निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए—

निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए—

(i) पृच्छा (पूछताछ ) प्रशिक्षण प्रतिमान
(ii) दल शिक्षण
(iii) मस्तिष्क उद्वेलन
(iv) ब्लूम टेक्सोनॉमी
उत्तर— (i) पृच्छा ( पूछताछ ) प्रशिक्षण प्रतिमान – वस्तुओं का वह रूप जो अवास्तविक होते हुए भी वास्तविकता का बोध कराता है मॉडल या प्रतिमान कहलाता है। प्रतिमान शब्द आंग्ल भाषा के मॉडल का हिन्दी रूपान्तरण है। कक्षा में शिक्षण प्रक्रिया में प्रयुक्त होने वाली शिक्षण सामग्री में प्रतिमान प्रभावशाली सहायक साधन के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं। कोई औद्योगिक कारखाना सहायक साधन के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं। कोई औद्योगिक कारखाना या इमारत बनाने में नदी पर बाँध बनाने में किसी छवि को मूर्त रूप देने आदि कार्यों में व्यक्ति को चित्र, मानस बिम्ब एवं नक्शे के रूप में किसी न किसी प्रतिमान या मॉडल की आवश्यकता होती है। प्रतिमान के द्वारा ही वह उन कार्यों को साकार रूप प्रदान कर पाता है। मूर्तिकार, शिल्पकार, चित्रकार, अभियन्ता एवं भवन निर्माणकर्त्ता को मॉडल या प्रतिमान की आवश्यकता पड़ती है। प्रतिमान के दूसरे अर्थों में कोई नेता, महापुरुष, अभिनेता अथवा शिक्षक बालकों की दृष्टि में एक प्रतिमान का रूप ले लेते हैं जिनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बालक उनके हर पहलू को आत्मसात् करने का प्रयास करने लगता है। प्रतिमान का प्रयोग किसी व्यक्ति के आदर्शों को सम्मुख लाने के लिए किया जाता है जिससे इन आदर्शों को आत्मसात् करके कोई व्यक्ति चरित्र एवं व्यवहार से सम्बन्धित अच्छी एवं बुरी आदतों को ग्रहण करने का प्रयास करता है।
वील एवं जॉयसी के अनुसार, “शिक्षण प्रतिमान से तात्पर्य शैक्षणिक क्रियाओं और पर्यावरण को नियोजित करने वाले मार्गदर्शन से है। इसके द्वारा कुछ विशेष लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षण और अधिगम के तरीके निश्चित किए जाते हैं।
एन. के जंगीरा एवं अजीत सिंह के अनुसार, “शिक्षण प्रतिमान क्रमबद्ध और परस्पर सम्बन्धित ऐसे अवयवों का समुच्चय है जिसके द्वारा विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु मार्गदर्शन मिलता है। इससे पर्यावरणजन्य सुविधाओं और अनुदेशनात्मक क्रियाओं की योजना बनाने, इन क्रियाओं को क्रियान्वित करने और निश्चित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है । “
पाल डी. ईगन एवं उनके सहयोगी के अनुसार, “शिक्षण प्रतिमानों से अभिप्राय विशिष्ट अनुदेशनात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए निर्मित उपचारात्मक शिक्षण व्यूहरचनाओं से है । “
शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता के निम्न बिन्दु हैं—
(1) शिक्षण प्रतिमान की सहायता से छात्र की आवश्यकतानुसार उसे अधिगम-अनुभव उपलब्ध कराए जा सकते हैं ।
(2) शिक्षण प्रतिमान के द्वारा ही शिक्षण व्यूह रचना की जाती है। इसमें शिक्षा का उद्देश्य और अच्छी तरह से प्राप्त किया जा सकता है।
(3) शिक्षण प्रतिमान शिक्षा के उद्देश्य को प्राप्त करने में अध्यापक की सहायता करते हैं। इनकी सहायता से शिक्षक उचित पाठ्यक्रम-वातावरण देकर उद्देश्य शीघ्र प्राप्त कर सकता है।
(4) विशिष्टीकरण के लिए शिक्षण प्रतिमान अत्यन्त उपयोगी
(5) पाठ्य सामग्री के चयन में शिक्षण प्रतिमान शिक्षक की सहायता करते हैं।
(6) शिक्षण प्रतिमान शिक्षण प्रक्रिया में अत्यधिक सुधार लाने में सक्षम हैं।
(7) शिक्षक-विद्यार्थी के मध्य तालमेल बैठाने में शिक्षण प्रतिमान सहायता करते हैं।
(8) शिक्षण प्रतिमान मूल्यांकन करने में भी सहायक होते हैं और कार्य के लिए शिक्षण प्रतिमान की कसौटी की भूमिका निभाते हैं।
(9) शिक्षा के सिद्धान्तों के निर्माण में शिक्षण प्रतिमान अपना सक्रिय योगदान देते हैं ।
