यू.पी.पी.एस.सी. 2020 मुख्य निबंध
यू.पी.पी.एस.सी. 2020 मुख्य निबंध
> विशेष अनुदेश:
(i) प्रश्न-पत्र तीन खंडों में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड से केवल एक-एक विषय का चयन कर कुल तीन निबंध हिन्दी अथवा अंग्रेजी अथवा उर्दू भाषा में लिखिए।
(ii) प्रत्येक निबंध में कुल प्रयुक्त शब्दों की अधिकतम सीमा 700 शब्दों की है।
(iii) प्रत्येक निबंध के लिए 50 अंक निर्धारित हैं।
खण्ड – क
1. साहित्य की समाजिकता
> समाज
साहित्य का आविर्भाव भी इसी समाज से होता है, जिसे रचनाकार अपने भावों के साथ । मिलाकर उसे एक आकार देता है। यही रचना समाज के नवनिर्माण में पथप्रदर्शक की भूमिका निभाने लगती है। साहित्यकार होने के नाते अपने समाज के साथ उनका एक विशेष प्रकार का संबंध है- समाज से उनका आशय चाहे हिंदी भाषी समाज रहा हो जो कि उनका पहला पाठक होगा, चाहे भारतीय समाज जिसके काफी समय से संचित अनुभव को वे वाणी दे रहे होंगे, चाहे मानव समाज हो जो कि शब्द मात्र में अभिव्यक्त होने वाले मूल्यों की अंतिम कसौटी ही नहीं बल्कि उनका स्रोत भी है।
साहित्य वह सशक्त माध्यम है, जो समाज को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। यह समाज में प्रबोधन की प्रक्रिया का सूत्रपात करता है। लोगों को प्रेरित करने का कार्य करता है और जहाँ एक ओर यह सत्य के सुखद परिणामों को रेखांकित करता है, वहीं असत्य का दुखद अंत कर सीख व शिक्षा प्रदान करता है। अच्छा साहित्य व्यक्ति और उसके चरित्र निर्माण में भी सहायक होता है। यही कारण है कि समाज के नवनिर्माण में साहित्य की केंद्रीय भूमिका होती है। इससे समाज को दिशा – बोध होता है और साथ ही उसका नवनिर्माण भी होता है। साहित्य समाज को संस्कारित करने के साथ-साथ जीवन मूल्यों की भी शिक्षा देता है एवं कालखंड की विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं विरोधाभासों को रेखांकित कर समाज को संदेश प्रेषित करता है, जिससे समाज में सुधार आता है और सामाजिक विकास को गति मिलती है।
साहित्य में मूलतः तीन विशेषताएँ होती हैं जो इसके महत्त्व को रेखांकित करती हैं। उदाहरणस्वरूप साहित्य अतीत से प्रेरणा लेता है, वर्तमान को चित्रित करने का कार्य करता है और भविष्य का मार्गदर्शन करता है। साहित्य को समाज का दर्पण भी माना जाता है। हालाँकि जहाँ दर्पण मानवीय बाह्य विकृतियों और विशेषताओं का दर्शन कराता है, वहीं साहित्य मानव की आंतरिक विकृतियों और खूबियों को चिह्नित करता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि साहित्यकार समाज में व्याप्त विकृतियों के निवारण हेतु अपेक्षित परिवर्तनों को भी साहित्य में स्थान देता है। साहित्यकार से जिन वृहत्तर अथवा गंभीर उत्तरदायित्वों की अपेक्षा रहती है, उनका संबंध केवल व्यवस्था के स्थायित्व और व्यवस्था परिवर्तन के नियोजन से ही नहीं है, बल्कि उन आधारभूत मूल्यों से है जिनसे इनका निर्णय होता है कि वे वांछित दिशाएँ कौन-सी हैं, और जहाँ इच्छित परिणामों और हितों की टकराहट दिखाई पड़ती है, वहाँ पर मूल्यों का पदानुक्रम कैसे निर्धारित होता है ?
साहित्य समाज की उन्नति और विकास की आधारशिला रखता है। इस संदर्भ में अमीर खुसरो से लेकर तुलसी, कबीर, जायसी, रहीम, प्रेमचंद, भारतेन्दु, निराला, नागार्जुन तक की श्रृंखला के रचनाकारों ने समाज के नवनिर्माण में अभूतपूर्व योगदान दिया है। व्यक्तिगत हानि उठाकर भी उन्होंने शासकीय मान्यताओं के खिलाफ जाकर समाज के निर्माण हेतु कदम उठाए। कभी-कभी लेखक समाज के शोषित वर्ग के इतना करीब होता है कि उसके कष्टों को वह स्वयं भी अनुभव करने लगता है। तुलसी, कबीर, रैदास आदि ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों का समाजीकरण किया था जिसने आगे चलकर अविकसित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में समाज में स्थान पाया। मुंशी प्रेमचंद के एक कथन को यहाँ उद्धृत करना उचित होगा, “जो दलित है, पीड़ित है, संत्रस्त है, उसकी साहित्य के माध्यम से हिमायत करना साहित्यकार का नैतिक दायित्व है। ‘
साहित्य की सार्थकता इसी में है कि वह कितनी सूक्ष्मता और मानवीय संवेदना के साथ सामाजिक अवयवों को उद्घाटित करता है। साहित्य संस्कृति का संरक्षक और भविष्य का पथ-प्रदर्शक है। संस्कृति द्वारा संकलित होकर ही साहित्य ‘लोकमंगल’ की भावना से समन्वित होता है।
उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी को भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक एवं समाज निर्माण की शताब्दी कहा जा सकता है। इस शताब्दी ने स्वतंत्रता के साथ-साथ समाज सुधार को भी संघर्ष का विषय बनाया। इस काल के साहित्य ने समाजिक जागरण के लिये कभी अपनी पुरातन संस्कृति को निष्ठा के साथ स्मरण किया है, तो कभी तात्कालिक स्थितियों पर गहराई के साथ चिंता भी अभिव्यक्त की।
वर्तमान साहित्य मानव को श्रेष्ठ बनाने का संकल्प लेकर चला है। व्यापक मानवीय एवं राष्ट्रीय हित इसमें निहित हैं। हाल के दिनों में संचार साधनों के प्रसार और सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्यिक अभिवृत्तियाँ समाज के नवनिर्माण में अपना योगदान अधिक सशक्तता से दे रही हैं। हालाँकि बाजारवादी प्रवृत्तियों के कारण साहित्यिक मूल्यों में गिरावट आई है, परंतु अभी भी स्थिति नियंत्रण में है। आज आवश्यकता है कि सभी वर्ग यह समझें कि साहित्य समाज के मूल्यों का निर्धारक है और उसके मूल तत्त्वों को संरक्षित करना जरूरी है क्योंकि साहित्य जीवन के सत्य को प्रकट करने वाले विचारों और भावों की सुंदर अभिव्यक्ति है।
2. 21वीं सदी में जाति प्रथाः समस्या और चुनौतियाँ
> समाज
