शिक्षण को परिभाषित कीजिए एवं इसके स्तरों की विस्तारपूर्वक विवेचना कीजिए।

शिक्षण को परिभाषित कीजिए एवं इसके स्तरों की विस्तारपूर्वक विवेचना कीजिए। 

उत्तर— शिक्षण के स्तर– किसी पाठ्यवस्तु को शिक्षक विचारहीन स्थिति से लेकर विचारपूर्ण स्थिति तक तीन प्रमुख स्तरों पर प्रस्तुत कर सकता है । ये स्तर निम्न हैं—

(A) स्मृति स्तर (Memory-level)
(B) बोध स्तर (Understanding-level) तथा
(C) चिंतन स्तर (Reflective-level)।
(A) स्मृति स्तर का शिक्षण– एक मानसिक प्रक्रिया है  जब व्यक्ति किसी वस्तु, पदार्थ अथवा स्थान को देखता है तो इनसे सम्बन्धित चिह्न अथवा प्रतिमायें उसके मस्तिष्क में बन जाते हैं। इन्हीं संक्षिप्त चिह्नों या पूर्व में सीखी गई बातों को याद रखना ही स्मृति है। “पूर्वानुभवों का समय पर स्मरण करना ही स्मृति है।” कुछ समय के बाद यह अनुभव ‘चेतन मन’ से ‘अचेतन मन’ में प्रवेश कर जाते हैं । अचेतन मन इस प्रकार के अनुभवों का भण्डार गृह कहलाता है। आवश्यकता के अनुसार अचेतन मन में पहुँचे अनुभवों को चेतन मन पर लाने की प्रक्रिया ही स्मृति कहलाती है। स्मृति को विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने निम्न रूपों में परिभाषित किया है—
स्टाउट के अनुसार, “स्मृति एक आदर्श पुनरावृत्ति है जिसमें अतीतकाल के अनुभव उसी क्रम तथा ढंग से जागृत होते हैं जैसे वे पहले हुए थे।”
वुडवर्थ के अनुसार, “पहले सीखी हुई बातों को याद रखना ही स्मृति है।”
डम्बिल के अनुसार, “स्मृति वह शक्ति है, जिससे गत अनुभव के कुछ भाग विचार और प्रतिमा के रूप में आते हैं। “
वास्तव में स्मृति सीखना ( Learning ), धारण (Retention), प्रत्यास्मरण (Recall) व पहचान (Recognition) चार तत्त्वों का मिश्रित रूप है । इस स्तर के शिक्षण में शिक्षक का स्थान प्रमुख होता है । स्मृति । स्तर पर शिक्षण विचारहीन होता है। इस स्तर के शिक्षण में केवल तथ्यों, सिद्धान्तों, नियमों तथा सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण व रटने पर बल दिया जाता है। अर्थात् इस शिक्षण का उद्देश्य शिक्षण क्रियाओं द्वारा पाठ्यवस्तु को रटना है।
स्मृति स्तर हेतु शिक्षण (Teaching for Memory Stage )– इस स्तर पर विचारहीनता की प्रधानता रहती है। इस स्तर के शिक्षण में शिक्षण का उद्देश्य छात्रों की स्मरण शक्ति अथवा स्मृति का विकास करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु शिक्षक सूचनाओं तथा तथ्यों को व्यवस्थित रूप से छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। स्मृति की प्रक्रिया में निम्नलिखित आवश्यक तत्त्व होते हैं—
(1) अधिगम (Learning)
(2) धारणा (Retention )
(3) पुनमरण (Recall)
(4) पुनर्पहचान (Recognition) एवं
(5) पुनउत्पादन (Reproduction।
स्मृति स्तर के शिक्षण के लिए शिक्षक इन्हीं तत्त्वों के विकास के लिए विभिन्न प्रविधियों तथा रीतियों का प्रयोग करता है। शिक्षक का उद्देश्य छात्रों को पाठ्य-सामग्री को याद कराना होता है। भले ही वह उसे समझकर याद करे या बिना समझे केवल रट ले। इसमें सार्थक एवं निरर्थक दोनों ही प्रकार की सामग्री का स्मरण कर लेना सरल होता है। पाठ्य-सामग्री जितनी सार्थक एवं उपयोगी होगी, उसको धारण करना एवं स्मरण रखना उतना ही सरल एवं स्थायी होगा।
स्मृति स्तर रटने का स्तर है। इस स्तर के शिक्षण में विद्यार्थियों के मस्तिष्क में ज्ञानात्मक स्तर पर तथ्यों एवं सूचनाओं को बाहर से बलपूर्वक भरा जाता है। ऐसे धारण किये हुए ज्ञान को विद्यार्थी आवश्यकता पड़ने पर प्रत्यास्मरण तथा पहचान करते हैं।
