किशोरावस्था तनाव, दबाव तथा संघर्ष की अवस्था है। स्टेनले हॉल के इस कथन को सोदाहरण विवेचना कीजिए।
किशोरावस्था तनाव, दबाव तथा संघर्ष की अवस्था है। स्टेनले हॉल के इस कथन को सोदाहरण विवेचना कीजिए।
प्रश्न 13. किशोरावस्था तनाव, दबाव तथा संघर्ष की अवस्था है। स्टेनले हॉल के इस कथन को सोदाहरण विवेचना कीजिए।
उत्तर– किशोरावस्था तनाव, दबाव तथा संघर्ष की अवस्था है ।
उपर्युक्त कथन स्टेनले हॉल का है। किशोरावस्था व्यक्तित्व के विकास की सबसे जटिल अवस्था है। हम किशोरावस्था को 12 से 18 वर्ष की आयु के मध्य मानते हैं ।
किशोरावस्था की विशेषताएँ – किशोरावस्था तेजी से विकास का काल माना जाता है। इस अवस्था में निम्न परिवर्तन किशोरों में दृष्टिगत होते हैं
(1) शारीरिक विकास- इस अवस्था में तीव्र शारीरिक परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। किशोरों के भार व लम्बाई में वृद्धि होती है तथा कंधे चौड़े एवं शरीर पर बाल उग आते हैं । कॉलसेनिक के अनुसार, “इस उम्र में बालक एवं बालिका, दोनों को अपने शरीर एवं स्वास्थय की अत्यधिक चिन्ता रहती है।
(2) बौद्धिक विकास – किशोरावस्था में बुद्धि का सबसे अधि क विकास होता है। इस अवस्था में मस्तिष्क के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण विकास होता है। किशोरावस्था में व्यक्ति तर्क-वितर्क, चिंतन एवं समस्या के समाधान हेतु गहरी सोच प्रकट करना प्रारम्भ कर देता है।
(3) विद्रोह की प्रवृत्ति – इस उम्र के चालकों में विचारों में मतभेद, मानसिक स्वतंत्रता एवं विद्रोह की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। इस अवस्था में किशोर समाज में प्रचलित परम्पराओं, अंधविश्वासों के जाल में न फँस कर स्वछंद जीवन जीना पसंद करते हैं ।
(4) कामुकता – किशोरावस्था के दौरान बालकों की कामेन्द्रियाँ पूर्णतः विकसित हो जाती हैं । इस उम्र में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण अपने चरम पर होता है। इस उम्र में किशोर बार-बार वस्त्र बदलकर और दर्पण में अपने शरीर को देखकर आनंद का अनुभव करते हैं।
(5) कल्पनाशीलता- किशोरावस्था कल्पनाशीलता एवं दिवा है। किशोरों के मन में कल्पना के दौरान बालकों में स्वप्न प्रवृत्ति की बहुलता पाई जाती की अधिकता के कारण कविता, साहित्य एवं कला के प्रति लगन उत्पन्न होती है। उनके सपनों की पूर्ति न होने एवं किसी क्षेत्र में असफलता मिलने से निराशा की भावना उत्पन्न होती है तथा ऐसी स्थिति में बालक अपराध कर बैठते हैं। वेलेन्टाइन ने इस अवस्था को अपराध-प्रवृति का समय माना है।
(6) व्यवहार में भिन्नता- किशोरावस्था में बालकों के व्यवहार में भिन्न्ताए पाई जाती है और वो भिन्न-भिन्न अवसरों पर अलग-अलग तरह का व्यवहार करते हैं। इस अवस्था में संवेग तीव्र गति से बदलते हैं और किशोर उनका पूर्ण रूप से प्रदर्शन करते है। स्टेनले हॉल के अनुसार, “किशोरावस्था में शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक परिवर्तन अचानक से उभरकर आते हैं।
(7) स्वाभिमान की भावना- किशोरावस्था में बालकों के मन में स्वाभिमान की भावना प्रबल होती है। किशोर बहुधा आदर्शवादी होते हैं। वे समूह की भावना और व्यवहार को प्राथमिकता देते हैं लेकिन किसी की अंधीनता नहीं स्वीकार कर सकते ।