जातिवाद भारत का एक ऐसा घटक बन गया है जो इसकी संरचना में बहुत गहराई में के नाम, पहचान का प्रमुख हिस्सा हो गया है। जाति व्यवस्था के बारे में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का कहना था कि भारत में हर छोटी-से-छोटी जाति अपने से नीचे वाली जाति खोज लेती है। अतः यह एक जटिल और व्यापक व्यवस्था है। इसका प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में भारतीय समाज पर पड़ता है।
एक ओर यह लोगों को एक अलग पहचान का आधार प्रदान करता है तो दूसरी ओर यह लोगों के बीच दिवाल भी बनकर खड़ी हो गई है। आज यह देश की राजनीति का भी बहुत प्रमुख मुद्दा बनकर उभरा है। नेताओं द्वारा जाति की राजनीति आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास का बहुत बड़ा पहलू है। जाति के इतिहास और भारत पर पड़ रहे इसके प्रभाव को जानना अति आवश्यक है। इसके लिए हमें जाति और साथ ही साथ इसे जन्म देने वाली वर्ण व्यवस्था को समझना जरूरी है।
जाति प्रथा न केवल हमारे मध्य वैमनस्यता को बढ़ाती है, बल्कि ये हमारी एकता में भी दरार पैदा करने का काम करती है। जाति प्रथा प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में बचपन से ही ऊंच-नीच, उत्कृष्टता निकृष्टता के बीज बो देती है। अमुक जाति का सदस्य होने के नाते किसी को लाभ होता है तो किसी को हानि उठानी पड़ती है। जाति श्रम की प्रतिष्ठा की संकल्पना के विरुद्ध कार्य करती है और ये हमारी राजनीति दासता का मूल कारण रही है। जाति प्रथा से आक्रांत समाज की कमजोरी विस्तृत क्षेत्र में राजनीतिक एकता को स्थापित नहीं करा पाती तथा यह देश पर किसी बाहरी आक्रमण के समय एक बड़े वर्ग को हतोत्साहित करती है। स्वार्थी राजनीतिज्ञों के कारण जातिवाद ने पहले से भी अधिक भयंकर रूप धारण कर लिया है, जिससे सामाजिक कटुता बढ़ी है।
जातिवाद राष्ट्र के विकास में मुख्य बाधा है जो सामाजिक असमानता और अन्याय के प्रमुख स्रोत के रूप में काम करता है। इसका समाधान अंतरजातीय विवाह के रूप में हो सकता है। अंतरजातीय विवाह से जातिवाद की जड़ें कमजोर होंगी। आधुनिक समय में किसी भी व्यक्ति के जीवन में जाति उसी समय देखी जाती है, जब उसका विवाह होता है। यदि इस बुराई का समूल नाश करना है तो ऐसे कदम उठाने होंगे जो विवाह के समय जाति की संगतता समाप्त कर दे।
कम-से-कम राजपत्रित पदों पर काम करने वाले व्यक्तियों से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे अपने आप ही जाति की सीमित परिधि से बाहर अपना विवाह करें। अंतरजातीय विवाह करने वाले को सरकारी पदों पर नियुक्ति में वरीयता दी जानी चाहिए। संविधान में संशोधन कर ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए, जिसके तहत राजपत्रित पदों पर उन्हीं युवक
युवतियों को चुना जाए जो अपनी जाति के बाहर विवाह करने को तैयार हों । जाति उन्मूलन के लिए राजनीतिक नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति और ईमानदारी आवश्यक है। राजनीतिक व्यक्तियों या नेतृत्व को जातिवादी संस्थाओं, संगठनों और आयोजनों से दूर रहना चाहिए तथा सरकार द्वारा जातिवादी संगठनों, सभाओं और आयोजनों को हतोत्साहित करना चाहिए, किंतु भारतीय राजनीति में यह आज भी बहुत दुखद है कि उनके विराट व्यक्तित्व को एक जाति विशेष तक सीमित करने की कोशिश की जाती है। समझना होगा कि जब तक समाज से जातिवाद का अंधेरा नहीं मिटेगा, तब तक राष्ट्रीय एकता का सूरज उदित नहीं होगा। देखने पर मिलता है कि भारत में कुल जातियों की संख्या 6743 है। उप-जातियां इसमें शामिल नहीं हैं। यह प्रथा पिछले 3500 वर्षों से अक्षुण्ण है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही इसे दूर करने का सबसे बड़ा औजार बन सकता है, लेकिन सैकड़ों साल से चलने वाली किसी परंपरा को इतने कम समय में दूर कर लेना भी आसान नहीं है।
भारत सरकार ने तथा संविधान निर्माताओं ने कुछ नीतियों एवं नियमों से इसे दूर करने का प्रयास किया, परंतु यह व्यवस्था भारतीय समाज में इस कदर व्याप्त है जैसे दूध में मिलावट का पानी। इस मिलावट को दूर करने के लिए दक्षता के साथ-साथ कुछ कठोर कदम उठाने की भी जरूरत है, जिससे कि आज तक भारतीय राजनीतिज्ञ बचते आए हैं क्योंकि इससे उनका राजनीतिक जीवन ही दांव पर लग सकता है। बुद्ध, नानक, कबीर, अंबेडकर आदि ने तो अपने-अपने काल में अपना पूरा प्रयास किया, लेकिन अब फिर से जरूरत है – ईमानदार प्रबुद्धों की जो इस समस्या को राष्ट्र के राजनीतिक एवं सामाजिक पटल पर रखकर इसके सामाधानों पर चर्चा करें। अगर सचमुच हम समानता का जातिविहीन समाज बनाना चाहते हैं तो एक नेशनल नैरेटिव के साथ सामाजिक न्याय का एक रैशनल प्रारूप बनाना होगा। इसके लिए विवाद कम विचार ज्यादा करने की जरूरत है।
3. भारत में चुनाव सुधार आवश्यकता और अपरिहार्यता
> राजनीति
हम अक्सर अपनी राजनीतिक प्रणाली को वर्तमान हालात के लिये दोषी करार देते हैं, लेकिन क्या यह प्रणाली भाव-शून्यता में काम कर रही है? इस समस्या में समाज की भी स्पष्ट भागीदारी है। हमारी राजनीतिक प्रणाली का व्यवहार समाज के प्रति उनकी प्रतिक्रिया है। इस राजनीतिक प्रणाली को सुधारने के लिये समाज और उसके तंत्रों में सुधार की आवश्यकता है। यहीं से चुनावी सुधार महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में यह आवश्यक है कि देश में सुशासन के लिये सबसे अच्छे नागरिकों को जन प्रतिनिधियों के रूप में चुना जाए। इससे जनजीवन में नैतिक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है, साथ ही ऐसे उम्मीदवारों की संख्या भी बढ़ती है जो सकारात्मक वोट के आधार पर चुनाव जीतते हैं। लोकतंत्र की इस प्रणाली में मतदाता को उम्मीदवार चुनने या अस्वीकार करने का अवसर दिया जाना चाहिये