स्मृति स्तर के शिक्षण में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। छात्र की इस स्तर पर कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं होती है। शिक्षक ही पाठ्य-सामग्री को व्यवस्थित, क्रमिक तथा सुसंगठित करता है अतः स्पष्ट है कि स्मृति स्तर के शिक्षण में छात्र से अधिक शिक्षक क्रियाशील रहता है शिक्षक इस स्तर के शिक्षण में पाठ्य-वस्तु का विश्लेषण, व्यवस्थित करना, विभिन्न विधि- प्रविधियों का प्रयोग करना तथा प्रस्तुतीकरण से सम्बन्धित कार्य करता है।
स्मृति स्तर की विशेषताएँ—
(1) स्मृति स्तर का शिक्षण विचारहीन होता है।
(2) छात्र बिना समझे व विचार किये तथ्यों, सूचनाओं व सिद्धान्तों को रटते हैं ।
(3) छात्र को कार्य करने की स्वतन्त्रता नहीं होती है।
(4) कक्षा का वातावरण नीरस रहता है ।
(5) स्मृति स्तर के शिक्षण में सूझ-बूझ का अभाव होता है।
(6) शिक्षक का स्थान प्रमुख होता है तथा छात्र का स्थान गौण, शिक्षक एक तानाशाह की भाँति होता है। वह छात्र की रुचियों, क्षमताओं तथा योग्यताओं का ध्यान रखे बिना सूचनाओं को उसके मस्तिष्क में भरने का प्रयास करता है।
(7) शिक्षक व छात्र के बीच किसी प्रकार की अन्तः प्रक्रिया नहीं होती है।
(8) इस प्रकार का शिक्षण ज्ञानात्मक (cognitive) स्तर का होता है।
(9) शिक्षण में व्याख्यान तथा पुस्तक-पाठन विधियों का प्रयोग किया जाता है।
(10) इस प्रकार के शिक्षण अधिगम से छात्र जीवन में असफलता ही प्राप्त करते हैं ।
(11) छात्र कठोर अनुशासन में रहते हैं ।
(12) छात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में रहते हैं।
स्मृति स्तर के शिक्षण प्रतिमान– हरबर्ट के अनुसार स्मृति स्तर के शिक्षण का उद्देश्य है—
(1) उद्देश्य– छात्रों द्वारा तथ्यों के रटने पर बल देते हुए निम्न क्षमताओं को विकसित करना है—
(i) तथ्यों, सूचनाओं तथा सिद्धान्तों को रटने पर बल देना ।
(ii) सीखे हुए तथ्यों को याद रखना, उनका प्रत्यास्मरण एवं पुन: प्रस्तुत करना ।
(iii) ज्ञानात्मक पक्ष को सबल बनाना ।
(iv) मानसिक तथ्यों का प्रशिक्षण।
(2) संरचना–हरबर्ट ने स्मृति स्तर के शिक्षण की संरचना 5 प्रमुख पदों में की है जो ” हरबर्ट पंचपद” प्रणाली के नाम से प्रसिद्ध है। ये 5 पद निम्न हैं—
(i) प्रस्तावना / तैयारी– इसमें पूर्व ज्ञान की जाँच के लिए प्रश्न पूछना तथा उद्देश्य कथन करना आता है।
(ii) प्रस्तुतीकरण– छात्र के सहयोग से पाठ का विकास, विभिन्न शिक्षण विधियों, प्रविधियों तथा सहायक सामग्री का प्रयोग ।
(iii) स्पष्टीकरण तथा तुलना-पाठ को क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करना, तथ्यों, सिद्धान्तों, पदों का स्पष्टीकरण तथा उनकी व्याख्या व तुलना करना ।
(iv) सामान्यीकरण– पाठ्यवस्तु को समझाने के पश्चात् छात्रों को सोचने, समझने के अवसर तथा कुछ सामान्य नियम, सिद्धान्त व नियमों का प्रतिपादन करना ।
(v) प्रयोग– ज्ञान को स्थायी बनाने के लिए उसका प्रयोग भी आवश्यक है। शिक्षक पुनरावृत्ति के प्रश्न पूछकर ज्ञान के प्रयोग अथवा उसका नवीन परिस्थितियों में प्रयोग का पता लगाता है।
(3) सामाजिक प्रणाली– शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया होती है। इस सामाजिक प्रक्रिया के वाहक हैं – शिक्षक एवं छात्र । इस स्तर पर शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है तथा छात्रों के व्यवहार को पूर्ण रूप से नियंत्रण में रखता है, जिसके फलस्वरूप छात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में कार्य करते हैं। शिक्षक का कार्य है— पाठ्यवस्तु को प्रस्तुत करना, छात्रों की क्रियाओं को नियन्त्रित करना तथा छात्रों को प्रेरणा प्रदान करना ।
