सुमित्रानन्दन पंत

सुमित्रानन्दन पंत

 प्रथम रश्मि का आना रंगिणी,
तूने कैसे पहचाना ? 
कहाँ, कहाँ है बाल-विहंगिनी।
पाया तूने यह गाना ?
सुमित्रानन्दन पंत छायावाद के सर्वाधिक सुकमार कवि के रूप में जाने जाते हैं। प्रकृति की गोद में पले-बढ़े पंत की कविताओं में प्रकृति अपने विविध रंगों के साथ रच-पच कर आती है। पंत का काव्य संग्रह ‘वीणा’ में तो प्रकृति जैसे सजीव हो उठी है। प्रस्तुत पंक्तियाँ इसी संग्रह के ‘प्रथम रश्मि’ नामक कविता से उद्धृत है।
कौतूहल और जिज्ञासा छायावाद का प्रमुख तत्व है। इन चार पंक्तियों के काव्यांश में कवि की जिज्ञासा को समझा जा सकता है। प्रभात के तुरंत पले का मनोरम वर्णन से इस काव्यांश की शुरूआत होती है। रंग-बिरंगी पक्षियों के लिए कवि ने ‘रंगिणी’ शब्द का प्रयोग किया है। कवि के अनुसार इन रंग-बिरंगी पक्षियों का प्रभात होने की सूचना पता नहीं कैसे चल जाती है। वह प्रभात होने की खुशी में चहकने लगती है। उसका यह चहकना साधारण नहीं है, बल्कि उसका यह स्वागत गान है, जो प्रभात के स्वागत में आ रही है। प्रश्नवाचक जिज्ञासा परक शैली कविता को विशिष्ट बनाती है। प्रश्न या जिज्ञासा पाठक को बांधने का काम भी करता है। इस कविता में कोमल, मधुर शब्दों का प्रयोग कवि ने किया है। शब्द-संयोजन में लाक्षणिकता के साथ-साथ प्रतीकात्मकता भी है जो काव्य-सौंदर्य में चार चांद लगा रहा है।
1. छिपा रही थी मुखशशि-बाला 
निशि के श्रम से हो श्रीहीन 
कमल कोड़ में बंदी था अलि
कोक शोक से दीवाना। 
छायावाद के अग्रणी कवि सुमित्रनन्दन पंत की कविताओं में प्रकृति का सौंदर्य अपरूप होकर सामने आया है। यह सौंदर्य अत्यंत गतिशील और सजीव प्रतीत होता है। ‘वीणा’ इन दृष्टियों से पंत की महत्वपूर्ण काव्य रचना है। प्रस्तुत पद्यांश इसी संग्रह की एक अत्यंत सुंदर कविता ‘प्रथम रश्मि’ से ली गयी है।
रात्रि अवसान पर है। रात भर जगकर चांद थक-सा गया है। चांद के चेहरे पर उसकी थकावट स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है तभी तो गया वह मलिन-मलिन-सा दिख रहा है। वह अपना मलिन मुख सार्वजनिक करने के कारण बादलों में छिप जाना चाहता है। रात में खिले कमल में पराग पान करने के लिए जो भ्रमरा गया, उसकी पंखुरियाँ बंद हो जाने पर भ्रमर उसी में कैद हो गया है। चकवा अपनी चकवी से बिछुड़ है। वह दीवाना हो वियोग का गीत गा रहा है।
प्रस्तुत कविता में प्रकृति का मानवीकरण किया गया है। चांद को सलज्ज स्त्री के रूप में कवि ने प्रस्तुत किया है, जो अपना मुख छिपा रही है। कमल और भ्रमण प्रसंग में कवि का पर्यवेक्षण महत्वपूर्ण है। चकवा और चकवी के विरह-गान में कवि का प्रेम पूर्ण हृदय के भाव अभिव्यक्त हुए हैं। कविता की भाषा यद्यपि तत्सम प्रधान है किंतु सहज और सरल भी।
2. मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार।
