशी व्यतिकरण (destructive interference) कहते हैं। उदाहरण श्वेत प्रकाश में साबुन के बुलबुले एवं पानी पर तेल की पतली फिल्म के दोनों पृष्ठों से परावर्तित तरंगों में व्यतिकरण होने के कारण रंगीन दिखाई देते हैं तथा साबुन के बुलबुलों का रंगीन दिखाई देना प्रकाश के व्यतिकरण के कारण सम्भव है।
प्रकाश का विवर्तन (Diffraction of Light)
जब प्रकाश तरंगें छोटे छिद्र (aperture) या अवरोध के तीक्ष्ण किनारों पर पड़ती हैं, तो प्रकाश ऋजुरेखीय पथ से विचलित हो जाता है अर्थात् किनारों पर आंशिक रूप से मुड़ जाता है। इस प्रकार, प्रकाश का किनारों से मुड़ना प्रकाश का विवर्तन कहलाता है। सुप्रेक्ष्य विवर्तन (appreciable diffraction) होने के लिए विवर्तक वस्तु (diffracting body) का आकार तथा तरंग की तरंगदैर्ध्य समान कोटि के होने चाहिए।
प्रकाश की तरंगदैर्ध्य बहुत छोटी होने के कारण सामान्यतः प्रकाश तरंगों में विवर्तन नहीं होता है तथा अवरोध का आकार प्रकाश की तरंगदैर्ध्य की तुलना में बड़ा होने के कारण विवर्तन उपेक्षणीय होता है, जबकि ध्वनि तरंगों की तरंगदैर्ध्य अधिक होने के कारण दैनिक जीवन में ध्वनि तरंगों का विवर्तन सरलता से हो जाता है। विवर्तन प्रतिरूप में सभी फ्रिन्जों की चौड़ाई समान नहीं होती है।
उदाहरण सूर्य को रेशम के पतले कपड़े में देखने पर उसमें रंगीन धारियाँ दिखाई देती हैं तथा के पथ में सिक्का रखने पर बीच में सफेद धब्बा बन जाता है। दूर स्थित प्रकाश स्रोत
प्रकाश के विवर्तन के गुण (Applications of Diffraction of Light)
प्रकाश के विवर्तन के गुण निम्न प्रकार हैं
(i) उच्च गुणवत्ता के सूक्ष्मदर्शी में विवर्तन के कारण आकृति धुंधली दिखाई देती है।
(ii) इसका उपयोग विवर्तन जाली में किया जाता है, जिसके द्वारा प्रकाश के रंगों को अलग किया जाता है।
◆ व्यतिकरण में, दो कला सम्बद्ध स्रोतों से आने वाली प्रकाश तरंगों के अध्यारोपण से व्यतिकरण होता है, जबकि एक ही तरंगाग्र के विभिन्न बिन्दुओं से आने वाली द्वितीयक तरंगिकाओं के बीच व्यतिकरण से विवर्तन होता है। व्यतिकरण प्रतिरूप में, सभी दीप्त फ्रिन्जों की तीव्रता समान तथा विवर्तन प्रतिरूप में, दीप्त फ्रिन्जों की तीव्रता लगातार घटती रहती है।
प्रकाश में डॉप्लर प्रभाव (Doppler’s Effect in Light)
जब कोई प्रकाश स्रोत किसी प्रेक्षक की ओर आता है, तो प्रेक्षक को प्रकाश की आभासी आवृत्ति बड़ी हुई प्रतीत होती है, जिसके कारण स्पेक्ट्रमी रेखाएँ बैंगनी भाग की ओर विस्थापित हो जाती हैं। इसके विपरीत जब प्रकाश स्रोत प्रेक्षक से दूर जाता है, तो स्पेक्ट्रमी रेखाएँ लाल भाग की ओर विस्थापित हो जाती हैं।
इस प्रकार प्रकाश स्रोत तथा प्रेक्षक की सापेक्ष गति के कारण प्रकाश की आवृत्ति में प्रेक्षित आभासी परिवर्तन को प्रकाश में डॉप्लर प्रभाव कहते हैं। प्रकाश में डॉप्लर प्रभाव के द्वारा ही तारों तथा नक्षत्रों की गति का अनुमान लगाया जाता है।