(4) मूल्यांकन प्रणाली– इस स्तर के शिक्षण में परीक्षा में भी रटने पर ही बल दिया जाता है। यह प्रणाली मुख्यतः निबन्धात्मक होती है। मौखिक रूप में परीक्षा भी ली जाती है। इसमें केवल ज्ञानात्मक पक्ष की ही जाँच होती है।
स्मृति स्तर के शिक्षण के गुण—
(1) मृति स्तर शिक्षण छोटे बच्चों तथा छोटी कक्षाओं में उपयुक्त सिद्ध होती हैं ।
(2) विद्यालय में पाठ्यक्रम में बहुत सारी विषय-वस्तु ऐसी हो सकती है जिन्हें ग्रहण करने में स्मृति का शिक्षण विद्यार्थियों की काफी सहायता कर सकता है।
(3) स्मृति स्तर शिक्षण के अन्तर्गत कम समय में अधिक सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध ज्ञान प्रदान करने की समवाग होती हैं।
(4) स्मृति स्तर के शिक्षण द्वारा तथ्यों, नियमों एवं सिद्धान्तों के रूप में ज्ञान को स्मृति में समायोजित किया जा सकता है।
(5) स्मृति स्तर के शिक्षण में अध्यापक को अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करने में सहायता प्राप्त करता है। अतः वह प्रस्तुतीकरण, आयोजन एवं विषयवस्तु का चयन पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो कर करता है।
स्मृति स्तर के शिक्षण के दोष—
(1) विद्यार्थी की मानसिक शक्तियों तथा बौद्धिक विचार प्रक्रिया को विकसित करने में सहायता नहीं कर सकता है।
(2) स्मृति स्तर के शिक्षण में शिक्षण प्रक्रिया के संगठन और संचालन का पूरा उत्तरदायित्व ही अध्यापक के कंधों पर आ पड़ता है।
(3) स्मृति स्तर के शिक्षण में अभिप्रेरणा का स्रोत बाह्य रूप में होता है। आंतरिक रूप से कोई भी स्रोत नहीं होता है।
स्मृति स्तर के शिक्षण के लिए सुझाव—
(1) पाठ्यवस्तु सार्थक होनी चाहिए।
(2) पाठ्यवस्तु क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करनी चाहिए।
(3) कक्षा में अभ्यास के द्वारा प्रत्यास्मरण में वृद्धि की जा सकती है।
(4) छात्रों को समुचित प्रेरणा प्रदान करनी चाहिए ।
(5) शिक्षक को सिर्फ ज्ञानात्मक उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
(6) व्यक्तिगत भिन्नता को दृष्टिगत रखकर शिक्षण करना चाहिए।
(7) समग्र पद्धति (whole-method) का प्रयोग करना चाहिए ।
(8) पुनरावृत्ति एक क्रम में करनी चाहिए ।
(9) प्रत्यास्मरण तथा पुनः प्रस्तुतीकरण का अधिक अभ्यास कराना चाहिए।
(10) थकान के समय शिक्षण नहीं करना चाहिए ।
(B) शिक्षण का बोध – स्तर– बोध-स्तर के शिक्षण के लिए आवश्यक है कि पहले शिक्षण स्मृति स्तर पर हो चुका हो । इसके अभाव में बोध स्तर के शिक्षण में सफलता प्राप्त करना संभव नहीं है । बोध-स्तर का शिक्षण स्मृति स्तर के शिक्षण से आगे की अवस्था है ।
शिक्षणशास्त्र तथा शिक्षण के संदर्भ में बोध का तात्पर्य निम्न प्रकार से लिया जाता है—
(1) बोध सम्बन्धों को देखने के रूप में– पाठ्यवस्तु सम्बन्धी तत्त्वों, सिद्धान्तों एवं नियमों आदि में परस्पर सम्बन्ध देखना।
(2) बोध को तथ्यों के संचालन के रूप में देखना– इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति कैसे किसी वस्तु, तथ्य, विचार तथा प्रक्रिया को किसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्रयोग कर सकता है। वह किसी वस्तु के संबंध में यह समझ जाता है कि वह किस लिये है तथा इसका क्या उपयोग है। साथ ही वह परस्पर तुलना द्वारा सम्बन्ध देख लेता है ।
