पल्लवन अथवा भाव-विस्तारण
पल्लवन अथवा भाव-विस्तारण
किसी संक्षिप्त कथन का विस्तारपूर्वक सही अर्थ लिखना ही विस्तारण या पल्लवन है। बेइन के अनुसार किसी विचार को ‘अनुच्छेद में पल्लवित करने का एक विशिष्ट उद्देश्य होता है तथा कार्य में अप्रासंगिकता एवं विषयांतरण का अभाव होना चाहिए। विस्तारण को पल्लवन भी कहते हैं। किसी लोकोक्ति, भावपूर्ण वाक्य, नीति-वचन अथवा सूक्ति को विकसित कर परिवर्द्धित करना ही विस्तारण है। दूसरे शब्दों में विस्तारण की प्रकृति संक्षेपण के विपरीत होती है।
संक्षेपण में किसी उद्धरण को सार-रूप में प्रस्तुत किया जाता है, परन्तु विस्तारण में किसी उक्ति को परिवर्द्धित किया जाता है। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि संक्षेपण की क्रिया मूल उद्धरण की लगभग एक तिहाई होती है जबकि विस्तारण में कोई सीमा निहित नहीं होती। विस्तारण को संबंधित कथन पर एक या दो अनुच्छेद में लिखा हुआ लघु निबंध कहा जा सकता है। किंतु निबंध तथा विस्तारण की प्रकृति एक नहीं होती। निबंध में लेखक अपना मत व्यक्त करके संबंधित कथन के अनौचित्य पर भी प्रकाश डाल सकता है तथा उसमें स्वल्प अप्रासंगिकता एवं विषयान्तरण का समावेश भी हो सकता है। विस्तारण में विषय से हटने, अपने विचार प्रकट करने तथा असंगत तथ्यों का उल्लेख करने का निषेध रहता है। विस्तारण को व्याख्या, भाष्य अथवा टीका से भी भिन्न समझना चाहिए। आकार तथा प्रस्तुतीकरण में ये विस्तारण से भिन्न होते हैं। वास्तव में विस्तारण का क्षेत्र एवं उद्देश्य सीमित तथा केंद्राभिमुख होता है। लोकोक्ति, नीतिवाक्य अथवा सूक्ति रूपी कली को फूल का रूप देना होता है जिससे उसका अर्थ रूपी सौरभ सामान्य जनों को भी मिल सके।
विस्तारण के संदर्भ में पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि संबंधित सूक्ति या कथन का सही अर्थ समझा जाये। इसके लिये दिए हुए कथन के प्रत्येक शब्दों पर गंभीरता से मनन करना चाहिए। संबंधित कथन पर बार-बार विचार करने से उसका अर्थ सुस्पष्ट हो जाता है। अर्थ स्पष्ट हो जाने पर दूसरी आवश्यकता यह होती है कि तर्क-पूर्ण रीति से मन में उठे हुए विचारों को क्रमबद्ध किया जाये। विस्तारण लिखते समय तथ्यों की एकता तथा प्रासंगिकता बनी रहनी चाहिए तथा उसमें समुचित सामंजस्य रहना चाहिए। असंगति एवं अनावश्यक बातों का उल्लेख न करने से विषय की एकता बनी रहती है। अभ्यास के द्वारा अन्य कलाओं की भांति पल्लवन की कला में भी प्रवीण हुआ जा सकता है।
पल्लवन के समय ध्यान रखने योग्य बातें –
1. भाषा :- पल्लवन में सरल एवं सुस्पष्ट भाषा का प्रयोग करना चाहिए। दिये हुए वाक्य में उपमा, रूपक अथवा अन्य किसी अलंकार का समावेश हो सकता है; जिसे सामान्य, प्राकृतिक एवं सीधे-सादे शब्दों में समझना चाहिए।
2. आकार :- एक या दो अनुच्छेद में ही पल्लवन लिखा जाता है तथा 100 250 शब्दों में सामान्यतः विस्तारण की क्रिया पूरी हो जाती है। 2.
3. पुनरावृत्ति :- पल्लवन को एक या दो अनुच्छेद में पूरा करना होता है। अतएव पर्याय शब्दों का प्रयोग करके उसी बात को नहीं है दोहराना चाहिए। 3.
