झारखण्ड का प्राचीन इतिहास

झारखण्ड का प्राचीन इतिहास

> झारखण्ड का नामकरण

> झारखण्ड दो शब्दों से मिलकर बना है। झार एवं खण्ड से, जिसका क्रमशः शाब्दिक अर्थ वन तथा भू-भाग से है। इस प्रकार झारखण्ड का शाब्दिक अर्थ वन प्रदेश है।
> झारखण्ड क्षेत्र का प्रथम साहित्यिक उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है, जिसमें इस क्षेत्र का उल्लेख पुण्ड या पुण्ड् नाम से किया गया है।
> वायुपुराण में इस क्षेत्र को मुरण्ड, विष्णुपुराण में मुण्ड तथा भागवतपुराण में किक्कट प्रदेश कहा गया है।
> महाभारत के दिग्विजय पर्व में इस क्षेत्र को पुण्डरीक देश कहा गया है।
> प्रथम बार झारखण्ड शब्द का प्रयोग 13वीं शताब्दी के एक ताम्रपत्र में किया गया है।
> मलिक मोहम्मद जायसी के ग्रन्थ पद्मावत व कबीरदास के दोहों में भी झारखण्ड शब्द का प्रयोग किया गया है।

> ऐतिहासिक स्रोत

>  झारखण्ड के इतिहास तथा संस्कृति की विस्तृत जानकारी के लिए प्रागैतिहासिक काल
से आधुनिक काल तक इस राज्य की मानवीय सभ्यता व संस्कृति के उद्भव के लिए पुरातात्त्विक व साहित्यिक स्रोत के पर्याप्त साक्ष्य प्राप्त हैं।
> झारखण्ड जनजातियों एवं उनकी संस्कृति के
उद्भव एवं विकास का प्रमुख स्थल रहा है।
> झारखण्ड के इतिहास को जानने का प्रमुख स्रोत जनजातियों की लोक कथाएँ, अनुश्रुतियाँ तथा सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ हैं।

> पुरातात्त्विक स्रोत

> आज से लगभग 1,00,000 ई. पू. मध्य पुरापाषाणकालीन पत्थर के उपकरण प्राप्त हुए हैं, जो इस राज्य का पुरातात्त्विक नोत का प्राचीनतम साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
> झारखण्ड के इतिहास में मध्यपुरापाषाणकाल (मेसोलिथिक युग) के प्रमाण अधिक स्पष्ट रूप में प्राप्त हुए हैं।
> इस युग के अवशेष सिंहभूम, रांची, पलामू, धनबाद तथा संथाल परगना आदि से मिले हैं।
> हजारीबाग एवं रामगढ़ के विभिन्न स्थानोंबड़कागाँव, माण्डू, राजरप्पा से कुल्हाड़ी बेधनी, तक्षणी इत्यादि प्राप्त हुए हैं।
> मौर्य सम्राट अशोक के 13वें शिलालेख में आटविक जातियों का उल्लेख हुआ है, जो इसी क्षेत्र में निवास करने वाली जनजातियों से सम्बन्धित है।

> साहित्यिक स्रोत

> महाभारत में झारखण्ड को पशु भूमि भी कहा गया है।
> गुप्त शासक समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में इस प्रदेश को ‘मुरुण्ड’ देश के नाम से उल्लेखित किया गया है।
> सन्थाल परगना को प्राचीनकाल में ‘नरीखण्ड’ एवं बाद में ‘कांकजोल’ नाम से पुकारा जाता था।
> छोटानागपुर एवं राजमहल का वर्णन चीनी यात्री युवांन च्वांग, बिशप हीबर, ईरानी धर्माचार्य, मुल्ला बहबहानी एवं ईरानी यात्री अब्दुल लतीफ के यात्रा वृत्तान्तों में मिलता है।
> वर्तमान रांची जिला मुगलकाल में ‘कोकरह’ के नाम से प्रसिद्ध था।
> झारखण्ड को आइन-ए-अकबरी में ‘कोकरा’ एवं ‘खंकारह’ के रूप में उल्लेखित किया गया है।
> मध्यकालीन रचनाओं में अकबरनामा, तारीख-ए-फिरोजशाही तथा पद्मावत इत्यादि साहित्यिक स्रोत में इस राज्य का वर्णन मिलता है। अकबरनामा में छोटानागपुर क्षेत्र को झारखण्ड कहा गया है।
> जहाँगीर की आत्मकथा ‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ में भी झारखण्ड के नामकरण व झारखण्ड की समाज एवं संस्कृति के विषय में जानकारी मिलती है।