जो राजनीतिक दलों को चुनाव में अच्छे उम्मीदवार उतारने पर मजबूर करे। कोई भी लोकतंत्र इस आस्था पर काम करता है कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे। यह चुनाव प्रक्रिया ही है जो चुने गए लोगों को गुणवत्ता और उनके प्रदर्शन के माध्यम से हमारे लोकतंत्र को प्रभावी बनाती है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक देश में कई आम चुनाव संपादित हो चुके हैं। इन चुनावों के समय उजागर होने वाली विभिन्न कमियों और असंगतियों की समय-समय पर चर्चा भी हुई है। इस चर्चा में संविधान के टीकाकार, राजनीतिज्ञ, राजनीतिक समीक्षक, न्यायाधीश, पत्रकार, राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक और जनसाधारण तक शामिल हुए हैं। राजनीतिक दलों द्वारा भी समय-समय पर प्रस्ताव पारित कर के चुनाव सुधारों के बारे में लगभग यही सहमति सी पाई जाती है कि यदि चुनाव में धन के दुषित प्रभाव, बढ़ती हिंसा, अत्यधिक खचीर्ले चुनाव, निर्दलियों की बढ़ती बाढ़, जाली मतदान की घटनाएं तथा स्वतंत्र व निष्पक्ष मतदान कराने वाली चुनाव मशीनरी की ही निष्पक्षता पर संदेह जैसी प्रवर्तियों पर नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के भविष्य के आगे ही प्रश्नवाचक चिह्न लग जाएगा। अतः समय रहते चुनाव सुधार नहीं किए गए तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियाद ही खोखली हो जाएगी । फलस्वरूप निर्वाचन सुधार समय की आवश्यकता है।
राजनीति के जटिल आंतरिक चरित्र और गठबंधन की अंतहीन संभावनाओं के चलते भारत के चुनाव का अनुमान लगाना बेहद कठिन है। भारत के मतदाता संसद या लोकसभा के 543 सदस्यीय निचले सदन के लिये सांसदों का चुनाव करते हैं। क्षेत्र के हिसाब से दुनिया के सातवें बड़े और दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले देश में चुनाव कराना बेहद जटिल कार्य है। निर्वाचन अधिकारियों पर अनुचित रूप से राजनीतिक दबाव डाले जाते हैं। फलस्वरूप वे निष्पक्ष रूप से अपना कार्य नहीं कर पाते हैं।
भारतीय चुनाव में सत्तारूढ़ दल द्वारा सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग आम बात हो गई है। दलीय लाभों के लिये प्रशासनिक तंत्र के दुरुपयोग के विरुद्ध विपक्षी दल हमेशा आवाज उठाते रहे हैं। परंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि जब भी विपक्षी दल सत्तारुढ़ हुआ तो वह भी इस दोष से मुक्त नहीं हो पाया है। भारतीय चुनाव प्रणाली की सबसे बड़ी खामी यह है कि चुनाव से पूर्व तक मतदाता सूची अपूर्ण रहती है। परिणामस्वरूप अनेक नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग करने से वंचित रह जाते हैं। निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या में बहुलता भी चुनावी प्रणाली की एक बड़ी समस्या है। प्रायः निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रयोग वोट काटने के लिये किया जाने लगा है। इसके अतिरिक्त जाली व फर्जी मतदान की बढ़ती प्रवृत्ति, निर्वाचन आयोग के पास अपने स्वतंत्र कर्मचारी न होना, डाक द्वारा प्राप्त होने वाले मतों के संदर्भ में पर्याप्त अवसंरचना का अभाव इत्यादि हैं।
चुनाव सुधार लोकतंत्र की प्रक्रिया का मुख्य फोकस लोकतंत्र के मूल अर्थ को व्यापक बनाना तथा इसे नागरिकों के अधिक अनुकूल बनाना ही है। यह भी सही है कि चुनाव भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा सोर्स बन चुका है। चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद भी करोडो की नकदी जब्त की जाती है। सामान्यतः जितनी धनराशि चुनाव लड़ने के लिए तय की जाती है, उससे भी अधिक धन का प्रयोग किया जाता है। उम्मीदवार महंगाई को देखते हुए खर्च करते हैं। तमाम तरह से अवैध धन का इस्तेमाल किया जाता है। उम्मीदवार महंगाई को देखते हुए खर्च की सीमा बढ़ाने की मांग करते हैं। अगर काले धन के इस्तेमाल को रोकना है तो निर्वाचन आयोग को तर्कसंगत तरीके से सोचना ही होगा। चुनाव सुधारों के लिए चुनाव आयोग को पहल करनी ही होगी। चुनाव सुधार एक जरूरत ही नहीं बल्कि वर्तमान आवश्यकता है।
खण्ड – ख
4. जल प्रदूषण और गंगा स्वच्छता
> पर्यावरण
गंगा की घाटी दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाली नदी घाटी मानी जाती है। यहाँ गणा का लगभग आधे से अधिक हिस्सा यहाँ रहता है, लेकिन यहाँ बहुत अधिक गरीबी है और पानी एवं स्वच्छता के बुनियादी ढाँचे का अभाव है या उसकी स्थिति संतोषजनक नहीं है। गंगा की घाटी मूल रूप से कृषि प्रधान है और यहाँ बसे शहरों में छोटे पैमाने पर, अनियमित और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग हैं। इसके अलावा तीर्थ या धार्मिक स्थल भी हैं। इसलिये प्रदूषण मूल रूप से अप्रबंधित सीवेज, सीपेज और ठोस कचरे के कारण फैलता है जोकि बड़ी आबादी, औद्योगिक अपशिष्ट कृषि रसायनों और अपशिष्ट धार्मिक चढ़ावे से उत्सर्जित होता है। सूखे के महीनों में नदी में कम प्रवाह होता है और जलवायु परिवर्तन के दौरान यह स्थिति और विकट हो जाती है।
गंगा घाटी के राज्य जैसे उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल का स्वच्छता का बुनियादी ढाँचा बहुत कमजोर है। नवीनतम जनगणना 2011 के अनुसार, लगभग 45 से 53 प्रतिशत शहरी परिवार सेप्टिक टैंक का उपयोग करते हैं और उनके पास सेप्टिक प्रबंधन की कोई योजना और तंत्र नहीं है। खुले मैदानों, गड्ढों और नालियों में शौच करने वाले भी बहती नदी को गंदा कर रहे हैं। देश की 25 प्रतिशत से अधिक आबादी खुले में शौच करती है और यह मानव स्वास्थ्य तथा जल प्रदूषण के लिये एक गंभीर प्रत्यक्ष खतरा है। गंगा घाटी के राज्यों में ठोस कचरे की संग्रह क्षमता और उचित निपटान का अभाव है। अधिकांश गाँव, कस्बे और शहर ऑर्गेनिक, प्लास्टिक, काँच, मरे हुए जानवरों और अन्य अपशिष्ट को नदियों के किनारे फेंकते हैं, जिससे नदियों की जल धारा अवरुद्ध और प्रदूषित होती है। यह दृश्य लोगों की आँख में खटकता है और उनका सौंदर्यशास्त्र बिगड़ता है।
