व्यावसायिक विकास, व्यावसायिक इथीक्स, शिक्षा इथीक्स पर टिप्पणी लिखिये।
व्यावसायिक विकास, व्यावसायिक इथीक्स, शिक्षा इथीक्स पर टिप्पणी लिखिये।
उत्तर— शिक्षक के वृत्तिक (व्यावसायिक ) विकास का अर्थ– यह सत्य है कि मानव के ज्ञान में दिन-प्रतिदिन तेजी से वृद्धि हो रही है। ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में नए-नए सिद्धान्तों, नियमों, प्रवृत्तियों एवं विचारों का समावेश हो रहा है। एक बार प्राप्त ज्ञान कुछ दिनों बाद क्षीण एवं पुराना हो जाता है। अध्यापक का उद्देश्य जीवन-पर्यन्त सीखना होना चाहिए। यदि अध्यापक अधिगम में विराम लेता है तो शिक्षक का पतन हो जाता है।
किसी भी विद्यालय का विकास एवं गुणवत्ता शिक्षकों की कार्यकुशलता पर निर्भर होती है। आज संसार के सभी क्षेत्रों में विकास तथा प्रगति हो रही है और नए-नए आयामों का उपयोग किया जा रहा है। इससे हमारी शिक्षण प्रक्रिया भी प्रभावित हुई है।
शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में भी नए-नए प्रयोग तथा नए-नए आयाम विकसित हुए हैं जिससे शिक्षण की कुशलता एवं सक्षमता का विकास होता है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि शिक्षकों के वृत्तिक विकास के लिए व्यवसाय से सम्बन्धित निरन्तर जानकारी प्रदान की जाए एवं व्यावसायिक गुणों तथा कौशलों में सुधार एवं विकास किया जाए। शिक्षक को शिक्षण व्यवसाय में प्रवेश करने के पश्चात् उनके लगातार विकास के लिए उचित अनुदेशन को सुनिश्चित ढंग से दिया जाए। अतः जब शिक्षक को अध्यापन कार्य के दौरान व्यावसायिक कौशलों एवं नई तकनीकी आदि का ज्ञान प्रदान किया जाता है, उसे वृत्तिक विकास की संज्ञा दी जाती है।
एम. बी. बुच ने शिक्षक के वृत्तिक विकास को एक क्रमबद्ध योजना कहा है जिसका उद्देश्य बालक के निरन्तर विकास से है। इसमें शिक्षक का स्वयं शैक्षिक विकास किया जाता है। वृत्तिक विकास के द्वारा उन क्रियाओं या गुणों का विकास किया जाता है जिसके द्वारा व्यावसायिक सदस्यों में नयी चेतना विकास, बोध एवं सहयोग की क्रियाओं का विकास होता है जिससे कि वे अपने अन्दर हर संभव सुधार एवं विकास कर सके ।
शिक्षक के वृत्तिक विकास के विषय में श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर के अनुसार, “एक अध्यापक सच्चे अर्थों में तब तक अध्यापन कार्य नहीं कर सकता जब तक कि वह स्वयं अध्ययन नहीं करता है, एक दीपक दूसरे दीपक को तब तक प्रज्ज्वलित नहीं कर सकता जब तक कि वह स्वयं जलना जारी न रखे। ऐसा अध्यापक जो अपने ज्ञान क्षेत्र के शीर्ष पर होता है, वह अपने दिमाग में ज्ञान का समावेश तभी कर सकता है. जब तक कि वह अपने छात्रों के लिए अध्ययन करे। सत्य हमें केवल सूचना नहीं प्रदान करते बल्कि प्रेरणा भी प्रदान करते हैं। “
केन के अनुसार, “वे समस्त क्रियाएँ एवं पाठ्यक्रम जिनका उद्देश्य सेवारत अध्यापक के व्यावसायिक गुणों को स्थायी करना तथा उनमें इच्छा शक्ति एवं कौशलों का विकास करना होता है । वृत्तिक विकास के प्रत्यय में आता है। “
