कहने लगा चांद : भावार्थ
कहने लगा चांद : भावार्थ
आलोचकगण भले ही दिनकर के काव्य-वैविध्य पर प्रश्न चिहन लगाये किंतु इसमें दो राय नहीं कि उनकी कविता का पूज छोटा नहीं है। कहने लगा चांद’ दिनकर की लीक से हटकर लिखी गई कविता है। इस कविता को कवि की प्रयोगवादी रचना भी मानी जा सकती है। यह कविता उनके काव्य-संग्रह ‘सामधेनी’ संकलित है। कविता में मनुष्य के स्वप्नजीवी स्वभाव की समीक्षा अत्यंत सुंदर ढंग से की गई है। चाँद जो सुंदरता किंतु साथ ही पराश्रितता का प्रतीक है, मनुष्य के स्वप्नजीवी स्वभाव की खिल्लियाँ उड़ाता है। उक्त कविता में चांद कवि का वार्तालाप अत्यंत रोचक बन पड़ा है।
कविता के आरंभ में चांद कवि से कहता है कि मनुष्य भी कैसा अजीब प्राणी है जो स्वयं उलझने निर्मित करता है, उसी जाल में बुरी तरह फंसता है। उस जाल से मुक्त होने के लिए मनुष्य छटपटाता है, बेचैन होता है और अपनी नींद गंवाता है। चांद कवि को अपनी प्राचीनता की याद दिलाते हुए कहता है कि मैं उतना पुराना हूँ कि मनु को जन्म लेते और मरते देखा है। इतना ही नहीं लाखों बार मैंने यहाँ लोगों को चांदनी रात में बैठकर सपने पालते देखा है।
चांद के अनुसार आदमी का स्वप्न और कुछ नहीं महज पानी का बुलबुला है, जिसे फूटते समय नहीं लगता। मनुष्य जाति धन्य है जो इसके बावजूद स्वपन रूपी बुलबुले से वह खेलता है, कविता की रचना करता है। चांद कविता को भी निरर्थक स्वप्न की संज्ञा देता है। स्वप्न विरोधी इस विचार को सुनकर कवि की रागिनी चुप कैसे बैठ सकती थी। उसने कहा कि चांद ! तुमने मनुष्य के स्वप्न को ठीक-ठीक समझा नहीं है। वह बुलबुला नहीं, पानी है, वह बुलबुला नहीं आग है, आग। कवि के अनुसार मनुष्य केवल खोखले स्वप्नों में नहीं जीता है, बल्कि वह अपने सपनों को आग में लगाकर लोहा बनाता है। उस लोहे पर घर की नींव रखी जाती है और फौलादी दीवारें खड़ी की जाती है। यह मनुष्य मनु नहीं, मनु की संतानें हैं जिसके कल्पना की जिह्वा में तेज धार होती है। मनुष्य के पास केवल विचारों का बाण ही नहीं होता बल्कि सपनों के हाथ में तलवार भी होती है। अंत में कवि ऐश्वर्य और यथास्थितिवाद के प्रतीक चांद को चुनौती देते हुए कहता है कि तुम अपने आका (राजा) से जाकर कह दो कि लगातार आकाश बढ़ता जा रहा है, अर्थात्, मनुष्य का सैलाब उमड़ता जा रहा है। इस स्वप्न देखने वाले मनुष्यों के सैलाब को रोको, अन्यथा वह स्वर्ग को ही लूट लेगा, क्योंकि वह स्वर्ग की ओर उसके कदम
बढ़ चले हैं।
‘कहने लगा चांद’ कविता में कवि का आशय स्पष्ट है। इस समाज में कई तरह के लोग होते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो नाउम्मीदी में जीते हैं। यथास्थितिवाद को चिपटाये किसी भी तरह के बदलाव का विरोध करते हैं। चांद इसी वर्ग का
प्रतिनिधित्व करता है। दूसरी तरफ चंद लोग ऐसे होते हैं जिन्हें लगता है कि अभी भी बहुत कुछ किया जा सकता है, बहुत कुछ करने के सपने देखे जा सकते हैं। युवा कवयित्री निर्माण पुतुल के शब्दों में अभी भी बहुत कुछ बचा है, हमारे पास’। सामाजिक परिवर्तन या बदलाव की पहली सीढ़ी स्वान ही होता है। पंजाबी कवि पारा की कविता तो सीधे-सीधे कहती है, परिवर्तन की अदम्य आकांक्षा के कवि हैं। इस कविता में कवि की यही आकांक्षा मुखर रूप में अभिव्यक्त हुई है।