प्रभावी कक्षा-कक्ष सम्प्रेषण के सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
प्रभावी कक्षा-कक्ष सम्प्रेषण के सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर— प्रभावी कक्षा कक्ष सम्प्रेषण के सिद्धान्त – प्रभावी कक्षा-कक्ष के निम्नलिखित सिद्धान्त हैं—
(1) समन्वय का सिद्धान्त प्रभावी सम्प्रेषण की प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है कि प्रशासन या प्रबन्ध के विभिन्न अंगों में समन्वय हो । इसके साथ ही सहयोग प्राप्त करना चाहिए, जिससे कि वे सूचना के अनुसार आसानी से कार्य कर सकें ।
(2) संगतता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण करते समय इस सिद्धान्त का पालन करना चाहिए कि सूचनाएँ संगत हों, अर्थात् वे परस्पर विरोधी न हों, सूचनाएँ उपक्रम की नीतियों, योजनाओं तथा उद्देश्यों के अनुरूप ही होनी चाहिए।
(3) शिष्टता एवं शालीनता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण में सूचनाएं शिष्ट एवं शालीन होनी चाहिए। सम्प्रेषण करते समय शिष्ट भाषा का प्रयोग करना चाहिए। जिससे सुनने वाला व्यक्ति सूचना को ध्यान से सुने तथा उससे प्रभावित हो आवश्यकता पड़ने पर कठोर भाषा का प्रयोग भी करना चाहिए। जिससे व्यक्ति लापरवाही न करें ।
(4) पर्याप्तता का सिद्धान्त – इसका आशय है कि सूचनाएँ अर्थपूर्ण पर्याप्त होनी चाहिए, अपूर्ण नहीं, अपूर्ण सूचनाओं का प्रभाव तो सूचनाएँ न देने से भी अधिक खतरनाक होता है। इससे कार्य में निरन्तरता समाप्त हो जाती है और कार्य रूक जाता है तथा भ्रम पैदा हो जाता है।
(5) तत्परता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण में सम्प्रेषक एवं सन्देश ग्राहक (प्राप्तिकर्त्ता) दोनों पक्षों की क्रियाशीलता तथा तत्परता विशेष महत्त्व रेखती है। जब तक ये दोनों अपने भावों व विचारों के सम्प्रेषण हेतु अच्छी तरह तैयार न हों, अपनी रुचि और लगन से अपनी-अपनी भूमिका न निभाएँ तब तक सम्प्रेषण प्रभावी बन ही नहीं सकता है।
(6) निरन्तर प्रक्रिया का सिद्धान्त – सम्प्रेषण की प्रक्रिया में निरन्तरता से अधिक प्रभावी होती है।
(7) समयानुकूलता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण की प्रक्रिया में समयानुकूलता होनी चाहिए अर्थात् कोई भी सूचना सन्देशवाहन उचित समय पर किया जाना चाहिए। यदि सम्प्रेषण का कार्य समय बीतने के बाद किया जाता है, तो सूचनाएँ निरर्थक / व्यर्थ होंगी ।
(8) सतर्कता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण संगठन की नीतियों, उद्देश्यों व कार्यक्रमों के विपरीत नहीं होना चाहिए। विभिन्न सूचनाएँ एक-दूसरे की विरोधी नहीं होनी चाहिए। परस्पर विरोधी सूचनाएं भ्रम उत्पन्न करती हैं और उससे कार्य बिगड़ सकता है ।
(9) स्पष्टता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण करते समय सन्देश बिल्कुल स्पष्ट भाषा में दिया जाना चाहिए, जिससे कि सन्देश प्राप्त करने वाला उसको ठीक उसी अर्थ में समझ सके, जिस भाव से सन्देश देने वाले ने उसे प्रेषित किया है। उसमें किसी अन्य अर्थ के निकाले जाने की संभावना न हो। जहाँ कहीं आवश्यक हो, तो उदाहरण देकर बात को स्पष्ट किया जाना चाहिए।
(10) भाषा संक्षिप्तता का सिद्धान्त – विदित है कि “संक्षिप्तता अभिव्यक्ति की आत्मा होती है।” विचारों और भावों के अच्छे व प्रभावी सम्प्रेषण में भाषा की संक्षिप्तता गहरा प्रभाव छोड़ सकती है। सम्प्रेषण भाषा में लय, भाव, सुर तथा ताल का भी महत्त्व होता है।
(11) सन्देशवाहन पथ का सिद्धान्त – सम्प्रेषण श्रृंखला को भली प्रकार निश्चित किया जाना चाहिए। इसका धायिकों के सामूहिक मनोबल तथा सम्प्रेषण की प्रभावशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सन्देशवाहन पथ का आशय उस पथ से है जिसमें होकर सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।
(12) ध्यानाकर्षण का सिद्धान्त – सम्प्रेषण का मुख्य ध्येय दूसरे पक्ष को अपने विचार समझा देना है, केवल व्यक्त कर देना नहीं। यह तभी सम्भव होगा जबकि सन्देश प्राप्तकर्ता उसमें रुचि ले। इस सम्बन्ध में यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक व्यक्ति का भावबोध का स्तर अलग-अलग होता है और वह अपनी भावनाओं के आधार पर ही सोचता है।
(13) विचारों की सुसम्बद्धता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण में विचारों एवं भावों की तारतम्यता, एकता, क्रमबद्धता तथा सुसम्बद्धता का होना उसकी प्रभ्ज्ञावशीलता को बढ़ाने में काफी सक्षम सिद्ध हो सकता है।
(14) अनौपचारिकता का सिद्धान्त – सम्प्रेषण की प्रभावी प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है कि संगठन में अनौपचारिक सम्बन्धों का विकास किया जाए। कभी-कभी संगठन में अनौपचारिक सम्प्रेषण की प्रक्रिया भी अधिक प्रभावी होती है।
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