(3) बोध सम्बन्ध व संचालन दोनों रूपों में–बोध सम्बन्ध व संचालन दोनों का समन्वित रूप है ।
बोध स्तर के शिक्षण में शिक्षक छात्रों को सामान्यीकरण, सिद्धान्तों तथा स्तर तथ्यों के संबंध में बोध कराने पर विशेष बल देता है । इसके लिए स्मृति स्तर का शिक्षण होना आवश्यक है। यदि शिक्षक अपने इस प्रयास में सफल हो जाता है तो छात्रों में नियमों को पहचानने, समझने तथा उन्हें प्रयोग करने की क्षमता विकसित हो जाती है। इस प्रकार शिक्षण अर्थपूर्ण हो जाता है । इस प्रकार के शिक्षण तथा अधिगम में शिक्षक व छात्र दोनों ही क्रियाशील होते हैं ।
अवबोध का शाब्दिक अर्थ है, अर्थ समझना, विचार को ग्रहण करना, गुण या विशेषता को स्पष्ट कर समझना, किसी तथ्य को स्पष्ट रूप से समझना।
मोरिस एल. बिग्गी के अनुसार, “जो विद्यार्थियों को सामान्यीकरण तथा विशिष्ट या दूसरे शब्दों में सिद्धान्त तथा अलग-अलग तथ्यों के बीच पाये जाने वाले सम्बन्धों से परिचित कराने का प्रयत्न करता है और यह भी बताता है कि सिद्धान्तों का किस तरह व्यावहारिक उपयोग किया जा सकता है। “
इस प्रकार बोध स्तर का शिक्षण छात्रों में सूझ-बूझ उत्पन्न करता है, जिससे वह विद्यालय तथा उसके बाहर उपस्थित समस्याओं का समाधान सरलतापूर्वक कर सकते हैं। बोध स्तर के शिक्षण में स्मृति तथा अन्तरदृष्टि दोनों सम्मिलित होती हैं ।
बोध स्तर हेतु शिक्षण – शिक्षाविदों ने स्मृति स्तर के शिक्षण को सीखने के लिए अधिक उपयुक्त नहीं माना। तब बोध स्तर के शिक्षण की रूपरेखा विद्वानों जिनमें हरबर्ट, मॉरीसन एवं ब्रूनर प्रमुख हैं, ने दीस्मृति स्तर के शिक्षण को विचारहीन माना जाता है इसका चिन्तन से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। इसके विपरीत चिन्तन स्तर का शिक्षण को विचार युक्त माना जाता है तथा अवबोध स्तर इन दोनों की मध्य की श्रेणी के अन्तर्गत आता है। इस स्तर से ही विचार या सूझ की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है बिना समझे हम किसी भी बालक को कुछ सिखा नहीं सकते हैं। अवबोध स्तर के शिक्षण में अन्तर्दृष्टि को महत्त्व दिया जाता है। इसमें सम्बन्धों का ज्ञान होना, सामान्यीकरण का विकास एवं अन्तर्दृष्टि तीनों ही सम्मिलित होते हैं । बोध स्तर के शिक्षण में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि इससे पहले स्मृति स्तर का शिक्षण हो चुका हो । यदि हम स्मृति स्तर के शिक्षण के बिना सीधे बोध स्तर पर शिक्षण करना चाहते हैं तो व्यर्थ है। अतः स्पष्ट है कि स्मृति स्तर का शिक्षण बोध स्तर के शिक्षण के विकास के लिए प्रथम चरण है। किन्तु केवल स्मृति स्तर के शिक्षण से सूझ या बोध का विकास किया जाना सम्भव नहीं है। इसलिए बोध स्तर का शिक्षण पाठ्य-वस्तु की समझ उत्पन्न करने के लिये आवश्यक है ।
बोध स्तर शिक्षण की विशेषताएँ—
(1) बोध स्तर का शिक्षण विचारपूर्ण होता है ।
(2) शिक्षण बोध केन्द्रित होता है ।
(3) मूल्यांकन के लिए निबन्धात्मक व वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं का प्रयोग किया जाता है।
(4) शिक्षण का यह प्रतिमान मनोवैज्ञानिक तथा व्यावहारिक दृष्टि से प्रभावात्मक प्रतिमान है।
(5) छात्रों को स्वतन्त्रता प्रदान करता है ।
(6) शिक्षक व छात्र के मध्य अन्तः क्रिया होती है ।
(7) मुख्य रूप से तथ्यों व सिद्धान्तों का बोध कराया जाता है।
(8) शिक्षण सोपानों का प्रयोग भी क्रमबद्ध रूप से किया जाता है।
(9) बोध स्तर का शिक्षण छात्रों में सामान्यीकरण, सूझ-बूझ तथा समस्याओं के समाधान की क्षमता विकसित करता है।
