राजस्थान के लोक नाट्यों (नाटकों) का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कीजिए ।
राजस्थान के लोक नाट्यों (नाटकों) का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कीजिए ।
उत्तर— राजस्थान में लोक नाट्य–नाट्य की परम्परा बड़ी प्राचीन है जिसको हम ख्याल, स्वांग और लीला के रूप में प्रचलित पाते हैं। विशेष प्रकार के आयोजन तथा धुनों से सम्बद्ध ख्यात, लीलाएँ और स्वांग सार्वजनिक रूप में आयोजित किये जाते हैं जिनसे पात्र और दर्शक भली प्रकार परिचित रहते हैं। सभी प्रदर्शन साधारण जीवन के अंग होते हैं और अपने आप में लोक-कला के उत्कृष्ट नमूने माने जाते हैं। प्रदर्शकों में नाई, कुम्हार, बैरागी, शील, जाट, सरंगरे, ब्राह्मण आदि सम्मिलित होते हैं। लोक नाट्यों का नियमित इतिहास रूप तो ईसा की सोलहवीं सदी से मिलता है, परन्तु इन गाथाओं के प्रकरणों में देशकाल व परिस्थिति के अनुसार स्वाभाविक भिन्नता दिखाई देती है।
बीकानेर की ‘रम्मत’ की अपनी अलग ही पहचान है, जो उसे कुचामनी और चिड़ावा के ‘ख्याल’ से अलग करती है। मध्यकाल में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से विकसित हो गई और राजदरबारों की शोभा बढ़ाने वाली कला गाँवों तक में भी फैल गयी। रूढ़िवादिता के कारण लोकनाट्य दलित जाति या निम्न जाति वर्ग के मनोरंजन का साधन रह गयी और यही कारण था कि उच्च वर्ग में इसी मध्यवर्ती सामन्ती प्रथा के कारण लोकनाट्यों के प्रति एक हीन भावना पैदा हो गयी । इस प्रकार लोक नाट्य, आमजन की सम्पत्ति बना रहा, और यही उनकी सामाजिक सामुदायिक भावनाओं को अभिव्यक्ति का माध्यम भी बना रहा। राजस्थान का पूर्वांचल, विशेष तौर पर शेखावटी का क्षेत्र ख्याल की परम्परा लोकनाट्य शैली के लिए विख्यात है।
(1) रम्मत–बीकानेर और जैसलमेर में लोक नाट्यों में ‘रम्मत’ सामुदायिक स्वरूप को निभा रही है। रम्मत में संभागी सभी जाति के लोग होते हैं और सभी समुदाय के लोग इसमें रस लेते हैं। प्रारम्भ से ही समस्त पात्र रंगमंच पर बैठे मिलते हैं और अपना-अपना करतब दिखाकर स्थान ग्रहण करते हैं। ये कुचामन, चिड़ावा और शेखावाटी के ख्यालों से भिन्न होती हैं। 100 वर्ष पूर्व बीकानेर क्षेत्र में होली एवं सावन आदि के अवसर पर होने वाली लोक-काव्य प्रतियोगिताओं से ही उसका उद्भव हुआ है। कुछ लोक कवियों ने राजस्थान के सुविख्यात लोक-नायकों एवं महापुरुषों पर काव्य रचनाएँ की थी; ये रचनाएँ ऐतिहासिक एवं धार्मिक लोक-चरित्रों पर रची गयीं। इन्हीं रचनाओं को रंगमंच के ऊपर मंचित कर दिया गया ।
(2) ख्याल–राजस्थान प्रदेश में ख्याल अपनी क्षेत्रीय प्रतिष्ठा के लिए बड़े लोकप्रिय हैं। जब इन ख्यालों को व्यावसायिक होने का अवसर मिला तो विषय एवं रंगत की विशेषता ने इन्हें राजस्थान प्रदेश से बाहर भी लोकप्रिय बनने का अवसर दिया। अमरसिंह रो ख्याल, रूठी राणी रो ख्याल, पद्मिनी रो ख्याल, पार्वती रो ख्याल आदि भिन्न-भिन्न रंगत प्रस्तुत करने पर भी सांस्कृतिक आधार में समान हैं। धर्म और वीर रस प्रधान ख्यालों में एकरूपता तो नहीं दिखाई देती, परन्तु ध्येय की दृष्टि से अपने-अपने क्षेत्र में विविधता आ जाती हैं। ये ख्याल कभी-कभी धार्मिक कथानकों को गायन, वादन और संवाद से सम्मिश्रित कर इनकी उपयोगिता को बढ़ा देते हैं। इनमें अनेक वीरों की कहानियाँ इस तरह समाविष्ट हैं कि वे वीर रस प्रधान होते हुए भी अन्य रसों को व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते हैं।
(3) लीलाएँ–रामलीला व रासलीला के खेल विशेष रूप से मेवाड़, भरतपुर और जयपुर क्षेत्रों में बड़े लोकप्रिय हैं। रामायण और भागवत पर आधारित कथाओं के साथ लोक जीवन को इस तरह प्रदर्शित किया जाता है कि राम व सीता अथवा कृष्ण और राधा एक साधारण व्यक्ति के रूप में आते हैं और उनकी पोशाकें भी लोक परिपाटी के अनुकूल होती हैं ।