गंगा नदी की सफाई वर्तमान सरकार का प्रमुख कार्यक्रम है, जिस पर कैबिनेट सचिवालय और प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा नियमित रूप से नजर रखी जा रही है। गंगा की सफाई से सम्बन्धित अधिकांश कार्य पर्यावरण एवं वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से जल संसाधन मंत्रालय में स्थानांतरित हो गए हैं। बदलती रुचि को प्रतिबिम्बित करने के लिये संसाधन मंत्रालय का नाम ही जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प मंत्रालय रख दिया गया है। विभिन्न देशों की सरकारों जैसे जापान, फ्रांस, इजरायल, ब्रिटेन, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया आदि और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के कंसोर्टियम सहित अन्य संस्थानों से सहायता प्रदान करने का अनुरोध किया गया है।
भारत सरकार ने 2015 में नमामि गंगे कार्यक्रम को मंजूरी दी है जो व्यापक तरीके से गंगा को स्वच्छ और संरक्षित करने का एकीकृत प्रयास है। अगली योजना अवधि के लिये 200 अरब रुपये का आवंटन किया गया है और गैप कार्यक्रमों को इसके दायरे में लाया गया है। यह बहुत व्यापक है और इसमें बायो रेमिडिएशन के जरिए खुली नालियों में बहने वाले अपशिष्ट जल का उपचार, नवीन प्रौद्योगिकी का प्रयोग, अतिरिक्त एसटीपीए नए औद्योगिक उपचार संयंत्रों को लगाना और सभी मौजूदा संयंत्रों की रेट्रोपिटिंग की स्थापना करना है, जिससे उन्हें कार्यात्मक बनाया जा सके।
विश्व में ऐसी अनेक नदियाँ हैं जो कभी गंगा से भी अधिक प्रदूषित थीं, जैसे डेन्यूब, टेम्स, राइन, नील और एल्बे । विभिन्न देशों में विभिन्न नदी घाटियों में जल प्रबंधन संगठनों ने जानकारियाँ और परिदृश्यों को तैयार करके, प्रदूषण के स्थानों को चिह्नित करके, कृषि में पोषण अंतराल को कम करने के लिये शहरी तथा ग्रामीण कचरे का उपचार करके, निवेश को बढ़ावा देकर और जागरूकता फैलाकर नदियों की सफाई और कायाकल्प किया। भारत में प्रदूषण नियंत्रण पर वर्तमान प्रयास और निवेश केवल सीवर और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण पर केंद्रित रहे हैं।
वर्तमान योजना को फिलहाल अनियंत्रित सीवेज निपटारे और गैर नेटवर्क सीवेज क्षेत्रों से गंदे पानी के बहाव तथा कृषि व मवेशियों के गैर बिंदु स्रोत की समस्या की तरफ ध्यान देना चाहिए। यह प्रस्ताव बहु-आयामी हो सकता है और इसे निम्नलिखित के माध्यम से समग्र रूप से समस्या का हल तलाशना चाहिए (i) शहरी क्षेत्रों में सीवेज से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण के भार को कम करना और कृषि के क्षेत्र में उनका सुरक्षित उपयोग, (ii) एक व्यवहार्य पर्यावरणीय जल गुणवत्ता प्रबंधन प्रणाली का विकास करना (iii) अभिनव गंगा प्रदर्शन केंद्र या गंगा विश्वविद्यालय की स्थापना करना और (iv) प्रमुख हितधारकों की प्रशासनिक, संवाद और कार्यान्वयन क्षमता में सुधार करना।
इन प्रयासों के अच्छे तालमेल से गंगा को स्वच्छ और सतत रूप से प्रवाहित करना संभव हो सकता है।
5. भारत की 5 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्थाः संभावनाएं एवं चुनौतियाँ
> अर्थव्यवस्था
भारत कुछ समय पूर्व ही फ्राँस को पीछे छोड़ते हुए विश्व की छठी सबसे बड़ी | अर्थव्यवस्था बन गया है, किंतु भारत के आकार और क्षमता के अनुपात को देखते हुए अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति की सराहना नहीं की जा सकती है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर भारत के नीति निर्माताओं ने अगले 5 वर्षों में अथवा वर्ष 2024 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य रखा है।
सरकार ने आर्थिक सर्वेक्षण एवं बजट में अपनी नीति को स्पष्ट किया है तथा इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्रतिबद्धता जताई है। आर्थिक सर्वेक्षण में प्रकाशित किया गया है कि रोज़गार सृजन, बचत, उपभोग और मांग जैसे विषयों को अलग-अलग करके नहीं देखा जाना चाहिये। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार का मानना है कि 7 प्रतिशत के वर्तमान जीडीपी विकास दर के साथ यदि हम निवेश में तेजी लाएँ और 8 प्रतिशत विकास दर पर लक्षित हों तो 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था में बदलना संभव है। निवेश को सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया है, साथ ही उनका मानना है कि तरलता में कमी, मांग की कमी, अल्प निवेश, अल्प उत्पादन और न्यून विकास दर के दुश्चक्र से बाहर निकलना भी आवश्यक है। निवेश तथा बचत में वृद्धि करके एवं उत्पादन और मांग को बढ़ाकर तीव्र आर्थिक वृद्धि की ओर बढ़ा जा सकता है।
सरकार ने ग्रामीण सड़कों, जलमार्गों और सस्ते आवासों पर विशेष ध्यान देते हुए अवसंरचनात्मक विकास पर अपना ज़ोर बनाए रखा है ताकि जीने की सुगमता की नियमित अभिवृद्धि होती रहे। सिर्फ प्रधानमंत्री आवास योजना में ही 1.95 करोड़ आवासों के निर्माण का लक्ष्य तय किया गया है। सरकार ने आवास ऋण के ब्याज भुगतान पर 1.5 लाख रुपए की अतिरिक्त कटौती को भी मंजूरी दी है। ‘स्टडी इन इंडिया’ पहल के अंतर्गत निजी उच्च शिक्षा के प्रोत्साहन के लिये कई घोषणाएँ की गई हैं, जबकि विश्वस्तरीय संस्थानों के निर्माण और ‘खेलो भारत’ पहल के अंतर्गत खेल विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिये भी सरकार प्रतिबद्ध है। वर्तमान में निजी क्षेत्र अधिकांशतः ऋण अतिभार का शिकार है और उस पर ऋणों को चुकाने का दबाव है। उसके पास पूंजी की भी भारी कमी है। सरकार द्वारा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग के लिये भी विशेष आवंटन किया गया है। विनिर्माण को मजबूत करने के लिये सरकार ने 55 श्रम कानूनों को चार संहिताओं के रूप में एकबद्ध करने और न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि करने की घोषणा की है। सरकार ने 400 करोड़ रुपए तक के टर्नओवर वाले छोटे उद्यमों के लिये कॉर्पोरेट कर को घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया है। रेलवे के आधुनिकीकरण के लिये लगभग 50 लाख करोड़ रुपए के निवेश की आवश्यकता है।