अपनी कविताओं में छायावाद की पूर्ण प्रतिष्ठा करने वाले कवि सुमित्रानन्दन पंत की यह कविता ‘पर्वत प्रदेश में पावस’ उनकी महत्वपूर्ण कविताओं में एक है। इस कविता में कवि ने पहाड़ का मनोरम चित्र खींचा है। पहाड़ी क्षेत्र में पलने-बढ़ने कारण उनकी कविताओं में पहाड़ा- -प्रेम सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है।
कवि कहते हैं कि पहाड़ का आकार करघनी के समान है, साथ ही वह विशाल भी है। और उस पर नाना प्रकार के रंग-बिरंगे फूल छाये हैं। ऐसा लगता है मानो ये फूल नहीं पहाड़ की अनगिनत चमकीली आँखें हैं। वह अपनी आँखें फाड़ फाड़कर अपनी ही विशालकाय रूप निहार रहा है। पहाड़ के नीचे एक सुंदर सा सरोवर है जिसमें पहाड़ का प्रतिबिंब प्रतिबिंबित हो रहा है। कवि को लगता है कि पहाड़ अपनी फूल रूपी आँखों से सरोवर रूपी दर्पण में अपना विशालकाय छवि को निरख रहा है।
प्रस्तुत कविता में पहाड़ का मानवीकरण अत्यंत आकर्षक रूप में किया गया है। पूर्ण खिले फूल को आँखें फाड़-फाड़कर देखने की उपमा चमत्कारिक काव्य सौंदर्य का परिचायक है। पंत नयी और ताजा उपमा चुनने में सिद्धहस्त कवि हैं।
3. भारत माता ग्रामवासिनी !
खेतों में फैला है श्यामल 
धूलभरा मैला-सा आंचल
गंगा-यमुना में आंसू जल,
मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी।
सामान्यतया छायावाद पर यह आरोप लगता रहा है कि छायावाद देश और समाज से पिरपेक्ष कविताएं हैं। जब हमारा देश गुलाम था, तब छायावादी कवि प्रेम, प्रकृति और सौंदर्य के गीत गाने में मस्त थे। यद्यपि बाद में आलोचकों ने इन धारणाओं को गलत साबित कर दिया। पंतजी की कविता ‘भारतमाता’ छायावाद पर लगे इस आरोप को गलत सिद्ध करती है। इस कविता में कवि का राष्ट्र प्रेम ही नहीं बल्कि ग्राम्य-प्रेम भी स्पष्ट रूप से उद्घाटित हुआ है।
कवि के अनुसार एक तो परतंत्रता और दूसरी गरीबी। इन दोनों से हमारा देश, हमारे किसान अत्यंत दुखी और पीड़ित हैं। कवि का यह कहना भी बिल्कुल सही है कि भारत माता ग्रामवासिनी ही हो सकती है, क्योंकि उनकी अस्सी प्रतिशत संतानें गाँव में वास करती है। और गाँव में दूर-दूर तक फैली श्यामलता उसी भारत माँ के आंचल हैं। भारतीयों के दुख से और उनके आंसुओं से गंगा-यमुना भरा हुआ है, उनका पानी खरा हो गया है। ये मिट्टी की मूरतें यानी जनता उदास है, हताश है, निराश है।
इस कविता की प्रसिद्धि एक अन्य कारण से भी ज्यादा हुई। फणीश्वर नाथ रेणु का सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आंचल’ का शीर्षक भी इसी कविता से ली गई है, रेणुजी ने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है।
4. तुम वहन कर संको जनमन में मेरे विचार,
वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार। 
भाव-कर्म आज युग की स्थितियों से है पीड़ित