व्यावसायिक इथीक्स– किसी भी व्यवसाय तथा वृत्ति की प्रतिष्ठा, गौरव तथा मान-सम्मान बहुत सीमा तक इस बात पर निर्भर रहता है कि उस व्यवसाय में कार्यरत व्यक्ति व्यवसाय के उत्तरदायित्वों के प्रति कितने जागरूक हैं तथा अपने कर्त्तव्य पालन में कितनी निष्ठा रखते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इसका विशेष महत्त्व बढ़ जाता है ।
माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952-53 के शब्दों में, “वे अपने कार्य को जीविकोपार्जन का अरुचिकर साधन नहीं समझेंगे, वरन् उसे समाज-सेवा करने का एक महत्त्वपूर्ण मार्ग समझेंगे, साथ ही उसे आत्मसिद्धि एवं आत्माभिव्यक्ति का उपाय समझेंगे।”
(1) वृत्तिक आचार संहिता– जिस प्रकार से आचार संहित की परम्परा चली आयी है, उसी प्रकार प्रत्येक वृत्ति के साथ एक आचार संहिता होती है। यह आचार संहिता उस वृत्तिक के एसोसिएशन द्वारा निर्धारित होती है।
(2) सामाजिक प्रतिबद्धता– सामाजिक प्रतिबद्धता का तथ्य भी वृत्ति के साथ संलग्न है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पेशे या वृत्ति से जुड़े समाज एवं ग्राहकों के प्रति आवश्यक रूप से प्रतिबद्ध होंगे।
(3) वृत्तिक का समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति से सम्बद्ध होना — वृत्ति का मुख्य उद्देश्य (Motto) व्यक्तिगत तथा सामाजिक आवश्यकता को पूर्ण करना है, जिसे सामाजिक महत्ता प्राप्त होती है।
(4) एक वृत्तिक संघ होना– प्रत्येक व्यवसाय में एक व्यावसायिक संघ (Professional Association) का पाया जाना आवश्यक-सा हो गया हैं। यह एसोसिएशन सम्बन्धित वृत्तिक के नियमन एवं विकास का कार्य देखता है।
(5) अपनी सेवार्थ उचित शुल्क लेने का अधिकार– वृत्तिक अपनी सेवा के बदलते समाज से स्वयं निर्धारित अपना शुल्क वसूल करते हैं ।
(6) दीर्घकालीन शिक्षा प्रशिक्षण और कार्यानुभव का समय लम्बा होना– व्यक्ति को किसी भी व्यवसाय को अंगीकार करने हेतु शिक्षण की लम्बी प्रणाली से गुजरना पड़ता है। इसमें विशिष्ट ज्ञान और उसे प्रयोग करने का कौशल (Skills) प्राप्त करना होता है। इसी के बाद उसे व्यवसाय में कार्य करने की अनुमति मिलती है ।
व्यवसाय सम्बन्धी मापदण्ड तथा आचार संहिता–सुधारात्मक तत्त्व—
(a) प्राइवेट ट्यूशन– किसी भी प्रकार के छात्रों को मजबूर न करे कि वे उसकी ट्यूशन रखें।
(b) साथियों के साथ बर्ताव– (1) छात्रों के सम्मुख किसी भी कर्मचारी की निन्दा न करे। (2) अपने साथियों को सदा उचित सम्मान दे।
(c) परीक्षा सम्बन्धी आचार संहिता– (1) उत्तर पुस्तिकाएँ जाँचते समय किसी भी छात्र छात्रा से पक्षपात न करे । (2) उत्तर पुस्तिकाओं की पूरी जाँच करे। (3) परीक्षा पत्र में पूर्ण गोपनीयता बरते।
(d) छात्रों से व्यवहार– (1) जाति-पाँति आदि पर ध्यान न दे। (2) सभी छात्रों से एक जैसा व्यवहार करे । (d)
(e) सामान्य आचार संहिता– (1) छात्रों को निजी कार्य करने के लिए बाध्य न करना । (2) छात्रों के सम्मुख तम्बाकू आदि का सेवन न करना ।
(f) व्यावसायिक अभिवृद्धि–(1) व्यावसायिक साहित्य का अध्ययन करे। (2) व्यावसायिक अभिवृद्धि के लिए शैक्षिक गोष्ठियों तथा कर्मशालाओं में सक्रिय भाग ले।