किशोरावस्था की प्रमुख आवश्यकताएँ एवं महत्त्वाकांक्षाएँ–किशोरावस्था में जब किशोर में भौतिक तथा शारीरिक परिवर्तन होते हैं तो वह अपने इन परिवर्तनों को दूसरों को दिखाने की इच्छा करता है परन्तु उसे अपने शारीरिक परिवर्तनों से समझौता करना पड़ता है। अपनी भावनाओं को अपने तक ही सीमित रखना पड़ता है। इस अवस्था में बालक अधिक से अधिक सामाजिक बनना चाहता है और अपने मित्र – समूह में अपना एक अलग स्थान बनाना चाहता है। यदि किशोर के संवेगात्मक पहलू पर ध्यान आकर्षित किया जाय तो वह अपने मित्र-समूह में उच्च स्थान, सम्मान तथा प्रशंसा प्राप्त करने को उत्सुक रहता है। किशोर बालक अपने माता-पिता तथा गुरुजन से प्यार तथा सम्मान की आशा भी करता है। वह अपनी उम्र के आधार पर बढ़ती हुई कामेच्छाओं की सन्तुष्टि भी किसी न किसी माध्यम से करना चाहता है।
किशोरावस्था में, बालक में भविष्य के लिए सपने देखने तथा वर्तमान को जीने के विषय में जो भी अभिलाषाएँ और महत्त्वाकांक्षाएँ होती हैं, वह जीवन के किसी अन्य काल में नहीं होती हैं। किशोरों की इन महत्त्वाकाक्षाओं को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है
(1) माता-पिता तथा गुरुजन एवं मित्र-मण्डली में अधिक से अधिक ध्यान आकर्षित करने, प्यार पाने तथा सहयोग पाने व देने की तीव्र महत्त्वाकांक्षा ।
(2) अच्छे जीवनसाथी की महत्त्वाकांक्षाओं, जिससे वे सुखी वैवाहिक जीवन व्यतीत कर सकें ।
(3) जीवन के किसी पसंदीदा क्षेत्र में कुछ कर दिखाने की महत्त्वाकांक्षा ।
(4) अपने देश, जाति, समाज तथा धर्म के लिए कुछ कर दिखाने की महत्त्वाकांक्षा ।
(5) देश तथा समाज में व्याप्त भ्रष्टतंत्र को जड़ से समाप्त करने की महत्त्वाकांक्षा।
(6) अन्य व्यक्तियों के समक्ष विशेषतः विपरीत लिंग के व्यक्ति के सामने अत्यधिक सुन्दर व पुरुषोजित या स्त्रियोचित प्रतिमान दिखाई देने की महत्त्वाकांक्षा।
(7) अपने पसन्द के शैक्षणिक व व्यावसायिक पाठ्यक्रम में प्रवेश पाने की महत्त्वाकांक्षा |
(8) सभी का आकर्षण बिन्दु बनने की महत्त्वाकांक्षा |
(9) जिस व्यक्ति को अपना आदर्श मान लिया है उनके पदचिन्हों पर चलने की महत्त्वाकांक्षा।
(10) इस बात की महत्त्वाकांक्षा कि एक दिन ऐसी अवश्य आयेगा जब उनके माता-पिता तथा अध्यापक उन्हें समझेंगे और उन्हें उनकी तरह जिन्दगी जीने देंगे।
(11) यौन आनंद उठाने से सम्बन्धित महत्त्वाकांक्षाएँ।
किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप- किशोरावस्था में बालक दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हमेशा असाधारण कार्य करने का प्रयत्न करता है। ऐसे कार्यों में सफलता उसे प्रोत्साहित करती है लेकिन असफल होने पर उसे अपना जीवन सारहीन लगने लगता है। इस अवस्था को चरित्र-निर्माण की नींव कहा जाता है। इसलिए बालक को जीवनोपयोगी सार्थक शिक्षा प्रदान करने की बेहद आवश्यकता होती है।
किशोरावस्था में शिक्षा के स्वरूप को निम्न प्रकार से दर्शाया जाता है –
(1) शारीरिक विकास के लिए शिक्षा – इस उम्र में बालक एवं बालिकाओं के शरीर में विभिन्न प्रकार के लिंग सम्बन्धी शारीरिक परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। अनभिज्ञता के कारण बहुत से किशोर यौन सम्बन्धी समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। ऐसे में पाठशाल में लिंग-भेद एवं यौन सम्बन्धी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। किशोरावस्था जीवन दर्शन का आधार है । अतः बालक को जीवनपयोगी सैद्धान्तिक व व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करना चाहिए।
(2) संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा – किशोरावस्था में संवेग अपने चरम पर होते हैं। इस उम्र में बालक संवेगों से संघर्ष करता रहता है। बालकों के संवेगों पर नियंत्रण और उनका मार्गान्तीकरण करना सिखाना चाहिए। किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास के लिए उदार शिक्षा प्रदान करनी चाहिए क्योंकि यह जीवन का एक नाजुक मोड़ होता है। जहाँ पर मामूली सी लापरवारी व्यक्ति के जीवन भर के लिए एक अभिशाप बन सकती है।