पूछताछ- प्रतिमान के तत्त्व / व्याख्या—पूछताछ/प्रतिमान की व्याख्या, इसके निम्नांकित तत्त्वों के द्वारा की जा सकती है—
( 1 ) केन्द्र बिन्दु – इस प्रतिमान का केन्द्र बिन्दु, निम्नांकित साधारण तथा विशेष उद्देश्यों से मिल कर बना है—
(क) साधारण उद्देश्य—
(a) विद्यार्थियों की वैचारिक क्षमता में वृद्धि करना ।
(b) उन्हें व्यवस्थित ढंग से, अपने विचारों को संगठित करने के योग्य बनाना ।
(c) उन्हें विशेषज्ञ बनाना ताकि चिन्तन तथा वाचन शक्ति में प्रवाह आ सके।
(d) उनको तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकालने के योग्य बनाना।
(ख) विशिष्ट उद्देश्य – पूछताछ- कौशल का प्रशिक्षण प्रदान करना ।
इस प्रकार, इस प्रतिमान का प्रमुख उद्देश्य, शोध आधारित सामग्री का प्रक्रियाकरण कार्य, कारणवाद तथा तर्कशास्त्र की धारणा के लिए, ज्ञानात्मक कौशलों का विकास करना है। इसका लक्ष्य, बच्चे को शृंखलाबद्ध पूछताछ-प्रशिक्षण के द्वारा, उसकी अधिक जानने की प्राकृतिक प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करना है ।
(2) संरचना – पूछताछ प्रशिक्षण प्रतिमान के पाँच चरण हैं, जिन्हें निम्नलिखित तालिका में दर्शाया गया है—
चरण
(I) समस्या का सामना
(i) पूछताछ की विधियों/प्रक्रियाओं की व्याख्या ।
(ii) समस्या अथवा जटिल घटना का प्रस्तुतीकरण ।
(II) तथ्य – संग्रह प्रमाणीकरण
(i) वस्तुओं तथा परिस्थितियों की प्रकृति का परीक्षण |
(ii) समस्या – परिस्थिति के घटित होने का परीक्षण |
(III) तथ्य-संग्रह तथा प्रयोगीकरण
(i) प्रासंगिक परिवर्तनशील कारकों को पृथक् करना।
(ii) अचेतन सम्बन्धों का परीक्षण तथा परिकल्पना ।
(IV) व्याख्या तैयार करना
(i) व्याख्या के नियम तैयार करना ।
(V) पूछताछ-प्रक्रिया का विश्लेषण
(i) पूछताछ नीति का विश्लेषण तथा किसी अन्य अधिक प्रभावशाली नीति का विकास करना ।
इन विभिन्न चरणों की व्याख्या निम्नलिखित अनुसार हैं—
चरण I– इस चरण में, शिक्षक सर्वप्रथम विद्यार्थियों को, पूछताछ की विधियों की व्याख्या करता है तथा समस्यात्मक स्थिति अथवा जटिल घटना प्रस्तुत करता है। पूछताछ साधारण प्रश्नों के साथ प्रारम्भ होती है, जो ‘हाँ’ अथवा ‘न’ प्रकार के उत्तरों के साथ आगे बढ़ती है। विद्यार्थी एक-दूसरे के साथ मुक्त रूप से विचार-विमर्श कर सकते हैं।
चरण II– दूसरे चरण में विद्यार्थी समस्यात्मक परिस्थिति के विषय में ज्ञान एकत्रित करते हैं। वे समस्या अथवा घटना से सम्बन्धित भ्रमों तथा शंकाओं को दूर करने का प्रयास करते हैं। शिक्षक भी उनकी इस कार्य में सहायता करता है तथा उन्हें प्रोत्साहित करता रहता है।
चरण III— इस अवस्था में विद्यार्थी यथार्थ रूप में प्रश्न पूछने प्रारम्भ कर देते हैं तथा शिक्षक ‘हाँ’ अथवा ‘न’ कह कर, उनके प्रश्नों के प्रति व्याख्या करता है ।
चरण IV— इस चरण में एकत्र की गई सूचना, जानकारी की सहायता से विद्यार्थी समस्या अथवा जटिल घटना की व्याख्या तैयार करते हैं। विभिन्न विद्यार्थी एक ही घटना की, विभिन्न विधियों से व्याख्या भी प्रस्तुत कर सकते हैं। सम्पूर्ण समूह मिलकर, समस्या की उचित व्याख्या कर सकता है।
चरण V— इस अवस्था में विद्यार्थी पूछताछ की सम्पूर्ण प्रक्रिया का विश्लेषण करते हैं । वे उन समस्या – विधियों पर विचार करते हैं जो उनकी पूछताछ प्रक्रिया के दौरान उन्होंने प्रयोग की थीं। इस प्रकार, वे अधिक प्रभावशाली नीतियों का विकास करने के योग्य हो सकते हैं।
(3) सामाजिक प्रणाली – यह प्रतिमान की प्रारम्भिक अवस्था होती है, जहाँ शिक्षक समस्या को प्रस्तुत करता है तथा प्रश्नों की प्रकृति निश्चित करता है। तत्पश्चात् शिक्षक विद्यार्थियों को पूछताछ के लिए प्रोत्साहित करता है, तो अधिगम-प्रक्रिया अधिक स्वतंत्र हो जाती है । यहाँ विद्यार्थियों के मध्य विचार-विमर्श तथा प्रयोगीकरण की व्यवस्था भी होती है। इस प्रकार, इस प्रतिमान में, शिक्षक-संरचित पूछताछ से विद्यार्थी नियंत्रित पूछताछ सत्र लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि वे पूछताछ प्रक्रियाओं में अधिक स्वतंत्र तथा सुयोग्य होते जाते हैं।