जब डॉप्लर विस्थापन में आभासी तरंगदैर्ध्य वास्तविक तरंगदैर्ध्य से कम है, तब इस स्थिति में प्रकाश स्रोत के स्पेक्ट्रम में विकिरण बैंगनी सिरे की ओर विस्थापित होता है। अतः इसे बैंगनी विस्थापन (blue shift) कहते हैं। जब डॉप्लर विस्थापन में आभासी तरंगदैर्ध्य वास्तविक आवृत्ति से अधिक है, तब इस स्थिति में प्रकाश स्रोत के स्पेक्ट्रम में विकिरण लाल सिरे की ओर विस्थापित होता है। अतः इसे लाल विस्थापन (red shift) कहते हैं।
डॉप्लर प्रभाव के उपयोग (Uses of Doppler’s Effect)
(i) गतिमान पिण्डों (हवाई जहाज, पनडुब्बी, आदि) राडार, सोनार की चाल ज्ञात करने में।
(ii) तारों एवं गैलेक्सी की चाल ज्ञात करने में ।
(iii) सूर्य की घूर्णन चाल ज्ञात करने में ।
(iv) चिकित्सा विज्ञान में, जैसे- सोनोग्राफी, इकोकॉर्डियोग्राम, आदि।
प्रकाश का ध्रुवण (Polarisation of Light)
सामान्यतः प्रकाश की तरंग में विद्युत वेक्टर के कम्पन तरंग की गति के लम्बवत् तल में प्रत्येक दिशा में सममित (symmetrically) रूप से होते हैं। जब प्रकाश की कोई तरंग टूरमैलीन क्रिस्टल (एक विशेष प्रकार का क्रिस्टल) पर डाली जाती है, तो तरंग के केवल वे कम्पन ही बाहर निकल पाते हैं, जो क्रिस्टल की अक्ष के समान्तर होते हैं। इस प्रकार निर्गत् तरंग में कम्पन तरंग की गति की दिशा के लम्बवत् तल में होते हैं। ऐसी तरंग को समतल ध्रुवित तरंग कहतें हैं और इस घटना को प्रकाश का ध्रुवण कहते हैं ।
किसी तरंग के कम्पनों को तरंग संचरण के लम्बवत् तल में किसी विशिष्ट दिशा में सीमित रखने की परिघटना को ध्रुवण कहते हैं। यह केवल अनुप्रस्थ तरंगों में होता है।
पोलेरॉइड (Polaroids)
पोलेरॉइड समतल- ध्रुवित प्रकाश उत्पन्न करने की एक सरलतम, सुविधाजनक, सस्ती एवं व्यवहारिक आधुनिक विधि है। ये कृत्रिम रूप से बनाये गये ऐसे पदार्थ (synthetic substance) हैं, जो द्विवर्णकता (dichroism) का गुण रखते हैं। कृत्रिम होने के कारण ये बड़े आकार के बनाये जा सकते हैं तथा इनके द्वारा समतल-ध्रुवित प्रकाश के चौड़े पुँज (wide beams) प्राप्त किये जा सकते हैं। प्राकृतिक होने के कारण द्विवर्णिक पदार्थों (dichroic) के आकार छोटे होते हैं और उनसे समतल – ध्रुवित प्रकाश के चौड़े पुँज प्राप्त नहीं किये जा सकते हैं। पोलेरॉइड एक बड़े आकार की फिल्म होती है, जिसे काँच की दो प्लेटों के बीच रखा जाता है।
पोलेरॉइड के अनुप्रयोग (Applications of Polaroid) 
पोलेरॉइडों के दैनिक जीवन में अनेक उपयोग हैं
(i) पोलेरॉइड का एक मुख्य उपयोग प्रकाश की चकाचौंध (glare) से बचने के लिए किया जाता है। चमकीली सतहों, जैसे भीगी सड़कों, पॉलिश की गई मोटरों तथा चिकने व सफेद कागजों से परावर्तित होने वाला प्रकाश आंशिक रूप से समतल-ध्रुवित होता है जिसके कम्पन्न क्षैतिज तल में होते हैं। यह प्रकाश आँख में पहुँचने पर चौंध उत्पन्न करता है। यही कारण है कि यदि किसी पुस्तक का कागज बहुत चिकना तथा सफेद हो, तो पढ़ते समय आँखों में चौंध लगती है। यदि हम ऊर्ध्वाधर कम्पन तल वाले पोलेरॉइड का बना चश्मा पहन लें, तो वस्तुओं से परावर्तित अधिकांश ध्रुवित प्रकाश कट जाएगा तथा हमें चौंध नही लगेगी वस्तुएँ हमें विसरित प्रकाश में दिखाई देती हैं।