भारत का ऊर्जा क्षेत्र मुश्किलों के दौर से गुजर रहा है तथा इस क्षेत्र को संरचनात्मक स्तर पर सुधार की आवश्यकता है। केंद्र को राज्य सरकारों के साथ मिलकर टैरिफ नीति में सुधार करने की जरूरत है ताकि उद्योगों एवं बड़े उपभोक्ताओं को इसका लाभ प्राप्त हो सके, साथ ही कृषि क्षेत्र एवं घरेलू उपभोक्ताओं के लिये टैरिफ की दरों में वृद्धि भी की जानी जरूरी है। कृषि क्षेत्र पहले से ही अधिक बिजली उपयोग के कारण सिंचाई संकट से जूझ रहा है तथा घरेलू उपभोक्ता के स्तर पर भी बिजली उपयोग को तार्किक बनाने के साथ यह डिस्कॉम की आर्थिक स्थिति सुधारने में भी सहायक सिद्ध हो सकता है इस संदर्भ में टैरिफ दरों में वृद्धि आवश्यक है। पिछले एक दशक में नवीकरणीय ऊर्जा में सात गुना वृद्धि हुई है, किंतु अभी भी भारत का ऊर्जा क्षेत्र मुख्य रूप से कोयला आधारित ही बना हुआ है। इस प्रकार के कोयला सयंत्र 80 प्रतिशत ऊर्जा का उत्पादन करते हैं। इस प्रकार की ऊर्जा का ट्रांसमिशन अकुशल एवं बेकार है।
परिवहन के क्षेत्र में भारत में वैश्विक स्तर के इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी है, साथ ही अभी भी ग्रामीण एवं दूरदराज के क्षेत्र कनेक्टिविटी से दूर हैं। अंतर्देशीय जलमार्ग के क्षेत्र में कुछ कार्य हुआ है, किंतु भारत का नदी तंत्र वर्तमान स्थिति से कहीं अधिक की क्षमता रखता है। भारत का रेलवे विश्व के कुछ सबसे बड़े रेलवे मार्गों में शामिल है फिर भी इसमें सुधार की आवश्यकता है।
सरकार ने वर्ष 2024 तक अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा है। अर्थव्यवस्था की क्षमता के अनुसार यह लक्ष्य प्राप्त करना अधिक मुश्किल नहीं है, किंतु भारत की मौजूदा स्थिति कई समस्याओं का सामना कर रही है, जिसमें मुख्य चुनौती आर्थिक क्षेत्र से आ रही है, साथ ही अन्य समस्याएँ भी हैं जिन्हें दूर करना भी जरूरी है। हालाँकि सरकार ने बजट एवं अपनी नीतियों के माध्यम से इस दिशा में प्रयास भी आरंभ किये हैं। शिक्षा की गुणवत्ता, बेरोज़गारी, आर्थिक असमानता, महिलाओं की स्थिति, कुपोषण, जातिगत भेदभाव, गरीबी जैसे भी कई ज़रूरी मुद्दे हैं, जिनको संबोधित करना आवश्यक है।
6. भारतीय कृषिः सदाबहार क्रांति की ओर
> कृषि
सरदाबहार क्रांति समग्र कृषि विकास से संबंधित है। हरित क्रांति की सफलता के | पश्चात् भारत सदाबहार क्रांति की ओर बढ़ा, ताकि देश के सालाना खाद्यान्न उत्पादन को मौजूदा स्तर से दोगुना करके 420 मिलियन टन किया जा सके। इसके लिए विज्ञान की सर्वश्रेष्ठ तकनीकों के इस्तेमाल व ऑर्गेनिक फार्मिंग में शोध को बढ़ावा देने पर बल दिया गया है।
प्रगति के सुनहरे अतीत पर खड़ा भारतीय कृषि क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में सदैव ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। भारत में विश्व का 10वाँ सबसे बड़ा कृषि योग्य भू-संसाधन मौजूद हैं। वर्ष 2011 की कृषि जनगणना के अनुसार, देश की कुल जनसंख्या का 61.5 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण भारत में निवास करता है और कृषि पर निर्भर है।
प्रयास इस बात का होना चाहिए कि हमारे किसानों को अंतरराष्ट्रीय मूल्यावस्था का लाभ मिले और उनकी आय में वृद्धि हो । हमारे किसान अब अंतरराष्ट्रीय मूल्यों पर माल भेज सकें एवं अंतरराष्ट्रीय मूल्यों पर कच्चा माल खरीदें। यह एक बहुत दूर की सोच है। वर्तमान में किसानों को संबल प्रदान करने की व असिंचित क्षेत्रों एवं अल्प शिक्षित क्षेत्रों के विकास पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। इतने वर्षा के बावजूद अभी भी खेती सिंचाई पर आधारित है, इसके लिए प्रयास होने चाहिए कि हम बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति पर ध्यान दें और वह अधिक से अधिक किसानों तक पहुंचाएं, जिससे लघु एवं सीमांत किसान भी लाभान्वित हो सके।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा किया जा रहा कृषि अनुसंधान शिक्षा और प्रसार का कार्य नई ऊंचाइयों पर दिखाई दे रहा है साथ ही परिषद ने उन तमाम प्रयासों को बढ़ावा दिया है, जिनसे कृषि अनुसंधान और किसानों के बीच रिश्ता मजबूत हो सके। इसके लिए हमारे कृषि मंत्री के प्रयासों से भारतीय कृषि में कई बदलाव किए जा रहे हैं। इसके लिए हमारे देश के प्रधानमंत्री ने किसान हित में कई निर्णय लेकर कृषि को एक नई दिशा देने का कार्य किया, जिससे देश में सदाबहार क्रांति को लाया जा सके।
लगभग सभी कृषि विज्ञान केंद्रों को आधुनिक संचार सुविधाओं से जोड़ दिया गया है ताकि किसानों तक सूचनाएं तुरंत और कुशलतापूर्वक पहुंचाई जा सके। इसके साथ ही अधिकतर कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से मोबाइल सलाहकार सेवा प्रारंभ की गई है, जिससे किसानों के मोबाइल फोन पर मौसम बाजार तथा कृषि क्रियाओं संबंधी नवीनतम जानकारी को पहुंचाया जा सके। दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए अनेक पहलें की गई हैं। अनेक प्रदर्शनियों का आयोजन कर किसानों को नई तकनीक के बारे में जानकारी दी जा रही है, ताकि इनका उपयोग कर दाल के उत्पादन को बढ़ाया जा सके। परिषद का प्रयास है कि देश के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों के लिए उपयुक्त गुणवत्ता वाली तथा अधिक उपज देने वाली फसलों की किस्मों को विकसित कर किसानों तक पहुंचाई जाए, जिससे लक्ष्य की प्राप्ति की जा सके।