(3) रचनात्मक विकास के लिए शिक्षा – किशोरावस्था में बालकों में अभिनय करने, भाषण देने तथा लेख लिखने की सहज रुचि होती है। इसके लिए बालाकों के विज्ञान, कला, साहित्य, संगीत जैसे विषयों का रचनात्मक ज्ञान प्रदान करना चाहिए।
(4) आत्मनिर्भरता की शिक्षा – किशोरावस्था में बालक शीघ्र ही आत्म-निर्भर होने की इच्छा रखता है। उसे उपयुक्त व्यवसाय के चयन हेतु व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
(5) व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर शिक्षा – बालकों में विकास की गति भिन्न-भिन्न होती हैं। प्रायः यह देखा गया है कि कई बालक विकास की दर में पिछड़ जाते हैं। ऐसे बालकों के लिए व्यक्तिगत विभिन्नताओं और आवश्यकताओं के आधार पर शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए।
(6) उचित दिशा निर्देशन- किशोरावस्था, जीवन का सबसे कठिन व नाजुक काल होता है। इस अवस्था में उसे निर्देशन की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। ऐसे में अभिभावकों एवं अध्यापकों को चाहिए कि वे बालकों को विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए निरन्तर परामर्श दें।
(7) सकारात्मक व्यवहार की शिक्षा- इस अवस्था में बालक को किसी भी क्षेत्र में असफलता मिलने पर निराशा को भाव घर कर जाता है और उसमें आपराधिक प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। इसके लिए बालाकों को अपराध के दुष्प्रभावों की जानकारी देकर सकारात्मक व्यवहार अपनाने पर बल देना चाहिए। किशोरों में जिज्ञासा की भावना प्रबल होती है। ऐसे में उनकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए किशोरों को हर बात के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलुओं के बारे में बताया जाना चाहिए।
किशोरों में अति तीव्र गति से होने वाले परिवर्तनों तथा इन परिवर्तनों के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली समस्याओं एवं आवश्यकताओं के कारण ही इस अवस्था को तनाव, दवाब तथा संघर्ष की अवस्था कहा जाता है।
अथवा
प्रश्न – एरिक्सन के अनुसार मनोसामाजिक विकास को समझाइए ।
उत्तर– एरिक्सन का मनोसामाजिक विकास सिद्धान्तसिगमण्ड फ्रायड की भाँति व्यक्तित्व विकास का एक दूसरा मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त एरिक्सन द्वारा प्रतिपादित किया गया है। किन्तु जहाँ फ्रायड की मनोलैंगिक विकास का सिद्धान्त कहा जाता है, एरिक्सन का सिद्धान्त मनोसामाजिक विकास की प्रक्रिया भी चलती रहती है। उन्होंने ऐसी आठ अवस्थाओं का उल्लेख किया है जिनसे होकर बालक का मनोसामाजिक विकास गुजरता है। इन सभी आठों अवस्थाओं का बालक के व्यक्तित्व पर एक विशेष प्रभाव पड़ता है। एरिक्सन ने बाल-व्यक्तित्व के सामाजिक पक्ष को बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण माना है और विकास की प्रत्येक अवस्था में पाये जाने वाले उन सामाजिक तत्त्वों का विश्लेषण किया है जो बालक के व्यक्तित्व विकास पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं ।
