सौन्दर्य – बोध से आप क्या समझते हैं? शिक्षा के माध्यम से कला व सौन्दर्य – बोध को किस प्रकार बढ़ाया जा सकता है?

सौन्दर्य – बोध से आप क्या समझते हैं? शिक्षा के माध्यम से कला व सौन्दर्य – बोध को किस प्रकार बढ़ाया जा सकता है?  

उत्तर— शिक्षा के द्वारा रूपान्तरित कला एवं सौन्दर्य का बोध–शिक्षा की योजना बहुत समझ-बूझकर बनानी पड़ती है। उसका आधार मुख्यत: दो बातों पर रहना चाहिए । मानव समाज के जो आदर्श तैयार हुए हैं, शिक्षा का उद्देश्य हो कि उसके द्वारा व्यक्ति उन आदर्शों की तरफ बढ़ता रहे । मानव संस्कृति का जो ‘पैटर्न’ तैयार करना चाहता है, शिक्षा उस पैटर्न का निर्माण करे। दूसरा आधार होगा, व्यक्ति और समाज का गुण-धर्म। यानी आदर्श चाहे कितना भी ऊँचा क्यों न हो, शिक्षा का तरीका इस गुण-धर्म को सामने रखते हुए ही बनेगा।

कला सिखाने का अर्थ केवल हाथ के काम में दक्षता हासिल करना नहीं होता; कुछ चित्र और दस्तकारी की खूबसूरत चीजों का निर्माण मात्र उसका ध्येय नहीं होता । कला – शिक्षा के पीछे व्यक्ति के चरित्र, उसके सामाजिक बोध और सौन्दर्य बोध का विकास करने का उद्देश्य होता है। कला शिक्षा में हाथ का काम (कला शिक्षा) तो साधन मात्र है, साध्य तो गुण विकास है। लेकिन कला का प्रमुख ध्येय हमारे जीवन में सौन्दर्य निर्माण होता है।
जो चीजें आदमी बनाये, वे खूबसूरत हों, इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सुन्दर वस्तु चुनने की विवेक-बुद्धि हो । पुराने जमाने में यह बात सरल थी, क्योंकि परम्परा के कारण व्यक्ति चुनना जानता था और समाज की शिक्षण पद्धति में भी यह शिक्षा आ जाती थी । प्रत्येक व्यक्ति हर कारीगर को अच्छी तरह जानता था । कला, कलाकार और ग्राहक की आत्मीयता के कारण कला-बोध की शिक्षा स्वाभाविक ही मिलती रहती थी । परन्तु आज कला-बोध में यह विप्लव (केओस) घट चुका है और प्रत्येक व्यक्ति के सामने सारे संसार की चीजें उपस्थित होती हैं। इस स्थिति में ठीक चुनाव करने की शक्ति का निर्माण असंभव ही है ।
कला-शिक्षा का यह भी उद्देश्य है कि व्यक्ति को प्रकृति के साथ इस बंधुत्व का अनुभव हो । आज विशेष तौर पर इस शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है। आदमी का हृदय इतना संकुचित हो गया है कि पेड़-पौधों आदि की बात तो छोड़ दें, उसे अपने पड़ोसी मानव के लिए भी सच्ची संवेदना नहीं रह गयी है। इस स्वार्थमय युग में शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि चाहे उससे व्यक्ति कुछ और चीज सीखे- या न सीखे, उसे साथियों, सहजीवियों के साथ गहरी संवेदना की अनुभूति तो अवश्य ही हो।
कला-शिक्षा इस काम को करती है। कलाकार का मन इतना मुलायम हो जाता है कि अगर उसके सामने कोई पेड़ काटे या किसी अनुचित कारण से फूल तोड़े, तो उसे दुख होता है। दुख इसलिए होता है कि वह उस फूल की सुन्दरता को पहचानता है और यह फूल की सुन्दरता उसकी परिचित होती है। उसे अपनी परिचित वस्तु की क्षति होते देखना सहन नहीं होता। वह जब स्वयं भी फूल तोड़ता है, तो हमेशा किसी-न-किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए ही तोड़ता है।
कला के द्वारा प्रकृति परिचय से बंधुत्व भाव का अनुभव करने के अलावा एक दूसरा पहलू भी है जो प्रकृति के बाहरी आकार से सम्बन्ध रखता है। इसके भी दो प्रकार हैं- एक तो वह जो हमारे आस-पास की चीजों की उपस्थिति के बारे में हमें सचेत करता है और दूसरा वह जो हमारी आँख से सम्बन्ध रखता है। यानी जो चाक्षुष- शक्ति से सम्बन्धित है। इस सचेतता का सम्बन्ध प्रकृति के साथ एकात्मानुभूति से है।
