अशुद्ध उच्चारण के क्या कारण हैं ? अशुद्ध उच्चारण की समस्याओं के समाधान हेतु उपचार के तरीके बताइए।

अशुद्ध उच्चारण के क्या कारण हैं ? अशुद्ध उच्चारण की समस्याओं के समाधान हेतु उपचार के तरीके बताइए।

                                                              अथवा
अशुद्ध उच्चारण की समस्याओं का उल्लेख करते हुए, उनके निवारण के विभिन्न उपायों की विवेचना कीजिए।
                                                              अथवा
अशुद्ध उच्चारण की समस्या के कारण क्या हैं ? उच्चारण शुद्ध करने के उपाय लिखिये ।
उत्तर— अशुद्ध उच्चारण– अशुद्ध उच्चारण प्रायः सभी विद्वानों को अखरता है। शुद्ध उच्चारण के अभाव में हम उपहास के पात्र बन जाते हैं। उच्चारण में ध्वनियों का विशेष महत्त्व है। ध्वनियों के अभाव में शब्दों का अस्तित्व नहीं है और न ही भाषा का । अतः ध्वनियों के उच्चारण पर विशेष बल देने की आवश्यकता है। अशुद्ध उच्चारण भाषा का स्वरूप बिगाड़ता है। बिना उच्चारण ज्ञान के भाषा का ज्ञान नहीं हो सकता है।
अशुद्ध उच्चारण के कारण– उच्चारण अशुद्धि के निम्नलिखित कारण हैं—
(1) शारीरिक दोष– कभी-कभी शारीरिक विकार– जिह्वा, ओष्ठ, तालु, दन्त आदि के दोष के कारण भी उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं। हकलाने व तुतलाने का कारण भी अंग दोष ही है। उच्चारण अंगों के विकार के कारण वे सम्बद्ध ध्वनियों का सही उच्चारण नहीं कर पाते हैं ।
(2) क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव– भाषा के उच्चारण पर क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। बालक खड़ी बोली के प्रभाव के कारण ‘क’ का उच्चारण ‘के’ करने लगते हैं । इन बोलियों के प्रभाव से हिन्दी भाषा के उच्चारण में दोष आ ही जाता है। भारत में तो हर पग पर बोली बदल जाती है, भाषा बदल जाती है तथा वेश बदल जाता है।
(3) भौगोलिक कारण– उच्चारण पर भौगोलिक प्रभाव भी पड़ता है। भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्तियों के स्वर तन्तु भिन्न-भिन्न होते हैं। अरब के निवासियों अपने सिर पर सदैव एक कपड़ा लू और धूप के बचाव के लिए बाँधना पड़ता है। दिन-रात गले को कसा रखने से उनकी क, ख, ग ध्वनि क, ख, ज हो गई।
(4) अक्षरों व मात्राओं का अस्पष्ट ज्ञान– बालकों को जब अक्षरों (स्वर तथा व्यंजन) के स्पष्ट उच्चारण का ज्ञान नहीं होता तो वे बोलने तथा पढ़ने में भी अशुद्धियाँ करते हैं। मात्राओं का स्पष्ट ज्ञान भी न होने से उच्चारण की अशुद्धियाँ होती है।
(5) आदत का प्रभाव– कभी-कभी बन कर बोलने अथवा दुरभ्यास के कारण उच्चारण में अशुद्धि हो जाती है। जैसे- “खाना को ‘फल को पल” कहना ।
(6) मनोवैज्ञानिक कारण– कभी-कभी अत्यधिक प्रसन्नता, भय, शंका तथा झिझक के कारण शुद्ध उच्चारण नहीं हो पाता है। कभी-कभी अति शीघ्रता से बोलने के कारण भी उच्चारण में अशुद्धि हो जाती है।
