झारखण्ड की जनजातियाँ

झारखण्ड की जनजातियाँ

जनजातियों की दृष्टि से झारखण्ड एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। जनजातीय जनसंख्या की दृष्टि से झारखण्ड का भारत में चौथा स्थान है। यहाँ की अधिकांश जनजातियाँ नीग्रीटों प्रजाति की है। झारखण्ड की अधिकांश जनजातियाँ पूर्वी तथा पश्चिमी सिंहभूम, रांची, दुमका, हजारीबाग, पलामू, गिरिडीह आदि जिलों में निवास करती हैं। वर्ष 2011 की जनगणना की अन्तिम रिपोर्ट के अनुसार, झारखण्ड में यहाँ की कुल आबादी का 26.20% भाग जनजातियों का है और 12.1% अनुसूचित जाति का है।
झारखण्ड में पाई जाने वाले प्रमुख जनजातियाँ समूह 32 हैं, जिनमें 8 आदिम जनजाति एवं 24 अनुसूचित जनजाति हैं।

> झारखण्ड की मुख्य जनजातियाँ 

> झारखण्ड की मुख्य जनजातियों का विवरण निम्न है

> सन्थाल जनजाति

> यह जनसंख्या की दृष्टि से झारखण्ड की सबसे बड़ी जनजाति है, जो राज्य की कुल जनजातीय आबादी का 34% है।
> ये मुख्य रूप से सन्थाल परगना प्रमण्डल, धनबाद, बोकारो, गिरिडीह, हजारीबाग, चतरा, कोडरमा, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम आदि जिलों में निवास करती है ।
> राजमहल पहाड़ियों में दामन-ए-कोह इनका मुख्य निवास स्थान है। यह जनजाति प्रजातीय दृष्टि से प्रोटोऑस्ट्रोलॉयड है। इसकी भाषा सन्थाली एवं लिपि ओलचिकी है।
> सामाजिक जीवन
> सन्थालों का परिवार ही उनकी सामाजिक संस्था है। सन्थाल गाँव में एक पंचायत होती है, जिसका प्रमुख (प्रमुख) माँझी होता है। माँझी को प्रशासनिक एवं न्यायिक अधिकार प्राप्त होता है।
> पाराणिक गाँव का उप-प्रधान होता है, जो माँझी की सहायता करता है ।
> माँझी का एक अन्य सहयोगी जोगमाँझी होता है । सन्थाली समाज में लोगों से सूचनाओं का संग्रह करने वाले को गोड़ैत कहते हैं। 5 से 8 गाँवों पर एक देशमाँझी होता है तथा 15 से 20 गाँवों को मिलाकर परगना का निर्माण करता है, जिसके प्रधान को परगनैत कहा जाता है। इसका प्रमुख कार्य विवादों को निपटाना होता है।
> सन्थाल जनजाति में अनेक प्रकार के विवाहों का प्रचलन है; जैसे—किरिंग (बहु) जबाई, किरिंग बापला, घर दी जमाई, सेवा विवाह,॥ विवाह आदि । यहाँ पर किरिंग बापला सर्वाधिक प्रचलित विवाह है।
> ये लोग समगोत्रीय विवाह नहीं करते तथा दहेज या तिलक की प्रथा भी इनमें प्रचलित नहीं है । जोगमाँझी इनका पुरोहित होता है, जो विवाह संस्कार सम्पन्न करता है।
> वर पक्ष की ओर से कन्या को दिए जाने वाले वधू-मूल्य को ‘पोन’ कहते हैं।
> सन्थालों के युवागृह को घोटुल कहा जाता है।
> किसी भी प्रकार के अपराध के लिए इनमें सामाजिक, आर्थिक व शारीरिक दण्ड का भी प्रावधान है।
> सांस्कृतिक जीवन
> सन्थालों में गोदना गोदने का प्रचलन भी है। इनमें स्त्री-पुरुष दोनों गोदना गोदवाते हैं।
> सन्थाल जनजाति का मुख्य पर्व बा, करम, सोहराई, बंधना माघसिम, एरोक आदि हैं। इनके अधिकांश पर्व कृषि या प्रकृति से सम्बन्धित होते हैं।
> आर्थिक जीवन
> सन्थाल एक कृषक जनजाति है, इनकी आजीविका का मुख्य आधार कृषि है।
> इनकी मुख्य फसल धान है। इनका मुख्य भोज्य पदार्थ चावल है तथा मुख्य पेय पदार्थ पोचाई (चावल की शराब) है ।
> सन्थाली जनजाति प्रारम्भ में शिकार एवं झूम कृषि पर आश्रित थी, परन्तु बाद में बाहरी सम्पर्क में आने के बाद उन्होंने कृषि को अपना मुख्य व्यवसाय बना लिया ।
> धार्मिक जीवन
> सन्थाल मुख्यतः गाँवों में रहते हैं। गाँवों के मध्य में इनका माँझीधान होता है, जहाँ गाँव का माँझी पूजा-पाठ का कार्य करता है ।
> माँझीधान के समीप ही गाँव की पंचायतें आयोजित होती हैं।
> गाँवों के बाहर एक ‘जहेर थान’ होता है, जहाँ जाहेर एरा (सन्थालों के देवता) का निवास स्थान होता है।
> इनका सर्वोच्च देवता मरांग बुरू है। इन्हें ठाकुर जी भी कहा जाता है।