हमें शिक्षा के माध्यम से बालकों में कला एवं सौन्दर्य-बोध का विकास करना है। इसी के सन्दर्भ में हम यूनान के दार्शनिक प्लेटो का मत लेते हैं, जो इसकी पुष्टि करता है। उनके अनुसार शिक्षा में वह शक्ति होनी चाहिए, जिससे व्यक्ति में छंद और सामंजस्य का निर्माण हो । उसके अनुसार, “हमारे नागरिक का विकास पुरुष की अवस्था को पहुँचने के लिए केवल सुन्दर और लावण्यमय वातावरण में हो। उसमें से बदसूरती और दुर्गुणों को निकाल दिया गया हो। “
सौन्दर्य-निर्माण की कोशिश जीवन के ध्येयों में से एक है। प्रकृति की प्रत्येक कोशिश ‘जीवन’ में संतुलन बनाने-लावण्य – निर्माण करने की है। ‘प्रकृति’ शब्द का मतलब व्यापक अर्थ में लिया गया है। मनुष्य भी प्रकृति का अंग है। प्रकृति की एक और कोशिश, ऊपर कही कोशिश के साथ-साथ चलती रही है। उसके पीछे ध्येय मितव्ययिता (उपयोगिता) होती है। प्रकृति में प्रत्येक वस्तु के निर्माण में यह प्रयत्न रहता है कि कम से कम व्यय हो, यानी जितना जरूरी है, उससे अधिक न हो । इन दोनों प्रयत्नों, सौन्दर्य – निर्माण और मितव्ययिता (उपयोगिता) में इतना समन्वय है कि एक अवस्था में जाकर इन्हें ‘एक ही ध्येय के दो नाम’ कहा जा सकता है।
कलाकार दो प्रकार के होते हैं—एक तो वे, जो केवल आंतरिक बोध के द्वारा सृजन करते हैं। कलाकार का दूसरा प्रकार वह होता है, जिसकी सृजनात्मकता बुद्धि प्रधान होती है। आंतरिक बोधवाली शक्ति सिखायी नहीं जा सकती, पर उस सृजनात्मकता का थोड़ा-बहुत ज्ञान आम व्यक्ति को जरूर सिखाया जा सकता है, जिसका आधार बौद्धिक होता है। इस प्रकार मनुष्य जो प्रकृति से लेकर आता है, उसके द्वारा तो लावण्य-निर्माण करने की शक्ति रखता ही है, पर संस्कारों के द्वारा, शिक्षा के द्वारा जान-बूझकर एक सम्पूर्ण लावण्यशील व्यक्ति बनने की शक्ति भी रखता है ।
कला-बोध जिस गहराई में बचपन से ही अभ्यास होने से प्रवेश करता है वह बड़े होकर करना बिरलों के लिए ही सम्भव होता है। ये जो कला-बोध (सेंसिबिलिटी) से संबंध रखने वाले विषय हैं यानी सृजनात्मक और निमार्णात्मक विषय; उनके द्वारा जिस विकास की अपेक्षा है, वह बाल्यावस्था में ही होना शुरू हो जाता है। बचपन में अगर उसमें प्रवेश नहीं पा सके, तो बड़े होकर यह असंभव हो जाता है। इसलिए कला शिक्षा प्रारम्भ से ही बालकों को देनी आवश्यक हो जाती है।
एक बच्चे में जरूरत से ज्यादा ‘स्फूर्ति’ हो और वह बिना कारण इधर-उधर चीजों को पटकता-पीटता फिरता हो, तो शिक्षक का काम है कि वह बच्चे की इस पीटने की भावना को कोई प्रवृत्ति देकर सुन्दर रूप दे। खूब ठोक-पीट करने का काम देने से भी उसकी यह वृत्ति काफी हद तक आत्म-प्रकटन पा सकेगी। बगीचा बनाने में खोदने का काम करना पड़ता है। मूर्ति बनाने में खुदाई आदि, कुम्हार के काम में खूब सारी मिट्टी लेकर पसीना तक निकाला जा सकता है। इस तरह के कई काम हो सकते हैं। चित्रकला द्वारा भी इसका अच्छा सुन्दर रूप बन सकता है। वह शायद वैसा ही चित्र बनायेगा, जिसमें खूब मार-काटू, ठोक-पीट आदि का विषय हो । किस भावना को किस प्रवृत्ति द्वारा निकाल निकास मिलेगा, यह तो शिक्षक मौके पर ही ठीक कर सकता है।
बच्चे को यह महसूस हो जाना कि उसके अन्दर इतना सौन्दर्य, इतनी शक्ति है, उसे और सुन्दर और शक्तिशाली बनाता है। कला – शिक्षा के द्वारा बच्चे का जो समग्र विकास होता है, उसमें आनन्द प्राप्ति का पहलू अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अधिकतर बच्चे कला-प्रवृत्तियों में इसीलिए रस लेते हैं कि उन्हें उनके द्वारा आनन्द मिलता है। इस तरह और भी कुछ बातें हो सकती हैं। किन्तु अगर शिक्षक को यह विश्वास हो जाये कि बच्चे का आनन्द महसूस करना उसके आंतरिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम होता है, तो शिक्षा में कला प्रवृत्तियों का उचित स्थान आसानी से बन जायेगा। लिखिये ।
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