> प्रागैतिहासिक काल

> झारखण्ड के इतिहास की शुरुआत पाषाण काल से होती है। इस काल में यहाँ के मानवों ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए नुकीले पत्थरों से बने उपकरणों का निर्माण शुरू किया तथा इन उपकरणों का प्रयोग पशुओं के शिकार और मिट्टी की • खुदाई आदि के लिए किया।
> हजारीबाग के बाँदा क्षेत्र में हस्तकुठार एवं रामगढ़ के दामोदर नदी घाटी से पुरा पाषाणकालीन औजार मिले हैं। .
> पलामू जिले में भवनाथपुर के निकट प्रागैतिहासिककालीन दुर्लभ शैलचित्र का पता चला है। यहाँ कई प्राकृतिक गुफाएँ भी मिली हैं। गुफाओं के अन्दर शिकार करने से सम्बन्धित चित्र हैं। इन क्षेत्रों में चेरो, खरवार, कोल इत्यादि जनजातियाँ निवास करती थीं।
> पूर्वी सिंहभूम क्षेत्र में पुरा पाषाणकालीन सामग्रियाँ निम्न क्षेत्रों से प्राप्त की गई हैं – बारधा, बारबिल, बारदा ब्रिज एवं हिरजीहाती।
प्रागैतिहासिक काल को तीन भागों में बाँटा गया है

(i) पूर्व पाषाण काल

> यह काल मानव सभ्यता के आरम्भ से लेकर 9000 ई. पू तक माना जाता है।
> पूर्व पाषाणकालीन औजारों में पत्थर की कुल्हाड़ियों के फलक, खुरपी, चाकू के रूप में प्रयोग किए जाने वाले पत्थर के टुकड़ों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
> ये अवशेष हजारीबाग, देवघर, दुमका, रांची, बोकारो, पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम आदि क्षेत्रों की नदियों के तटों से प्राप्त हुए हैं।
> राज्य के हजारीबाग जिले के इस्को नामक स्थान से एक पत्थर पर आदिमानव द्वारा निर्मित शैल चित्र, चित्र दीर्घा, गुफाएँ, विशाल सूर्य मन्दिर का चित्रण प्राप्त हुआ है।

(ii) मध्य पाषाण काल

> झारखण्ड की मध्य पाषाणकालीन संस्कृति 9000 से 4000 ई. पू.  के मध्य थी।
> झारखण्ड में मध्य पाषाण काल के अवशेष दुमका, धनबाद, पलामू, रांची, पश्चिमी सिंहभूम तथा पूर्वी सिंहभूम से प्राप्त हुए हैं।

(iii) नवपाषाण काल

> झारखण्ड में नवपाषाणकालीन संस्कृति का विकास 4000 से 1500 ई.पू. के मध्य हुआ था।
> झारखण्ड में नवपाषाण काल से सम्बन्धित प्राप्त सामग्रियों में कुठार, छेनी, सेल्ट, चाकू, लोहा एवं ताँबे की आरी प्रमुख हैं।
> पुरातत्त्ववेत्ता बोरमैन ने नवपाषाण काल से सम्बन्धित 12 प्रकार के हस्तकुठार की खोज की, जो भारत में पाए गए हैं। इनमें से लगभग सभी प्रकार के हस्तकुठार राज्य के छोटानागपुर में पाए गए हैं।
> इन हस्तकुठारों का वर्णन बोरमैन ने अपनी पुस्तक ‘द निम्योलिथिक पैटर्न इन द प्री हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ में किया है ।
> जिस समय सिन्धु घाटी में कांस्यकालीन संस्कृति का विकास हो रहा था, उसी काल में छोटानागपुर में नवपाषाण संस्कृति विकसित हो रही थी।
> नवपाषाणकालीन संस्कृति के चिह्न लोहरदगा, रांची एवं सिंहभूम में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं।