भारतीय कृषि और खाद्य सुरक्षा पर जलवायु परिवर्तन के मंडराते खतरों को देखते हुए परिषद द्वारा नेटवर्क मोड में व्यापक पर योजनाएं लागू की गई हैं जिसके तहत आपदा से निपटने के लिए कृषि अनुसंधान प्रणाली को मजबूत बनाया जाएगा। पशु उत्पादन के क्षेत्र में देश में पहली बार ऊंट और मिथुन में कृत्रिम गर्भाधान को सफल बनाया गया है, इसके उपरांत जो नस्ल सुधार का कार होगा उसका लाभ देश को मिलेगा।
इसी प्रकार परिषद द्वारा केंद्रीय डाटा केंद्र का विकास किया गया है ताकि ज्ञान की साझेदारी आसान और सुलभ हो सके। इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए कृषि शिक्षा को उन्नत बनाने के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं। छात्रों में उद्यमिता के विकास के लिए इकाइयां विकसित की जा रही हैं। कुल मिलाकर प्रयास यह है कि देश में सतत खाद सुरक्षा बनी रहे और देश एक सदाबहार प्रांत की ओर अग्रसर हो सके।
वर्तमान में चल रही कोरोना जैसी महामारी के कारण जहां देश की अर्थव्यवस्था पर संकट खड़ा हुआ है, वहीं इससे किसी भी अछूती नहीं है क्योंकि किसानों के उत्पाद को बेचने में दिक्कत आ रही है, जिसका सीधा असर किसानों पर पड़ रहा है। उनके द्वारा उत्पादन किए गए फल फूल तथा साग सब्जी जिसको भंडारित नहीं किया जा सकता। उसको बेचने में कठिनाई आने के कारण किसानों को काफी नुकसान हो रहा है। ऐसी दशा में एक नई कृषि नीति को बनाना होगा, जिससे किसानों को हो रहे नुकसान से बचाया जा सके।
खण्ड – ग
7. भारत-चीन संबंध और दक्षेस राजनीति
> अन्तर्राष्ट्रीय संबंध
जैसा कि भारत-चीन सीमा पर तनाव जारी है, एक हेमामोनिक चीन, अपने वैश्विक | विस्तारवाद के हिस्से के रूप में, दक्षिण एशिया में भारत के हितों को दूर कर रहा. है। यह नई दिल्ली के लिए चिंता का बड़ा कारण होना चाहिए । पाकिस्तान से चीन की निकटता जगजाहिर है । नेपाल वैचारिक और भौतिक कारणों से चीन के करीब जा रहा है। चीन बांग्लादेशी उत्पादों के 97% तक टैरिफ की छूट देकर बांग्लादेश को लुभा रहा है, और उसने बड़े पैमाने पर निवेश के साथ श्रीलंका के साथ अपने संबंधों को तेज कर दिया है। ब्रुकिंग्स इंडिया के एक अध्ययन के अनुसार, अधिकांश दक्षिण एशियाई राष्ट्र अब भारत से भौगोलिक निकटता के बावजूद आयात के लिए चीन पर निर्भर हैं।
कई विदेश नीति विशेषज्ञों का तर्क है कि चीन के साथ भारत के रणनीतिक व्यवहार की शुरुआत दक्षिण एशिया से होनी है। इस संबंध में, दक्षेस (SAARC) को फिर से मजबूत करना महत्वपूर्ण है, जो 2014 के बाद से सुस्त है। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान के साथ बढ़ती दुश्मनी के कारण, दक्षेस में भारत के राजनीतिक हित में काफी गिरावट आई है। भारत, भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने में अपनी भूमिका के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिश कर रहा है। हालाँकि, जैसा कि प्रोफेसर एस. डी. मुनि का तर्क है, पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी अलगाव का सामना नहीं कर रहा है। भारत ने दक्षेस के विकल्प के रूप में BIMSTEC जैसे अन्य क्षेत्रीय उपकरणों में निवेश करना शुरू किया। हालाँकि, BIMSTEC उन सभी BIMSTEC सदस्यों के बीच एक समान पहचान और इतिहास की कमी जैसे कारणों के लिए दक्षेस को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है। इसके अलावा, बिम्सटेक का ध्यान बंगाल क्षेत्र की खाड़ी पर है, इस प्रकार यह सभी दक्षिण एशियाई देशों को संलग्न करने के लिए एक अनुचित मंच बना रहा है।
दक्षेस में जीवन को प्रभावित करने का एक तरीका दक्षिण एशियाई आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया को पुनर्जीवित करना है। आसियान क्षेत्र में 25% अंतर क्षेत्रीय व्यापार की तुलना में दक्षिण एशिया, दुनिया के सबसे कम एकीकृत क्षेत्रों में से एक है, जो कि कुल दक्षिण एशियाई व्यापार का बमुश्किल 5% है। जबकि दक्षिण एशियाई देशों ने व्यापार संधियों पर हस्ताक्षर किए हैं, राजनीतिक इच्छाशक्ति और विश्वास की कमी ने किसी भी सार्थक आंदोलन को रोका है। विश्व बैंक के अनुसार, दक्षिण एशिया में व्यापार $67 बिलियन के अनुमानित मूल्य का $23 बिलियन है। भारत को अपने पड़ोसियों के साथ टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं को दूर करने के लिए नेतृत्व करना चाहिए और काम करना चाहिए। 2007 से लंबित सार्क निवेश संधि पर वार्ता को फिर से शुरू करने की आवश्यकता है। । व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के अनुसार, क्षेत्र में कुल निवेश का लगभग 19% अंतर-आसियान निवेश का गठन होता है। दक्षेस क्षेत्र इसी तरह उच्चतर इंट्रा दक्षेस निवेश प्रवाह से लाभ प्राप्त कर सकता है | गहरा क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण भारत के साथ केंद्रीय भूमिका प्राप्त करने के लिए अधिक निर्भरता पैदा करेगा, जो बदले में, भारत के रणनीतिक हितों की भी सेवा करेगा।