इस प्रकार, इस प्रतिमान को सामाजिक- प्रणाली, मेलमिलाप की भावना, बौद्धिक स्वतंत्रता तथा समानता प्रदान करती है। उचित शिक्षकविद्यार्थीि अंतर्क्रिया तथा विद्यार्थी-विद्यार्थी अंतर्क्रिया के साथ भरपूर, खुला वातावरण इस प्रतिमान की सफलता को विश्वसनीय बनाता है।
(4) प्रतिक्रिया के सिद्धान्त – जॉयस तथा वेल (1978) के अनुसार, विद्यार्थियों के कार्यों के प्रतिक्रम के रूप में, शिक्षक के उत्तर, निम्नांकित नियमों पर आधारित होने चाहिए—
(a) विद्यार्थियों को बल देकर कहा जाता है कि वे अपने सिद्धान्तों को और अधिक स्पष्ट करें तथा सामान्यीकरण को और अधिक समर्थन दें ।
(b) विद्यार्थियों के मध्य प्रतिक्रिया को प्रोत्साहित किया जाता है।
(c) प्रश्न इस प्रकार के बनाए जाएँ कि उनके उत्तर ‘हाँ’ अथवा ‘न’ में हों ।
(d) विद्यार्थियों को कहा जाता है कि पूछताछ प्रतिमान की भाषा का ही प्रयोग करें।
(e) यहाँ शिक्षार्थियों के लिए मुक्त बौद्धिक वातावरण होता है। सिद्धान्तों/परिकल्पनाओं को न तो मान्यता दी जाती है तथा न ही अस्वीकार किया जाता है।
(f) जो कथन अथवा प्रश्न अनुपयुक्त हों, उनके विषय में शिक्षक तुरन्त सूचित करता है।
(g) जब भी विद्यार्थी उचित विधि से प्रश्नों को बनाने में असफल हों, तो उन्हें अधिक शब्दों में, उन प्रश्नों को पुनः बनाने के लिए कहा जाता है।
(5) सहायक प्रणाली – क्योंकि पूछताछ – प्रशिक्षण प्रतिमान असंगत अथवा जटिल घटना के साथ प्रारम्भ होता है, अतः वह सारी स्रोत- सामग्री जो समस्या से सम्बन्धित होती है, यहाँ सहायक सामग्री का कार्य करती है। यह पुस्तक, फिल्म पोस्टर अथवा प्रयोग हेतु उपकरण आदि किसी भी प्रकार की हो सकती है ।
इस तत्त्व के अन्तर्गत, विद्यार्थियों के मूल्यांकन के लिए प्रयोगात्मक परीक्षाएँ प्रयोग की जा सकती है। यह पता लगाया जाता है कि विद्यार्थी अपनी समस्याओं को समाधान करके, अपने कार्य को कितने प्रभावशाली ढंग से कर सकते हैं। अतः शिक्षक पूछताछ सामग्री का विकास कर सकता है।
(6) प्रतिमान का प्रयोग—
(a) पूछताछ- शिक्षण प्रतिमान बच्चों में वैज्ञानिक पूछताछ योग्यता, रचनात्मकता तथा अधिगम में अधिकार प्राप्ति का विकास करने में सहायता करता है ।
(b) यद्यपि इसे प्रारम्भ में प्राकृतिक विज्ञानों के विषयों के प्रशिक्षण हेतु प्रयोग किया गया था, तथापि आजकल अन्य विषय भी इसकी परिधि में लिए जा सकते हैं। कोई भी घटना अथवा प्रयोग, जिसे समस्या के रूप में प्रस्तुत किया जा सके, इसके द्वारा पढ़ाया जा सकता है।
(c) विद्यार्थी सृजक बन जाते हैं तथा वे अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए, कई विधियों तथा नीतियों के विषय में सोचने के योग्य हो जाते हैं।
(d) यह शिक्षार्थियों को इस योग्य बनाता है कि वे क्रमबद्ध विधियों के द्वारा समस्याओं का समाधान कर सकें ।
(e) कुछ परिवर्तन करके यह प्रतिमान प्रत्येक आयु वर्ग के विद्यार्थियों के लिए सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है।
(ii) दल शिक्षण – इस पद्धति में एक साथ एक कक्षा में दो या अधिक अध्यापक अध्यापन कार्य करते हैं तथा कक्षा शिक्षण में एक दूसरे को सहयोग प्रदान करते हैं। इन शिक्षकों में एक शिक्षक संयोजक के रूप में कार्य करता है जो अन्य शिक्षकों के कार्यों में समन्वय लाता है । आधुनिक युग में शिक्षकों के साथ कुछ अन्य कर्मचारी तथा तकनीशियन भी कक्षा में जाने लगे हैं। ये व्यक्ति विद्युत व्यवस्था, शिक्षण यंत्रों के संचालन व लेखा-जोखा रखने का कार्य करते हैं। इस प्रविधि का विकास सर्वप्रथम सन् 1955 में ‘हावर्ड विश्वविद्यालय’ में हुआ। इसके बाद सन् 1960 में ब्रिटेन में इसका विकास ‘जे. फ्रीमैन’ ने किया । ‘शिकागो विश्वविद्यालय’ के ‘फ्रोसिस चेज’ ने टोली शिक्षण का प्रभावशाली प्रयोग शिक्षण के लिए किया ।
