साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर नेहरू के विचार की विवेचना कीजिए |

साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर नेहरू के विचार की विवेचना कीजिए |

(66वीं BPSC/2021 )
अथवा
धर्म और साम्प्रदाय के प्रति नेहरू के निजी विचारों को संदर्भ सहित उद्घाटित करें।
अथवा
साम्प्रदायिकता को नेहरू एक राजनीतिक उपज मानते थे, इसका उल्लेख करें ।
अथवा
प्रधानमंत्रीत्व काल में साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता को लेकर दिए गए नेहरू के वक्तव्यों का समालोचनात्मक विश्लेषण करें।
अथवा
नेहरू धर्म एवं सम्प्रदाय से ऊपर ‘राष्ट्रीय एकता’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ को मानते थे, इसका उद्घाटन करें।
उत्तर– धर्मनिरपेक्षता का आशय सभी धर्मों की समानता एवं धार्मिक सहिष्णुता है। राज्य के सन्दर्भ में इसका अर्थ यह है कि भारत में कोई औपचारिक सरकारी धर्म नहीं है। सरकार किसी धर्म का पक्ष नहीं ले सकती न ही किसी धर्म के विरूद्ध भेदभाव कर सकती है। व्यक्ति के संदर्भ में इसका अर्थ सर्वधर्म समभाव है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का संवैधानिक अधिकार है। भारत की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए आधुनिक भारत के शिल्पीकार कहे जाने वाले देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू न केवल राष्ट्रवादी और युगद्रष्टा थे बल्कि जनवादी सोच वाले एक नेता भी थे जिन्होंने स्वतंत्र भारत में धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ समतामूलक विकास की नींव रखी थी।
धर्मनिरपेक्षता पर नेहरू के विचार: पंडित जवाहर लाल नेहरू ऐसा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र चाहते थे जो सभी धर्मों की हिफाजत करे, अन्य धर्मों की कीमत पर किसी एक धर्म की तरफदारी न करे और शासक किसी धर्म को राज्यधर्म के तौर पर स्वीकार न करे। नेहरू भारतीय धर्मनिरपेक्षता के सूत्रधार थे। नेहरू स्वयं किसी धर्म का अनुसरण नहीं करते थे। यहां
गौर करने वाली बात है कि ईश्वर में उनका विश्वास नहीं था, लेकिन उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब किसी धर्म के प्रति विद्वेष भी नहीं था। साथ ही वे धर्म और राज्य के बीच पूर्ण संबंध विच्छेद के पक्ष में भी नहीं थे। उनके विचार के अनुसार, समाज में सुधार के लिए एक धर्मनिरपेक्ष राज्यसत्ता धर्म के मामले में हस्तक्षेप कर सकती है। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता को समझने से पहले हमें उनके निजी विचारों को समझना होगा।
1933 में जवाहर लाल नेहरू ने महात्मा गांधी को एक पत्र में लिखा था- “जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई है धर्म के प्रति मेरी नजदीकी कम होती गई है । ” इसके कुछ साल बाद 1936 में नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा- “संगठित धर्म के प्रति हमेशा मैंने दहशत ही महसूस की है। मेरे लिए हमेशा इसका मतलब अंधविश्वास, पुरातनपंथ, रूढ़िवादिता और शोषण से रहा है, जहाँ तर्क और औचित्य के लिए कोई जगह नहीं है । “
लोकतंत्र में धर्म के प्रति नेहरू की सोच की पहली अग्नि परीक्षा देश के प्रथम प्रधानमंत्री बनने के बाद 1951 में हुई, जब तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू की इच्छा के खिलाफ गुजरात में सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार समारोह में शामिल होकर शिवमूर्ति के उद्घाटन करने का फैसला किया। दूसरी तरफ ‘हिंदू कोड बिल’ को लेकर राजेंद्र प्रसाद के रवैये से नेहरू बहुत परेशान थे। अपने दोस्त एनजी अयंगर को उन्होंने 22 सितंबर, 1951 के दिन चिट्ठी लिखी, “मुझे बहुत अफसोस है कि राष्ट्रपति अपनी मंत्रिपरिषद से ज्यादा अपने ज्योतिषियों पर विश्वास करते हैं। लेकिन मैं इन ज्योतिषियों के सामने समर्पण नहीं करूंगा।” धर्म के प्रति नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के परस्पर विरोधी विचारों की झलक तब अक्सर देखने को मिलती रहती थी। इसी कड़ी में राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू ने (1952 में) काशी जाकर जब कुछ पंडों (पंडितों) के पाँव धोए तो इस प्रकरण को लेकर नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को उनके इस कृत्य पर नाराजगी भरा पत्र लिखकर अपना विरोध जताते हुए सलाह दिया कि देश के राष्ट्रपति को ऐसे कृत्यों से दूर ही रहना चाहिए। मुझे डर है कि यह एक नजीर न बन जाए।
