नाटक के प्रमुख तत्त्वों की व्याख्या कीजिए ।

नाटक के प्रमुख तत्त्वों की व्याख्या कीजिए ।

उत्तर— नाटक के मूलभूत तत्त्व–नाटक के तत्त्वों को हम भारतीय व पाश्चात्य नाट्यशास्त्र के आधार पर वगीकृत कर सकते हैं। भारतीय नाट्यशास्त्र में रूपक और उपभेदों पर विस्तार से विचार किया गया है। इनमें परस्पर अंतर ज्ञान के लिए रूपक में पाँच आधारभूत भाग माने गए हैं, जो निम्न प्रकार से हैं—
(1) वस्तु – वस्तु से तात्पर्य कथावस्तु है। आचार्यों ने तीन प्रकार का माना है—(i) प्रख्यात, (ii) उत्पाद्य एवं (iii) मिश्रित ।
प्रख्यात वस्तु इतिहास या पुराण ग्रहण की जाती है। लेखक जब वस्तु की कल्पना कर लेता है तो उसे उत्पाद्य कहते हैं। मिश्रित वस्तु ऐतिहासिक और काल्पनिक सामग्री का सामंजस्य होती है।
महत्त्व के आधार पर भी वस्तु के भेद किए गए हैं जिन्हें अधिकारिक और प्रासंगिक कहा जाता है। अधिकारिक कथावस्तु मुख्य होती है। प्रासंगिक सहायक कथावस्तु होती है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है—” प्रत्येक नाटकीय तथा कुछ विरोधियों को लेकर अग्रसर होती है। नाटक का उसके भाग्य या परिस्थितियों के साथ विरोध कर सकता है। मसलन सामाजिक रूढ़ियों के साथ हो सकता है और फिर अपने मत के परस्पर विरोधी आदर्श के संघर्ष के रूप में भी हो सकता है। यह विरोध ‘मृच्छकटिक’ में भी है और ‘शकुन्तला’ में भी । कहने का तात्पर्य यह है कि विरोध गर्भित जीवन स्थितियों को ही नाट्यवस्तु कहना उचित है । “
(2) नेता (पात्र)–नाटक में निहित क्रियाओं को फल की ओर ले जाने वाले प्रधान पात्र को नायक कहा जाता है। भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार मुख्य कार्य का फल जिसे प्राप्त होता है, वही नायक हो सकता है।
पश्चिमी दृष्टि से जो पात्र सारे क्रिया व्यवहारों के केन्द्र में होता है उसे ही नायक की संज्ञा प्राप्त होती है। नायक का तात्पर्य यह है कि उसमें जीवन के महत्त्वपूर्ण और विविध रूपों तथा पक्षों को धारण करने की योग्यता होती है। शास्त्र के अनुसार प्रतिनायक भी नाटक में होता है। इसके अतिरिक्त विदूषक और अन्य पात्र होते हैं जिनकी भूमिका नाटकीय क्रिया व्यवहार में होती है।
शास्त्रीय दृष्टि से नायक धीरोदत्त, धीरललित, धीर प्रशांत और धीरोद्धत होता है। धीरोद्धत और धीर ललित नायक की प्रतिष्ठा अधिक होती है।
(3) उद्देश्य (रस)–प्राचीन दृष्टि से नाटक में रस निष्पत्ति का होना अनिवार्य हैं। रंगमंचीय क्रिया-कलाप में रस उत्पन्न होता है और दर्शक उसका आस्वादन करता है। शृंगार, वीर और करुण रसों में से किसी एक रस की अनुभूति मुख्य रूप से होती है।
आधुनिक हिन्दी के जनक और महत्त्वपूर्ण नाटककार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इस विषय में बहुत सार्थक बात लिखी है—”आजकल की सभ्यता के अनुसार नाटक की रचना के उद्देश्य, फल उत्तम निकलना बहुत आवश्यक है। यह न होने से सभ्य शिष्टगण ग्रंथ का सादृश आदर नहीं करते अर्थात् नाटक पढ़ने और देखने से कोई शिक्षा मिले। उनका यह उद्देश्य मुख्य होता है। “