(10) इस प्रकार के शिक्षण में प्रत्यास्मरण, पहचानना, व्याख्या करना तथा बुद्धि युक्त व्यवहार निहित होता है।
मॉरीसन का बोध स्तर शिक्षण प्रतिमान– बोध स्तर शिक्षण के प्रतिमान के जन्मदाता हेनरी सी. मॉरीसन है। इसलिए इसे मॉरीसन का शिक्षण प्रतिमान भी कहा जाता है। इस प्रतिमान के 4 तत्त्व हैं—
(1) उद्देश्य
(2) संरचना
(3) सामाजिक प्रणाली
(4) मूल्यांकन प्रणाली ।
इन तत्त्वों को निम्न प्रकार से समझाया जा सकता है—
(1) उद्देश्य– इस प्रतिमान का उद्देश्य छात्र द्वारा प्रत्ययों पर स्वामित्व प्राप्त कर लेना है अर्थात् छात्र द्वारा पाठ्यवस्तु पर स्वामित्व प्राप्त करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु मॉरीसन ने विषय-वस्तु को इकाइयों में विभक्त करने को कहा है, जिससे विद्यार्थी सामान्यीकरण कर सके।
(2) संरचना– बोध स्तर की शिक्षण व्यवस्था को 5 सोपानों में बाँटा गया है। ये निम्न हैं—
(i) अन्वेषण
(ii) प्रस्तुतीकरण
(iii) आत्मसात्करण
(iv) व्यवस्था
(v) वर्णन |
(i) अन्वेषण– इसमें निम्नलिखित 3 क्रियाओं को करना पड़ता है—
(a) पूर्व ज्ञान का पता लगाना ।
(b) पाठ्यवस्तु का विश्लेषण कर उसके अवयवों को तर्कपूर्ण व मनोवैज्ञानिक ढंग से व्यवस्थित करना तथा
(c) यह निश्चित करना कि पाठ्यवस्तु की इकाइयों को किस प्रकार प्रस्तुत किया जाये ?
(ii) प्रस्तुतीकरण– इसमें शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है। प्रस्तुतीकरण के लिए शिक्षक 3 क्रियायें करता है—
(a) पाठ्यवस्तु को छोटी-छोटी इकाइयों में प्रस्तुत करना ।
(b) छात्रों की कठिनाइयों का निदान करना ।
(c) पाठ्यवस्तु की पुनरावृत्ति करना जिससे कि वह छात्रों की समझ में आसानी से आ जाए।
(iii) आत्मसात्करण– प्रस्तुतीकरण के पश्चात् शिक्षक यह देखता है कि छात्र नवीन ज्ञान को समझ गये तो वह परिपाक के लिए अवसर प्रदान करता है। परिपाक की विशेषतायें निम्न हैं—
(a) परिपाक का कालांश पर्यवेक्षण अध्ययन का होता है। शिक्षक व छात्र दोनों ही सक्रिय रहते हैं।
(b) परिपाक द्वारा छात्रों को सामान्यीकरण के अवसर दिये जाते हैं।
(c) छात्र इकाई में दिये हुए अनेक प्रकार के दृष्टान्तों एवं उन पर आधारित सामान्यीकरण के मध्य सम्बन्ध देख सके ।
(d) परिपाक का उद्देश्य पाठ्यवस्तु की गहनता पर बल देना है।
(e) परिपाक में छात्रों को व्यक्तिगत क्रियायें करने पर विशेष बल दिया जाता है ।
(f) परिपाक के समय छात्रों को प्रयोगशाला व पुस्तकालय में स्वयं जाकर कार्य करना पड़ता है।
(iv) व्यवस्था– व्यवस्था कालांश में छात्रों को पाठ्यवस्तु को पुनः प्रस्तुतीकरण का अवसर दिया जाता है। छात्र पाठ्यवस्तु को बिना किसी की सहायता से अपनी भाषा में लिखते हैं । व्याकरण, गणित आदि विषयों में पुनः प्रस्तुतीकरण का कोई महत्त्व नहीं होता है । अतः छात्र, व्यवस्था कालांश से वर्णन कालांश में पहुँच जाते हैं ।
(v) वर्णन– वर्णन कालांश में छात्र पाठ्यवस्तु को शिक्षक तथा अपने साथियों के सम्मुख मौखिक रूप से प्रस्तुत करता है । संगठन के समय प्रस्तुत विवरण अत्यन्त सूक्ष्म व संक्षिप्त होता है, जबकि आवृत्ति या वर्णन के अन्तर्गत लिखित विवरण एक लेख या अध्याय की तरह होता है।
(3) सामाजिक व्यवस्था– बोध स्तर के शिक्षण में सामाजिक प्रणाली बदलती रहती है। प्रस्तुतीकरण में शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है। परिपाक कालांश में शिक्षक और विद्यार्थी दोनों क्रियाशील रहते हैं। शिक्षक निर्देशन देता है व छात्रों को आन्तरिक व बाह्य प्रेरणा प्रदान करता है।