जग का रूपांतर भी जनैवय पर अवलंबित। 
छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत ज्यों-ज्यों कविता के मैदान में आगे बढ़ते गए हैं वे छायावादी सीमा का अतिक्रमण कर अधिक -से-अधिक समाजोन्मुख होते चले गए हैं। एक समय तो ऐसा आया जब वे कार्ल मार्क्स के विचार से अत्यधिक प्रभावित हो गए। प्रस्तुत ‘वाणी’ नामक कविता में कवि अपनी वाणी यानी अपने विचार के बारे में बात कर रहे हैं।
कवि अपनी वाणी को आम जनता के विचारों का वाहक बनाना चाहते हैं। कवि की इच्छा है कि मेरी वाणी में, मेरे विचार में, मेरी कविता में आम लोगों के दुख-दर्द, इच्छा-आकांक्षा, सुख-दुख सभी कुछ सहज-सरल भाषा में व्यक्त हो। वे अपनी भाषा को अनावश्यक अलंकारों में लादकर उसे भारी अर्थात जटिल और दुर्बोध नहीं बनाना चाहते हैं। आज सारे भाव एवं कर्म युग की विसंगतियों से पीड़ित हैं। और जनता की एकता से ही आम लोगों की समस्या का समाधान संभव है।
प्रस्तुत काव्यांश ही नहीं बल्कि पूरी ‘वाणी’ कविता कवि के प्रगतिशील विचारों की वाहिका है। इसमें वह अपनी वाणी अर्थात् अपनी कविता से यथास्थितिवाद के विरूद्ध है।
5. किन तत्वों से गढ़ जाओगे तुम भावी मानव को ? 
किस प्रकाश से भर जाओगे इस समरोन्मुख भव को ? 
सत्य अहिंसा से आलोकित होगा मानव का मन ?
अमर प्रेम का मधुर स्वर्ग बन जावेगा जग-जीवन।
महात्मा गाँधी स्वतंत्रता आंदोलन और भारतीय राजनीति के ऐसे विशाल व्यक्तित्व का नाम है, जिन पर न जाने कितने रचनाकारों ने अपने-अपने भाव व्यक्त किए हैं। महात्मा गाँधी भारतीय साहित्य ही नहीं विश्व साहित्य के उपजीव्य बन गए हैं। ‘युगांत’ सुमित्रानन्द पंत की आधुनिक भाव-बोध की रचना है। इस काव्य-संग्रह पर ‘बापू’ नामक कविता से उक्त काव्यांश उद्धृत है।
कवि महात्मा गांधी के व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए कहता है कि तुम आने वाली पीढ़ी को किस तरह गढ़ोगे। क्योंकि तुम में युग-1 1-निर्माता बनने की शक्ति है। तुम चाहो तो आनेवाली पीढ़ी का नव-निर्माण कर सकते हो। तुमसे उम्मीद है कि यह जो आजादी की लड़ाई है, उसको सही दिशा प्रदान करोगे। तुम्हारे सत्य और अहिंसा रूपी दो अभूतपूर्व हथियार पूरे विश्व के लिए मानक और मानव-उद्धारक के रूप में प्रतिष्ठित होगा। तुम्हारे प्रेम का संदेश एक दिन सारे विश्व में गूंजेगा और लोगों का जीवन सुखद और उल्लासपूर्ण हो जाएगा।
प्रस्तुत कविता में कवि की अगाध आस्था बापू के प्रति निवेदित है। वास्तव में बापू के कुछ राजनीतिक सोच पर वाद-विवाद हो सकता है, उसमें कुछ से असहमति भी हो सकती है, किंतु बापू के व्यक्तित्व की महानता और उनका सत्य तथा अहिंसा का दर्शन असंदिग्ध है।
6. मानदंड भू के, अखंड हे,
पुण्य धरा के स्वर्गारोहण 
प्रियहिमाद्रि, तुमको हिमकण-से
मेरे घर जीवन के क्षण ! है