(7) भिन्न-भिन्न भाषा भाषियों का प्रभाव– भिन्न-भिन्न भाषा भाषियों के कारण भी उच्चारण में अनेक दोष आ जाते हैं। पंजाब में रहने वाले क, ख, ग, घ, को का, खा, गा, घा पश्चिमी उत्तर प्रदेश वाले कै, खै, गै, घै, बंगाली लोग को को, खो, गो बोलते हैं। बंगाली में ‘व’ न न होने के कारण हर स्थान पर ‘ब’ का प्रयोग किया जाता है। गुजरात व मारवाड़ में ऐ, ओ, और न के बदले क्रमशः ए, ओ और ण का प्रयोग होता है।
(8) सामाजिक प्रभाव– भाषा अनुकरण से सीखी जाती है। यदि घर या समाज में अशुद्ध उच्चारण किया जाता है तो बालक उन शब्दों का अशुद्ध उच्चारण ज्यों का त्यों अनुकरण कर लेता है। जैसे स्टेशन को सटेशन कहना, डिब्बा को डब्बा, तश्तरी को तस्तरी सीमेन्ट का सिमंट कहना।
(9) अज्ञान– अज्ञानता के कारण उच्चारण लेखन शब्द-रचना तथा रूप-रचना की भूलें होती ही हैं। जैसे-” औरत को ओरत”, ‘जबरदस्त को जबरजस्त’’, ‘‘कवयित्री को कवित्री”, “अनुगृहीत को अनुग्रहीत” आदि कहना उच्चारण की अशुद्धियाँ हैं।
(10) शिक्षक का अशुद्ध उच्चारण– शिक्षक का अशुद्ध उच्चारण बालकों को अशुद्ध उच्चारण सिखाता है। बालक तो अनुकरण द्वारा सीखते हैं। यदि शिक्षक “शहर को सहर”, भाषा को भासा” शायद को सायद” बोलेंगे तो बालक भी अशुद्ध बोलेंगे ।
(11) उच्चारण शिक्षण का अभाव– शिक्षक कक्षा में उच्चारण शिक्षण में रुचि नहीं लेते हैं। यदि बालक कक्षा में अशुद्ध बोलता है तो उसका उच्चारण कक्षा में ही शुद्ध कराना चाहिए ।
(12) असावधानी– बहुत सी उच्चारण की अशुद्धियाँ असावधानी के कारण हो जाती हैं। जैसे- “आवश्यकता को अवश्यकता’ ‘प्रकट को प्रगट”,“आततायी को आतायी”, “कठिनाई को कठनाई “,”कविता को कव्ता”, “ज्योत्स्ना को प्योस्ना” आदि असावधानी के कारण ही बोले जाते हैं ।
उच्चारण सम्बन्धी अशुद्धियों को सुधारने के उपाय निम्न हैं–
(1) उच्चारण की अशुद्धियाँ को दूर करने के लिए प्रारम्भ से ही बालक के उच्चारणों का ध्यान देना चाहिए तथा उनकी अशुद्धि को तत्काल दूर करना चाहिए।
(2) बालक अनुकरण से भाषा सीखता है। अतः शुद्ध बोलने वाले व्यक्तियों के सम्पर्क में बालक को रखना चाहिए ।
(3) बालकों में शुद्ध उच्चारण करने की आकांक्षा जाग्रत की जाये।
(4) अध्यापक कक्षा में शुद्ध उच्चारण करें ।
(5) स्वर व व्यंजनों के अतिरिक्त अनुस्वार विसर्ग (:), तथा अनुनासिक आदि का उच्चारण सिखाकर बालकों को इसके प्रयोग में कुशल बनाना चाहिए।
(6) बालक जिस शब्द का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाता उसके शुद्ध स्वरूप का बार-बार अभ्यास कराना चाहिए।
(7) शब्द रचना की आवश्यक शिक्षा दी जाये।
(8) बालकों को व्याकरण के नियमों की पूर्ण जानकारी प्रदान की जाये।
(9) लिपि का स्पष्ट ज्ञान दिया जाये।
(10) शारीरिक दोषों को दूर किया जाये ।
(11) बालकों को ध्वनि तत्त्वों का ज्ञान प्रदान किया जाय। ध्वनियों के उच्चारण में जीभ, ओष्ठ, कंठ, काकली आदि का क्या स्थान हैं। साथ ही उसे अक्षरों (वर्णों) के उच्चारण स्थान बता दिये जायें।
(12) भाषण एवं संवाद प्रतियोगिताएँ आयोजित की जायें।
