” भारतीय संसद एक गैर-प्रभुता सम्पन्न विधि-निर्मात्री संस्था है ।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।

” भारतीय संसद एक गैर-प्रभुता सम्पन्न विधि-निर्मात्री संस्था है ।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।

अथवा

संप्रभुता को परिभाषित करें।
अथवा
संसद द्वारा पारित किए गए कुछ विवादस्पद कानून को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने फैसले में अमान्य करार दिए गए संदर्भों का उल्लेख करें। 
उत्तर – भारतीय संसद प्रभुता संपन्न विधि-निर्मात्री संस्था है या गैर-प्रभुता संपन्न, इसके लिए प्रभुता या संप्रभु शब्द का अर्थ जानना आवश्यक है।
सरल शब्दों में, प्रभुता या संप्रभु का अर्थ है सर्वेसर्वा अर्थात् जिसके ऊपर कोई न हो। संप्रभु के आदेशों को मानने के लिए सभी बाध्य हों और वह किसी के आदेश को मानने के लिए बाध्य नहीं हो।
विश्व में बिट्रेन का संसद संप्रभु है क्योंकि इसके बनाये कानून को कोई भी संस्था निरस्त नहीं कर सकती है। लेकिन, भारत में संसद के बनाये कानूनों का न्यायिक पुनर्विलोकन होता है और कोर्ट उसके बनाये कानून को निरस्त भी करता है जैसे मिनरवा मिल केस में अनुच्छेद 368 में किये गये संशोधनों को निरस्त किया गया था, जो न्यायिक पुनर्विलोकन के अधिकार को खत्म कर रहा था।
अतः सैद्धान्तिक और कानूनी तौर पर, भारत में संसद प्रभुता संपन्न विधि-निर्मात्री संस्था नहीं है। यहां संविधान ही सर्वोच्च है। परंतु, सात दशक के संविधान के गत्यात्मक पहलू की गतिविधयों पर भी गौर करना आवश्यक है।
यदि पिछले सत्तर साल में हुए संवैधानिक कानूनों के विकास पर दृष्टिपात करें तो हम पाएगें कि मेनका गांधी केस से सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों की प्रक्रियात्मक पहलू की तार्किकता की जांच करना शुरू किया। बाद में मिट्ठू बनाम पंजाब राज्य में भारतीय दंड संहिता की धारा-303 को इस आधार पर निरस्त कर दिया कि यह न्यायधीशों को विवेकाधिकार प्रदान नहीं करता है। गौरतलब है कि धारा 303 भा.द. स. एक मौलिक कानून है जिसे निरस्त किया गया। इस तरह, कहा जा सकता है कि मेनका गांधी केस के पहले, भारतीय संसद एक संप्रभु विधि-निर्मात्री संस्था की तरह कार्य कर रहा था। लेकिन मेनका गांधी और आर. सी. कूपर केस के बाद भारत में अमेरिकी ‘विधि की विहित प्रक्रिया’ को संविधान द्वारा प्रदत ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के स्थान पर अपनाया गया और इस तरह, संसद द्वारा पारित विधि को न्यायिक पुनर्विलोकन की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
2017 में ही, पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा बहुत सारे कानूनों को निरस्त किया गया इस संबंध में निम्नलिखित केसों का अवलोकन किया जा सकता है- सायरा बानो केस, नवतेज सिंह जौहर केस, जोसेफ साइन केस और सबरीमाला केस।
इसके साथ ही, केशवानंद भारती केस से एक और गत्यात्मक पहलू गौर करने योग्य है। गोलकनाथ केस में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद को मौलिक अधिकार यानी संविधान के भाग- III में संशोधन करने को कोई अधिकार नहीं है । इसके प्रत्युतर में, 24वां संशोधन पारित कर संसद की सर्वोच्चता इस संबंध में स्थापित की गई | 24वां संशोधन का न्यायिक पुनर्विलोकन केशवानंद भारती केस में हुआ जिसमें संशोधन को असंवैधानिक घोषित नहीं किया गया बल्कि संसद के संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने के अधिकार को स्वीकार कर लिया गया लेकिन एक अंकुश के साथ, कि संविधान की मूल संरचना को संसद संशोधन द्वारा नही परिवर्तित कर सकती है।
अनुसूचित जाति व जनजाति उत्पीड़न निवारक व निरोध अधिनियम, 1989 की कुछ उपबंधों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्यवहारिक रूप से निरस्त (Dilute) कर दिया गया था। बाद में, संसद ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को संशोधन द्वारा का निष्प्रभावी कर दिया। तत्पश्चात् इस संशोधन को चुनौती दी गई। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने संसद द्वारा किये गये संशोधन को वैध ठहराया और पुरानी व्यवस्था को इस संबंध में स्वीकार किया लकिन इस पर भी यदाकदा सुप्रीम कोर्ट के कान खड़े होते रहे हैं।
इसी तरह, इंदिरा साहनी के केस में अनुचित जाति व जनजाति के प्रोन्नति में आरक्षण को अवैध ठहराया गया। संसद ने 85वां संशोधन द्वारा अनुच्छेद 16 (4अ) जोड़कर इसे वैध बना दिया। एम नागराज केस में सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ सीमा के साथ इस संशोधन को स्वीकार कर लिया।
अत: यह कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट संसद की निरंकुश शक्ति पर अंकुश लगाता है अपनी न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति द्वारा, लेकिन कोर्ट भी यह मानता है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद की आवाज, जनता (we, the people of India) की आवाज है।
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