‘स्वर्ण किरण’ सुमित्रानन्दन पंत की सुप्रसिद्ध काव्य-रचना है। इस संग्रह की ‘हिमाद्रि’ कविता हिमालय के सुषमा को रेखांकित करती । प्रस्तुत काव्यांश इसी हिमाद्रि कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं।
कवि हिमालय की महानता और उसके आपरूप रूप का यशोगान करते हुए कहता है कि हिमालय पर्वत किसी मानदंड के समान है। यह भारतवर्ष का अखंड भू-भाग है। यह पुण्य धरती भारत का स्वर्ग है। आगे कवि कहता है कि हे हिमालय, तुम हिम के पवित्र कणों से बने हो , मेरे जीवन के तुम ही रक्षक हो।
हिमालय पर हिंदी में कई अच्छी कविताएं लिखी गई हैं। जयशंकर प्रसाद की निम्नलिखित कविता हिमालय पर लिखी गई श्रेष्ठ कविताओं में एक है
7. ‘हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती।” 
पंत जी की भी कविता हिमालय पर लिखी गई अच्छी कविताओं में एक है, इसमें दो राय नहीं।
8. इन्दु ज्वलित तुम स्फटिक धवलिमा
के क्षीरोदधि – से हिल्लोलित 
ज्योत्सना में थे स्वप्न मौन
अप्सरा लोकसे लगते मोहित 
हिमालय का सौंदर्य रात्रि काल में कई गुना बढ़ जाता है। रात्रि की चांदनी जब हिमालय के हिमकणों पर पड़ती है तो वह रंग-बिरंगी दिखती है। प्रस्तुत व्याख्येय काव्यांश सुमित्रानन्दन पंत की प्रसिद्ध कविता ‘हिमाद्रि’ से उद्धृत है। इस कविता में हिमाद्रि अर्थात्, हिमालय का सुंदर रूप-वर्णन कवि ने किया है।
कवि कहता है कि हिमालय चंद्रमा की चांदनी से ज्वलित होता हुआ स्फटिक के समान उज्जवल दिखायी देता है, जैसे वह क्षीरसागर से हिल्लोलित होने के बाद प्रकट हुआ हो। उस ज्योत्सना में उसका स्वप्न मौन रहता थ। हिमाद्रि की यह शोभा उसे अप्सरा लोक के समान अपनी ओर आकृष्ट करती थी।
9. रूढ़ि रीतियाँ जहाँ न हो आधारित,
 श्रेणि वर्ग में मानव नहीं विभाजित !
 धन-बल से हो जहाँ न श्रम शोषण,
पूरित-भव जीवन के निखिल प्रयोजन
पंत अपनी काव्य-यात्र के दूसरे-तीसरे सोपान में छायावादी भावुकता का अतिक्रमण कर प्रगतिवादी चेतना से लैस कविता लिखने लगे थे। प्रस्तुत व्याख्येय काव्यांश उनकी इसी भाव बोध की कविता ‘नव-संस्कृति’ की पंक्तियाँ हैं। इस कविता में कवि सभी तरह की असमानता का समग्र विरोध करता प्रतीत होता है।
कवि के अनुसार प्रत्येक मनुष्य के भाव एवं कर्म अलग-अलग हो सकते हैं किंतु इस आधार पर किसी को छोटा या बड़ा मानना अनुचित है। वर्ण-वर्ग भेद मनुष्यता के खिलाफ है। जीवन में समता, बंधुता एवं मैत्री का भाव होना चाहिए। कोई भी कदम मनुष्यता के हित के में बढ़ाना चाहिए। ज्ञान में वृद्धि का मतलब है मनुष्यता में वृद्धि। कल से ज्यादे मनुष्यता आज होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं है, तो वह ज्ञान दो कौड़ी का भी नहीं। जीवन निष्क्रिय नहीं बल्कि सक्रिय होना चाहिए और यह सक्रियता सार्थक और सकारात्मक होनी चाहिए।

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