> उराँव जनजाति

> जनसंख्या की दृष्टि से झारखण्ड की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति उराँव है। यह राज्य की कुल जनसंख्या का 20% है।
> यह मुख्य रूप से रांची, पलामू, लातेहार, हजारीबाग, सिंहभूम तथा सन्थाल परगना क्षेत्र में पाए जाते हैं।
> उराँव को भाषायी एवं प्रजातीय आधार पर द्रविड़ माना जाता है।
> ये लोग मुख्यतः कुडुख भाषा बोलते हैं।
> वर्तमान में उराँव जनजाति झारखण्ड की सबसे शिक्षित जनजाति है ।
> सामाजिक जीवन
> उराँव जनजाति की सबसे छोटी सामाजिक इकाई परिवार होती है। इनका परिवार पित्तृसत्तात्मक होता
 है ।
> उराँव अनेक गोत्रों में बँटे होते हैं, जिन्हें किली कहा जाता है।
> इस जनजाति में पंचायत का महत्त्व अधिक है। इनकी पंचायत को पंचोरा कहा जाता है।
> प्राकृतिक एवं सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए 21 गाँवों को मिलाकर पहड़ा पंचायत का गठन किया जाता है, जिसके प्रधान को ‘पहड़ा राजा’ कहा जाता है।
> उराँव जनजाति की प्रमुख विवाह पद्धति सेवा विवाह, गोलट विवाह, आयोजित विवाह, विधवा विवाह आदि हैं। ये समग्रामा विवाह ( एक ही गाँव के लड़का-लड़की) को नहीं मानते हैं।
> ये कृत्रिम नातेदारी भी स्थापित करते हैं, जिसे ‘सहियारो’ कहते हैं।
> उराँव जनजाति के को युवागृह धुमकुड़िया एवं अखरा कहा जाता है। इसमें अविवाहित युवक-युवतियाँ रहते हैं। लड़के के धुमकुड़िया को जोख- एरेपा तथा लड़कियों के धुमकुड़िया को ‘पेल
एरेपा’ कहा जाता है। पेल एरेपा की देखभाल का कार्य प्रौढ़ या किसी विधवा महिला को सौंपा जाता है जिसे ‘बड़की धांगरिन’ कहते हैं।
> जोंख एरेपा की देखभाल का कार्य करने वाले मुखिया को महतो या धांगर कहते हैं,
> धुमकुड़िया एक प्रशिक्षण केन्द्र होता है, जहाँ सामाजिक व्यक्ति बनने की शिक्षा दी जाती है।
> धुमकुड़िया में 10 से 11 वर्ष की उम्र में प्रवेश हो जाता है, जो विवाहपूर्व तक यहाँ रहते हैं।
> सांस्कृतिक जीवन
> उराँव जनजाति का प्रमुख त्योहार सरहुल, करमा, जितिया, नवाखानी, फगुआ, माघे, चांडी आदि हैं। यहाँ प्रायः प्रत्येक पर्व व त्योहार पर बलि एवं हैड़िया का प्रचलन है।
> त्योहारों के अवसर पर पुरुषों द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों को केरया व महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों को खनरिया कहते हैं।
> इनका प्रमुख भोजन चावल, फल आदि हैं तथा हडिया इनका प्रमुख पेय पदार्थ है।
> फागुन पर्व (मार्च माह में धान कटने का फाल्गुन समय) इनमें सर्वाधिक आनन्द के साथ है मनाया जाता ।
> उराँव जाति में मृत्यु के बाद दफन एवं दाह संस्कार दोनों को अपनाया जाता है ।
> आर्थिक जीवन
> उराँव जनजाति के आर्थिक जीवन का आधार खेती, पशुपालन, शिकार, हाटबाजार, मजदूरी आदि हैं।
> इनका आरम्भिक आर्थिक जीवन छोटानागपुर में प्रवेश के समय कृषि पर निर्भर था, जो शिकार एवं झूम कृषि पर आश्रित थे।
> सबसे पहले आकर बसने वाले पर्व कृषि कार्य करने वाले उराँव भुईहर कहलाए तथा इनकी भूमि भूइँहरी भूमि कहलाई।
> धार्मिक जीवन
 > उराँव जनजाति के लोग मिश्रित धर्म को मानते हैं। इनका प्रमुख देवता धर्मेश है, जो सिंगा बाँगा (सूर्य) का प्रतीक है।
> इसके अन्य प्रमुख देवता ठाकुर देव (ग्राम देवता), मरांग बुरु (पहाड़ देवता), जीहवार (सीमान्त देवता), पूर्वात्या (कुल देवता) आदि हैं।
> इस जनजाति में प्रधान पुजारी को ‘पाहन’ तथा इसके मुख्य पूजा स्थल को ‘सरना’ कहा जाता है।