> ताम्र पाषाण काल

> झारखण्ड में ताम्र पाषाणयुगीन संस्कृति का केन्द्र बिन्दु सिंहभूम था। इस युग में उपकरणों में ताँबा और पत्थर का प्रयोग साथ-साथ होता था।
> ताम्र पाषाण के बाद असुर, बिरजिया, बिरहोर जैसी जनजातियाँ ताँबे की खानों से ताँबा निकालकर उसे गलाने तथा उससे उपकरण बनाने की विद्या से परिचित थे ।
> झारखण्ड के कई स्थानों से ताँबे की कुल्हाड़ियों के मिलने तथा हजारीबाग के बाहरगण्डा स्थान से ताँबे की 49 खानों के अवशेष मिलने से इस बात की पुष्टि होती है।
> नामकुम, रांची से ताँबे के औजारों की प्राप्ति हुए हैं।
>  झारखण्ड में कांस्य युग के प्रणेता छोटानागपुर के असुर और बिरजिया जनजाति के लोग थे।
> देवघर में निम्न पाषाणयुगीन औजार कर्ण कोलाजार नदी तल से प्राप्त हुए हैं।
> हरा अभ्रकीय स्फटिक हस्तकुठार बोकारो से प्राप्त हुआ है।
> दुमका के पहाड़पुर में गोमई नदी के दक्षिणी किनारे से स्फटिक के धारदार औजार प्राप्त हुए हैं।
> गोला, बड़कागाँव, बाँसगढ़, माण्डू, देसगार, करसो, पाराडीह, बारामुण्डा, राजरप्पा, कुसुमगढ़ आदि स्थानों से पाषाणकालीन पत्थरों से बने औजार मिले हैं।
> बरुआडीह के निकट संजय एवं सोननाला के संगम पर खुदाई से प्राप्त पाषाणकालीन पक्की मिट्टी के मटके, मृद्भाण्ड के टुकड़े, पत्थर की हथौड़ी आदि प्राप्त हुए हैं।
> पाण्डु नामक स्थान से ईंट की दीवार, मिट्टी के कलश के साथ ताँबे के औजार प्राप्त हुए हैं। लोहरदगा एवं चैनपुर आदि क्षेत्रों से ईंटों से निर्मित प्राचीन भवन, पोखर, अस्थि कलश आदि मिले हैं।
> मल्लाऊंगरी, सरदकेल, कोनेलको आदि स्थलों से लघु पाषाणकालीन औजार मिले हैं।
> परसधिक से ऊपरी पुरा पाषाण एवं लघु पाषाणकालीन औजार मिले हैं। मध्य पाषाणकालीन उपकरण भी यहाँ से प्राप्त हैं।
> पलामू के वीरबन्ध, रंकाकलाँ, दुर्गावती पुल, चन्दरपुर, शाहपुर, अमानत पुल, झाबर, बजना, हाथीगारा, बालूगारा में पूर्व मध्य एवं उत्तर पाषाण के अतिरिक्त नवपाषाणकालीन औजार प्राप्त हुए हैं। हजारीबाग जिले के पूर्वी भाग में सुवर्ण रेखा नदी से सटा हुआ प्रचारू पहाड़ है, जिस पर मुचकुन्द ऋषि की प्राचीन गुफा है।

> ऐतिहासिक काल 

> ऐतिहासिक काल का तात्पर्य प्रागैतिहासिक काल के बाद के काल से है, जिसका लिखित इतिहास प्राप्त है।

> वैदिक काल

इस काल में झारखण्ड को कीकट प्रदेश कहा जाता था। वैदिक काल में यहाँ असुर खड़िया एवं बिरहोर जनजातियाँ निवास करती थीं। वैदिक साहित्य में यहाँ की जनजातियों के लिए ‘असुर’ शब्द का प्रयोग किया गया है । वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया जाता है
> ऋग्वैदिक काल
> ऋग्वेद में इस प्रदेश को ‘कीकटानाम ढशोअनार्य’ कहकर सम्बोधित किया गया है। ऋग्वैदिक काल के लोग पशुचारण करते थे ।
> ऋग्वेद में यहाँ की जनजातियों को शिश्नोदेवा (लिंगपूजक) कहा गया है।
> उत्तर वैदिक काल
> उत्तर वैदिक काल में कीकट प्रदेश क राज्यों-मगध, अंग, पुण्ड्र, कलिंग आदि में विभक्त हो गया ।
> इस काल में इस प्रदेश के निवासियों को ब्रात्य (अथर्ववेद काल में) कहा गया और ब्रात्य काण्ड सूक्तों की रचना भी इसी काल में हुई।
> इस काल में लोहे का प्रयोग शुरू हो गया था ।