(4) पारसी थियेटर–बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में हमारे देश में एक नये ही किस्म की रंगमंचीय कला का विकास हुआ, जिसका नाम ‘पारसी थियेटर’ था । पारसी थियेटर शैली ने तीसरे दशक में राजस्थान के रंगकर्मियों पर भी पूरा प्रभाव डाला और जयपुर और अलवर में महबूब हसन नामक व्यक्ति ने पारसी शैली के अनेक नाटक मंचित किये। उसने इस शैली में लिखे आगा हस्द कश्मीरी के अनेक नाटकों को खेला ।
(5) गवरी–इसमें कई तरह की नृत्य नाटिकाएँ होती हैं। जो पौराणिक कथाओं, लोक गाथाओं और लोक जीवन की विभिन्न झाँकियों पर आधारित होती हैं। ऐसी मान्यता है कि भस्मासुर ने अपनी तपस्या से शिवजी को प्रसन्न कर भस्म करने की शक्ति प्राप्त कर ली। उसने पार्वती को लेने के लिए शिव पर ही उसका प्रयोग करना चाहा । अन्त में विष्णु भगवान ने अपनी शक्ति से शिव को बचाया और भस्मासुर का उसी के हाथ को सिर पर रखवा कर अंत किया । गवरी का आयोजन रक्षा बन्धन के दूसरे दिन से शुरू होता है। पात्र मन्दिरों में ‘धोक’ देते हैं और नव-लाख देवी देवता, चौसठ योगिनी और बावन भैरू को स्मरण करते हैं। गवरी का मुख्य पात्र बूढ़िया भस्मासुर का जप होता है और अन्य मुख्य पात्र ‘राया’ होती है जो स्त्री वेष में पार्वती और विष्णु की प्रतीक होती है। गवरी सवा महीने तक खेली जाती है । इस अवधि में राई, बढ़िया और भोपा, नंगे पाँव रहते हैं। जमीन पर सोते हैं और स्नान नहीं करते ।
कुछ क्षेत्रों में राई, बढ़िया दूध पीकर ही रहते हैं शराब, मांस और हरी सब्जी का इस अरसे में निषेध रहता है और बहुधा मुक्त रहना अच्छा माना जाता है। गवरी का व्यय, प्रमुख गाँव जहाँ से गवरी आरम्भ होती हैं, करता है और जिन गाँवों में गवरी खेली जाती है, खाने-पीने का व्यय उस गाँव वाले वहन करते हैं। गवरी समाप्ति पर दो दिन पहले जवार बोये जाते हैं और एक दिन पहले कुम्हार के यहाँ से मिट्टी का हाथी लाया जाता है। यह पर्व आदिवासी जाति पर पौराणिक तथा सामाजिक प्रभाव की अभिव्यक्ति है। इसकी लोकप्रियता सभी जातियों के लोगों की इसमें रुचि लेने से सुस्पष्ट हैं।
(6) रासलीला–रासधारी का अर्थ होता है वह पात्र जो रास लीला करता हो। लगभग 80-90 वर्षों पूर्व मोतीलाल जाट ने पहली नाटक रासलीला के लिए लिखा । रासधारियों का कथा-प्रसंग प्रायः पौराणिक एवं धार्मिक होता है। इसमें माधुर्य होता है। इससे कृष्ण की क्रीड़ाओं का भान होता है। भरतपुर जिले में रास लीलाओं का आयोजन होता रहता है । इस क्षेत्र में हर गोविन्द स्वामी और राम सुख स्वामी के रासलीला मंडल अधिक प्रसिद्ध हैं। रासलीला में काम करने वाले अपनी कला में बड़े प्रवीण होते हैं । इनकी मंडलियाँ एक गाँव से दूसरे गाँव में घूमती रहती हैं। रासलीला लोक-नाट्य का मंचन पौराणिक लोक कथाओं के आधार पर किया जाता है।
(7) नौटंकी–नौटंकी के खेल विशेषकर मेलों, उत्सवों, त्यौहारों एवं शादियों के अवसरों पर होते हैं। नौटंकी नामक खेल का प्रदर्शन भरतपुर, धौलपुर, करौली, अलवर, गंगापुर, सवाई माधोपुर क्षेत्र में बहुधा लोकप्रिय है। इन क्षेत्रों में हाथरस शैली की नौटंकी अत्यधिक प्रसिद्ध है। नौटंकी वाले सत्यवादी हरिश्चन्द्र, रूप – बसन्त, राजा भर्तृहरि, नल-दमयंती आदि नाटकों को दिखाते हैं।
(8) स्वांग–स्वांग लोकनाट्य का एक महत्त्वपूर्ण स्वरूप है, किसी प्रमुख पौराणिक, ऐतिहासिक या किसी प्रसिद्ध लोक चरित्र या देवी-देवताओं की नकल कर उनके अनुरूप स्वांग किया जाता है। इनके स्वांगों में चाचा-बोहरा, सेठ – सेठाणी, मियाँ – बीबी, अर्धनारीश्वर, जोगी-जोगन, कालबेलिया, मैना- गुजरी और बीकाजी के स्वांग प्रमुख हैं। इस कला को खुले स्थान पर प्राय: लकड़ी के दो तख्तों पर प्रदर्शित किया जाता है। स्वांग रखने वाले व्यक्ति को बहरूपिया कहते हैं। भाण्ड एवं भानमती हिन्दू और मुसलमान दोनों ही जातियों के होते हैं। धनरूप नामक भाण्ड इतना प्रसिद्ध था कि महाराजा मानसिंह ने उसे जागीर तक प्रदान की ।
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