> मुण्डा जनजाति

> मुण्डा झारखण्ड में कोलेरियन समूह की जनजाति है तथा यह आबादी की दृष्टि से झारखण्ड की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति है।
> प्रजातीय दृष्टि से मुण्डा को प्रोटो-ऑस्ट्रोलॉयड समूह में रखा जाता है।
> इनकी भाषा मुण्डारी ऑस्ट्रो एशियाटिक परिवार में आती है। ये अपनी भाषा को ‘होड़ो जगर’ भी कहते हैं।
> यह मुख्य रूप से रांची, हजारीबाग, पलामू, गुमला, गिरिडीह, पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम तथा दुमका क्षेत्रों में निवास करती है।
> यह झारखण्ड की मूल निवासी है। इसका प्रवेश झारखण्ड में 600 ईसा पूर्व में हुआ था।
> मुण्डा स्वयं को हेरको कहते हैं, जिसे सामान्य तौर पर कोल भी कहा जाता है।
> सामाजिक जीवन
> मुण्डा जनजाति का समाज पितृसत्तात्मक होता है तथा गोत्र ही समाज का मूल आधार है। मुण्डाओं के अनेक गोत्र होते हैं।
> मुण्डा समाज की पंचायत व्यवस्था को ‘हातु पंचायत’ या ‘पड़हा पंचायत’ भी कहते हैं। हातु पंचायत गाँव की पंचायत है, जबकि पड़हा पंचायत कई हातु पंचायतों का समूह होता है।
> इसे ‘पडहा समाज’ भी कहा जाता है। पड़हा पंचायत का प्रधान मानकी कहलाता है।
> गाँव के मुखिया को हातुमुण्डा या मुण्डा कहते हैं। मुण्डा सम्पूर्ण गाँव का प्रतिनिधि होता है।
> मुण्डा समाज में बहिगोत्रीय विवाह होते हैं। विवाह संस्कार का आरम्भ दुतमदार (अगुआ) से होता है। बहुविवाह को सामाजिक मान्यता प्राप्त है। इसमें विवाह कई प्रकार के होते हैं, जैसे- सेवा विवाह, हरण विवाह, राजी-खुशी विवाह आदि ।
> मुण्डाओं के युवागृह को गितिओरा कहा जाता है।
> सांस्कृतिक जीवन
> मुण्डा समाज का रूप सांस्कृतिक जीवन में मिलता है। इनके परिधानों के रूप में  लहेंगा, कारया, परिया साड़ी आदि हैं।
> इनके प्रमुख पर्व व त्योहार-माघे, फागु, सरहुल, सोहराय, जोमनामा, दसंई, होनवा, बतुली, करमा आदि हैं।
> फागु पर्व के समय शिकार का आयोजन होता है।
> इनके अधिकांश पर्व कृषि व प्रकृति से जुड़े हुए हैं।
> इसमें मृत्यु संस्कार के रूप में दफन एवं दाह संस्कार दोनों विधियाँ प्रचलित हैं।
> आर्थिक जीवन
> मुण्डा जनजाति का आर्थिक जीवन मुख्यतः खेती पर आधारित है। ये खेती के साथ-साथ नौकरी, मजदूरी, हाटबाजार तथा वनोपजों से अपनी आजीविका चलाते हैं।
> आरम्भिक मुण्डा जनजाति शिकार व झूम कृषि पर आश्रित थी, लेकिन बाहरी लोगों के सम्पर्क में आने से उन्होंने खेतों को अधिग्रहण कर स्थायी खेती करना प्रारम्भ कर दिया।
> धार्मिक जीवन
> मुण्डाओं का सर्वप्रमुख देवता ‘सिंगबोंगा’ है तथा इनका ग्राम देवता ‘हातुबोंगा’ तथा पहाड़ देवता ‘बुरूबोंगा’ है। गाँव की सबसे बड़ी देवी को ‘देशाठली’ कहा जाता है।
> मुण्डाओं के प्रत्येक घर में कुल देवता (ओड़ाबोंगा) की पूजा की जाती है, जो घर का मुखिया करता है। मुण्डा टोटेम (इष्ट चिह्न) की भी पूजा करते हैं।
> पाहन (पुरोहित) गाँव के कल्याण हेतु देवी-देवताओं की पूजा करता है। पाहन के सहायक को पुजार कहा जाता है।
> पाहन को लगान-मुक्त भूमि दी जाती है, जिसे ‘डाली-कटारी’ भूमि कहा जाता है। जिसकी उपज से भूत-प्रेत की पूजा की जाती है।
> इनके अन्य प्रमुख देवता चाण्डी बोंगा, ओरा बोंगा, ईकिर बोंगा आदि हैं।