> झारखण्ड में जनजातियों का प्रवेश

> झारखण्ड में जनजातियों का प्रवेश भिन्न कालखण्डों में हुआ है। असुर, कोरबा, बिरजिया, बिरहोर एवं खड़िया झारखण्ड की प्राचीन जनजातियाँ हैं, जिनमें से असुर सबसे प्राचीन जनजाति है।
> असुर जनजाति लोहे को गलाकर औजार के रूप में प्रयोग करती थी। असुर जनजाति ने नवपाषाण काल से उत्तर वैदिक तक छोटानागपुर क्षेत्र में निवास किया। ये लोग भवन निर्माण कला में निपुण थे। इसके द्वारा बनाए गए असुरगढ़ों के अवशेष आज भी पाए जाते हैं। इसके बाद कोरबा जनजाति का झारखण्ड में आगमन हुआ।
> डी. एम. मजूमदार की पुस्तक रेसेज एण्ड कल्चर्स ऑफ इण्डिया’ से झारखण्ड में चेरों, खरवार, भूमिज, संथाल आदि जनजातियों के आगमन की जानकारी मिलती है।
> 1000 ई. पू. तक झारखण्ड में उपलब्ध सभी जनजातियाँ (चेरो, खरवार व संथाल को छोड़कर) छोटानागपुर में बस चुकी थीं।
> उराँव जनजाति के लोग दक्षिण भारत से आकर सर्वप्रथम रोहतास की पहाड़ियों में आकर बस गए थे।
> पूर्व मध्य काल में चेरो व खरवार जनजाति पलामू में, संथाल जनजाति हजारीबाग में तथा ब्रिटिश काल में संथाल, संथाल परगना में बसने लगी थी।
> राज्य में जनजातियों का ऐतिहासिक क्रम इस प्रकार है- खड़िया, बिरहोर, असुर, कोरबा, मुंडा, उराँव, हो, चेरो, खरवार, भूमिज, संथाल ।

> धार्मिक आन्दोलन काल में झारखण्ड

> धार्मिक आन्दोलन काल में झारखण्ड में मुख्यतः निम्न दो धर्मों का विकास हुआ था

> जैन धर्म

> ई. पू. छठी शताब्दी में हुए धार्मिक आन्दोलन का झारखण्ड के क्षेत्रों में भी व्यापक प्रभाव पड़ा।
> जैनियों के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का निर्वाण 717 ई. पू. में गिरिडीह जिले में पारसनाथ पहाड़ी पर हुआ था। इनका निर्वाण यहाँ होने के कारण इस पहाड़ी को पारसनाथ तथा सम्मेद शिखरजी के नाम से भी जाना जाता है।
> पारसनाथ की पहाड़ी (4480 मी) पर जैन धर्म के 20 तीर्थकरों को मोक्ष प्राप्ति हुई थी।
> प्राचीन समय में छोटानागपुर का मानभूम (वर्तमान धनबाद) बैन सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र था। पलामू के हनुमाण्ड गाँव में जैनियों के पूजा स्थल भी प्राप्त हुए हैं।
> राज्य में पारसनाथ पहाड़ के अतिरिक्त तुईसामा, देवल, गोलमारा, पाकबीरा पवनपुर, कंसाई और दामोदर नदी घाटी, हनुमाण्ड गाँव (पलामू) आदि स्थलों से जैन धर्म के प्रसार के साक्ष्य मिले हैं। 2
> राज्य के बलरामपुर, बोड़ाम व कर्रा आदि स्थानों पर जैन मन्दिरों का निर्माण कराया गया था।
> सिंहभूम के आरम्भिक निवासी जैन मतावलम्बी थे, जिन्हें सरक कहा जाता था। अनुश्रुतियों के अनुसार, हो जनजातियों ने यहाँ से जैनियों को बाहर निकाला था।
> जैन ग्रन्थ आचारंग सूत्र में छोटानागपुर सहित बंगाल क्षेत्र को लाभ या राघ क्षेत्र कहा गया है।