4. अर्थ :- सूक्ति अथवा कथन के अर्थ को भली-भांति समझ लेना चाहिए, जिससे कही गयी बात से भिन्न तथ्यों का समावेश विस्तारण लेख में न होने पाये, इसके लिये मन में उठने वाले महत्वपूर्ण भावों के बिंदुओं को एक स्थान पर लिखा जा सकता है।
5. क्रमबद्धता :- मूलभाव की खोज करने के पश्चात् आवश्यकतानुसार मुख्य बिन्दुओं को क्रमबद्ध कर लेना चाहिए। विषय के असंगत भावों को निकाल देना चाहिए। इससे विस्तारण के अनुच्छेद को सुसंगठित रूप देने में सहायता मिलती है।
6. सीमा :- यदि दिए हुए प्रश्न में कोई सीमा निर्धारित की गई है तो प्रयुक्त शब्दों को उस सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए। शब्दों 7. की गणना करके पल्लवन को सीमाबद्ध किया जा सकता है।
7. प्रारंभिक शब्द :- “इस सूक्ति का यह अर्थ है – ” या “ये पंक्तियाँ हमें सिखलाती हैं….” अथवा “यह एक सामान्य कथन है अत: इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है……” आदि वाक्यांशों से पल्लवन का प्रारंभ नहीं करना चाहिए। पाठक अथवा परीक्षक के मन पर इन वाक्यांशों से पल्लवन का प्रारंभ अच्छा प्रभाव नहीं डालता।
8. पठन :- विस्तारण लिखने के पश्चात् उसे पढ़कर व्याकरण संबंधी अशुद्धियों अथवा त्रुटियों को दूर कर देना चाहिये।
पल्लवन का नमूना
नमूना 1. संसार एक रंगमंच है।
रंगमंचं वह स्थान है जहाँ अभिनेता और अभिनेत्रियाँ अभिनय करते हैं, कोई राजा बनता है कोई रंक। सूत्रधार द्वारा निध रित भूमिका सभी को निभाना पड़ता है। किसी को आनंदित होकर हँसना पड़ता है तथा कोई दुख में विलाप करता है। संसार की तुलना रंगमंच से की जा सकती है। इस संसार का रचयिता सूत्रधार का कार्य करता है। संसार रूपी रंगमंच में नर-नारी रूपी अभिनेता और अभिनेत्रियाँ अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। रंगमंच वही रहता है, परंतु नाटक के पात्र आते हैं तथा अपनी भूमिका निभाने के बाद चले जाते हैं। पात्र द्वारा दिखाये गए खेल के समय की तुलना जीवन से की जा सकती है। संपूर्ण प्रकृति दर्शक का कार्य करती है। रंगमंच पर पात्र अपनी भूमिका निभाने के बाद चले जाते हैं। पात्र द्वारा दिखाये गए खेल के समय की तुलना जीवन से की जा सकती है। संपूर्ण प्रकृति दर्शक का कार्य करती है। रंगमंच पर पात्र अपनी भूमिका का कृत्रिम प्रदर्शन करते हैं। राजा की भूमिका निभाने वाला वास्तव में राजा नहीं होता। विदूषक, जो सभी दर्शक को हँसाता है, का आंतरिक जीवन कष्टकर हो सकता है। हम दूसरों के जीवन को भी ऊपरी तौर पर ही देखते हैं। दूसरे के शब्दों, कार्यकलापों तथा वस्त्रों से ही हम उनके आचरण एवं विचार का अनुमान लगाते हैं। वास्तविकता उस अनुमान के विपरीत भी हो सकती है। अनेक अभावों से पीड़ित गरीब मजदूर अपनी ईमानदारी नहीं छोड़ता। वहीं बड़े-बड़े सेठ मिलकर एवं काला धंधा में तुरंत मिल जाते हैं। फिर भी संसार की रंगमंच से केवल तुलना ही की जा सकती है। संसार का क्षेत्र अत्यंत विशाल होता है।
नमूना 2.महत्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में रहता है