> हो जनजाति

> जनसंख्या की दृष्टि से यह राज्य की चौथी सबसे बड़ी जनजाति है। हो जनजाति ‘मुण्डा’ जनजाति का अंश है। इनकी भाषा सन्थाली और मुण्डारी के समान ही है।
> यह जनजाति मुख्य रूप से पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला-खरसावाँ जिलों में निवास करती है।
> सामाजिक जीवन
> इनमें मुख्यतः ‘पितृसत्तात्मक’ परिवार पाया जाता है।
> सम्पूर्ण हो क्षेत्र 5 से 20 गाँवों के समूह में विभाजित है, जो ‘पीर’ के नाम से जाना जाता है। पीर का प्रधान मनकी होता है।
> इस जनजाति में मुख्यतः पाँच प्रकार के विवाह आदि बापला, दिकू आंदि, राजी-खुशी, अनादर विवाह तथा ओपोरतिपि विवाह मुख्य रूप से प्रचलित हैं।
> हो जनजाति में अन्तगौत्रीय विवाह निषेध माना जाता है। विधवा और विधुर विवाह भी समाज में प्रचलित है।
> सांस्कृतिक जीवन
> हो गाँव माल भूमि या कटक पर बसे होते हैं तथा कुछ गाँवों के मध्य में अखाड़ा पाया जाता है, जिसे ‘एटे तुरतुड’ कहते हैं। यहाँ नाच-गान, कथा-वार्ता के माध्यम से मनोरंजन और प्रशिक्षण दोनों उद्देश्यों की पूर्ति होती है।
> इनके रसोईघर के एक कोने में ‘अदिग’ होता है, जो पूर्वजों का पवित्र स्थान होता है।
> इनके प्रमुख पर्व एवं त्योहार-माघे, बाहा दमुराई (घनरोपी), हेरो, जोमनामा, कोलोभ, बतौली आदि हैं।
> हो जनजाति के नृत्य एवं गीत ‘हो’ है, जो उसकी जनजाति के नाम पर ही रखे गए हैं।
> आर्थिक जीवन
> हो जनजाति की जीविका का मुख्य आधार कृषि है। इनकी भूमि को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है, पहला ‘बेडो भूमि’ जो निम्न भूमि एवं उपजाऊ होती है, दूसरा ‘वादी भूमि’ जो धान की खेती के लिए होती है तथा तीसरा ‘गोड़ा भूमि’ जिसमें मोटे अनाज की फसलें उगाई जाती हैं।
> धार्मिक जीवन
>  इस जनजाति के सर्वोच्च देवता ‘सिंगा बोंगा’ हैं। यह सूर्य देवता के समान हैं।
> इनके अन्य प्रमुख देवी-देवता देशाउली या पाहुई बोगा (ग्राम देवता) ओटी बोड़ोम (पृथ्वी देवता). मरांग बुरू, आदि हैं। नागे-बोंगा
> यह जनजाति प्रकृति की पूजा करती है ।

> खड़िया जनजाति

> यह प्रजातीय दृष्टि से प्रोटो-ऑस्ट्रोलॉयड श्रेणी में आते हैं। इनकी भाषा खड़िया मुण्डारी है।
> झारखण्ड में इनका निवास स्थान गुमला, हजारीबाग, पूर्वी तथा पश्चिमी सिंहभूम है।
> खड़िया समाज तीन वर्गों पहाड़ी खड़िया, बेलकी खड़िया और दूध खड़िया में बैटा हुआ है।
> दूध खड़िया इनमें सर्वाधिक उन्नत है तथा सबसे पिछड़ी जाति पहाड़ी खड़िया है।
> सामाजिक जीवन
> इनमें मुख्यतः पितृसत्तात्मक परिवार पाया जाता है। खड़िया जनजाति में पंचायती व्यवस्था प्रचलित है, जिसका एक मुखिया होता है, जिसे ‘प्रधान’ कहा जाता मुखिया के सहायक को ‘नेगी’ कहा जाता है। इसमें सन्देशवाहक भी होता है, जिसे ‘गण्डा’ कहा जाता है।
> खड़िया जनजाति की महासभा को ‘डोकलो सोहोर’ कहा जाता है।
> इसमें गोत्र प्रणाली का काफी महत्त्व है तथा सगोत्रीय विवाह वर्जित हैं। इस जाति में कन्या मूल्य देकर विवाह करने की प्रथा प्रचलित है, जिसे ओलोलदाय या भसल विवाह कहते हैं।
> खड़िया जनजाति के अन्य प्रचलित विवाह ‘उधरा-उधरी’ (सह-पलायन), तापा या तनिला (अपहरण), दुकु चोलकी (अनाहुत), सगाई, झींका ( प्रेम विवाह) आदि हैं।
> सांस्कृतिक जीवन
> खड़िया जनजाति का प्रमुख पर्व बा बिड, बंगारी, कादो लेटा, नयोदेम आदि हैं।
> बा बिड पर्व बीजारोपण के समय मनाया जाता है तथा नयोदेम पर्व नया अन्न या चावल खाने से पहले पूर्वजों की पूजा करके मनाया जाता है।
> इनकी वेशभूषा साधारण होती है तथा ये ‘करेया’ वस्त्र का प्रयोग करते हैं, जो घुटने तक ढकने वाला कपड़ा होता है।
> फागु शिकार खड़िया जनजाति का प्रमुख उत्सव है।
> खड़िया जनजाति के प्रमुख नृत्य हरियो, किनभर, हल्का, जदुरा जेठ लहसुआ, जेठवारी ठढ़िया, करम ठढ़िया, चैत- बैशाख लहसुआ, ढोलकी सयलो आदि हैं।
> आर्थिक जीवन
> खड़िया जनजाति का जीवन घुमन्तु होता है तथा यह अस्थायी बस्ती ‘टंडा’ बनाकर रहते हैं। ‘टंडा’ में 10-15 झोपड़ियाँ होती हैं, जो लकड़ियों से निर्मित होती हैं।
> प्रारम्भ में ये झूम खेती करते थे लेकिन वर्तमान में स्थायी खेती भी करने लगे हैं।
> धार्मिक जीवन
> खड़िया जनजाति का धर्म प्रकृति पर आधारित है। ये मुख्य रूप से सूर्य को अपना उपासक मानते हैं। सूर्य को ये ‘पोड़ोमसोर’ कहते हैं तथा ये लोग चन्द्रमा को सूर्य की पत्नी ‘बेडोडच’ कहते हैं।
> ये भूत-प्रेत और चमत्कारिक शक्तियों पर विश्वास करते हैं। इनकी प्रमुख पूजा भडन्दा, खूँटपाट, दोह हो डुबोओ, जंकोर बंडई आदि हैं।