(13) ग्रामोफोन, लिंग्वाफोन (भाषा सिखाने का यंत्र), टेपरिकार्डर, रेडियो तथा टेलीविजन आदि का प्रयोग शुद्ध उच्चारण की शिक्षा के लिए करना चाहिए ।
(14) वैयक्तिक व सामूहिक विधि का प्रयोग किया जायें जो बालक वैयक्तिक रूप से उच्चारण न कर सकें उनसे सामूहिक रूप से उच्चारण कराये जायें ।
(15) बल, विराम तथा सस्वर पाठ का अभ्यास कराया जाये।
(16) रकार, इकार, ईकार, उकार, ऊकार आदि सम्बन्धी अशुद्धियों का उच्चारण-अभ्यास से कम किया जा सकता
(17) उच्चारण प्रतियोगिताएँ कराई जायें ।
(18) मानसिक सन्तुलन के हेतु प्रयास किए जायें । जो छात्र भय अथवा संकोच के कारण अशुद्ध उच्चारण करें उन्हें पूर्ण प्रोत्साहन देना चाहिए। उनमें आत्म-विश्वास जाग्रत किया जाये। साथ ही उनके साथ प्रेम व सहानुभूति का व्यवहार किया जाये।
(19) विद्यालय में कोई भी विषय पढ़ाया जाये तो शुद्ध उच्चारण की ओर अवश्य ध्यान दिया जाये।
अशुद्ध उच्चारण का उपचारात्मक शिक्षण—
उच्चारण-शिक्षण भाषण तथा वाचन-शिक्षण का अभिन्न अंग है। द्वितीय भाषा की ध्वनि-व्यवस्था के ज्ञानात्मक तथा सुधारात्मक पक्ष के लिए निम्न प्रयास करने चाहिए—
(1) उच्चारण शिक्षण में ध्वनि– व्यवस्था के सभी पक्षों का शिक्षण किया जाना चाहिए, अतः एकल, संयुक्त ध्वनियों, ध्वनि गुणों, शब्दों, अक्षरों, पदबन्धों वाक्य-अनुमान के सभी पक्षों में पाए जाने वाले व्यतिरेक का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। एकल ध्वनियों के उच्चारणअनुकरण अभ्यास पर बल नहीं दिया जाना चाहिए, केवल परिचय देने की दृष्टि से एक-दो बार ही अनुकरण अभ्यास करना पर्याप्त रहता है।
(2) तकनीकी शब्दावली के स्थान पर वगिन्द्रिय के मॉडल, रेखाचित्र, चित्र, संकेत के माध्यम से आवश्यकतानुसार मातृभाषा में या द्वितीय भाषा के सरल शब्दों, वाक्यों में ध्वनियों की उच्चारण प्रक्रिया का परिचय भी दे देना चाहिए।
(3) अध्येय भाषा तथा मातृभाषा की ध्वनि-व्यवस्था की तुलना करके निकाले गए पाठ्य बिन्दुओं को अनुसरित कर लिया जाए। उच्चारणशिक्षण के दो सिद्धान्त प्रचलित हैं- 1. अपरिचित घटक या अधिकाधिक अभ्यास, 2. परिचित से अपरिचित की ओर। पहले सिद्धान्त के अनुसार क्रमश: नवीन घटक, अर्थ सम विषम घटक, लगभग समान घटक, समान घटक का शिक्षण दिया जाता है। दूसरे सिद्धान्त के अनुसार क्रमशः समान घटक, लगभग समान घटक, अर्ध सम विषम घटक, नवीन घटक का शिक्षण किया जाता है।
(4) बड़ी उम्र या ऊँचे स्तर के छात्रों को दोनों भाषाओं की ध्वनिव्यवस्था का सरल भाषा में तुलनात्मक परिचय भी दिया जा सकता है जो आवश्यकतानुसार खण्डश: या पूर्णतः प्रस्तुत किया जाए ।
(5) उच्चारण-अभ्यास में ध्वनि-अभिज्ञान तथा बोधन- अभ्यास के पश्चात् अनुकरण-अभ्यास करा देना ही पर्याप्त नहीं है। ध्वनि उच्चारण में यह देखना भी आवश्यक है कि छात्र सिखाई गई ध्वनि- ध्वनियों का किस भाषा में सही उच्चारण कर सकते हैं, अत: इसके परीक्षण के लिए मूल्यांकन-अभ्यास भी किया जा सकता है ।
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