> बौद्ध धर्म

> झारखण्ड के अनेक स्थलों से बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अवशेष मिले हैं।
> धनवाद जिला बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केन्द्र था। धनबाद के दियापुर, दालमी और बौद्धपुर से कई बौद्ध स्मारक प्राप्त हुए हैं, जिनमें बौद्धपुर का बुद्धेश्वर मन्दिर महत्त्वपूर्ण है।
> हजारीबाग के बरही के निकट सूर्यकुण्ड से बुद्ध की प्रस्तर मूर्ति मिली है।
> हजारीबाग के दूधपानी (डुमडुमा) में किए गए उत्खनन से 8वीं एवं 12वीं सदी के पालकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये अवशेष इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के विस्तार को स्पष्ट करते हैं।
> बेलवादाग ग्राम (खूंटी) में एक बौद्ध विहार का अवशेष प्राप्त हुआ है।
> पलामू में बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं तथा यहाँ के करुआ गाँव में एक बौद्ध स्तूप भी प्राप्त हुआ है।
> बैंगलर ने झारखण्ड के सीमा क्षेत्रों पर लाथो नटोंगरी पहाड़ी में बौद्ध चैत्य तथा आर. सी. बोकन ने पाकबीस में बौद्ध खण्डहर की खोज की है।

> मगध साम्राज्य

> बुद्ध काल के समय (छठी से पाँचवीं सदी ई.पू.) 16 महाजनपदों की स्थापना हो गई थी। 16 महाजनपदों में मगध साम्राज्य सबसे शक्तिशाली महाजनपद था। इस महाजनपद को कीकट कहा गया है।
> मगध साम्राज्य का सर्वप्रथम वर्णन महाभारत में पाया गया है। असुर जाति के जरासन्ध मगध के राजा थे।
> मगध साम्राज्य उत्तर में गंगा नदी से दक्षिण में विन्ध्य की पहाड़ियों तक तथा पश्चिम में सोन नदी तक विस्तृत था।
> झारखण्ड राज्य का पहाड़ी, पठारी और जंगली भाग मगध महाजनपद के अन्तर्गत थे।

> हर्यक वंश / नन्द वंश

> हर्यंक वंश के शासनकाल में झारखण्ड की चर्चा नहीं मिलती है। अजातशत्रु के शासनकाल में वर्गों में रहने वाली जनजातियों में बौद्ध धर्म के प्रचार की बात कही गई थी।
> नन्द शासकों की सेना में हाथियों का प्रयोग हुआ था, जो झारखण्ड क्षेत्र से लाए गए थे।

> मौर्य साम्राज्य

> मौर्य वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक चन्द्रगुप्त मौर्य था।
> चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु चाणक्य थे। चाणक्य द्वारा लिखित ‘अर्थशास्त्र में इस क्षेत्र को कुकुट (कुकुर या कुकुरदेश) क्षेत्र कहा है। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय इस प्रदेश को ‘आटवी अथवा आटव’ कहा जाता था।
> अर्थशास्त्र के अनुसार, मगध एवं मौर्य साम्राज्य तथा दक्षिण भारत का व्यापारिक मार्ग झारखण्ड क्षेत्र से होकर गुजरता था ।
> मौर्य सम्राट के 13वें शिलालेख में इस क्षेत्र को आटविक जनजाति के नाम से सम्बोधित किया गया है। अशोक ने रक्षित के नेतृत्व में धर्म प्रचारकों का एक दल आटविक जनजाति के बीच भेजा था ।

> उत्तर मौर्यकाल

> मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद झारखण्ड में विभिन्न वंशों ने शासन किया। इनका विवरण निम्न प्रकार है

> कुषाण वंश

> कुषाणवंशीय शासक कनिष्क ने अपने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्ति बिहार में की थी ।
> उसने पुलिन्दों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। कनिष्क के समय के सिक्के, रांची एवं सिंहभूम जिलों में मिले हैं।
> रांची जिले से ईसा के प्रथम एवं द्वितीय
शताब्दियों के कुषाणकालीन सिक्के प्राप्त हुए हैं। तीसरी से छठी शताब्दी के सिक्के भी झारखण्ड के क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं, कुछ लेकिन उन सिक्कों पर किसी राजा अथवा राजवंश का उल्लेख नहीं है ।

> गुप्त वंश

> इस वंश का वास्तविक संस्थापक चन्द्रगुप्त प्रथम
था ।
> तीसरी-चौथी शताब्दी के आस-पास सम्पूर्ण भारत में गुप्त साम्राज्य राजनीतिक दृष्टिकोण से सम्पन्न था।
> झारखण्ड राज्य में गुप्त साम्राज्य का आरम्भ समुद्रगुप्त के शासनकाल से होता है। शुरू
> समुद्रगुप्त के शासन में हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति में झारखण्ड का उल्लेख ‘मुरुण्ड’ के रूप में हुआ है।
> ह्वेनसांग के अनुसार, बंगाल के शासक शशांक ने झारखण्ड के सम्पूर्ण क्षेत्र पर अधिपत्य कायम किया था ।