> गोण्ड जनजाति

> गोण्ड भारत की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है। इनका मूल निवास स्थान गोण्डवाना है। राज्य में ये मुख्यतः गुमला, सिमडेगा, पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला, पलामू, गढ़वा, लातेहार, गिरिडीह, धनबाद, बोकारो आदि जिलों में निवास करती है।
> इनकी मुख्य भाषा गोण्डी है, जो द्रविड़ भाषा परिवार से सम्बन्धित है, लेकिन यह बोल-चाल में सदरी-नागपुरी भाषा का प्रयोग करते हैं।
> सामाजिक जीवन
> गोण्ड समाज तीन वर्गों राज गोंड (अभिजात वर्ग), धुर गोंड (सामान्य वर्ग) एवं कमिया ( श्रमिक-मजदूर) में विभाजित है।
> गोण्ड ‘संयुक्त परिवार’ से जुड़े होते हैं, जिसे को भाई बन्द कहा जाता है।
> इनकी अपनी पंचायत व्यवस्था होती है, जिसमें सम्पत्तिविवाद, तलाक आदि मामले देखे जाते हैं।
> गोण्ड जनजाति में बहु विवाह, विधवा विवाह व बंडा विवाह का भी प्रचलन है ।
> गोण्ड जनजाति के युवागृह को घोटुल कहा जाता है।
> सांस्कृतिक एवं आर्थिक जीवन
> गोण्ड जनजाति में मृत्यु संस्कार में शवों को जलाया एवं दफनाया जाता है। यहाँ जलाने की प्रक्रिया ज्यादा प्रचलित है।
> दाह संस्कार मरने के दूसरे या तीसरे दिन होता है। तीसरे दिन मृतक के नाम पर भोज का आयोजन होता है। कोई निश्चित दिन निर्धारित कर मृतक की स्मृति में एक पत्थर लगाया जाता है।
> ये. मुख्यतः खेती करते हैं। प्रारम्भ में ये स्थानान्तरित खेती या झूम खेती करते थे, जिसे दीपा या बेवार कहते हैं ।
> धार्मिक जीवन
> गोण्ड जनजाति का प्रमुख देवता ‘ठाकुर देव’ और ‘ठाकुर देई’ हैं, जो सूर्य और धरती के प्रतीक हैं। इसका पुजारी ‘बैगा’ कहलाता है तथा उसके सहायक को ‘मति’ कहा जाता है। गोंड लोग ठाकुर देवता को ‘बूढ़ा देव’ भी कहते है ।
> प्रत्येक गोण्ड समूह का अपना एक देवता होता है तथा प्रत्येक गोत्र रसापन नामक कुल देवता की पूजा करते हैं ।
> राज्य की अन्य प्रमुख जनजातियाँ
झारखण्ड की अन्य प्रमुख जनजातियों का विवरण निम्न है

> चेरो जनजाति

> यह झारखण्ड की प्राचीन जनजाति है, जो प्री-द्रविड़ियन समुदाय की है। इन्हें बारह हजारी तथा तेरह हजारी के नाम से भी जाना जाता है। बारह हजारी स्वयं को श्रेष्ठ मानते हैं।
> यह झारखण्ड में मुख्य रूप से लातेहार, पलामू, गढ़वा आदि जिलों में निवास करते हैं ।
> चेरो की भाषा द्रविड़ जनजाति से सम्बन्धित है।
> इनमें मुख्यतः पितृसत्तात्मक परिवार पाया जाता है।
> यह जनजाति बारह समानान्तर गोत्रों में बँटे हैं, जिसे पारी कहा जाता है । यह जनजाति समूह स्वयं को च्यवन ऋषि का वंशज मानते हैं ।
> चेरो के मृत्यु संस्कार में शवों को जलाने एवं दफनाने की प्रथा है। अस्वाभाविक मृत्यु होने पर यहाँ शवों को दफनाया जाता है।
> यह राज्य की एकमात्र ऐसी जनजाति है, जो जंगलों व पहाड़ों में रहना पसन्द नहीं करती।
> इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है।

> कोरबा जनजाति

> झारखण्ड में कोरबा जनजाति के लोग मध्य प्रदेश से आए हैं। यह राज्य में मुख्य रूप से गढ़वा, पलामू और लातेहार जिलों के पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करते हैं। यह जनजाति शिकारी के रूप में जानी जाती है ।
> कोरबा की दो मुख्य शाखाएँ पहाड़ी कोरबा और दिहारिया कोरबा हैं। पहाड़ों पर रहने वाले ‘पहाड़ी कोरबा’ तथा नीचे गाँव में रहने वाले को ‘दिहारिया कोरबा’ कहा जाता है ।
> कोरबा समाज पितृसत्तात्मक है। सम्पत्ति का अधिकार पुरुषों के हाथों में रहता है।
> इनकी पंचायत को मयारी कहते हैं ।
> इनके प्रमुख देवता सिंगबोंगा हैं तथा इनके पुजारी को बैगा कहते हैं ।
> इनका प्रमुख त्योहार करमा है ।

