नाटक बच्चों में किन विकास करता है?

नाटक बच्चों में किन विकास करता है? 

उत्तर— जब भी किसी ऐसे माध्यम को तलाशते हैं जो जीवन को कक्षाकक्ष में उतार सके, तो एक ही माध्यम नजर आता है— नाटक । नाटक ही वह जरिया है जो जिंदगी को हूबहू कक्षा में थोड़ी देर के लिए सृजित कर सकता है। इसके अतिरिक्त नाटक ही वह विद्या है, जो बालकों में उन सामाजिक एवं शैक्षणिक मूल्यों का विकास कर सकता है, जिनकी किसी सभ्य नागरिक से अपेक्षा की जाती है। बच्चे लगभग तीन या चार साल की उम्र से दृश्यों और कहानियों का अभिनय करने लगते हैं। दैनन्दिनी के जीवन में ऐसी कई संभावित स्थितियाँ होती हैं। बच्चे स्वांग (रोल प्ले) करते हुए अलग-अलग भूमिकाएँ निभाते हैं। वे उस स्थिति की भाषा और पटकथा का अभ्यास करते हैं और उसमें शामिल भावों को अनुभव करते हैं, जानते हुए कि वे जब चाहें वास्तविकता में लौट सकते हैं। ऐसे स्वांग बच्चों को उनकी जिंदगी में आगे आने वाली वास्तविक परिस्थितियों के लिए तैयार करते हैं। इस तरह के स्वांग उनकी सृजनात्मकता को बढ़ावा देते हैं और उनकी कल्पनाशीलता को विकसित करते हैं। साथ ही उस भाषा को प्रयोग करने का अवसर भी देते हैं, जो उनकी दिनचर्या की जरूरतों से बाहर की होती है। नाटक बच्चों में विभिन्न सामाजिक एवं शैक्षणिक मूल्यों का विकास कर सकता है, जिसमें प्रमुख का विवरण निम्न प्रकार हैं—