> नाग वंश

> इस नाग वंश का पूरे छोटानागपुर में महत्त्वपूर्ण स्थान था ।
> इस राज्य के पूर्व में पंचेत तथा दक्षिण क्षेत्र में क्योंझर (ओडिशा) राज्य स्थित था।
> नाग वंश की स्थापना फणिमुकुट राय ने की थी। इन्होंने गोला, वरवा, रामगढ़, पलानी, हजाम और तमाड़ इत्यादि क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित किया। इस वंश की स्थापना प्रथम शताब्दी में हुई थी। फणिमुकुट राय को नाग वंश का आदि पुरुष (संस्थापक) कहा जाता । फणिमुकुट राय ने 83 ई. से 132 ई.) तक शासन किया था।
> इन्हें झारखण्ड के सुतियाम्बे (वर्तमान रांची) के पार्थ राजा मदरा मुण्डा ने अपना समर्थन । देकर राजा नियुक्त किया था। इसके शासनकाल में राज्य 66 परगनों में विभाजित था। फणिमुकुट राय ने नागवंश की राजधानी सुतियाम्बे में बनाई। उसने सुतियाम्बे में एक सूर्य मन्दिर का निर्माण कराया।
> नाग वंश के पाँचवें राजा प्रताप राय ने अपनी राजधानी सुतियाम्बे से हटाकर चुटिया को बनाया, जो सुवर्णरेखा नदी के तट पर अवस्थित था।
> कलचुरी शासक लक्ष्मीकर्ण का समकालीन नागवंशी शासक गन्धर्व राय था ।
> इस वंश के अन्य प्रमुख शासक भीम कर्ण ने खोखरा को छोटानागपुर की प्रथम राजधानी बनाया था। भीमकर्ण ने भीमसागर का निर्माण कराया था।
> नागवंशी शासकों की राजधानियों का क्रम इस प्रकार रहा – सुतियाम्बे, चुटिया, कोखरा, डोइसा, पालकोट तथा रातूगढ़ ।
> नागवंश का शासन मध्यकाल तथा आधुनिक काल में भी रहा ।
> 1789 ई. में तत्कालीन नागवंशीय शासक ने ब्रिटिश सरकार को अपनी प्राचीनता का प्रमाण भेजा था।

> गौड़ वंश

> 7वीं शताब्दी के आस-पास अंगराज जयनाग के सेनापति शशांक ने मगध राजा गृहवर्मन को हराकर मगध राज्य पर अधिकार कर लिया। इसने अपनी राजधानी कर्ण सुवर्ण (सिंहभूम) को बनाया । रोहतासगढ़ तक की भूमि इसके अधिकार में आ गई ।
> शशांक की उग्रता के कारण ही झारखण्ड में हिन्दू धर्म का प्रभुत्व पूर्णतः स्थापित हुआ।

> पाल वंश

> शशांक के कमजोर पड़ने पर यह क्षेत्र पाल वंश के प्रभाव में चला गया ।
> गुर्जर प्रतिहार, राष्ट्रकूट एवं पाल राजाओं के कन्नौज को लेकर पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता का प्रभाव झारखण्ड की राजनीति एवं संस्कृति पर भी पड़ा।
> चतरा जिले के ईटखोरी प्रखण्ड में पाल वंश के प्रतापी शासक महेन्द्रपाल का शिलालेख पाया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में गुर्जर प्रतिहारों ने झारखण्ड के सीमावर्ती क्षेत्रों पर नियन्त्रण कर लिया था ।
> महेन्द्रपाल ने पूरे मगध क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित किया था। महेन्द्रपाल के समकालीन मोहन राय (811-869 ई.) तथा गजघट राय (869-905 ई.) नागवंश के शासक थे। झारखण्ड में इस वंश का पृथक् अस्तित्व स्थिर रहा।

