स्थापत्य कला, चित्रकला एवं जनजातीय शिल्पकला
स्थापत्य कला, चित्रकला एवं जनजातीय शिल्पकला
राज्य में स्थापत्य कला, चित्रकला व जनजातीय शिल्पकला का प्राचीन समय से ही अत्यन्त महत्त्व रहा है। राज्य की कलाओं को प्रोत्साहित करने हेतु झारखण्ड कला मन्दिर का गठन किया गया है। यह संस्था जमशेदपुर में स्थित है, जो नई चित्रकारी को प्रोत्साहित करती है ।
> स्थापत्य कला
> राज्य में स्थापत्य कला प्राचीन मन्दिरों व प्राचीन किलों के खण्डहरों में दिखाई देती है।
> राज्य के पूर्वी भाग में बढ़ाडीह, दारूहेड़ा व बुण्डू के मन्दिरों में ओडिशा राज्य की स्थापत्य कला का प्रभाव दिखाई देता है।
> लोहरदगा का वासुदेव मन्दिर व दालमी का विष्णु मन्दिर हिन्दू धर्म की स्थापत्य कला से प्रभावित दिखाई देते हैं ।
> राज्य में बने चर्चों पर गौथिक शैली का प्रभाव दिखाई देता है।
> राज्य में भिन्न-भिन्न राजाओं ने अपने समय में अलग-अलग शैलियों में भवनों व मन्दिरों का निर्माण कराया। बाह्य लोगों के आगमन से राज्य में मिश्रित कला की उत्पत्ति हुई ।
> प्रारम्भिक जनजातीय स्थापत्य कला में काष्ठ कला का अधिक प्रयोग हुआ।
> चित्रकला
> राज्य में चित्रकला के अन्तर्गत जनजातियों की
रुचि अधिक रही है।
> आदिवासियों की चित्रकला उनकी सामाजिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों, धार्मिक विश्वासों आदि को प्रतिबिम्बित करती है। उनकी चित्रकला का दर्शन सहज रूप से उनके घरों की सजावट में देखने को मिलता है ।
> ये घरों की दीवारों पर चिकनी मिट्टी का लेप लगाकर मिट्टी व वनस्पतियों से प्राप्त रंग पे विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ एवं ज्यामितीय डिजाइन बनाते हैं ।
> सन्थाल जनजाति में भित्ति चित्रकला का प्रचलन अन्य जनजातियों से अधिक है। इनके चित्रों में फूल-पत्तियों, सूर्य, चन्द्रमा, मछली, ज्यामितीय आकृतियों, लताओं आदि की प्रधानता है । राज्य की प्रमुख चित्रकला निम्न प्रकार हैं
> कोहवर चित्रकला
> यह कला मध्य पाषाणकाल से चली आ रही है । प्रत्येक विवाहित महिला अपने पति के घर कोहवर कला का चित्रण करती है।
> यह चित्रकारी मुख्य रूप से जनवरी से जून महीने के बीच की जाती है। इसमें मुख्य रूप से नर-नारी प्रतीकों तथा ज्यामितीय आकृति में पेड़-पौधों और फूल-पत्तियों का चित्रांकन किया जाता है। ।
> यह चित्रकला शैली बिरहोर जनजाति में अधिक प्रचलित है।
> हजारीबाग जिला एवं आस-पास के क्षेत्रों में बिरहोर जनजाति के घरों की दीवारों पर मिट्टी का लेप चढ़ाकर मिट्टी के रंगों से बनी कोहवर चित्रकारी आकर्षक है।
> भित्ति चित्रकला
> यह सन्थाल जनजाति की चित्रकला है। यह प्राचीनकालीन स्थल चाई- चम्पागढ़ के इतिहास से जुड़ी है।
> भित्ति चित्रकला को दो क्षेत्रों पहला सन्थाल का क्षेत्र तथा दूसरा छोटानागपुर का क्षेत्र में बाँटा गया है।
> सन्थाल भित्ति चित्रकला में प्राचीनता का भाव है तथा छोटानागपुर में आधुनिकता का भाव है।
> सन्थाल में आकार एवं उभार की प्रधानता है तथा छोटानागपुर में रंग एवं समतल की विशेषता है।
> जादोपटिया चित्रकला
> यह पुरातन चित्रकला से प्रेरित एक लोकचित्र कथा – शैली है, जो सन्थाल परगना में अधिक प्रचलित है।
> ये चित्र एक विशेष समुदाय ‘जादो’ द्वारा बनाए जाते हैं ।
> इस चित्रकारी में सन्थाल समाज के मिथकों, लोक गाथाओं, रीति-रिवाजों, धार्मिक विश्वासों, नैतिक मान्यताओं आदि को प्रदर्शित किया जाता है।
> जादोपटिया मुख्यतः चित्रकार द्वारा कपड़े तथा कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों को जोड़कर, उन पर बनाई जाने वाली चित्रकारी है ।
> चित्रकारी में मुख्य रूप से लाल, पीला, हरा, भूरा एवं काले रंग का प्रयोग किया जाता है।
> सोहराय चित्रकला
> यह चित्रकला सोहराय पर्व से सम्बन्धित है, जिसे दीपावली के एक दिन बाद मनाया जाता है।
> यह चित्रकारी वर्षा ऋतु के बाद घरों की सफाई के बाद शुरू की जाती है।