भारत को संदेह है कि चीन दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र (SAFTA) के तहत दक्षिण एशिया में अपने साझा व्यापार साझेदारों के माध्यम से और सिंगापुर, जापान, दक्षिण कोरिया और श्रीलंका के साथ द्विपक्षीय समझौते का लाभ उठाकर भारत के लिए माल भेज रहा है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, भारत सरकार ने आयात के इस तरह के मार्ग को बंद करने के लिए श्रीलंका, बांग्लादेश, दक्षिण कोरिया और एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशंस (आसियान) देशों से कार्गो पर कड़े चेक लगाने का फैसला किया है। इससे इन देशों के निर्यातकों को वित्तीय नुकसान हो सकता है क्योंकि सीमा शुल्क जांच में वृद्धि और ‘मूल देश’ प्रमाणपत्रों की मांग के लिए शिपमेंट होने जा रहे हैं। श्रीलंकाई व्यापारिक व्यक्तियों ने पहले ही इन कार्यों के बारे में चिंता व्यक्त की है।
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को तभी हल किया जा सकता है जब भारत और चीन दोनों समझौता करने के लिए तैयार हों। ऐसे सभी विवादों में विशेष रूप से जो औपनिवेशिक अतीत की विरासत को आगे बढ़ाते हैं, एक निश्चित देना और लेना आवश्यक है। ममल्लापुरम में अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के दौरान, राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन, भारत और पाकिस्तान के बीच तीसरे पक्ष के प्रभाव से मुक्त एक त्रिपक्षीय साझेदारी बनाने की आवश्यकता का सुझाव दिया था । त्रिपक्षीय वार्ता और सहयोग का विचार ही आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका है।
8. कोरोना महामारी: आपदा से अवसर
> आपदा प्रबंधन
एक सामान्य तरीके से चल रही जिंदगी में कोरोना ने ऐसा बदलाव लाया कि कई स्थापित किया तो लोग आपदा में भी अवसर तलाश लिए। किसी ने अपना उद्योग कोई बाहर प्राइवेट जॉब छोड़कर अपना खुद का कारोबार शुरू किया और आज के समय में ठीक-ठाक स्थिति में हैं। उद्यमी, युवा व्यापारी, खेल प्रशिक्षक और अन्य कई ऐसे कारोबारियों ने अपना व्यवसाय तक बदल दिया। ऐसा भी नहीं कि व्यवसाय बदलने से उन्हें कोई नुकसान पहुंचा, बल्कि और बेहतर तरीके से ही काम कर रहे और दूसरों के लिए एक नजीर भी बने हुए हैं।
कोरोना वायरस महामारी पूरे विश्व के लिए एक अभिशाप बनकर आई है, लेकिन भारत ने इस वायरस रूपी आपदा को अवसर में बदला है। इस वायरस की वजह से ही भारत ‘आत्मनिर्भर’ बनने पर जोर दे पाया है। कोरोना वायरस के कारण जहां लाखों लोगों की नौकरी चली गई, वहीं दूसरी तरफ इस वायरस ने लोगों को आत्मनिर्भरता भी सिखाई है। देशवासियों ने इंटरनेट की मदद से नई-नई वस्तुओं को बनाकर आत्मनिर्भर भारत का हिस्सा बनकर दिखाया है। वहीं इन दिनों देश के हर घरों में वोकल फॉर लोकल का मंत्र गूंज रहा है, जिसका कारण भी यही है कि लोग भारत में ही बनी हुई चीजों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए जनता ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। इन विदेशी वस्तुओं में सबसे ज्यादा चीन के समानों का बहिष्कार किया, जिससे चीन को इस साल भारत की तरफ से एक बड़ा झटका लगा। ये सब देशवासियों की एकता के कारण ही संभव हो पाया है। भारत में आत्मनिर्भर अभियान की शुरुआत होने से पहले देश में सबसे ज्यादा खिलौने मेड इन चाइना होते थे। इसका मतलब चीन हमारे देश से काफी पैसा कमता था, लेकिन पीएम मोदी की अपील के बाद बाजार में ग्राहक भी ‘मेड इन इंडिया’ खिलौने की मांग कर रहे हैं। दिल्ली का झंडेवालान बाजार खिलौनों का सबसे प्रसिद्ध बाजार है। यहां से देश के कोने-कोने में खिलौने जाते हैं। यहां के दुकानदारों का भी कहना है कि बीते 10 महीनों में भारत में बने खिलौनों की मांग ज्यादा बढ़ गई है। कोरोना महामारी में नौकरी गंवाने वाले लोगों को स्वदेशी चीजों के माध्यम से रोजगार उपलब्ध कराया गया। आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत सैनेटाइजर, मास्क और पीपीई किट का भी निर्माण भारत में ही किया गया, जिसने भारत को आत्मनिर्भर बनाने में एक नई दिशा दी है।
कोरोना वायरस के इस दौर में आई इकोनॉमी की गिरावट को बढ़ाने के लिए देश में उत्पादन पर जोर दिया जा रहा है। अब देश में ज्यादातर स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। इतना ही नहीं देश में शुरुआत भले मास्क और सैनेटाइजर से की गई हो, लेकिन अब देश में वेंटिलेटर भी बनाए जा रह हैं। कोरोना की शुरुआत में हमने विदेशों से वेंटिलेटर मंगाए थे, लेकिन बाद में आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत देश में ही वेंटिलेटर बनाए जाने लगे हैं। ये भी आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है।
लॉकडाउन में जब लोग घरों में थे तो बड़ी भूमिका आसपास के जनरल स्टोर व किराना के दुकानदारों ने निभाई। यह लोगों को इतना पसंद आया और समय की बचत समझ में आई कि अभी भी लोग आर्डर पर सामान मंगवा रहे हैं। दरअसल, एक नये व्यापार को बढ़ावा भी मिला।
महामारी से सभी क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, लेकिन बावजूद इसके सरकार ने इतनी बड़ी आपदा के बीच भी निवेश के रास्तों को खोल रोजगार के अवसर बनाए । मोदी सरकार ने आयात पर रोक के साथ ही, आत्मनिर्भर भारत को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं लॉन्च की। राजकोषीय घाटा और तेल की कम कीमतों से $50 बिलियन की कटौती से कुछ छूट सरकार को 100-200 अरब डॉलर की प्रोत्साहन योजना के साथ मिल सकती है।
कोरोना संकट ने दुनिया भर के समाजों और अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित किया है और यह हमारी दुनिया को स्थायी रूप से बदल देगा क्योंकि यह जारी है। यह संकट पैमाने पर बदलाव और प्रणालीगत चुनौतियों के प्रबंधन के लिए नए उद्घाटन और बेहतर निर्माण के तरीके भी बनाता है। यह निर्णय लेने वालों को अपेक्षित दीर्घकालिक बदलावों की एक व्यापक तस्वीर प्रदान करता है, और यह संकट दुनिया की स्थिति को सुधारने के लिए प्रदान किए जाने वाले अवसरों का लाभ उठाने की प्रेरणा देता है।