(4) अभिनय–अनुकरण की क्रिया को ही अभिनय कहते हैं। नाटक का आलेख अभिनय की क्रिया से संयुक्त होकर रसानुभूति तक पहुँचाता है। अतः नाटक को समझने के लिए अभिनय के आधारभूत तथ्यों की सामान्य जानकारी नितान्त आवश्यक है। इसमें अभिनय के चार प्रकारों का उल्लेख मिलता है—
(i) आंगिक–आंगिक अभिनय देह और मुख से सम्बन्धित अभिनय को कहा जाता है। आंगिक अभिनय भी दो प्रकार का होता है— अंग अर्थात् हाथ, पैर, वक्ष, कटि आदि से किया जाने वाला अभिनय एवं उपांग अर्थात् नेत्र, भौंह, नासिका, ओठ आदि द्वारा किया जाने वाला अभिनय।
आंगिक अभिनय का उपयोग नाटक के आन्तरिक भागों के प्रदर्शन हेतु अभिनय में किया जाता है। प्रत्येक मानसिक विचार शरीर के अंग-उपागों को प्रभावित करते हैं।
(ii) वाचिक–उस अभिनय को जिसमें वचनों के माध्यम से अभिनय किया जाता है, वाचिक अभिनय कहते हैं। वाचिक अभिनय के अन्तर्गत पात्रानुकूल भाषा, संवादों की वाक्य संरचना तथा उच्चारण आदि पर विचार किया जाता है। वाचिक अभिनय में यह ध्यान रखना आवश्यक होता है कि भाषा पात्रों के अनुकूल होनी चाहिए ।
(iii) आहार्य–मंच सज्जा एवं पात्रों के वेश-विन्यास को आहार्य अभिनय कहा जाता है। अवस्थानुकृति को यथार्थता प्रदान करने के लिए आहार्य अभिनय अत्यावश्यक है।
भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में इस बात पर बल दिया है कि नाटक में पात्र के अनुरूप रूप-सज्जा एवं वेशभूषा धारण कर कलाकार को अभिनय करना चाहिए।
(iv) सात्विक–किसी भाव को गहराई से अनुभव करते हुए अभिनेताओं की देह में जो सहज प्रतिक्रिया होती है; जैसे—स्वयं, प्रकंप और रोमांच आदि उसे सात्विक अभिनय कहते हैं ।
पाश्चात्य नाट्य शास्त्रानुसार नाटकों के निम्न तत्त्व माने गए हैं– (1) कथावस्तु, (2) पात्र, (3) कथोपकथन, (4) देशकाल विधान एवं (5) उद्देश्य ।
कथनोपकथन–यदि कथा का वर्णन नाटक का ढाँचा है, तो कथनोपकथन को हम ढाँचे के अनुप्राणित करने वाला रुधिर अथवा प्राण कह सकते हैं। सामान्य वातालीप और नाटकीय कथनोपकथन में मौलिक भेद हैं। जहाँ सामान्य वातालप उखड़ा – पुखड़ा, निरुद्देश्य, विषय से विषयांतकर भटकने वाला होता है। वहाँ नाटकीय, कथनोपकथन पर नाटक के उस दृश्य विशेष का नियंत्रण रहता है।
देशकाल विधान–प्राचीन यूनानी आचार्यों ने यह सिद्धान्त स्थिर किया था कि आदि से अंत तक विशेष अभिनय किसी एक ही कृत्य के सम्बन्ध में होना चाहिए। किसी एक ही स्थान का होना चाहिए जिसको ‘संकलन काल’ के नाम से पुकारा जाता है। लेकिन वर्तमान काल में नाटकों की वर्तमान के कारण न अब यह सम्भव है और न ही जरूरी है। इतना अवश्य है कि नाटककार को अपनी रचना में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कथा का निर्वाह आदि से अंत तक उसकी एक ही कथा और एक ही मुख्य सिद्धान्त के आधार पर हो । पात्रों के नाम, कार्य संवाद, वेशभूषा, शृंगार, कथावस्तु तथा उद्देश्य भी देशकाल के अनुसार होना वांछनीय है।
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