मनोसामाजिक विकास की अवस्थाएँ- एरिक्सन ने अपने व्यक्तित्व विकास सिद्धान्त में मनोविकास की कुल आठ अवस्थाओं का उल्लेख किया है। दी गई तालिका मे इन आठों अवस्थाओं का विवरण प्रस्तुत है। प्रत्येक अवस्था में उत्पन्न और विकसित होने वाली मानसिक विशेषताओं का संकेत किया गया है जो उस अवस्था में होने वाली सामजिक अनुभूतियों के कारण उत्पन्न होती हैं । उक्त मानसिक दशाओं को उनके प्रभाव के आधार पर भावात्मक या निषेधात्मक माना जाता है। ये भावात्मक या निषेधात्मक तत्त्व बालक के भावी सामाजिक सम्बन्धों को उपयुक्त या अनुपुयक्त बनाते हैं।
(1) विश्वास – अविश्वास की अवस्था- जन्म के दो वर्ष तक बच्चा अपनी आवश्यकताओं के लिए पूर्णतः अपने माता-पिता पर निर्भर होता है। माँ-बाप तथा परिवार के अन्य सदस्य जिस ममता, स्नेह और प्यार के साथ उसके साथ पेश आते हैं अर्थात् उन्हें खिलाते, पिलाते, चूमते और उनके साथ हँसते-बोलते हैं । उससे बच्चे के भीतर उन लोगों के प्रति विश्वास का विकास होता है। निरन्तर निर्विघ्न रूप से प्यार दुलार पाते रहने के कारण बच्चा अपने सामाजिक परिवेश से अनेक आशाएँ रखने लगता है और अगली अवस्था में विश्वास के साथ पदार्पण करता है। किन्तु जब बालक अपने परिवार वालों से प्यार-दुलार के स्थान पर घृणा और कठोरता का व्यवहार पाता है तो उसके मन में अविश्वास विकसित होने लगता है। यही भावनाएँ बच्चे के मन में भावात्मक अथवा निषेधात्मक अभिवृत्तियों और शील गुणों को उत्पन्न करती है । इन अभिवृत्तियों और शीलगुणों का आगे आने वाली अवस्थाओं में बच्चे के व्यवहार और समायोजन पर प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः विकास की किसी भी अवस्था में पूर्वनिर्मित अभिवृत्तियाँ बदली जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, एक बालक जो अविश्वास की भावना लेकर पाठशाला में प्रवेश करता है वह कुछेक गुरुजनों के प्रति विश्वास विकसित कर सकता है और इस प्रकार वह अपने पुराने अविश्वास के भाव को धीरे-धीरे त्याग सकता है। यही बात उस बालक के लिए भी कही जा सकती है जो विश्वास का भण्डार लेकर विकास की नई अवस्था में प्रविष्ट होता है। ऐसा बालक यदि कुछ स्वार्थी लोगों के सम्पर्क में आकर अविश्वास विकसित करता है, तो उसका अनुभव बदल जाता है और वह एक परिवर्तित मनोवृति के साथ अगली अवस्था में प्रवेश करता है ।
(2) स्वतन्त्रता – सन्देह की अवस्था – तीन-चार वर्ष की अवस्था में बालक अपने सामाजिक वातावरण को अच्छी तरह समझने लगता है और स्वतन्त्रतापूर्वक व्यवहृत होने लगता है। अब वह आत्मनियंत्रण एवं आत्म प्रदर्शन के योग्य हो जाता है। अपनी दिनचर्या के बहुत से कार्य वह स्वयं करने के लिए स्वतन्त्रता महसूस करता है। यदि परिवार के अन्य सदस्य बालक द्वारा किए गए कार्यों से संतुष्ट होकर अपनी प्रशंसा करते हैं तो बालक के भीतर आत्मविश्वास की वृद्धि होती है । अतः एरिक्सन के अनुसार तीन-चार साल की अवस्था में, जो मनोसामाजिक विकास की दूसरी अवस्था होती है, बालक के भीतर या तो स्वतंत्रता का भाव या संदेह का भाव विकसित हो जाता है और वह उसी भाव को लेकर आगे की अवस्था में प्रविष्ट होता है जिसका प्रभाव उसके व्यवहार एवं समायोजन पर पड़ता है।
(3) आत्मबल – अपराध भाव की अवस्था – पाँच छ: वर्ष की इस अवस्था में पहुँचकर बालक जिज्ञासु हो उठता है। वह अपने आत्मबल के कारण अनेक जिम्मेदारियों के कार्य की पहल करता है। परिवार के सदस्य भी उससे यही अपेक्षा रखते हैं । किन्तु कभी-कभी बालक ऐसे कार्य भी कर बैठता है जिसका दूसरों की स्वतंत्रता का प्रभाव पड़ता है या जिससे दूसरों को आघात पहुँचता है। जब बालक द्वारा किये गए कार्यों को दूसरों का समर्थन प्राप्त होता है तो उसके भीतर आत्मबल या पहल की शक्ति दृढ़ होती है। किन्तु जब दूसरे सदस्य उसकी पहल को अच्छा नहीं मानते तो उसके मन में अपराध की भावना विकसित होने लगती है और वह अपने को दोषी समझने लगता है ।