> असुर जनजाति

> यह राज्य की प्राचीन जनजाति है। इसका उल्लेख ऋग्वेद, उपनिषद् व महाभारत आदि ग्रन्थों में भी मिलता है ।
> राज्य में इस जनजाति का मुख्य स्थान गुमला, लातेहार व लोहरदगा है। इस जनजाति का मुख्य संकेन्द्रण नेतरहाट के पाट क्षेत्र में है ।
> ये मुख्यतः तीन उपजातियों वीर, बिरजिया व अगरिया में विभाजित हैं। इनमें मुख्यतः पितृसत्तात्मक परिवार पाया जाता है। इनके प्रमुख देवता सिंगबोगा हैं।
> इनके प्रमुख पर्व सरहुल, फगुआ, सोहराई, नवाखानी आदि हैं।
> इनका परम्परागत कार्य लोहा गलाकर औजार तैयार करना है। यह राज्य की अत्यन्त पिछड़ी एवं गरीब जनजातियों में आती है।

> खरवार जनजाति

> यह जनजाति स्वयं को वीर एवं बलशाली मानती
 है ।
> राज्य में इनका निवास पलामू, लातेहार, गढ़वा, चतरा आदि जिलों में है।
> पलामू एवं लातेहार में रहने वाली खरवार जनजाति (अठारह हजारी नाम से प्रसिद्ध) स्वयं को सूर्यवंशी राजपूत हरिश्चन्द्र का वंशज मानते हैं ।
> इनका परिवार पितृसत्तात्मक होता है तथा समाज की छोटी इकाई परिवार है।
> इनकी अनेक उप-जातियाँ – देनवारी, खरवार, भोगता माँझी, राउत, महतो आदि हैं।
> इनका परम्परागत कार्य खैर वृक्ष से कत्था बनाना रहा है। इसके अतिरिक्त इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है।
> इनका मुख्य देवता सिंगबोंगा है तथा इनके धार्मिक प्रधान को बैगा कहा जाता है ।
> खरवार जनजातियों की पंचायतों को बैठकी एवं पुरोहित को बैगा कहा जाता हैं
> इन जनजातियों के चार गाँवों की पंचायत को चट्टी, पांच गाँवों की पंचायत को पचौरा एवं सात गाँवों की पंचायत को सतौरा कहते है।

> बिरहोर जनजाति

> राज्य की जनजातियों में बिरहोर की गणना सर्वाधिक आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई जनजातियों के रूप में की जाती है ।
> यह जनजाति छोटानागपुर पठार के उत्तरी भाग में बसी हुई है।
> यह राज्य के चतरा, हजारीबाग, कोडरमा, रांची, लातेहार आदि जिलों में पाई जाती है।
> यह जनजाति स्वयं को खरवार समूह का भाग मानती है तथा स्वयं को सूर्यवंशी बताती है।
> इनमें मुख्यतः पितृसत्तात्मक परिवार पाया जाता है।
> यह जनजाति शिकारी संग्रहकर्ता के रूप में जानी जाती है।
> इनके युवागृह को टंडा कहते हैं। इसमें दो झोपड़ियाँ बनी होती हैं, जिसमें एक अविवाहित पुरुषों के लिए होती है तथा दूसरी अविवाहित स्त्रियों के लिए होती है।
> इनके प्रमुख देवता सिंगबोंगा व देवीमाई हैं।
> इनके प्रमुख पर्व करमा, सोहराय, जीतिया आदि हैं।

> बेदिया जनजाति

> यह राज्य की आदिम जनजाति के रूप में चिह्नित है। यह मुख्यतः राज्य के दुमका, साहेबगंज, पाकुड, देवघर व गोड्डा जिले में निवास करती है।
> इनकी मुख्य भाषा मालतो है।
> गाँव का मुखिया प्रधान कहलाता है।
> ये मुख्यतः पारम्परिक पोशाक धारण करते हैं। पुरुषों की परम्परागत पोशाक करेया, भगवा तथा स्त्रियों की पोशाक ठेठी और पाच हैं।
> इनके प्रमुख देवता सूर्य है तथा इनमें सूर्याही पूजा का महत्त्व होता है।
> इनके प्रमुख पर्व दशहरा, छठ, दीपावली, करमा आदि हैं।
> इस जाति का मुख्य व्यवसाय कृषि है।

> भूमिज जनजाति

> इस जनजाति को जनजाति का हिन्दू संस्करण माना जाता है। यह मुख्य रूप से राज्य के पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सराकेला-खरसावां, रांची व धनबाद में निवास करती है।
> इनकी मुख्य भाषा मुण्डारी है।
> इस जनजाति को धनबाद में सरदार के नाम से भी जाना जाता है।
> इनकी अपनी जातीय पंचायत होती है, जिसका मुखिया प्रधान कहलाता है ।
> यह पद वंशानुगत रहता है। इनके सर्वोच्च देवता गोराई ठाकुर व ग्राम ठाकुर हैं। इनके पुरोहित को लाया कहा जाता है।
> इन जातियों में समगोत्रीय विवाह नहीं होता है।
> इनमें सार्वजनिक रूप में पत्ता फाड़कर तलाक देने की प्रथा विद्यमान हैं
> मुगलकाल में इन्हें ‘चुहाड़’ कहा जाता था ।