(4) मूल्यांकन प्रणाली– बोध स्तर शिक्षण में विभिन्न प्रकार की मूल्यांकन प्रणाली का प्रयोग करना पड़ता है। व्यवस्था कालांश के अन्त में लिखित परीक्षा तथा वर्णन कालांश में मौखिक परीक्षा होती है । इस प्रकार विभिन्न सोपानों में मौखिक व लिखित दोनों प्रकार की परीक्षा ली जाती है जिनके द्वारा छात्रों का मूल्यांकन किया जाता है।
बोध स्तर के शिक्षण के गुण—
(1) बोध स्तर विद्यार्थियों को उचित अवसर और प्रशिक्षण में सहायता प्रदान करता है।
(2) मानसिक शक्तियों के विकास में पर्याप्त अवसर प्रदान करता है।
(3) बोध स्तर के शिक्षण द्वारा प्राप्त ज्ञान अधिक प्रभावपूर्ण एवं स्थायी होता है।
(4) बोध स्तर के अन्तर्गत विद्यार्थी को पाठ्यवस्तु, शिक्षणअधिगम व्यवस्था तथा अन्य सभी बातें पूरी तरह से नियोजित, क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित रहती हैं।
(5) बोध स्तर में विद्यार्थियों की शिक्षण प्रक्रिया को औपचारिक रूप से संगठित एवं व्यवस्थित बनाए रखने में पूर्ण सहायता प्राप्त होती है।
बोध स्तर के शिक्षण के दोष—
(1) बोध स्तर के शिक्षण में शिक्षक छात्रों को समुचित प्रेरणा प्रदान नहीं कर पाता है।
(2) यह प्रतिमान मनोवैज्ञानिक व व्यावहारिक दृष्टि से अधिक प्रभावशाली नहीं है ।
(3) बोध स्तर के शिक्षण में पाठ्यवस्तु के स्वामित्व पर बल दिया जाता है और मानव व्यवहार की अवहेलना की जाती है।
(4) पाठ्यवस्तु के स्वामित्व से केवल ज्ञानात्मक पक्ष का विकास हो सकता है, भावात्मक व क्रियात्मक पक्षों का नहीं।
(C) चिन्तन -स्तर का शिक्षण– मॉरिस एल. विग्गी के अनुसार, “चिंतन स्तर के शिक्षण में, कक्षा में ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाता है, जो अधिक सजीव, उत्तेजित करने वाला, आलोचनात्मक एवं संवेदनशील हो। यह छात्रों के सम्मुख नवीन व मौलिक चिंतन का स्वतन्त्र वातावरण प्रस्तुत करता है । इस प्रकार का शिक्षण बोध स्तर के शिक्षण की अपेक्षा अधिक कार्य उत्पादन को बढ़ावा देता है । “
चिन्तन-स्तर के शिक्षण में स्मृति तथा बोध स्तर का शिक्षण सम्मिलित होता है। शिक्षण का सर्वोच्च स्तर चिंतन स्तर होता है। चिंतन स्तर का शिक्षण समस्या केन्द्रित होता है। इसमें छात्र को मौलिक चिंतन करना पड़ता है। छात्र को विषय-वस्तु के सम्बन्ध में आलोचनात्मक दृष्टिकोण, सामान्यीकरण व नवीन तथ्यों की खोज करनी होती है ।
चिन्तन- स्तर का शिक्षण शिक्षक की योग्यता, अनुभव व कुशलता पर निर्भर करता है । इस प्रकार का शिक्षण छात्रों को स्वतन्त्र रूप से ज्ञान प्रदान करने में सहायक है। इस प्रकार के शिक्षण में छात्रों के समक्ष समस्या प्रस्तुत की जाती है। वे उसके समाधान का प्रयत्न व हल खोजते हैं। छात्र परम्परागत ढंग से न सोचकर कल्पनात्मक एवं सृजनात्मक ढंग से चिन्तन करता है । इस प्रकार विद्यार्थी गहन तथा गम्भीर चिन्तन द्वारा अपना मौलिक दृष्टिकोण बनाना सीख जाता है तथा इस योग्य बन जाता है कि अपने भावी जीवन में आने वाली प्रत्येक समस्या को कल्पना, चिन्तन एवं तर्क द्वारा सफलतापूर्वक हल कर सकता है।
चिन्तन स्तर हेतु शिक्षण–चिन्तन स्तर का शिक्षण स्मृति एवं बोध दोनों ही स्तर के शिक्षण से अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस स्तर पर शिक्षण समस्या केन्द्रित होता है जिसकी दो प्रमुख विशेषताएँ होती हैं पहली है समस्या का उत्पन्न होना तथा दूसरी है उस समस्या का समाधान खोजना । यह समस्या इस प्रकार की होती है जिसे बालक स्वयं खोजता है या अनुभव करता है तथा फिर वह अपने ही चिन्तन तर्क द्वारा उस अनुभूत समस्या का समाधान खोजता है। परावर्तन स्तर का शिक्षण सफल होने पर छात्र में अन्तर्दृष्टि का विकास होता है जिससे बालक में समस्या समाधान की क्षमता का विकास होता है। इस स्तर के शिक्षण के तीन प्रमुख तत्त्व हैं–