शैपलिन व ओल्ड के अनुसार, दल – शिक्षण अनुदेशात्मक संगठन का वह प्रकार है जिसमें शिक्षण प्रदान करने वाले व्यक्तियों को कुछ छात्र सुपुर्द कर दिए जाते हैं। शिक्षण प्रदान करने वालों की संख्या दो या उससे अधिक होती है जिन्हें शिक्षण का दायित्व सौंपा जाता है तथा जो एक छात्र – समूह को सम्पूर्ण विषयवस्तु या उसके किसी महत्त्वपूर्ण अंग का एक साथ शिक्षण करते हैं।
डेविड वारविक के अनुसार, “टोली शिक्षण का एक स्वरूप है जिसमें कई शिक्षक अपने साधनों रुचियो तथा दक्षताओं को इकट्ठा कर लेते हैं तथा विद्यार्थियों को आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षकों की एक टोली द्वारा उन्हें प्रस्तुत किया जाता है और स्कूल की सुविधाओं के अनुसार उपयोग किया जाता है। “
दल शिक्षण के उद्देश्य –दल शिक्षण के उद्देश्य निम्नलिखित हैं—
(a) कक्षा को प्रभावी शिक्षण प्रदान करना।
(b) शैक्षिक अनुदेशन में गुणात्मक विकास करना।
(c) कक्षा को विशिष्टीकृत शिक्षण प्रदान करना ।
(d) सहयोगी शिक्षा के अवसरों में वृद्धि करना ।
(e) शिक्षण, अनुदेशन में लोचशीलता लाना ।
(f) कक्षानुशासन बनाए रखना ।
(g) सहायक – सामग्री आदि के समुचित तथा विविध प्रयोग की संभावनाओं को बढ़ाना
दल शिक्षण के प्रकार—
(1) एक ही विभाग के शिक्षकों की टोली – इस प्रकार की व्यवस्था माध्यमिक व उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के लिए एक ही विभाग के शिक्षकों से की जाती है। शिक्षा में उन सभी विभागों में सभी स्तर पर की जा सकती है जिनमें एक विषय के दो से अधिक शिक्षक होते हैं।
(2) एक ही संस्था के विभिन्न विभाग के शिक्षकों की टोली – इस प्रकार शिक्षण की व्यवस्था “अध्यापक शिक्षा” तथा शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओं में किया जाता है क्योंकि इन कक्षाओं के शिक्षण के लिए मनोविज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र तथा सांख्यिकी विभाग के शिक्षकों के सहयोग से टोली शिक्षण की व्यवस्था की जा सकती है। इससे अन्तः अनुशासन शिक्षण व्यवस्था को प्रोत्साहन मिलता है। –
(3) विभिन्न संस्थाओं के एक ही विभाग के शिक्षकों की टोली – इसकी व्यवस्था प्रत्येक स्तर पर की जा सकती है इसमें अन्य संस्थाओं से विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है। एक नगर में कई प्रशिक्षण संस्थाएँ होने पर शिक्षण विषयों के लिए इसे प्रभावशाली ढंग से प्रयोग कर सकते हैं।
दल शिक्षण के सिद्धान्त—
(1) अनुदेशन स्तर – टोली शिक्षण में विद्यार्थियों को आवश्यक अधिगम के प्रारम्भिक व्यवहार का अनुदेशन देने से पूर्व अनुमान लगा लेना चाहिए।
(2) अधिगम वातावरण – टोली शिक्षण तभी सफल हो सकता है जब इसके लिए ठीक प्रकार का अधिगम वातावरण (जैसे- पुस्तकालय, प्रयोगशाला, इत्यादि) की व्यवस्था हो ।
(3) निरीक्षण – समूह के उद्देश्यों पर निरीक्षण का प्रकार निर्भर होता है अतः समूह के उद्देश्यों को निरीक्षण के समय ध्यान में रखना आवश्यक है।
(4) शिक्षकों के उपयुक्त उत्तरदायित्व — शिक्षकों के उत्तरदायित्व का निर्धारण उनकी शैक्षिक योग्यताओं, रुचियों, क्षमताओं के अनुसार होना चाहिए।
(5) समय अवधि — टोली शिक्षण में विषय की माँग के महत्त्व इत्यादि के आधार पर समय सीमा निर्धारण करना चाहिए।
(6) कक्षा आकार – समूह का आकार टोली शिक्षण के उद्देश्यों पर निर्भर करता है।
दल शिक्षण के सोपान—
(1) योजना
(2) व्यवस्था
(3) मूल्यांकन ।
(1) योजना – सर्वप्रथम योजना तैयार करने हेतु निम्न क्रियाओं को करना महत्त्वपूर्ण हैं—
(a) टोली शिक्षण के उद्देश्य का निर्धारण करना ।
(b) उद्देश्यों को व्यावहारिक शब्दावली (रूप) में लिखना।
(c) विद्यार्थियों के पूर्व-ज्ञान का अनुमान लगाना। शिक्षण के प्रकरण के विषय में निर्णय लेना ।
(d) शिक्षकों को छात्रों की रुचियों व उनके कौशलों को ध्यान में रखकर उन्हें कार्य देना।
(f) अनुदेशन स्तर का निर्धारण करना ।
(g) मूल्यांकन प्रविधियों का निर्धारण करना।