> बिंझिया जनजाति

> यह जनजाति रांची, गुमला एवं सिमडेगा जिलों में पाई जाती है। इनमें मुख्यतः पितृसत्तात्मक परिवार पाया जाता है।
> बिंझिया समाज में दो वंशानुगत प्रमुख पंचायत होती हैं—मादी एवं गोड्डी | मादी का आवास तरगा तथा गोड्डी का आवास परबा के नाम से जाना जाता है।
> ये लोग सदानी भाषा बोलते है ।
> इनकी उपजातियाँ है- दादुल, भराव, नाग, अग्निहोत्री, कच्छप, कौशिक, काँसी ।
> इसमें बहिग्रोत्रीय विवाह प्रथा प्रचलित है और वधू मूल्य (डाली कटाही) की परम्परा है।
> इसके प्रमुख देवता बिंझिया विन्ध्यवासिनी, ग्राम्य देवी, चांडी देवी आदि हैं। ये तुलसी के पौधे को पूजनीय मानते हैं। इनके पुजारी बैगा जनजाति के होते हैं ।
> इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है।

> खोंड जनजाति

> यह झारखण्ड की एक लघु जनजाति है। इनका सम्बन्ध द्रविड़ प्रजाति से है ।
> यह जनजाति झारखण्ड में सन्थाल परगना, उत्तरी छोटानागपुर तथा दक्षिणी छोटानागपुर में पाई जाती है।
> इसका प्रमुख देवता बेलापून है तथा ये सूर्य देवता में गहरी आस्था रखते हैं।
> इनका प्रमुख पर्व ‘नावानन्द’ है, जिसमें नए चावल पकाए जाते हैं।
> इसका मुख्य व्यवसाय कृषि है। ये स्थानान्तरित खेती भी करते हैं, जिसे ‘पोड़या’ कहा जाता है।

> चीक बड़ाईक जनजाति

> यह जनजाति मुख्यतः रांची, गुमला और सिमडेगा में निवास करती है।
> इस चीक बड़ाईक जनजाति का सम्बन्ध द्रविड़ प्रजाति समूह से है।
> इस जनजाति में समगोत्रीय विवाह वर्जित है। इसमें विधवा विवाह एवं पुनर्विवाह (संगाई) की प्रथा है।
> इनमें एक पत्नी की प्रथा है, परन्तु बहु पत्नी की भी अनुमति है।
> इनमें मुख्यतः पितृसत्तात्मक परिवार पाया जाता है।
> यह जनजाति राज्य के लगभग सभी जिलों में निवास करती है। इनकी अपनी कोई पंचायत व्यवस्था नहीं है।
> मृत्यु संस्कार मसना में दफन कर सम्पन्न किया जाता है।
> इनके मुख् देवता सिंगबोंगा देवी और देवी-माई है। इनका मुख्य व्यवसाय कपड़ा बनाना, कृषि एवं मजदूरी है।

> बैगा जनजाति

> यह झारखण्ड की अल्पसंख्यक जनजाति है।
> इनका निवास क्षेत्र रांची, पूर्वी तथा पश्चिमी सिंहभूम, लातेहार, पलामू, गढ़वा एवं हजारीबाग जिले हैं।
> इस जनजाति के गोत्र, धर्म, सामाजिक व्यवहार, विवाह प्रथा आदि खरवारों की तरह ही होते हैं।
> ये अधिकांशतः भूमिहीन ही हैं तथा जंगली जड़ी-बूटियों से सम्बन्धित औषधीय मामलों में अच्छी जानकारी रखते हैं।
> ये खेती और वनों से खाद्य संग्रह कर जीवन-यापन करते हैं।
> इनके मुख्य देवता बड़ा देव हैं, जो साल वृक्ष में निवास करते हैं। ये बाघ को पवित्र पशु मानते हैं।

> गोडाईत जनजाति

> इस जनजाति का जमाव पलामू, लातेहार, रांची, हजारीबाग, धनबाद, सन्थाल परगना तथा पूर्वी तथा पश्चिमी सिंहभूम जिले में निवास करती है।
> इस जनजाति के मुख्य आराध्य देवी भाई एवं पुरूबिया देवता हैं। इसके पुजारी को ‘बैगा’ कहा जाता है।
> इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है।

> बंजारा जनजाति

> ये सन्थाल परगना के राजमहल और दुमका क्षेत्र में निवास करते हैं। यह एक घुम्मकड़ जनजाति है।
> ये चार वर्गों में विभाजित हैं— चौहान, पँवार, राठौर और उर्वा । ये सम्भवतः बंजारा, राजपूताना अथवा राजस्थान के चारण अथवा भाट जातियों की शाखा है। इसमें विधवा विवाह को नियोग कहा जाता है। ये बंजारी देवी की करते पूजा हैं एवं आराध्य देव के रूप में शिव की आराधना की जाती है ।
> ये संगीत प्रेमी होते हैं, इसलिए इनका व्यवसाय भी संगीत से जुड़ा है।

> माल पहाड़िया जनजाति

> यह द्रविड़ मूल की आदिम जनजाति है। ये राज्य के सन्थाल परगना के राजमहल पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करते हैं ।
> माल पहाड़िया में वंशानुगत भिन्नता मिलती है, जो अपने उपनामों से जानी जाती है।
> इसमें वधू मूल्य कहा जाता है। को ‘पोन’ या ‘बन्दी’ कहा जाता है।
> इसके वधु मूल्य में सुअर देने की प्रथा है, जो आर्थिक और सामाजिक रूप से प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता है।
> माल पहाड़िया में गोत्र नहीं होते, परन्तु इसमें पारिवारिक विभाजन होता है। यहाँ पितृसत्तात्मक परिवार होते हैं ।
> इस जाति के गाँव का मुखिया माँझी कहलाता है, जो ग्राम पंचायत का प्रधान भी होता है।
> इस जनजाति का प्रधान देवता ‘सूर्य’ है । इनमें सूर्याही पूजा का विशेष महत्त्व है। इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है।
> फागु, करमा तथा नवाखानी प्रमुख त्योहार है।