> प्रमुख स्थानीय राजवंशों का उदय

> झारखण्ड राज्य क्षेत्र में बहुसंख्यक जनजातियों ने अलग-अलग क्षेत्रों में शासन किया तथा विभिन्न वंशों का उदय हुआ, जो अग्रलिखित प्रकार से हैं।

> मुण्डा राज्य अथवा सुतिया नागखण्ड 

> छोटानागपुर में ऐतिहासिक राजवंशों के अतिरिक्त स्थानीय जनजातीय राज्यों की भी स्थापना हुई। इनमें मुण्डाओं की प्रधानता थी ।
> मदरा मुण्डा प्रथम मुण्डा नेता था, जिसने इस क्षेत्र में जनजातीय राज्य निर्माण की प्रक्रिया शुरू की तथा उसने सुतिया पाहन को मुण्डाओं का शासक चुना।
> सुतिया पाहन ने नवस्थापित राज्य का नाम सुतिया नागखण्ड रखा ।
> सुतिया पाहन ने अपने राज्य को सात गढ़ों; हजारीबाग, लोहागढ़ (लोहरदगा), पालुनगढ़ (पलामू), मानगढ़ (मानभूम), सिंहगढ़ (सिंहभूम), केसलगढ़ तथा सुरगुजगढ़ (सरगुजा) में विभक्त किया ।
> इसके पश्चात् इन सात गढ़ों को 21 परगनों; ओमदण्डा, दोईसा, खुखरा, सुरगुजा, जसपुर, गंगपुर, पोरहाट, तमाड़, लोहारडीह, खरसिंग, उदयपुर, बोनाई, कोरया, चंगमंकर, गीरगा, लचरा, बिरना, बिरुआ, बेलखादर, सोनपुर व बेलसिंग में विभक्त किया ।
> सुतिया नागखण्ड राज्य पूरे छोटानागपुर में विस्तृत था, किन्तु यह स्थायी नहीं रह सका।

> पलामू का रक्सेल वंश

> रक्सेल वंश पलामू के दक्षिण-पूर्वी भाग में अवस्थित था । इस वंश के लोग अपने को हैहय वंश के राजपूत मानते थे। ये रोहतासगढ़ होते हुए इस क्षेत्र में आए थे।
> इस काल के दहला के कल्चुरियों ने पलामू के कुछ सीमावर्ती भागों को अपने कब्जे में कर लिया था, फिर भी अन्य भागों पर रक्सेलों की ही प्रधानता थी ।
> रक्सेलों के दो दल थे – एक दल ने देवगन को अपनी राजधानी बनाई, जबकि दूसरे दल ने कुण्डेलवों की राजधानी बनाई।
> 16वीं सदी के आरम्भ में चेरो के आगमन तक पलामू में रक्सेलों का शासन बना रहा।
> इनके समय में सर्वाधिक संख्या जनजाति की थी।

> सिंहभूम का सिंह वंश

> सिंहभूम को पोरहाट के सिंह राजाओं की भूमि कहा गया है। सिंहभूम नाम को ‘सिंह वंश’ पर आधारित होने का दावा किया जाता है, किन्तु हो जनजातियों के अनुसार, उनके देवता सिंगाबोंगा के नाम पर इस क्षेत्र का नाम सिंहभूम पड़ा।
> सिंह मुख्य रूप से राजवंशी राठौर थे, जो पश्चिम भारत से यहाँ आए थे। 8वीं शताब्दी में इन्होंने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था।
> सिंह वंश के पारिवारिक इतिहास ‘वंश प्रभा लेखन’ के अनुसार, सिंह वंश की भी दो शाखाएँ स्थापित हुईं; पहली 8वीं सदी के प्रारम्भ में तथा दूसरी 13वीं सदी के प्रारम्भ में।
> पहली शाखा के संस्थापक काशीनाथ सिंह थे तथा उनके बाद इस शाखा के अन्य 13 राजा हुए।
> दूसरी शाखा की स्थापना 1205 ई. में दर्प नारायण सिंह ने की थी । इनकी मृत्यु के बाद इनके पुत्र युधिष्ठिर ने 1271 ई. तक शासन किया।
> युधिष्ठिर का उत्तराधिकारी काशीराम सिंह था, जिसने पोरहाट को नई राजधानी बनाया था।
> काशीराम सिंह के पश्चात् अच्युत सिंह शासक बना जिसने पौरी देवी को अपने राज्य की अधिष्ठात्री देवी के रूप में स्थापित किया। इसकी समानता भुइयाँ जनजाति की आराध्य ‘ठकुरानी माई’ से की जाती है ।