> इस चित्रकारी का प्रमुख केन्द्र प्रजापति या पशुपति देवता है। इसमें महिलाओं द्वारा जंगली जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों का चित्रण किया जाता है।
> मंझू सोहराय तथा कुर्मी सोहराय इस चित्रकला की दो प्रमुख शैलियाँ हैं।
> स्ट्रॉ चित्रकला
> यह झारखण्ड में विकसित वर्तमान की चित्रकला है। इसमें धान के पुआल की परत को फैलाकर तथा ताप देकर समतल किया जाता है।
> शिल्पकार इस पर चित्र बनाकर, चित्र को काटकर निकाल देता है । इसके पश्चात् इन चित्रों को काली पृष्ठभूमि पर चिपकाया जाता है।
> ललित मोहन राय व हरेन ठाकुर
ललित मोहन राय और हरेन ठाकुर झारखण्ड के प्रसिद्ध चित्रकार हैं।
मोहन राय को जनजातीय जीवन का स्पष्ट चित्रण करने में महारत हासिल है। इन्हें कलाश्री सम्मान
से भी सम्मानित किया जा चुका है।
हरेन ठाकुर को छोटानागपुर चित्रांकन शैली में पूर्ण रूप से महारत हासिल है। इन्हें अनेक राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
> जनजातीय शिल्प
> झारखण्ड में विभिन्न जनजातियों के पारम्परिक शिल्प प्रसिद्ध हैं। इनका वर्णन निम्न है
> धातु शिल्प
> धातु शिल्प का प्रयोग जनजातियों द्वारा प्राचीन काल से ही किया जा रहा है ।
> धातु शिल्प के प्रमुख उदाहरण ढोकड़ा शैली में बने पाइला (चावल मापने की इकाई ) दीपदान, चिड़िया की आकृति प्रमुख हैं।
> वर्तमान समय में भी ढोकड़ा पात्रों का उत्पादन लोहाडीह (रांची) और इचाक (हजारीबाग) में हो रहा है।
> झारखण्ड की जनजातियाँ धातुओं की विभिन्न मूर्तियाँ और घर के सजावट के सामान बनाती हैं।
> बाँस शिल्प
> यह विश्व की प्राचीन शिल्प है।
> बाँस शिल्प मुख्यतः सन्थाल, हो, गोण्ड, पहाड़िया जनजातियों द्वारा बनाए जाते हैं। ये बाँस शिल्प द्वारा अनेक उपयोगी एवं सजावटी वस्तुएँ बनाते हैं। जिनमें टोकरी, सूप, मछली फँसाने का जाल इत्यादि प्रमुख हैं।
> इनके द्वारा फूलदान, ट्रे, हैण्डबैग आदि का निर्माण भी बाँस शिल्प द्वारा किया जाता है ।
> सन्थाल परगना, रांची एवं सिंहभूम बाँस शिल्प के प्रमुख क्षेत्र हैं ।
> काष्ठ शिल्प
> झारखण्ड में वन क्षेत्र की अधिकता है। इसलिए यहाँ प्रत्येक जनजाति लकड़ी की उपयोगी सामग्री बनाती है। रांची और हजारीबाग में तैयार किए गए लकड़ी के खिलौने विश्व प्रसिद्ध हैं।
> लकड़ी के वाद्य-यन्त्र, ट्रे, मुखौटे, कलात्मक स्टूल, सजावट की मूर्तियाँ, रसोईघर के उपकरण काष्ठ शिल्प के प्रमुख उदाहरण हैं।
> पत्थर शिल्प
> झारखण्ड में पत्थर शिल्प का कार्य मुख्यतः घाटशिला, कराइकेला, चाण्डिल, पलामू एवं दुमका के क्षेत्र में होता है।
> यहाँ पत्थर के देवी-देवता, सिल-बट्टा, जीव-जन्तु की मूर्तियाँ, खरल-मूसल, चकला – बेलन आदि का निर्माण किया जाता है।
> मुखौटा शिल्प
> राज्य के सरायकेला-खरसाँवा क्षेत्र की छऊ नृत्य शैली विश्व प्रसिद्ध है, जिसमें चेहरे पर नर्तक मुखौटे लगाकर नृत्य करते हैं।
> ये मुखौटे अपने आप में विशिष्ट है, क्योंकि ये अभिनीत किए जा रहे पात्र के चरित्र के आधार पर मिट्टी, कागज व कपड़े से तैयार किया जाता है।
> मुखौटे बनाने का कार्य झारखण्ड में केवल सरायकेला-खरसावाँ तथा पश्चिमी सिंहभूम जिलों में होता है। ये मुखौटे रंग-बिरंगे, आकर्षक एवं जीवन्त प्रतीत होते हैं।
> लेदरा शिल्प
> लेदरा शिल्प का प्रचलन हजारीबाग क्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं द्वारा किया गया है । लेदरा का अर्थ फटे-पुराने कपड़े होता है। लेदरा शिल्प में फटे-पुराने कपड़ों की पाँच-छ: तहें रजाई की तरह सिल दी जाती हैं।
> इनकी सिलाई स्थानीय तौर पर बने सूत से की जाती है। इनमें सोहराई एवं कोहवर चित्रकला के डिजाइन भी देखने को मिलते हैं।
> मृदा शिल्प
> झारखण्ड में काली एवं लाल मृदा प्रचूर मात्रा में पाई जाती है, जो मृदा शिल्प के लिए उपयोगी है।
> स्थानीय मृदा उपलब्धता के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में मिट्टी के बर्तन, खिलौने और दैनिक उपयोग की वस्तुएँ बनाई जाती है।
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