9. “आयुष्मान भारत” स्वस्थ भारत
> समाज
अयुष्मान भारत योजना जिसे आम तौर पर आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (एबी पीएम-जेएवाई) भी कहा जाता है, भारत सरकार द्वारा अपने गरीब और उपेक्षित वर्गों को माध्यमिक और तृतीयक स्तर की मुफ्त स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए शुरू की गयी एक स्वास्थ्य योजना है। आयुष्मान भारत योजना का शुभारंभ प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा 23 सितंबर, 2018 को झारखंड राज्य के रांची में किया गया था। इस आयोजन के दौरान भारी संख्या में आम जनता की भीड़ जुटी थी और प्रधानमंत्री ने इस दौरान दो मेडिकल कॉलेजों की नींव भी रखी थी- एक झारखंड राज्य के चाईबासा में और दूसरा कोडरमा
में ।
भारत की केंद्र सरकार समय-समय पर स्वास्थ्य कार्यक्रमों के भविष्य के कार्यान्वयन को निर्देशित करने के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति प्रकाशित करती है। आयुष्मान भारत योजना को 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में शामिल किया गया था। पूर्व में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजनाओं (एनएचपीएस) के तत्वावधान में सरकार द्वारा वित्तपोषित स्वास्थ्य बीमा 3 योजनाओं को लागू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कई प्रयास किए गए थे। इनमें से कुछ योजनाएँ थीं – राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई), वरिष्ठ नागरिक स्वास्थ्य बीमा योजना (एससीएचआईएस), केंद्र सरकार की स्वास्थ्य योजना (सीजीएचएस), आदि। हालाँकि, इन योजनाओं ने स्वतंत्र रूप से काम किया और इनमें से कोई भी प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल से नहीं जुड़ी थी, जो गरीबों को परेशान करता है। पहले से मौजूद स्वास्थ्य बीमा योजनाओं की खामियों को दूर करने के उद्देश्य से, भारत सरकार ने आयुष्मान भारत योजना शुरू की।
यह योजना अस्पताल में भर्ती और संबंधित खर्चों को पूरा करती है, जिसमें अधिकांश माध्यमिक और तृतीयक देखभाल प्रक्रियाओं के साथ-साथ पूर्व अस्पताल में भर्ती होने और अस्पताल में भर्ती के बाद के खर्च शामिल हैं, जो प्रति वर्ष प्रति परिवार 25 लाख की सीमा तक है। यह नवीनतम सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC), 2011 के अनुसार पहचान किए गए 10 करोड़ से अधिक गरीब, वंचित ग्रामीण परिवारों और शहरी श्रमिक परिवारों के वंचित व्यावसायिक श्रेणियों के लिए वित्तीय सुरक्षा प्रदान करता है। इस योजना में सर्जरी, चिकित्सा और दवा, निदान और परिवहन सहित दिन देखभाल उपचार और पहले से मौजूद बीमारियां भी शामिल हैं। इस प्रकार अस्पताल उनके लिए उपचार से इनकार नहीं कर सकते।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी परिवार के सदस्य, विशेष रूप से बालिकाएं, महिलाएं और बुजुर्ग शामिल हैं, परिवार के सदस्यों की संख्या प्रतिबंधित नहीं है। हालाँकि, प्रत्येक पहचाने गए परिवार को एक आयुष्मान परिवार कार्ड जारी किया जाएगा, जिसमें परिवार के मुखिया का नाम, परिवार के अन्य सदस्यों का विवरण, संपर्क जानकारी आदि शामिल होंगे। यह योजना सार्वजनिक अस्पतालों में कैशलेस और पेपरलेस होगी और निजीहोगी। अस्पतालों, क्योंकि यह पूरी तरह से सॉफ्टवेयर संचालित होगा और पूरे भारत में नेटवर्क होगा। इस प्रकार, एक लाभार्थी परिवार के सदस्य यदि आवश्यक हो तो एक ही राज्य के भीतर विभिन्न स्थानों पर दी गई सुविधाओं का उपयोग कर सकते हैं।
आयुष्मान भारत में पहले की स्वास्थ्य योजनाओं के कई फायदे हैं। उदाहरण के लिए, यह राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई) की कमी को पूरा करता है। आरएसबीवाई योजना ने केवल माध्यमिक और तृतीयक अस्पताल में भर्ती के लिए प्रति परिवार प्रति वर्ष 30000 स्वास्थ्य बीमा कवरेज को मंजूरी दी। इस प्रकार, आरएसबीवाई के अस्तित्व के लगभग नौ वर्षों में, आरएसबीवाई के तहत प्रावधानित स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता में अपर्याप्त कवरेज के कारण समझौता किया गया था। इस संबंध में, आयुष्मान भारत योज
एक सकारात्मक कदम है, जिसमें प्रति परिवार 5 लाख की वृद्धि की कवरेज सीमा है। इसके अलावा, पीएम- जेएवाई सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (यूएचसी) और सतत विकास लक्ष्य 3 (एसडीजी 3) की उपलब्धि की दिशा में भारत की प्रगति को तेज करना चाहता है, जिसे भारत करने के लिए सहमत हो गया है।
निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और बीमा कंपनियों के हाथों में स्वास्थ्य सेवा देने पर एक बड़ी चिंता व्यक्त की गई जब उन्हें खराब तरीके से विनियमित किया गया। इससे पहले RSBY में पारदर्शिता और खराब सेवा वितरण की समस्याएँ थीं। प्रत्येक प्रक्रिया के लिए कवरेज बहुत कम था, निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता योजना से दूर रहते थे। यह पीएम-जेएवाई को भी प्रभावित कर सकता है, यदि प्रत्येक पैकेज के लिए राशि सावधानी से तय नहीं की गई है।
इस प्रकार, PM-JAY विभिन्न राष्ट्रीय और राज्य योजनाओं के माध्यम से सेवा वितरण के पहले खंडित दृष्टिकोण से एक प्रतिमान है। यह एक बड़ा, अधिक व्यापक, बेहतर रूपांतरित और द्वितीयक और तृतीयक देखभाल की आधारित सेवा वितरण की आवश्यकता है। इसके शुरू होने के चार महीने के भीतर एक लाख से अधिक परिवार इससे पहले ही लाभान्वित हो चुके हैं। पीएम-जेएवाई के पीछे सरकार की दृढ़ वित्तीय प्रतिबद्धता और वजन के साथ, देश में स्वास्थ्य सेवा में व्यापक परिवर्तन देखने को मिला है।
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