> पूर्वी सिंहभूम का ढाल वंश

> पूर्वी सिंहभूम का ढालभूम क्षेत्र ढालवंश का शासन क्षेत्र था। ढालवंशी शासक नरबलि प्रथा के पोषक थे। ये मूलतः धोबी जाति के थे ।

> मानभूम का मान वंश 

> हजारीबाग एवं मानभूम पर इस वंश का शासन था।
> इस वंश की जानकारी का स्रोत कवि गंगाधर द्वारा 1373-78 ई. के मध्य में लिखित गोविन्दपुर (धनबाद) का शिलालेख व 8वीं सदी के हजारीबाग से प्राप्त दूधपानी शिलालेख है।
> पूर्व मध्य काल में मान राजाओं की शक्ति का ह्रास होने लगा था। मानभूम राज्य अनेक छोटी-छोटी टुकड़ियों में बँट गया। इनमें पारकुडी, नावागढ़, कतरास, झरिया, टुंडी के प्रमुख स्वयं को राजा कहते थे, जबकि वह रामगढ़ राज्य के अधीनस्थ थे। ये सभी राज्य वर्तमान हजारीबाग जिले में अवस्थित थे।

> रामगढ़ राज्य

> बाघदेव ने 1368 ई. में रामगढ़ राज्य की स्थापना की थी। कुछ समय पश्चात् बाघदेव ने अपने भाई सिंहदेव से मिलकर 21 परगनों पर अधिकार कर लिया था।
> यह दोनों भाई नागवंशी राजाओं के सामंत थे ।
> सिसिया को इन्होंने अपनी प्रथम राजधानी बनाया था। इसके पश्चात् इन्होंने क्रमशः उरटा, बादाम और रामगढ़ को राजधानी बनाया। राजधानी परिवर्तन का मुख्य कारण भौगोलिक दृष्टि से राज्य की सुरक्षा था।
> 1772 ई. में सिंह देव वंश के तेज सिंह रामगढ़ के राजा बने तथा उन्होंने अपने शासन का संचालन इचाक, हजारीबाग से किया।
> 1880 ई. में रामगढ़ राज्य एक तीसरे वंशज के हाथ में हस्तान्तरित हो गई। इस वंश के प्रथम शासक राजा ब्रह्मदेव नारायण सिंह थे। इन्होंने इस वंश की राजधानी हजारीबाग से 22 किमी दूर पद्मा में स्थापित की थी।
> 1937 ई. में रामगढ़ के सिंहासन पर कामाख्या नारायण सिंह बैठे।
> 26 जनवरी, 1955 में रामगढ़ राज बिहार राज्य भूमि सुधार अधिनियम द्वारा समाप्त कर दिया गया
 था ।

> पंचेत राज्य

> मानभूम क्षेत्र में मान राजाओं के कमजोर होने के बाद यह विकसित हुआ ।
> पंचेत राज्य नागवंशी राज्य के पूर्व में स्थित था। मान्यतानुसार इसकी स्थापना काशीपुर के शासक नरेश अनीत लाल के पुत्र ने की थी । यह मानभूम क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली राज्य था।
> काशीपुर के शासक के पत्र ने पंचेतगढ़ किले (पंचकोट) का निर्माण करवाया तथा कपिला गाय की पूँछ को राजचिह्न घोषित किया ।

> खड़गडीह वंश

> इसकी स्थापना 15वीं सदी में ‘हंसराज देव’ ने की थी। यह राज्य रामगढ़ राज्य के दक्षिण-पूर्व में था । ‘हंसराज देव’ दक्षिण भारतीय मूल का व्यक्ति था ।
> 15 वीं शताब्दी में इसने गया और हजारीबाग के बीच के क्षेत्र को बन्दावत जाति से छीनकर अपना अधिकार कर लिया था ।

> पलामू के चेरो वंश 

> पलामू का चेरो वंश की स्थापना राजा भागवत राय ने 16वीं शताब्दी में रक्सेलों को पराजित करके की
 थी ।
> यह एक महान् राजवंश था। चेरो के शासकों की सबसे प्रमुख पलामू के जपला क्षेत्र में शासन करने वाली खरवार जनजाति थी । इस जनजाति के सबसे प्रसिद्ध राजा प्रताप धवल खरवार थे ।
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