संसार में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान पाने की बलवती इच्छा को महत्वाकांक्षा कहते हैं। इच्छा मात्र से ही मनुष्य महान नहीं बन सकता। इसके लिए कठोर श्रम, दृढ़ निश्चय तथा सुनिश्चित लक्ष्य की आवश्यकता होती है। अति सुंदर तथा मूल्यवान मोती उस सीपी में पलता है जो अति कठोर, विशिष्ट प्रकार का तथा दोषरहित होता है। हर सीपी में मोती की प्राप्ति नहीं हो सकती। केवल समर्थवान एवं विशेष प्रकार के सीपी से ही मोती का जन्म होता है। कोई भी व्यक्ति शासन का सर्वोच्च पद प्राप्त करने, साहित्यकार, वैज्ञानिक अथवा कलाकार बनने के सपने देख सकता है। उसका सपना तभी साकार होगा जब उसके अंदर इस कार्य के लिये विशिष्ट गुण एवं सामर्थ्य हो। ऐसा होने पर उसे सबसे पहले अपने प्रति कठोर होना होगा। लक्ष्य प्राप्ति के लिये हर प्रकार का कष्ट सहने के लिए तैयार रहना होगा। उनकी आकांक्ष किसी विशिष्ट पद को प्राप्त करने की हो सकती है। इसके लिये उसे अपने विरोधियों के प्रति निष्ठुर एवं अनुदार बनना होगा। महान लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अपने परिवार के प्रति भी निष्ठुरता दिखानी पड़ सकती है। महान आदर्श कायम रखने के लिये राम ने सीता का परित्याग किया। अपने बंधुओं तथा परिजनों का वध करने के लिये अर्जुन को कृष्ण ने प्रोत्साहित किया। बौद्धधर्म के जनक गौतम बुद्ध ने अपनी पत्नी यशोधरा तथा पुत्र राहुल का मोह त्याग दिया। अत्यधिक उदार व्यक्तियों को भी अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु निष्ठुर बनना पड़ता है। महान
नमूना 3.नाच न जाने आंगन टेढ़ा
मनुष्य सामान्यतः अहंकारी होता है। वह अपने महत्व को बनाए रखना चाहता है। उसके कार्य की यदि आलोचना होती है तो वह कोई न कोई बहाना खोजकर अपने को निर्दोष साबित करने का प्रयत्न करता है। एक अकुशल कारीगर की भी यही प्रकृति होती है। वह कमियों को स्वीकार करके उन्हें दूर करने का प्रयत्न नहीं करता। इसके बजाय वह सारा दोष माल की खराब गुणवत्त तथा उपकरण के सही न होने पर डाल देता है। इस कृत्य से वह अपने को धोखा देता है। उसकी कमियों में सुधार नहीं हो पाता। फल यह होता है कि समाज में उसका वास्तविक महत्व कम होने लगता है। इसके विरूद्ध एक अच्छा कार्यकर्ता अपनी कमियों को स्वयं ही पहचानने का प्रयत्न करता है। कठोर परिश्रम तथा लगन से कार्य करके धीरे-धीरे वह दूसरों की प्रशंसा का पात्र बनता है। उदाहरण के लिए एक अच्छा सेनानायक अपनी मातृभूमि की रक्षा करने से केवल इसलिए इन्कार नहीं करता क्योंकि सैन्य सामग्री अपर्याप्त है अथवा हथियार अत्याधुनिक नहीं है। इतिहास में अनेक साक्ष्य मौजूद हैं जहाँ स्वल्प साधनों तथा परंपरागत हथियारों के बल पर अनेक योद्धाओं ने दुश्मन पर विजय पाई है। गांधी जी ने तो बिना हथियारों के प्रयोग के दृढ़ निश्चय तथा सत्य का सहारा लेकर ही भारत को स्वतंत्रता दिला दिया। कहने का तात्पर्य यह कि अपनी कमियों को छिपाने से किसी दार्शनिक लाभ की प्राप्ति
नहीं होतो तथा ऐसा करनेवाला व्यक्ति अंततोगत्वा दूसरों की हँसी का पात्र बनता है।
नमूना 4. परहित सरिस धर्म नहीं भाई