> बथुड़ी जनजाति

> यह जनजाति सिंहभूम क्षेत्र में निवास करती है।
> यह झारखण्ड की एक अल्पसंख्यक जनजाति है
> ये स्वयं को ‘बाहुतुली’ कहते हैं, जिसका तात्पर्य क्षत्रिय से है।
> इनकी भाषा मुण्डारी है। ये मुण्डा की उपाधि भी धारण करते हैं ।
> इनकी अपनी पंचायत व्यवस्था होती है। डेहारी गाँव का पुजारी एवं पंचायत का प्रमुख होता है। यह व्यवस्था वंशानुगत है।

> कोरा जनजाति

> यह मुण्डा समूह की जनजातियों की एक शाखा है। यह जनजाति राज्य में मुख्यतः धनबाद, सन्थाल परगना, हजारीबाग, गिरिडीह, कोडरमा, चतरा आदि क्षेत्रों में निवास करती है ।
> इनमें न तो अन्तर्जातीय विवाह स्वीकार्य है और न ही गोत्र विवाह |
> गोदना इनका प्रमुख संस्कार है।
> इनके पूजा स्थल पिंगी, अखाड़ा, बोंगाथान आदि हैं।
> इसके पुजारी को बैगा कहा जाता है।
> कोरा जनजाति के युवागृह को ‘गितिओरा’ कहा जाता है।
> इनका आर्थिक जीवन शिकार पर ही आश्रित है तथा परम्परागत कार्य मिट्टी काटने का काम करना है।

> बिरझिया जनजाति

> बिरझिया जनजाति का सम्बन्ध द्रविड़ प्रजाति समूह से है। इस जनजाति के लोग पूर्वजों की पूजा विशेष रूप से करते हैं ।
> यह जनजाति राज्य के गुमला, लोहरदगा, पलामू एवं रांची में निवास करती है ।
> इनकी सामुदायिक पंचायत का प्रमुख बैगा होता है, जो समाज के बुजुर्ग एवं श्रेष्ठ वर्गों द्वारा गठित होता है।
> इसका मुख्य व्यवसाय कृषि है। ये पहाड़ों पर स्थानान्तरित कृषि भी करते हैं ।

> करमाली जनजाति

> यह मुण्डा जनजाति की ही शाखा है ।
> यह जनजाति राज्य के हजारीबाग, राँची, कोडरमा, चतरा आदि जिलों में निवास करती है।
> करमाली जनजाति का प्रधान मालिक कहलाता है।
> करमाली जनजाति शिल्पकार होते हैं। इन्हें लोहे के सामान बनाने में दक्षता हासिल है।
> करमाली क्षेत्र की मातृभाषा खोरठा है।
> इसके प्रमुख देवता सिंगा बोंगा हैं, जिसके पुजारी को पाहन कहा जाता है। इनके प्रमुख पर्व सरहुल, करमा, सोहराई, नवाखानी, हुसू आदि हैं।

> कोल जनजाति

> यह जनजाति मुख्य रूप से डुमका, देवघर, गिरिडीह आदि जिलों में निवास करती है।
> इसकी भाषा सन्थाली से मिलती-जुलती है। इस जाति ने पंचायती व्यवस्था को अपनाया है, जिसके प्रधान को ‘माँझी ‘ कहा जाता है।
> ये प्रकृतिवादी देवताओं की पूजा करते हैं । इनके प्रमुख देवता सिंगा बोंगा हैं तथा ये सरना धर्म के अनुयायी हैं।
> कोल जनजाति झारखण्ड के 32वें स्थान पर है, जिसे विधि एवं न्याय मन्त्रालय द्वारा 2003 में जनजाति घोषित किया गया ।
> इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है। इसके अतिरिक्त ये लोहा गलाने का परम्परागत कार्य भी करते हैं ।

> राज्य का सदान समुदाय

> सदान मुख्यतः राज्य के मूल गैर-जनजातीय लोग हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार सदान आर्य थे।
> सभी सदानों के धर्म अलग-अलग हैं; जैसे- हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन आदि। सदान अनेक जातियों; जैसे— धानुक, पान, राउतिया, स्वासी, सराक, मलार, बाउरी आदि में विभक्त हैं। इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है ।
> ये मुख्यतः नागपुर खोरठा, कुरमाली एवं पंचपरगनिया भाषाओं का प्रयोग करते हैं।
> इनका मुख्य भोजन चावल है तथा इसके अतिरिक्त ये मकुआ, मकई, दलहन आदि का भी प्रयोग करते
 हैं ।
> इनकी धार्मिक आस्थाएँ जनजातीय धर्म से प्रभावित हैं। ये अनेक महामारियोंः जैसे— चेचक, हैजा आदि को देवी का प्रकोप समझकर शीतला देवी की पूजा करते हैं ।
> इनके प्रमुख पर्व करमा, तीज, मनसा, शीतला, सोहराई (दीपावली), सरहुल और बडपहाड़ी हैं।
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