(h) शिक्षण साम्रग्री व अधिगम वातावरण तैयार करना ।
(2) व्यवस्था—टोली शिक्षण की व्यवस्था के दौरान निम्न क्रियाएँ की जाती हैं—
(a) अनुदेशन के स्तर निर्धारण के लिए शिक्षक कुछ प्रश्न पूछकर अनुदेशन का स्तर निर्धारित करता है।
(b) विद्यार्थियों को व्यावहारिक भाषा को ध्यान में रखकर, शिक्षण सम्प्रेषण विधि का चयन किया जाता है।
(c) शिक्षक प्रमुख व्याख्यान देता है तथा टोली के अन्य सदस्य शिक्षक व्याख्यान के उन बिन्दुओं को नोट करता है जो विद्यार्थियों के लिए समझना कठिन होता है।
(d) तत्पश्चात् अन्य सदस्य शिक्षक व्याख्यान द्वारा विभिन्न तत्त्वों का स्पष्टीकरण करते हैं।
(e) विद्यार्थियों की क्रियाओं को पुनर्बलन देकर विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते हैं ।
(f) इन व्याख्यानों में विद्यार्थियों को कुछ कार्य कक्षा में ही करने के लिए दिया जाता है।
(3) मूल्यांकन–इस चरण में उद्देश्यों की प्राप्ति के संदर्भ में मूल्यांकन किया जाता है इस चरण में निम्न क्रियाएँ होती
हैं—
(a) विद्यार्थियों की निष्पत्तियों व उद्देश्य प्राप्ति के बारे में निर्णय लिया जाता है ।
(b) मूल्यांकन के आधार पर योजना तथा व्यवस्था चरण में आवश्यक सुधार किया जाता है।
(c) मूल्यांकन के लिए मौखिक, लिखित प्रश्न व प्रयोगात्मक विधियों का अनुसरण किया जाता है।
(d) विद्यार्थियों की कमियों व कठिनाइयों का निदान किया जाता है और इनका आवश्यक उपचार भी किया जाता है।
(e) मूल्यांकन चरण के परिणाम विद्यार्थियों व शिक्षकों में पुनर्बलन का कार्य करते हैं ।
(iii) मस्तिष्क उद्वेलन — इसे मस्तिष्क विप्लव भी कहते हैं। मस्तिक विल्पव की मूल धारणा होती है कि एक व्यक्ति की अपेक्षा व्यक्तियों का समूह अधिक विचार प्रस्तुत कर सकता है। इस उपागम में ऐसे साधनों का प्रयोग किया जाता है जो शिक्षार्थियों के मस्तिष्क में चिन्तन कर ज्ञान प्राप्त करने के लिए हलचल मचा देते हैं। यह समस्या केन्द्रित होती है। शिक्षार्थियों के समक्ष एक जटिल समस्या प्रस्तुत की जाती है । जिस पर शिक्षार्थी समूह में बैठकर विचार-विमर्श करते हैं, चिन्तन करते हैं, विश्लेषण करते हैं और अन्त में संश्लेषण के द्वारा उसका हल प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। इसके पश्चात् शिक्षार्थी ही शिक्षक के मार्गदर्शन में उसका मूल्यांकन करते हैं ।
शिक्षार्थियों द्वारा सामने आयी समस्या के हल सम्बन्धी विचारों को शिक्षक लगातार श्यामपट्ट पर लिखता है और अन्त में ऐसे बिन्दु पर पहुँच जाता है जिसे कि हम समस्या का हल कह सकते हैं।
मस्तिष्क विप्लव के द्वारा शिक्षार्थियों में चिन्तन की क्षमता का विकास मुख्य रूप से किया जाता है ।
मस्तिष्क विप्लव की विशेषताएँ—
(1) यह ज्ञानात्मक तथा भावात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होती है।
(2) सामूहिक चिन्तन तथा विचार-विमर्श द्वारा अच्छे विचार सामने आते हैं।
(3) मस्तिष्क विप्लव सृजनात्मक क्षमताओं को बढ़ाती है।
(4) यह स्वतंत्रतापूर्वक सोचकर निष्कर्ष को प्राप्त करना सिखती है। जो लोकतंत्रात्मक समाज के लिये अत्यन्त लाभदायी हैं।
(5) यह मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
(6) यह शिक्षार्थियों को चिन्तन तथा समस्या समाधान के क्षेत्र में उत्साहित करती है।
(7) मस्तिष्क विप्लव के द्वारा शिक्षार्थियों में सामूहिकता की भावना का उदय होता है।
मस्तिष्क विप्लव की सीमाएँ—
(1) मस्तिष्क विप्लव में शर्मीले शिक्षार्थी सक्रिय रूप से भाग नहीं ले पाते हैं।
(2) शिक्षक द्वारा पक्षपातपूर्ण प्रोत्साहन की सम्भावनाएँ रहती हैं। जिससे शिक्षार्थियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका बनी रहती है।
(3) कुशाग्र बुद्धि वाले शिक्षार्थियों द्वारा मंद बुद्धि वाले शिक्षार्थियों को विचार प्रस्तुत करने के अवसर प्रदान नहीं किये जाने की सम्भावना रहती है ।
(4) मस्तिष्क विप्लव केवल उच्च स्तर की कक्षाओं में उपयोगी .
