सामाजिक विकास का अर्थ व महत्त्व स्पष्ट कीजिए एवं सामाजिक संरचनात्मक अधिगम सिद्धान्त का वर्णन कीजिए ।

सामाजिक विकास का अर्थ व महत्त्व स्पष्ट कीजिए एवं सामाजिक संरचनात्मक अधिगम सिद्धान्त का वर्णन कीजिए । 

उत्तर— सामाजिक विकास—मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । उसके जन्म की कल्पना समाज के बाहर नहीं की जा है । जन्म के पश्चात् बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया हो जाती है। समाजीकरण के फलस्वरूप बालक के व्यवहारों में उत्पन्न परिवर्तनों को ही बालक का सामाजिक विकास कहा जाता है।

सामाजिक विकास का अर्थ – सामाजिक विकास की व्याख्या करते हुए सोरेन्सन ने लिखा है, “सामाजिक अभिवृद्धि और विकास से हमारा तात्पर्य अपने साथ और दूसरों के साथ भली प्रकार चले चलने की बढ़ती हुई योग्यता से है । “
व्यक्ति की रुचि, अभिवृत्तियों, आदतों और आचार-व्यवहार में प्रौढ़ता प्राप्त करना भी सामाजिक विकास के अन्तर्गत आता है। आयु के साथ व्यक्ति के व्यक्तित्व के गुणों में परिवर्तन होते हैं । इस प्रकार के परिवर्तन व्यक्ति को वातावरण के साथ अभियोजन स्थापित करने में सहायक होते हैं और इस प्रकार व्यक्ति अपने समाज में रहकर सुव्यवस्थित जीवनयापन करने में समर्थ होता है । फ्रांसिस एफ. पावर्स ने सामाजिक विकास को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि -“सामाजिक दाय को स्थान में रखकर व्यक्ति के निर्देशिक क्रियाओं द्वारा उत्तरोत्तर विकास और सामाजिक दाय के अनुरूप लचीले आचरण प्रतिमान का निर्माण ही सामाजिक विकास है।”
उपर्युक्त परिभाषा में व्यक्ति के निरन्तर विकास पर बल दिया गया है। इस विकास के आधार पर व्यक्ति भविष्य में आने वाली परिस्थितियों के साथ समायोजन स्थापित करने में सफल होता है। व्यक्ति को अपने समाज के रीतिरिवाज एवं परम्पराओं से भी परिचित होना आवश्यक है। इन परम्पराओं के अनुसार ही व्यक्ति को अपना आचरण निर्धारित करना होता है। इस प्रकार व्यक्ति का सामाजिक विकास एक सतत प्रक्रिया है। सामाजिक विकास की इस विशेषता के बारे में सारे व टेलफोर्ड ने लिखा है-“सामाजीकरण की प्रक्रिया शिशु के दूसरे व्यक्तियों के साथ प्रथम सम्पर्क में अपने पर आरम्भ होती है और आजीवन चलती है। ” सामाजिक दृष्टि से परिपक्व व्यक्ति में सामाजिक विकास सामाजिक प्रौढ़ता का द्योतक है।
सामाजिक विकास का महत्त्व – सामाजिक व्यवहार के विकासक्रम में बच्चा सबसे पहले प्रौढ़ों तब अन्य बालकों और अन्त में खिलौनों के प्रति रुचि प्रदर्शित करता है। लगभग छठे महीने में कपड़ों, खिलौनों, और हावभाव को देखकर प्रसन्न होता है। तेरह-चौदह महीने की आयु में दो बच्चों में खिलौने के लिए छीना-झपटी भी देखने को मिलती है। परन्तु अठारह महीने में इस प्रकार का द्वन्द्व कम हो जाता है और परस्पर सहयोग के साथ खेलने की विशेषता दिखलाई पड़ने लगती है। परन्तु इसके बावजूद भी बच्चा बचपनावस्था में मुख्यतः स्वप्रेमी और स्वकेन्द्रित होता है । वह सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है और सारी वस्तुओं पर अपना अधिकार समझता है । एक वर्ष के बाद तो बालकों के भीतर आज्ञाओं के विपरीत कार्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है । तेरह – चौदह महीने का बच्चा मना करने के बाबजूद भी कुछ काम कर बैठता है, जैसे किसी वस्तु को छूना या कागज आदि फाड़ना । ऐसी आज्ञाओं का उल्लंघन वे प्रायः मुस्कराते और खिलखिलाते हुए ही करते हैं। दो वर्ष समाप्त होने पर बच्चों के भीतर अधिक सन्तुलन आ जाता है और वे सयानों के अधिकांश कार्यों में सहयोग देने लगते हैं। इस अवस्था में जहाँ बालकों में द्वन्द्व, स्पर्धा और आक्रामकता की भावनाएँ देखने को मिलती है वहीं उनको भीतर सहयोग और सहानुभूति के भाव भी जागृत होते हैं।
सामाजिक रचनात्मकतावादी अधिगम सिद्धान्त—
सामाजिक रचनात्मकतावादी सिद्धान्त इस बात की समझ में, कि समुदाय में क्या अनुभव किया गया है तथा इस समझ के आधार पर अर्जित ज्ञान में, संस्कृति के महत्त्व पर काफी बल देता है। सामाजिक रचनात्मकतावादी चिन्तन के तीन मुख्य पहलू हैं। ये हैं—