(1) चिन्तन (Thinking)
(2) तर्क (Reasoning)
(3) अन्तर्दृष्टि (Insight)
किसी समस्या के अनुभव होने पर हम उसके बारे में सोचते हैं अर्थात् चिन्तन करते हैं चिन्तन के द्वारा वह उसके समाधान के लिए अनेक विकल्पों पर विचार करता है इसे तर्क कहते हैं। वह मानसिक क्रिया जिसमें हमें अचानक सूझ द्वारा उसका कोई उत्तम समाधान स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है तो उसे अन्तर्दृष्टि कहते हैं। इन तीनों के छात्र ही चिन्तन स्तर का शिक्षण पूर्ण होता है। इस स्तर के शिक्षण के लिए शिक्षण कक्षा में सजीव, उत्तेजक, प्रेरणादायी एवं आलोचनात्मक वातावरण को जन्म देता है जो मौलिक चिन्तन एवं नूतन चिन्तन को प्रोत्साहित करता है। मानव जीवन में हर रोज नई-नई परिस्थितियाँ एवं समस्याएँ आती हैं इन समस्याओं को सुलझाने में चिन्तन या विचार ही सहायक होते हैं। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक में चिन्तन एवं तर्क क्षमता का विकास करना है जिससे वह जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान आसानी से कर सके।
चिंतन स्तर पर हंट का प्रतिमान–मॉरिस पी. हण्ट को चिंतन स्तर के शिक्षण प्रतिमान का जन्मदाता माना जाता है। इस प्रतिमान के निम्न 4 सोपान हैं—
(1) उद्देश्य
(2) संरचना
(3) सामाजिक प्रणाली
(4) मूल्यांकन प्रणाली
उपर्युक्त सोपानों को निम्न प्रकार समझाया जा सकता है—
(1) उद्देश्य– समस्या समाधान की क्षमता, स्वतन्त्र मौलिक चिंतन, आलोचनात्मक व सृजनात्मक चिंतन का विकास होता है। “
(2) संरचना–चिंतन स्तर के शिक्षण की संरचना का स्वरूप समस्या की प्रकृति पर निर्भर करता है। समस्या दो प्रकार की होती हैं—
(i) व्यक्तिगत
(ii) सामाजिक ।
व्यक्तिगत समस्या के लिए दो प्रमुख उपागमों का अनुसरण किया जाता है—
(i) डीवी की समस्यात्मक परिस्थिति
(ii) कुर्ट लेविन की समस्यात्मक परिस्थिति
(i) डीवी की समस्यात्मक परिस्थिति— डीवी ने व्यक्तिगत समस्या के दो रूप बताये हैं—
(a) पथ रहित परिस्थिति–उद्देश्य प्राप्त करने के मार्ग में बाधा आ जाने से व्यक्ति के मस्तिष्क में तनाव पैदा हो जाता है और उन बाधाओं पर विजय पाने के लिए चिंतन द्वारा समाधान खोजता है।
(b) दो नॉक वाली परिस्थिति—इस परिस्थिति के दो रूप बताये गये हैं—
परिस्थिति A में दो समान आकर्षित करने वाले लक्ष्य व्यक्ति को तनाव की स्थिति में डालते हैं कि वह उनमें से किस लक्ष्य की ओर आकर्षित हो।
कभी-कभी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होती है कि एक ही लक्ष्य को दो मार्गों से प्राप्त किया जा सकता है। दोनों ही . पथ सरल होते हैं। व्यक्ति यह सोचता है कि वह दोनों में से किस पथ का अनुसरण करे । इस प्रकार तनाव की परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है और समस्यात्मक परिस्थिति उत्पन्न होकर चिंतन को जन्म देती है। चिंतन के द्वारा व्यक्ति किसी एक सरल मार्ग का अनुसरण कर समस्या का समाधान करता है।
(ii) कर्ट लेविन समस्यात्मक परिस्थिति — लेविन के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति का कोई न कोई लक्ष्य अवश्य होता है। उसी से उसका व्यवहार नियंत्रित होता है। व्यक्ति व लक्ष्य की स्थिति तनाव उत्पन्न करती है। लेविन ने तनाव पथ परिस्थिति (conflicting path-situation) के निम्न रूप बताये हैं—