(5) मस्तिष्क विप्लव के सफल संचालन के लिये योग्य शिक्षक का होना आवश्यक है। सभी शिक्षक इसके संचालन के योग्य नहीं होते हैं ।
मस्तिष्क विप्लव के प्रयोग हेतु सुझाव—
(1) मस्तिष्क विप्लव के प्रयोग से पूर्व शिक्षक का उद्देश्य सभी शिक्षार्थियों में चिन्तन की आदत का विकास करना होना चाहिए।
(2) शर्मीले शिक्षार्थियों को उचित प्रोत्साहन दिया जाये जिससे कि वे सभी समस्या के समाधान हेतु अपने विचार प्रस्तुत कर सकें ।
(3) शिक्षक को निष्पक्ष रूप से कार्य करना चाहिए।
(4) मस्तिष्क विप्लव का प्रयोग केवल योग्य शिक्षकों द्वारा ही किया जाना चाहिए।
(5) शिक्षक़ को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी शिक्षार्थियों को विचार प्रस्तुत करने के समान अवसर प्राप्त हों ।
(iv) ब्लूम टेक्सोनॉमी – किसी भी अधिगम अनुभव को सुगम एवं मूल्यांकन को सुनिश्चित करने के लिए शैक्षिक उद्देश्यों का वर्गीकरण शिक्षक को अध्यापन व सीखने के उद्देश्यों के निर्धारण में सहायता प्रदान करता है।
टैक्सोनॉमी का अर्थ है— वर्गीकरण प्रणाली। डॉ. ब्लूम और उनके सहयोगियों ने व्यवहार के तीनों पक्षों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया ।
डॉ. ब्लूम ने उद्देश्यों को तीन भागों में बाँटा है—
(i) ब्लूम के आधार पर ज्ञानात्मक उद्देश्यों का वर्गीकरण
(ii) भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों का वर्गीकरण
(iii) क्रियात्मक पक्षश के उद्देश्यों का वर्गीकरण
(i) ब्लूम के आधार पर ज्ञानात्मक उद्देश्यों का वर्गीकरण –डॉ. बी. एस. ब्लूम ने संज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों को 6 वर्गों में वर्गीकृत किया है—
(1) ज्ञान – इसके अन्तर्गत विद्यार्थियों को विषय-वस्तु के विभिन्न पद, प्रत्ययों, परम्पराओं, प्रचलनों, वर्गों, सूत्र, संकेत आदि का प्रत्यास्मरण व प्रत्यभिज्ञान (पहचान) (Recognition) कराया जाता है। कक्षा में इसके लिए समुचित परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं।
(2) बोध ( दूसरे क्रम का निम्न स्तर) – अर्थग्रहण करने की क्षमता ही बोध कहलाती है। इसके अन्तर्गत निम्न तीन भाग सम्मिलित है—
(3) प्रयोग (Application) ( तीसरे क्रम का निम्न स्तर ) – प्राप्त किए गए ज्ञान का नवीन या विभिन्न परिस्थितियों में उपयोग करना ही इस उद्देश्य के अन्तर्गत आता है। अतः इस उद्देश्य को ज्ञान व बोध उद्देश्यों को प्राप्त करने के बाद ही किया जा सकता है। इसके भी निम्न 3 स्तर हैं जो इस प्रकार हैं—
(4) विश्लेषण (Analysis) (उच्च-स्तर)– सीखी गई विषयवस्तु के विभिन्न तत्त्वों का विश्लेषण इस उद्देश्य के अन्तर्गत आता है। यह उद्देश्य उपर्युक्त तीनों उद्देश्यों को प्राप्त करने के बाद किया जाता है इसके भी तीन स्तर होते हैं जो  इस प्रकार हैं—
(5) संश्लेषण ( उच्चतर – स्तर) इसके अन्तर्गत विभिन्न तत्त्वों को नवीन ढाँचे या संरचना में समन्वित करके सम्पूर्ण का निर्माण किया जाता है तथा अमूर्त सम्बन्धों की खोज की जाती है। इसको भी तीन अवस्थायें होती हैं।
(6) मूल्यांकन ( उच्चतम स्तर) – इसके अन्तर्गत आन्तरिक एवं बाह्य मानदण्डों के आधार पर निर्णय करके सीखे गये ज्ञान का मूल्यांकन करना आता है। इसमें किसी वस्तु, घटना, तथ्यों आदि के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर उसकी उपादेयता एवं उपयोगिता के सम्बन्ध में निर्णय लेते हैं। इसके अन्तर्गत निम्न बिन्दु आते हैं—
(i) आन्तरिक साक्ष्यों के आधार पर मूल्य निर्धारण
(ii) बाह्य कसौटियों के आधार पर मूल्य निर्धारण
किसी भी शिक्षण कार्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि विद्यार्थी यह निर्णय ले सके कि उसने जो अधिगम किया है वह मूल्य की दृष्टि से उपयोगी है या नहीं। अतः इस स्तर पर आन्तरिक साक्ष्यों व बाह्य कसौटियों के आधार पर विद्यार्थियों में तथ्यों सिद्धान्तों तथा नियमों आदि के बारे में निर्णय लेने के योग्य बनाते हैं ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विभिन्न शिक्षण विषयों में निहित तथ्यों, सिद्धान्तों आदि की सहायता से ज्ञान से लेकर मूल्यांकन तक के उद्देश्यों की प्राप्ति करके ज्ञानात्मक पक्ष को विकसित किया जाता है।