(g) कक्षा अध्यापन– (1) अध्यापक नियमित तौर पर स्कूल में आये। (2) शिक्षण अधिगम को प्रभावी बनाये। (3) दत्त कार्य दे तथा उनकी सम्पूर्ण रूप से जाँच करे। (4) कक्षा में पूरा समय शिक्षण अधिगम कार्य करे। (5) कक्षा में समय पर आये।
(h) छात्र निधि का उपयोग– नियमानुसार छात्र निधि का उपयोग किया जाए।
(i) प्रकाशकों से सम्बन्ध (1) प्रकाशकों से केवल व्यावसायिक सम्बन्ध ही रखे। (2) छात्रों को निजी स्वार्थ वश पुस्तकें खरीदने के लिए बाध्य न करे।
शिक्षण, आचार संहिता या शिक्षण की नैतिकता– शिक्षण नैतिकता का क्षेत्र बहुत फैला हुआ है। यह उतना ही विस्तृत है जितना कि मानव जीवन । यह विशिष्ट रूप से इसमें रुचि रखता है कि आचरण के तर्कपूर्ण एवं प्रकाशमय प्रतिमानों को बिना मानव की स्वतंत्रता एवं प्रतिष्ठा पर प्रभाव डाले हुए प्रदान करे। शिक्षण की वृत्ति के सम्बन्ध में नैतिकता शिक्षक के आदर्श व्यक्तित्व से लेकर शिक्षक की इच्छाओं, कामनाओं, लालसाओं तक, उसकी सामाजिक कल्याण भूमिका तक तथा विद्यार्थियों की व्यक्तिगत प्रगति एवं उनको आदर्श आवरण के लिये प्रोत्साहन देने तक होती है।
नैतिकता का एक पक्ष दर्शनशास्त्र में जड़वत् है। यह सम्बन्धित है अन्तिम अच्छाई या क्या सही या गलत है, क्या सदाचार या दुराचार है, के निर्धारण से। इन धारणाओं के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण हैं। नैतिकशास्त्र इन विभिन्न दृष्टिकोणों का अध्ययन इनके सही अर्थों का निर्धारण करने के लिये करता है। नैतिकशास्त्र व्यक्तियों के उत्तरदायित्वों एवं कर्त्तव्यों की परिभाषा देने की भी चेष्टा करता है। यह शिक्षकों की भूमिका को स्पष्ट करता है और उनके अधिकारों और कर्त्तव्यों की व्याख्या करता है। वह शिक्षकों के सदाचार में क्या निहित है और उनके दुराचार से क्या तात्पर्य है, इसको भी परिभाषित करता है।
नैतिकता का एक पक्ष सामाजिक नैतिकता का है। सामाजिक नैतिकता रीति-रिवाज, परम्परा इत्यादि पर होती है जो समाज में छाये होते हैं। बिना इन सामाजिक रीतियों को जाने हुए न तो हम उस समाज के चरित्र को पहचान सकते हैं न यह निर्णय कर सकते हैं कि किस सीमा तक वह समाज न्यायपूर्ण है। शिक्षकों की वृत्तिक नैतिकता के सन्दर्भ में यह पक्ष स्पष्ट करता है कि एक शिक्षक के वृत्तिक आचरण का सम्बन्ध समाज के आदर्शों, मूल्यों, नैतिकता से है। भारतीय समाज में गुरु का बहुत आदर किया जाता है और परम्परा यह है कि उसकी पूजा तक की जाती है। अतएव उससे ऊँचे आचरण और व्यवहार की आशा की जाती है।
शिक्षक नैतिक चेतना का मनोविज्ञान है। आदर्श आचरण के निर्धारण के लिये इच्छा, कामना, स्वतंत्रता इत्यादि के मनोविज्ञान को समझना चाहिये क्योंकि यह आचरण शिक्षण के अंश हैं और बिना इनकी पूरी प्रकृति को जाने हुए हम आदर्श आचरण के प्रतिमान को नहीं बना सकते।
नैतिकता एक विस्तृत क्षेत्र में फैली होती है। यह जीवन के प्रत्येक में आदर्श आचरण करने पर बल देती है।
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