(1) समानुभूति–नाटक करते समय हम अलग-अलग समय की अलग-अलग संस्कृति के अलग-अलग लोगों की जिंदगियों को जी रहे होते हैं, उसे करीब से जानते हुए उनकी परिस्थितियों को समझ रहे होते हैं। इससे समाज के विभिन्न लोगों के प्रति सहनशीलता, संवेदना का विकास होता है।
(2) एकाग्रता–नाटक तैयार करने के दौरान मस्तिष्क, शरीरांगों और आवाज को केन्द्रित करने में मदद मिलती है, अपने भावों को नियंत्रित करना, जिसका प्रभाव दूसरे विषयों पर और आगे चलकर जीवन पर भी पड़ता है।
(3) कल्पना करना–नाटक करने के लिए नए-नए विचारों के बारे में सोचना और उसे बेहतर बनाने के लिए सृजनात्मक तरीकों के बारे में सोचना, आस-पास मौजूद संसाधनों का उपयोग हमारे जीवन में आने वाली वास्तविक परिस्थितियों के लिए हमें तैयार करता है। आइन्स्टाइन ने कहा है, “कल्पनाशील ज्ञान इकट्ठा करने से ज्यादा जरूरी है।” नाटक केल्पनाशीलता का प्रयोग करने के भरपूर अवसर देता है ।
(4) अभिव्यक्ति (सम्प्रेषण कौशल) का विकास–नाटक विचारों की मौखिक और मूक अभिव्यक्ति को बढ़ावा देता है। अपनी आवाज को दूर तक पहुँचाना, शब्दों का उच्च एवं साफ उच्चारण करना, धाराप्रवाह भाषा का प्रयोग कर पाना, स्थिति, स्थान एवं व्यक्ति विशेष के अनुसार भाषा का उचित प्रयोग कर पाना- सब नाटक सिखाता है। नाटक बच्चों को मंच प्रदान करता है, ताकि वे खुद को अभिव्यक्त कर सके। नाटक के माध्यम से वे अपनी भावनाएँ विचार व अपने सपने लोगों के सामने रख सकते हैं, जो वे सामान्यतः नहीं कर पाते हैं।
(5) भरोसा–नाटक तैयार करते समय सभी साथियों को एक-दूसरे पर पूरा भरोसा करना पड़ता है, क्योंकि नाटक करना एक समूह कार्य है और जब तक समूह साथियों को एक-दूसरे पर भरोसा नहीं होगा, तब तक कोई समूह सुचारु रूप से काम नहीं कर पाएगा।
(6) सहभागिता–नाटक की प्रक्रिया में टीम वर्क बहुत जरूरी है किसी भी नाटक के बनने की शुरुआत ही समूह कार्य से होती है। बच्चों से नाटक करने को कहते ही वे एक से दो व दो से तीन होने शुरू हो जाते हैं। नाटक के साथ-साथ ही समूह बनना शुरू हो जाता है। नाटक में यह जबर्दस्त ताकत है कि यह एक छाते की तरह काम करता है, जिसके नीचे नृत्य, गीत-संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला इत्यादि कलाएँ आ जाती हैं।
(7) संवेदनशीलता का विकास–हम जब किसी भूमिका कर रहे होते हैं तो थोड़े वक्त के लिए ही सही, हम खुद से हट कर किसी और की जिंदगी जी रहे होते हैं। इसके दो पहलू हैं। एक तो हम इस प्रक्रिया में खुद से बाहर होकर स्वयं को तटस्थ भाव से देखते हैं। जब खुद को बाहर से देखते हैं तो फिर मैं कहाँ रह जाता है? मैं की गैरहाजरी अहम को अपदस्थ करती है। दूसरे हम जब खुद को दूसरे की जगह रख कर देख रहे होते हैं, तो हमें उसकी स्थिति पता चलती है। मसलन, हम किसी नाटक में हिटलर की भूमिका कर रहे होते हैं तो यह जरूरी नहीं कि हम हिटलर के विचारों से सहमत हों, लेकिन हम भूमिका निभाते हुए समस्या को हिटलर के नजरिये से देखते जरूर हैं। किशोरावस्था में रिश्तों के दरम्यान जो टकराहट सामने आती है, उसका प्रमुख कारण ही एक-दूसरे के नजरिये को नहीं समझ पाना ही है। एक लड़की घर से बाहर सहेली के साथ बाजार जाना चाहती है और उसके पिता, माँ या कोई बड़ा, सख्ती से मना कर देते हैं । अब, समाधान की ओर तभी बढ़ा जा सकता है जब समस्या को उसके परिवारजनों के नजरिए से भी देखा जाए ।
(8) मनोरंजन–नाटक करने के दौरान खेल-खेल में अनगिनत विषयों को सीखने और उस पर समझ बनाने के मौके मिलते हैं। इससे प्रेरणात्मक तथा दबावमुक्त वातावरण बनाने में सहायता मिलती है।
(9) भावात्मक विकास एवं समस्या समाधान–नाटक करते और नाटक को तैयार करते समय विभिन्न गतिविधियों को करते हुए सबको अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर मिलता है जो कि एक सुरक्षित और नियंत्रित वातावरण में तनाव तथा विद्वेष को निकालने और उससे जूझने का अवसर है। यह आगे चलकर किसी भी प्रकार के असामाजिक व्यवहार को रोकने में मदद करता है। इसके अतिरिक्त नाटक में जब हम दूसरे की भूमिका कर रहे होते हैं, तब उस चरित्र के सामने आने वाली दुविधाएँ व द्वंद्व अपने जीवन की समस्याओं का विश्लेषण करने के अभ्यास देते हैं।
(10) स्मरण शक्ति का सुदृढ़ होना–नाटक करते समय सिर्फ अपने ही नहीं, अपितु अपने साथियों के भी संवादों को याद रखना पड़ता है। मंच पर किसका प्रवेश कहाँ से होगा, कौन कब कौन-सा संवाद बोलेगा तथा किसको कहाँ खड़ा होना है? ये सब बातें हर एक व्यक्ति को याद रखनी होती है।
(11) सामाजिक जागरूकता–नाटक में प्रयोग होने वाली पौराणिक कहानियाँ, कथाएँ, कविताएँ आदि समाज और संस्कृति से जुड़े विभिन्न मुद्दों और द्वंद्वों से रूबरू करवा उनके साथ एक संवाद स्थापित करने का अवसर देती हैं।
(12) आत्मानुशासन–नाटक को तैयार करना और प्रस्तुत करना नाटक करने वालों की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। इसके लिए ये जरूरी है कि हर भागीदारी स्वयं को अनुशासन में ढाले। बिना आत्मानुशासन के नाटक का मंचन लगभग असंभव है।
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