(4) परिश्रम – हीनता की अवस्था – इस अवस्था का बालक अपने मित्रों के साथ तादात्मय स्थापित करता है। अन्य मित्रों की ही भाँति बालक परिवार तथा पाठशाला में अधिक से अधिक कार्य करना चाहता है। एरिक्सन के अनुसार प्रत्येक समाज में इस अवस्था में नये-नये कार्यों को सीखने का अवसर दिया जाता है जिससे बालक प्रौढ़ जीवन के लिए आवश्यक कौशलों से सुसज्जित हो जाए। हमारे का बालक समाज में इस अवस्था अन्य समाजों शिकार में वह करना पाठशाला भेजा जाता है किन्तु खेती में काम करता है या मछली आदि का सीखता है। यह बालक इन कौशलों को भली-भाँति सीख लेता है तो वह परिश्रमी बनता है और उसमें परिश्रम के प्रति सम्मान का भाव विकसित होता है।
(5) पहचान-भूमिका द्वन्द्व की अवस्था – यह 13 से 18 वर्ष की किशोरावस्था होती है। इस अवस्था में प्रवेश पाने के बाद बालक अच्छी तरह जानने लगता है कि वह कौन है और उसके लक्ष्य क्या है। अब वह अपनी पसंदगी और नापसंदगी भी निश्चित कर लेता है। वह अपनी क्षमताओं के अनुरूप अपना कार्यक्षेत्र, विचार-शैली, मित्र-मण्डली, व्यवसाय आदि का चयन कर उसी दिशा में बढ़ने लगता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अब उसे अपनी और अपनी क्षमताओं की पहचान हो चुकती हैं। अब वह समाज में अपनी भूमिका को निश्चित कर लेता है। किन्तु कुछ बालक ऐसे भी होते हैं जिन्हें यह समझ में नहीं आता कि समाज में उन्हें क्या भूमिका निभानी है। अतः ऐसे बालकों के व्यवहार में विसंगतियाँ दिखलाई पड़ती हैं। फलस्वरूप उनके भीतर कई भूमिकाओं के बीच द्वन्द्व चलता रहता है और वे अनिश्चितता की स्थिति में आ जाते हैं।
(6) घनिष्ठता – अलगाव की अवस्था – इस अवस्था में बालक प्रौढ़ होकर वास्तवकि जीवन में प्रवेश करता है। अब वह जीवन-यापन के लिए किसी व्यवसाय या रोजगार को अपनाता है और विवाहित होकर गृहस्थ जीवन प्रारम्भ करता है। अब वह दाम्पत्य जीवन की जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक हो उठता है और पारिवारिक दायित्वों का वहन करता है। इस अवस्था की विशेष अपेक्षा यह होती है कि पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ घनिष्ठता प्रदर्शित करें और विचार, भावनाओं, मनोवृत्तियों और नैतिक और सामाजिक मूल्यों सभी दृष्टियों से वे एक-दूसरे के समान बनें। इसके लिए त्याग की भावना जरूरी है। जो व्यक्ति इस आदर्श की पूर्ति कर पाता है वह स्वयं एवं अन्यों को भी सुरक्षा की भावना प्रदान कर सकने में सफल होता है। किन्तु समाज में सभी व्यक्तियों के भीतर ऐसे व्यावहारिक कौशल नहीं विकसित हो पाते। जो व्यक्ति अपने परिवारजनों के प्रति घनिष्ठता नहीं प्रदर्शित कर पाते उनके मन में पृथकता या अलगाव की भावना विकसित होने लगती है।
(7) सृजनात्मकता- निष्क्रियता की अवस्था – मनोसामाजिक विकास की यह सातवीं अवस्था जीवन की मध्यावस्था होती है। इस अवस्था से गुजरने वाले व्यक्ति से समाज यह अपेक्षा करता है कि वह समाज के लिए अपनी क्षमता के अनुरूप कुछ करें। किसानों को अन्न उपजाकर, कलाकारों को कलाएँ विकसित करके और प्रोफसरों को विचारों का सृजन कर अपनी रचनात्मक वृत्ति का परिचय देना चाहिए। यदि सामाजिक अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए कोई व्यक्ति अपना योगदान देता है तो उसे अपनी उत्पादक वृत्ति से मानसिक संतुष्टि मिलती है। परन्तु यदि किसी व्यक्ति में सृजनात्मक क्षमता का अभाव हो और वह निष्क्रिय ही बना रहे तो वह हीनता की भावना से पीड़ित रहेगा ।
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