सामान्य जन धर्म का अर्थ अपने अराध्य देव के पूजा-पाठ से लगाते हैं। परंतु वास्तव में धर्म उन सिद्धांतों का विवेचन करता है जिनका अनुसरण कर संसार के समस्त नर-नारी अपने को सुरक्षित महसूस करते हुए प्रेमपूर्वक रह सके। सत्य, अहिंसा और प्रेम ही धर्म के प्रमुख स्तंभ हैं। लेकिन मोटे तौर पर यदि मनुष्य सदा दूसरों के हित के लिए कार्य करे तो वास्तव में पारस्परिक संघर्ष की स्थिति ही उत्पन्न नहीं होगी। परोपकार की भावना आ जाने पर धर्म का मूल उद्देश्य अपने आप ही पूरा हो जाता है। जीवन में ऐसी स्थितियाँ आती हैं जबकि सत्य और अहिंसा को त्यागना पड़ता है। शठ के साथ शठता कपटी के साथ कपट करना पड़ता है। परंतु परोपकार वह गुण है जिसे यदि सभी व्यक्ति अपना लें तो संसार का ढाँचा ही बदल जाए। धर्म का कोई भी सिद्धांत परोपकार से बड़ा नहीं है। यदि सभी लोग दूसरों के कार्यों में हाथ बटायें, दूसरों के हितों का ध्यान रखे तो आपसी वैमनस्य का नामो-निशान मिट जाये। अनेक धर्मवेत्ताओं ने यह कहा है कि ‘जो तुम अपने लिए चाहते हो वही तुम दूसरों के लिए करो।’ इसका भी यही अर्थ है कि स्वहित तथा परहित में कोई भेद न किया जाय। परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है।
नमूना 5. अधजल गगरी छलकत जाय
घड़े की यह विशेषता होती है कि यदि उसमें पानी पूरा भरकर चला जाए तो पानी रास्ते में छलक कर नहीं गिरता; परंतु घड़े में पानी कम भरे होने पर पानी छलक कर गिरता है। पानी को घड़े से टकराने के लिए स्थान मिल जाता है जिसके कारण टकराने की ध्वनि भी उत्पन्न होती है। यही दशा अल्प ज्ञान रखने वाले की भी होती है। मंद बुद्धि तथा अल्प ज्ञानी अपने ज्ञान का ढिंढोरा पीटते रहते हैं। विषय की पूर्ण जानकारी न होने के कारण वे यह समझते हैं कि उनके बराबर दूसरे लोग ज्ञानवान नहीं है। ऐसे लोग अनावश्यक वाद-विवाद कर अनुचित टीका-टिप्पणी किया करते हैं। मामूली बातों पर दूसरों की आलोचना करना इनका नित्य का काम रहता है। इसके विपरीत ज्ञानवान व्यक्ति वाक्-संयम से काम लेता है। वह जानता है कि ज्ञान के अथाह सागर में उसकी स्थिति एक बूंद के समान है। भरे हुए बड़े की भांति ज्ञानी अपने ज्ञान को समेटे रहता है तथा समुचित पात्र मिलने पर अपने ज्ञान का निस्सरण करता है। अल्पज्ञानी बिना मांगे ही सलाह देता है तथा राह चलते लोगों के समक्ष भी अपने ज्ञान की डींग हाँकता है। स्वयं मंद बुद्धि होते हुए भी दूसरों को मूर्ख समझता है। वह अच्छे जल भरे घड़े की भांति अनावश्यक प्रलाप करता है।
नमूना 6. बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेय
मनुष्य कभी-कभी अपने बीते हुए जीवन के विषय में सोचता रहता है। यदि कोई काम बिगड़ जाता है, अथवा कोई हानि हो जाती है तो वह निराश हो जाता है तथा आगे कार्य करने का उसका साहस शिथिल पड़ जाता है। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। उसे अतीत की बीती हुई बातों को भुलाकर भविष्य तथा आगे की जिंदगी के बारे में सदैव विचार करना चाहिए। क्योंकि यदि वह अतीत में ही डूबा रहेगा, पिछली बातों को ही सोचता रहेगा तो वह कभी उन्नति नहीं कर सकेगा, वह कभी भी प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकेगा। –
नमूना 7. विपत्ति कसौटी जे करने सोही सांचे मीत
धनिक के लिए तो सभी मित्र होते हैं, पर निर्धन के लिए नहीं। अपना कार्य बनाने वाले मित्र तो बहुत होते हैं पर सुख में साथ देनेवाले मित्र भी कम नहीं होते, परंतु ये वास्तविक मित्र नहीं होते। वास्तविक मित्र वही होते हैं जो विपत्ति के समय मनुष्य की तन, मन, धन से सहायता करते हैं। सच्चे मित्र की पहचान विपत्ति में ही होती है “धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपत्ति काल परखिए चारी।” इसलिए मनुष्य को सच्चा मित्र ही बनाना चाहिए।