शिक्षण अधिगम स्थितियों में शिक्षक की क्या भूमिका है ? विस्तार से वर्णन कीजिए।

शिक्षण अधिगम स्थितियों में शिक्षक की क्या भूमिका है ? विस्तार से वर्णन कीजिए। 

उत्तर— शिक्षण अधिगम स्थितियों में शिक्षक की भूमिका’ज्ञान – निर्माण’ के रूप में अधिगम को ‘सृजनात्मकवादी’ दृष्टिकोण माना जाता है। सृजनात्मक ज्ञान का सिद्धान्त यह तर्क देता है कि मनुष्य ज्ञान तथा इसके अर्थ का सृजन अपने अनुभवों तथा निजी विचारों के पारस्परिक संयोग द्वारा करता है। बाल्यावस्था के दौरान, उसके निजी अनुभवों एवं प्रतिक्रियाओं के मध्य यह संयोग होता है। प्याजे ने ज्ञान को इन प्रणालियों को सकीमाटा कहा है। सृजनात्मकता कोई विशेष शिक्षाशास्त्र नहीं है, अपितु इसे गलती से सृजनावाद मान लिया जाता है, जो शीमू पेपर्ट द्वारा विकसित एक शैक्षिक सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त प्याजे के सृजनावादी तथा अनुभवी शिक्षण विचारों से प्रभावित है। प्याजे के इस सिद्धान्त ने शिक्षा में शिक्षा सिद्धान्तों तथा अध्ययन विधियों को व्यापक रूप से प्रभावित किया। यह सिद्धान्त अनेक शिक्षा सुधार लहरों (गन्तव्य) का समर्थक है। सृजनात्मकवादी अध्यापन तकनीकों ने सम्बन्धी शोध में मिश्रित परिणाम प्रदान किए हैं। अनेक अनुसंधानों ने इस तकनीकों ने सम्बन्धी शोध में मिश्रित परिणाम प्रदान किए हैं। अनेक अनुसंधानों ने इन तकनीकों को उचित बताया है जबकि अन्य कुछ शोध कार्यों में इन परिणामों के प्रति विरोध भी व्यक्त किया है।

अधिगम के सृजनात्मकवादी सिद्धान्त को जीन प्याजे की देन माना जाता है। इसने उन प्रक्रियाओं को स्पष्ट किया जिनके द्वारा शिक्षार्थी ज्ञान प्राप्त करते हैं। उसने यह सुझाव दिया कि समायोजन तथा आत्मसात की प्रक्रियाओं द्वारा, व्यक्ति निजी अनुभव के आधार पर नवीन ज्ञान का निर्माण करते हैं। जब व्यक्ति समायोजन स्थापित करते हैं तो पूर्वतः उपलब्ध रूप-रेखा में नवीन अनुभवों को शामिल कर लेते हैं परन्तु इस रूप-रेखा में कोई परिवर्तन नहीं करते। ऐसा उस समय होता है जब व्यक्ति के अनुभव दुनिया के प्रति उसके दृष्टिकोण में कोई ममता नहीं होती तब वे अपने दृष्टिकोण को आवश्यकतानुसार परिवर्तित कर लेते हैं।

अधिगम के सृजनात्मकवादी सिद्धान्त को जीन प्याजे की देन माना जाता है। इसने उन प्रक्रियाओं को स्पष्ट किया जिनके द्वारा शिक्षार्थी ज्ञान प्राप्त करते हैं। उसने यह सुझाव दिया कि समायोजन तथा आत्मसात की प्रक्रियाओं समायोजन स्थापित करते हैं तो पूर्वत: उपलब्ध रूप-रेखा में नवीन अनुभवों को शामिल कर लेते हैं परन्तु इस रूप-रेखा में कोई परिवर्तन नहीं करते। ऐसा उस समय होता है जब व्यक्ति के अनुभव दुनिया के प्रति उसके दृष्टिकोण में कोई समता नहीं होती तब वे अपने दृष्टिकोण को आवश्यकतानुसार परिवर्तित कर लेते हैं ।

इस सिद्धान्त के अनुसार समायोजन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति नवीन अनुभवों द्वारा दुनिया के निजी दृष्टिकोण का निर्माण करता है। समायोजन वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अपनी असफलताओं से शिक्षा प्राप्त करता है। जब हम यह अपेक्षा या आशा करते हैं कि बाह्य जगत में इन परिस्थितियों में यह होगा, परन्तु हमारी आशाएँ सही सिद्ध नहीं होती तब हम असफल हो जाते हैं। परन्तु इस अनुभव से समायोजन स्थापित कर दुनिया के प्रति नवीन दृष्टिकोण का निर्माण किया जा सकता है। इस प्रकार सामंजस्य हम अपनी त्रुटियों तथा अन्य की गलतियों द्वारा कोई न कोई शिक्षा ग्रहण करते हैं।

यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि रचनावाद कोई विशेष शिक्षा शास्त्र नहीं । वास्तव में रचनात्मक एक ऐसा सिद्धान्त है जो इस तथ्य की व्याख्या करता है कि अधिगम किस प्रकार घटित होता है। यह सिद्धान्त सुझाव देता है कि शिक्षार्थी कुछ प्रक्रियाओं के बोध हेतु निजी अनुभवों का उपयोग करते हैं। परन्तु रचनात्मक ऐसी शिक्षा शास्त्रीय क्षमताओं से सम्बन्धित है जो सक्रिय अधिगम करती है।
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