साम्प्रदायिकता पर नेहरू के विचार: “मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना…” साम्प्रदायिकता तब जन्म लेती है जब एक धर्म के लोग अपने धर्म के प्रति अत्यधिक प्रेम तथा दूसरे धर्मों के विरूद्ध घृणा करने लगते हैं। इस तरह की भावना धार्मिक कट्टरता और धर्मान्धता के लिए खतरा साबित होती है। नेहरु को सांप्रदायिक राजनीति से बहुत चिढ़ थी। इसलिए शुरूआती दौर से ही नेहरू देश में विज्ञान एवं तकनीक के प्रचार-प्रसार पर विशेष बल देने लगे, ताकि बुद्धिवादी लोग और धर्मनिरपेक्ष शक्तियां मजबूती प्राप्त कर सकें। लेकिन 1949 में ही नेहरू के सामने सांप्रदायिक राजनीति ने सिर उठाना शुरु कर दिया था। अयोध्या में प्रशासन की मिलीभगत से राम– मूर्ति रखने के बाद उत्पन्न हालात को देखते हुए नेहरू ने पत्रकार एवं समाजिक चिंतक के. जी. मशरूवाला को पत्र में लिखा था- “मैं देखता हूं कि जो लोग कभी कांग्रेस के स्तंभ हुआ करते थे, आज सांप्रदायिकता ने उनके दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया है। यह एक किस्म का लकवा है, जिसमें मरीज को पता तक नहीं चलता कि वह लकवाग्रस्त है। मस्जिद और मंदिर के मामले में जो कुछ भी अयोध्या में हुआ, वह बहुत बुरा है। लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि यह सब चीजें हुई और हमारे अपने लोगों की मंजूरी से हुई और वे लगातार यह काम कर रहे हैं । ” – जवाहरलाल नेहरू ( 17 अप्रैल, 1950)I सांप्रदायिकता को लेकर नेहरू एक अन्य पत्र में लिखते हैं- “ मैं इस बारे में बिल्कुल आश्वस्त हूं कि अगर हमने अपनी तरफ से उचित व्यवहार किया होता तो पाकिस्तान से निपटना आसान हो गया होता। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है तो आज बहुत से कांग्रेसी भी सांप्रदायिक हो गए हैं। इसकी प्रतिक्रिया भारत में मुसलमानों के प्रति उनके व्यवहार में दिखती है। मुझे समझ नहीं आ रहा कि देश में बेहतर वातावरण बनाने के लिए हम क्या कर सकते हैं। कोरी सद्भावना की बातें लोगों में खीझ पैदा करती हैं, खासकर तब जब वे उत्तेजित हों। बापू यह काम आसानी से कर सकते थे, लेकिन हम लोग इस तरह के काम करने के लिए बहुत छोटे हैं। मुझे डर है कि मौजूदा माहौल में बापू के शांति मार्च के नक्शे कदम पर भी चलने की कोई संभावना नहीं है।” (यहां स्मरणीय है कि जिस समय अयोध्या में राम की मूर्तियां रखी गई, उस समय भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर भारी तनाव में थे। भारत करीब डेढ़ साल की लड़ाई के बाद कश्मीर से पाकिस्तानी कबायलियों को खदेड़ चुका था। लेकिन इस बीच शेख अब्दुल्ला आजाद कश्मीर की बातें करने लगे थे। नेहरू इस बात पर पूरा जोर लगा रहे थे कि किसी तरह कश्मीर के बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय में को हार्दिक रूप से भारत से जोड़े रखा जाए, ताकि किसी भी सूरत में कश्मीर भारत में बना रहे।)
निष्कर्षतः नेहरू के निजी विचारों, सार्वजानिक भाषणों, रेडियो प्रसारणों, संसदीय वक्तव्यों, निजी पत्रों तथा तत्कालीन मुख्यमंत्रियों को प्रेषित शासनादेशों के विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते हैं कि नेहरू अपने स्वभाव, आचरण और अभिधारणाओं के अनुसार रूढ़ीवाद, संप्रदायवाद अथवा कट्टरतावाद के विरोधी थे। वे धार्मिक कट्टरता अथवा सांप्रदायिकता को किसी भी वाह्य आक्रमण से अधिक खतरनाक मानते थे। उनका मानना था कि भारत में धार्मिक सहिष्णुता की एक सनातन संस्कृति रही है। इसलिए भारत जैसे एक बहुधर्मी देश में धर्मनिरपेक्षता के अभाव में वास्तविक राष्ट्रवाद का निर्माण करना दुष्कर है। यही कारण था कि नेहरू पार्टी के अंदर और बाहर की सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहे और शायद इसीलिए देश को सांप्रदायिकता के दलदल से बचा लाने में कामयाब रहे।
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