(1) सामाजिक प्रणाली– चिंतन स्तर के शिक्षण में छात्र अधिक क्रियाशील रहता है । कक्षा का वातावरण खुला व स्वतन्त्र रहता है। शिक्षक का स्थान गौण छात्र का स्थानं मुख्य रहता है। छात्रों के स्वतः प्रेरणा का अधिक महत्त्व होता है। शिक्षक का कार्य बालक के आकांक्षा स्तर को उठाना है। जिसके लिए शिक्षक निम्न कार्य करता है—
विद्यार्थियों के समक्ष समस्या उत्पन्न करता है। शिक्षण के समय वाद-विवाद, सेमिनार एवं संगोष्ठी आदि की व्यवस्था करता है। समस्या का समाधान करने के लिए सभी विद्यार्थी सक्रिय हो जाते हैं।
(2) मूल्यांकन प्रणाली–चिंतन स्तर के लिए निबन्धात्मक परीक्षायें अधिक उपयोगी होती हैं। इस स्तर की परीक्षायें लेते समय छात्रों की अभिवृत्तियों, अधिगम क्रियाओं में छात्रों की तल्लीनता, आलोचनात्मक व सृजनात्मक क्षमताओं के विकास का मूल्यांकन करना चाहिए।
चिंतन स्तर के शिक्षण की विशेषताएँ—
(1) यह शिक्षण अधिक विचारयुक्त होता है
(2) चिंतन स्तर का शिक्षण समस्या केन्द्रित होता है।
(3) छात्रों को उत्प्रेरित करना शिक्षक का प्रमुख कार्य है।
(4) छात्रों में आत्मविश्वास, निर्भीकता एवं क्रियाशीलता का विकास होता है।
(5) चिंतन स्तर का शिक्षण समस्या केन्द्रित होता है।
(6) सृजनात्मक सम्बन्धी कार्यों में सहायक होता है।
(7) कार्य – उत्पादन को बढ़ावा मिलता है।
(8) चिंतन प्रक्रिया में छात्र तथ्यों के आधार पर सामान्यीकरण करते हैं व नये तथ्यों की खोज करते हैं ।
(9) इसमें पाठ्यवस्तु का गहनता व गंभीरता से अध्ययन किया जाता है।
(10) यह छात्रों को अग्रसरित करने व स्वतंत्र रूप से ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होता है।
(11) छात्रों द्वारा मौलिक चिंतन पर बल दिया जाता है।
(12) चिन्तन स्तर का शिक्षण केवल पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तक तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है।
(13) इस स्तर के शिक्षण में विद्यार्थी में आलोचनात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न किया जाता है।
चिंतन स्तर के शिक्षण के गुण—
(1) चिन्तन स्तर में ज्ञान के भंडार में वृद्धि होती है ।
(2) चिन्तन स्तर के अन्तर्गत समस्यात्मक स्थिति में किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। अतः समाधान किस प्रकार से करना है, का ज्ञान होता है ।
(3) मानव जीवन समस्याओं से भरा हुआ हैं। अत: उन समस्याओं को भली-भाँति निपटाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
(4) चिन्तन स्तर नियोजन तथा आयोजन की दृष्टि से भी काफी लचीला और गतिशील होता हैं।
(5) चिन्तन स्तर का शिक्षण के सभी विषयों तथा प्रकरणों के शिक्षण अधिगम के लिए प्रस्तुत किया जाता है।
चिंतन स्तर के शिक्षण के दोष—
(1) यह केवल उच्च कक्षा के छात्रों के लिए उपयुक्त है।
(2) इस शिक्षण के छात्र समस्या समाधान व मौलिक चिंतन ही कर सकेंगे।
(3) इसे केवल पाठ्यक्रम, पाठ्यवस्तु व पाठ्यपुस्तकों तक ही सीमित नहीं किया जा सकता।
(4) छात्र व शिक्षक के निकट सम्बन्ध होने के कारण वह अपने शिक्षक की खुलकर आलोचना कर सकते हैं।
(5) इसमें केवल सामूहिक वाद-विवाद की व्यूहरचना को प्रभावशाली माना जाता है।
(6) स्मृति तथा बोध स्तर के शिक्षण की भाँति चिंतन स्तर में किसी निश्चित कार्यक्रम का अनुसरण नहीं किया जाता।
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