(ii) पोलेरॉइडों का उपयोग मोटरकारों में, रात में सामने से आने वाली कार की हैडलाइट (head light) की चौंध से बचने के लिए भी किया जाता है। इसके लिए मोटर चालक के सामने विंड-स्क्रीन (wind screen) पर तथा कार की हैडलाइट के कवर ग्लास पर पोलेरॉइड लगा देते हैं। इन पोलेरॉइडों की अशें ऊर्ध्वाधर से बायीं ओर को 45° के कोण पर झुकी होती हैं। जब पोलेरॉइड लगी दो गाड़ियाँ आमने-सामने से आती हैं, तो एक की हैडलाइट में तथा दूसरी की विंड-स्क्रीन में लगे पोलेरॉइडों की अधें एक-दूसरे से ‘क्रॉसित’ (crossed) हो जाती हैं। अतः एक गाड़ी की हैडलाइट का प्रकाश दूसरी गाड़ी के विंड-स्क्रीन से होकर चालक की आँख में सीधा नहीं पहुँच पाता। परन्तु चालक को अपनी गाड़ी की हैडलाइट से दूसरी गाड़ी पर पड़ने वाले प्रकाश के परावर्तित प्रकाश के कारण आने वाली गाड़ी दिखती रहती है।
(iii) कभी-कभी हम बहुत सूक्ष्म कणों को सूक्ष्मदर्शी की सहायता से चकाचौंध के कारण ठीक-ठीक नहीं देख सकते, ऐसी स्थिति में पोलेरॉइड लगे सूक्ष्मदर्शी काम में लाते हैं।
(iv) फोटो- कैमरे के लेन्स के आगे पोलेरॉइड लगाकर बादलों के स्पष्ट फोटों खींचे जा सकते हैं। सामान्यतः स्वच्छ आकाश में इतना अधिक प्रकीर्णित (scattered) प्रकाश आता है कि केवल बादलों से परावर्तित प्रकाश द्वारा बादलों का स्पष्ट फोटो नही आ पाता है। चूँकि प्रकीर्णित प्रकाश आंशिक रूप से ध्रुवित होता है, अतः पोलेरॉइड लगे कैमरे से फोटो लेने में इसका अधिकांश भाग पोलेरॉइड द्वारा कट जाता है, जबकि बादलों से आने वाला प्रकाश अध्रुवित होने के कारण कैमरे में प्रवेश कर जाता है। इस प्रकार पृष्ठभूमि (background) काफी काली हो जाती है, जिसमें श्वेत बादलों का स्पष्ट चित्र आ जाता है।
(v) पोलेरॉइडों का उपयोग वायुयान तथा ट्रेन में प्रवेश करने वाले प्रकाश की तीव्रता को नियन्त्रित करने में भी किया जाता है। इसके लिए एक पोलेरॉइड खिड़की के बाहर तथा दूसरा अन्दर लगा देते हैं तथा अन्दर वाले पोलेरॉइड को घुमाया जा सकता है। अन्दर के पोलेरॉइड को घुमाकर अन्दर आने वाले प्रकाश की तीव्रता को परिवर्तित किया जा सकता है।
(vi) पोलेरॉइड द्वारा तीन विमाओं वाले चित्रों (three-dimensional pictures) को देखा जा सकता है।
(vii) पोलेरॉइडों का उपयोग धातुओं के प्रकाशीय गुणों का अध्ययन करने तथा क्रिस्टलों का विश्लेषण करने में भी होता है।
(viii) प्रकाश के ध्रुवण के कारण कैलकुलेटर तथा घड़ियों में अक्षर या संख्याएँ द्रव्य क्रिस्टलीय आकार में होते हैं।
(ix) CD प्लेयर में ध्रुवण लेसर किरण सुईं की भाँति कार्य करता है, जोकि डिजिटल के रूप में आवाज को बदलता है।
(x) जहाँ चुम्बकीय कम्पास कार्य नहीं करती वहाँ पर यह सुईं के प्रकाश का ध्रुवण करके सोलर कम्पास का कार्य करता है।
(xi) इसके द्वारा ध्रुवण कोण ज्ञात किया जाता है तथा ब्रुस्टर नियम व पारदर्शी-अंधेरे का अपवर्तनांक ज्ञात किया जाता है।
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