ब्लूम द्वारा दिए गए ज्ञानात्मक पक्ष को निम्न वर्गीकरण के आधार पर स्पष्ट कर सकते हैं—
(1) ज्ञान – इसके अन्तर्गत विद्यार्थियों को पाठ्यवस्तु के विशिष्ट तथ्यों, पदों, परम्पराओं, विधियों, प्रनियमों, सिद्धान्तों, संरचनाओं, वर्गों, कसौटियों का प्रत्यभिज्ञान (Recognisation) और प्रत्यास्मरण (Recall) कराया जाता है।
(2) बोध – बोध के अन्तर्गत ज्ञान वर्ग में जिन तथ्यों, वर्गों, पदों, सिद्धान्तों आदि का जिससे विद्यार्थी प्राप्त ज्ञान को शब्दों में व्यक्त कर सकें, को रखा जाता है। ज्ञान के बिना बोध नहीं हो सकता है। अतः ज्ञान वर्ग बोध वर्ग का आधार है।
(3) प्रयोग – किसी भी वस्तु का ज्ञान व बोध होने के बाद ही उस वस्तु से सम्बन्धित तथ्य, नियम के सिद्धान्त का सामान्यीकरण किया जाता है। उनकी कमजोरियों का निदान किया जाता है तथा पाठ्यवस्तु का प्रयोग किया जाता है। अतः ज्ञान व बोध इस वर्ग के आधार हैं ।
(4) विश्लेषण – इस वर्ग में विद्यार्थी तथ्यों, नियम या सिद्धान्तों आदि का विश्लेषण करता है तत्पश्चात् उनके सम्बन्धों का विश्लेषण करता है तथा फिर उनका व्यवस्थित सिद्धान्तों के रूप में विश्लेषण करता है। इसके लिए ज्ञान बोध व प्रयोग के उद्देश्यों की पहले ही प्राप्ति आवश्यक होती है।
(5) संश्लेषण – विद्यार्थी सीखी गई पाठ्यवस्तु के तथ्यों, नियमों एवं सिद्धान्तों आदि के तत्त्वों को एक नवीन रूप में व्यवस्थित करके एक  नयी योजना का प्रारूप तैयार करने में सक्षम हो जाता है परन्तु उपर्युक्त चारों वर्गों के उद्देश्यों की प्राप्ति के बाद ही यह सम्भव है।
(6) मूल्यांकन — इस स्तर पर विद्यार्थी इतना सक्षम हो जाता है कि वह निर्णय ले सके कि उसने जो अधिगम किया वह मूल्य की दृष्टि से उपयोगी है या अनुपयोगी। यह ज्ञानात्मक पक्ष का सर्वोच्च स्तर होता है ।
अतः हम कह सकते हैं कि ज्ञानात्मक पक्ष में ज्ञान से लेकर मूल्यांकन तक के उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।
(ii) भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों का वर्गीकरण — भावात्मक उद्देश्यों का सम्बन्ध ‘भावना’ से होता है। डॉ. ब्लूम तथा उनके सहयोगियों ने भावात्मक पक्ष के शैक्षिक उद्देश्यों को छः भागों में बाँटा जो इस प्रकार हैं—
(a) आग्रहण – इसका अर्थ छात्र को ग्रहण करने की इच्छा अथवा ध्यान से होता है। इसके तीन स्तर होते हैं—
(i) चेतना
(ii) ग्रहण करने की इच्छा शक्ति
(iii) नियंत्रित ध्यान ।
(b) अनुक्रिया करना— इसके अन्तर्गत छात्र को प्रेरित किया जाता है । यह ग्रहण करने के बाद की अगली स्थिति होती है तथा इसमें छात्र को स्वयं अनुक्रिया करके ग्रहण करता है इसके भी तीन स्तर होते हैं—
(i) अनुक्रिया सहमति
(ii) अनुक्रिया करने के लिए इच्छा होना
(iii) अनुक्रिया करने में सन्तुष्टि होना ।
(c) आकलन (अनुमूल्यन ) – इसका सम्बन्ध छात्र के विशिष्ट मूल्यों से होता है । इसके भी तीन स्तर होते हैं—
(i) किसी मूल्य की स्वीकृति
(ii) किसी मूल्य के लिए अधिक
(iii) लगाव प्रतिबद्धता ।
(d) धारण/विचार— मूल्यों के प्रति एक निश्चित धारणा बनाने के लिए प्रत्यय निर्माण इसके अन्तर्गत आता है। विभिन्न मूल्यों का प्रतिपादन करना। मूल्यों में विविधता के फलस्वरूप प्राप्त किए गए मूल्यों के सम्बन्ध में प्रत्यय-निर्माण (Concept-Formation) करना ।
(e) संगठन/व्यवस्थापन-व्यवस्था का अर्थ मूल्यों को क्रम में रखने से होता है। इसेक दो स्तर होते हैं—
(i) एक समान मूल्यों का एक प्रणाली में संगठित करना ।
(ii) मूल्यों में अन्तः सम्बन्ध का निर्धारण करना ।
ब्लूम और उनके सहयोगियों क्रथवाल एवं मसीहा द्वारा दिए गए भावात्मक पक्ष को हम निम्न ढंग से स्पष्ट कर सकते
है—
(a) आहरण का ध्यान देना — इसके अनुसार भावात्मक विकास की दृष्टि से सर्वप्रथम मानव मूल्यों की अनुभूति करानी होती है—
(i) इस अनुभूति के लिए किसी न किसी प्रकार का उद्दीपन होना जरूरी है।
(ii) उद्दीपन के प्रति छात्रों का आकृष्ट होना आवश्यक है।
(iii) उसके बाद छात्रों में उसके प्रति अनुक्रिया करने की      इच्छा होनी चाहिए।