(1) वास्तविकता – इस सिद्धान्त के अनुसार, वास्तविकता की रचना मानव व समाज की आपसी गतिविधियों द्वारा होती है। समुदाय के सदस्य विश्वके उन गुणों को उत्पन्न करते हैं जिनका वह आदान-प्रदान करते हैं तथा जिनको वह एक आपसी सहमति द्वारा समझते हैं। वास्तविकता ऐसी वस्तु है जिसका निर्माण व्यक्ति स्वयं करता है । यह ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो पहले से ही मौजूद हो या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दी गई हो क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी वास्तविकता की रचना, स्वयं करता है और यह आवश्यक नहीं है कि उसकी वास्तविकता दूसरों की वास्तविकता के समरूप ही हो ।
(2)  ज्ञान – इस सिद्धान्त के अनुसार, ज्ञान का सृजन मानव द्वारा किया गया है तथा इसकी रचना सामाजिक तथा सांस्कृतिक साधनों द्वारा की गई है। ज्ञान के अर्थों व समझ की रचना व्यक्ति द्वारा सामाजिक, अंतःक्रियाओं व अपने वातावरण के साथ अंतः क्रियाओं द्वारा की जाती है। किसी एक व्यक्ति का ज्ञान दूसरों के ज्ञान से भिन्न हो सकता है।
(3) अधिगम – अधिगम एक सामाजिक प्रक्रिया है। व्यक्ति, प्रभावशाली व चिरस्थायी अधिगम केवल तभी प्राप्त करता है जब वह विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के साथ सामाजिक क्रियाओं में संलग्न होता है या जब नई इन्द्रिय अदाओं को मौजूदा ज्ञान व समक्ष के साथ सम्बन्धित किया जाता है।
                                                        अधिगम प्रक्रिया की प्रकृति
रचनात्मकतावाद अधिगम का एक नया सिद्धान्त है जो अधिगम प्रक्रिया की प्रकृति के आधार पर ज्ञान की उत्पत्ति पर आधारित है।
(1) विलक्षण व्यक्ति के रूप में अधिगमकर्त्ता – इस सिद्धान्त के अनुसार, प्रत्येक अधिगमकर्त्ता विलक्षण है उसकी आवश्यकताएँ व पृष्ठभूमियाँ भी दूसरों से भिन्न हैं। अधिगमकर्त्ता को जटिल व बहुआयामी भी माना जाता है। सामाजिक रचनात्मकतावाद, अधिगमकर्ता को विलक्षणता व जटिलता को न केवल स्वीकार करता है बल्कि अधिगम-प्रक्रिया के अभिन्न अंग के रूप में से स्वीकार करता है, इसका उपयोग करता है तथा इसे पुरस्कृत भी करता है ।
(2) अधिगमकर्त्ता की पृष्ठभूमि व संस्कृति – अधिगमकर्त्ता को ऐतिहासिक विकास व विभिन्न प्रकार की चिह्न – प्रणालियों जैसे कि भाषा, तर्क तथा गणित प्रणाली आदि का ज्ञान किसी विशेष संस्कृति के सदस्य के रूप में विरासत में मिलता है तथा वह इनका अधिगम जीवन पर करता रहता है। यह अधिगमकर्त्ता की समाज के सदस्यों के साथ अंतःक्रियाओं की प्रकृति पर भी बल देता है। छोटे बच्चे अपनी विचारशक्ति का विकास अन्य बच्चों, व्यस्कों तथा भौतिक जगत से अंतःक्रिया करके करते हैं। इसलिए सम्पूर्ण अधिगम-प्रक्रिया में अधिगमकर्त्ता की पृष्ठभूमि व संस्कृति पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि यह पृष्ठभूमि संस्कृति उस ज्ञान व तथ्य को आकार देने में मदद करती है जो अधिगमकर्त्ता-अधिगम-प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न करता है, या प्राप्त करता है।
(3) अधिगमकर्त्ता की सहभागिता – यह सिद्धान्त अधिगमप्रक्रिया में अधिगमकर्त्ता की क्रियाशील भागीदारी के महत्त्व पर बल देता है। यह इस बात पर बल देता है कि अधिगमकर्त्ता अपनी समझ की रचना स्वयं करते हैं और वे किसी पढ़ी हुई या सुनी हुई बात पर ज्यों का त्यों विश्वास नहीं कर लेते। वे इसके अर्थों के बारे में जाँच-पड़ताल करते हैं तथा पूरी जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
(4) अधिगम के लिए अभिप्रेरणा – अधिगमकर्त्ता की प्रकृति के संबंध में एक अन्य मान्यता अधिगम के लिए प्रेरणा के स्रोतव स्तर से सम्बन्धित है। प्रेरणा प्रदान करने से अधिगमकर्त्ता में अपने अधिगम के लिए आत्म-विश्वास का संचार किया जा सकता है।
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