अतः शिक्षक को अपने विद्यार्थी को इस प्रकार से अभिप्रेरित करना चाहिए कि वह मानवीय मूल्यों को भली-भाँति ग्रहण करने के लिए पर्याप्त इच्छा जाग्रत करें।
(b) अनुक्रिया – दूसरा स्तर विद्यार्थियों को उचित अनुक्रिया से सम्बन्धित है। उचित अनुक्रिया तभी हो सकती है जब—
(i) विद्यार्थी में मूल्यों को उचित रूप से ग्रहण करने की इच्छा जागृत हो ।
(ii) जब विद्यार्थी स्वेच्छा से शैक्षिक गतिविधियों में भाग लेना प्रारम्भ करें ।
अतः शिक्षक को विद्यार्थियों को अनुक्रिया के लिए तैयार करना चाहिए, उनमें अनुक्रिया करने की इच्छा जाग्रत करनी चाहिए और इस प्रकार के प्रयत्न करने चाहिए जिससे अनुक्रिया करने में पर्याप्त सन्तुष्टि का अनुभव करें।
(c) आंकलन – जब कोई विद्यार्थी किसी वस्तु या विचार के प्रति आकर्षित होकर अपनी अनुक्रिया व्यक्त करता है तब उसके विचार बहुत ही मूल्यवान होते हैं। अतः शिक्षक को विद्यार्थियों में किसी विशेष मूल्य को स्वीकार करने व किसी विशेष मूल्य के प्रति अधिक लगाव रखते हुए उसके पालन के लिए वचनबद्ध होने की योजना को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए।
(d) धारणा – जब कोई विद्यार्थी उपर्युक्त निर्मित मूल्यों में समता, भिन्नता व सम्बन्ध स्थापित कर धारणाओं का निर्माण करता है तो उसका यह व्यवहार इस उद्देश्य के अन्तर्गत आता है।
(e) संगठन – जब कोई विद्यार्थी व्यवहार सम्बन्धी अनुक्रिया करता है तो इस दिशा में विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व व सामाजिक मूल्यों को ग्रहण करता है, जिससे कई परिस्थितियों में टकराव की स्थिति आ जाती है। इस टकराव को रोकने के लिए तथा मूल्यों को अर्जित करने के लिए मूल्यों के स्वरूप और संप्रत्यय का ज्ञान कराना आवश्यक है। इसके बाद ही उनका व्यवस्थापन और संगठन करना होता है। अतः शिक्षक को मूल्यों को अच्छी तरह समझकर ऐसी प्रणाली में गठित करना चाहिए जिससे विद्यार्थियों में एक सशक्त चरित्र उभरे।
(f) मूल्यों का चारित्रीकरण — इस स्तर पर पहुँचने से पहले पाँचों वर्गों के उद्देश्यों की प्राप्ति आवश्यक है। चरित्र सम्बन्धी यह स्तर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इस स्तर पर विद्यार्थी के व्यक्तिगत व सामाजिक मूल्यों के समन्वय से उत्पन्न जिस मूल्य प्रणाली अथवा चरित्र की भूमिका बन चुकी होती है उसे विशेष रूप से प्रदान करने का प्रयास किया जाता है। इसके आधार पर ही विद्यार्थी के व्यक्तित्व की पहचान होती है। अतः चारित्रीकरण भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों में सबसे महत्त्वपूर्ण है।
(iii) क्रियात्मक पक्ष के उद्देश्यों का वर्गीकरण – क्रियात्मक पक्ष से सम्बन्धित उद्देश्यों को सिम्पसन ने (1969) में किया था। क्रियात्मक पक्ष से उद्देश्यों का सम्बन्ध विद्यार्थियों का क्रिया करने से होता है। इसके द्वारा विद्यार्थियों को क्रियाओं के परीक्षण तथा कौशलों के विकास पर बल दिया जाता है।
क्रियात्मक पक्ष को वर्गिकी को इस प्रकार समझा सकते
है—
(a) उद्दीपन – यह प्रथम चरण है। यह आवश्यकता केन्द्रित है इसमें किसी कार्य के प्रति उद्दीपन प्रदान किया जाता है या उत्तेजना उत्पन्न की जाती है। इसके निम्न दो स्तर होते हैं—
(b) कार्य करना — इसमें किसी उद्दीपन या उत्तेजना के आधार पर कार्य का सम्पादन होता है। इसके अन्तर्गत किसी भी कौशल में निहित विभिन्न तत्त्वों को क्रमबद्ध किया जाता है। इसके तीन स्तर होते हैं—
(c) नियंत्रण — कार्य का सम्पादन करते समय बालक अपनी क्रियाओं एवं गतिविधियों पर नियंत्रण रखता है । इसके निम्न दो स्तर होते हैं—
(d) समायोजन — पारस्परिक अन्तः सम्बन्ध ही समायोजन है। बालक अपनी क्रियाओं पर नियंत्रण करके विभिन्न कार्यों या क्रियाओं में समन्वय स्थापित करता है।
(e) स्वाभावीकरण – बालक को कार्य करने की एक कार्य शैली बन जाती है तथा बालक फिर अपनी सभी गतिविधियों का कार्य का सम्पादन अपने स्वाभाविक ढंग से करने लगता है।
(1) आदत निर्माण – इसमें बालक के कार्य करने की शैली उसकी आदत बन जाती है तथा उसमें कार्य करने की आदत का विकास हो जाता है।
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