सुभाषचन्द्र बोस और आइ.एन.ए.
सुभाषचन्द्र बोस और आइ.एन.ए.
उत्तर- भारत की आजादी के आंदोलन में ऐसे अनेक क्रांतिकारी महानायक उभरे जिन्होंने मुल्क को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया और हमेशा के लिए अपने देशवासियों के दिलों पर छा गए। ऐसे ही क्रांतिकारी थे- नेताजी सुभाष चंद्र बोस जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान साल 1942 में भारत को अंग्रेजों के कब्जे से स्वतंत्र कराने के लिए ‘आजाद हिन्द फौज’ (इन्डियन नेशनल आर्मी – INA) नामक सशस्त्र सेना का गठन किया गया। इसकी स्थापना एक सैनिक अधिकारी कैप्टन मोहन सिंह ने जापान की सहायता से टोकियो में की थी । शुरुआत में इस फौज के अंदर उन भारतीय सैनिकों को लिया गया जो जापान द्वारा युद्धबंदी बना लिए गए थे। कुछ समय बाद इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवकों की भी भर्ती की गई। एक साल बीत जाने के बाद वर्ष 1943 में सुभाष चन्द्र बोस जापान पहुंचे और वहां पहुंचकर उन्होंने टोकियो रेडियो से घोषणा करते हुए कहा कि “ अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के अंदर व बाहर से स्वतंत्रता के लिए खुद ही संघर्ष करना होगा। ” नेताजी के इस भाषण से रासबिहारी बोस * बहुत प्रभावित और उन्होंने 4 जुलाई, 1943 को सिंगापुर के ‘कैथे भवन’ में एक समारोह में आजाद हिंद फौज की कमान सुभाष चंद्र बोस के हाथों में सौंप दी। इसके बाद 5 जुलाई, 1943 को सिंगापुर के टाउन हॉल के सामने नेताजी ने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में सेना को सम्बोधित किया और उन्होंने “दिल्ली चलो” का पहला नारा दिया। इसके कुछ महीनों बाद 21 अक्टूबर, 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में एक अस्थायी ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की। इसका अपना एक झंडा था। इस संगठन के ‘प्रतीक चिह्न’ झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था। नेताजी इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष तीनों थे। नेताजी की सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी थी। सुभाष चंद्र का मानना था कि अंग्रेजों के मजबूत शासन को केवल सशस्त्र विद्रोह के जरिए ही चुनौती दी जा सकती है। 4 फरवरी, 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों के खिलाफ आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। 21 मार्च, 1944 को ‘चलो दिल्ली ‘ के नारे के साथ आजाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ। 6 जुलाई, 1944 को सुभाष चंद्र बोस ने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक संदेश प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के लिए निर्णायक युद्ध में विजय के लिए उनका आशीर्वाद मांगा। इसके बाद 22 सितम्बर, 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुए नेताजी ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा कि “हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज में है। हमें उस मातृदेवी को आजाद कराना है…।” इसी दौरान सुभाष चन्द्र बोस ने अपना अमर नारा ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ दिया।
सुभाष चन्द्र बोस के आह्वान पर लोग बड़ी संख्या में सेना में शामिल होने लगे। बोस के नेतृत्व में, सेना ने मलाया (वर्तमान मलेशिया) और बर्मा में भारतीय प्रवासियों के पूर्व कैदियों और हजारों नागरिक स्वयंसेवकों को आकर्षित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि इनकी सेना के आंकड़े 40,000 तक पहुंच गए।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि भारत से अंग्रेजी हुकूमत को खत्म करने के लिए सशस्त्र विद्रोह ही एक मात्र रास्ता हो सकता है। अपनी इसी विचारधारा पर वह जीवनपर्यंत चलते रहे और उन्होंने एक ऐसी फौज खड़ी की जो दुनिया में किसी भी सेना को टक्कर देने की हिम्मत रखती थी।
कर्मठ और साहसी व्यक्तित्व वाले नेताजी ने आजाद हिन्द फौज के नाम अपने अंतिम संदेश में बड़े प्रभावशाली ढंग से यही बात कही थी कि “भारतीयों की भावी पीढ़ियां, जो आप लोगों के महान बलिदान के फलस्वरूप गुलामों के रूप में नहीं, बल्कि आजाद लोगों के रूप में जन्म लेंगी। आप लोगों के नाम को दुआएं देंगी और गर्व के साथ संसार में घोषणा करेंगी कि अंतिम सफलता और गौरव के मार्ग को प्रशस्त करने वाले आप ही लोग उनके पूर्वज थे।
” तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा”, “दिल्ली चलो” और “जय हिन्द” जैसे नारों से सुभाष चंद्र बोस ने भारतीय ‘स्वतंत्रता संग्राम में नई जान फूंकी थी। उनके जोशीले नारों ने पूरे भारत को एकता के सूत्र में बांधने का काम किया। उनके ये कुछ ऐसे नारे हैं जो आज भी राष्ट्रीय महत्व के अवसरों पर हमें याद दिलाते रहते हैं कि हम एक हैं
कदम कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा
ये जिंदगी है कौम की, तू कौम पे लुटाए जा
तू शेर-ए ए – ए – हिन्द आगे बढ़, मरने से तू कभी न डर
उड़ा के दुश्मनों का सर, जोश-ए-वतन बढ़ाए जा…
ये कुछ पंक्तियां हैं, उस गीत की जिसे भारतीय राष्ट्रीय सेना या आजाद हिन्द फौज की रगों में जोश भरने के लिए गाया जाता था।
” सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार ने अंग्रेजों और अमेरिका के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। 1945 में, भा.रा.से. ‘बर्मा अभियान’ के दौरान जापानी तैनाती का हिस्सा रही, जो बर्मा के ब्रिटिश उपनिवेश में हुई लड़ाई की एक श्रृंखला थी । बोस अगस्त 1945 तक भारतीय राष्ट्रीय सेना और आजाद हिन्द से जुड़े रहे। 18 अगस्त, 1945 को सुभाष चंद्र बोस ने सोवियत सैनिकों से संपर्क करने हेतु मंचुरिया के लिए प्रस्थान किया। लेकिन बाद में यह बताया गया कि बोस जिस विमान में यात्रा कर रहे थे, वह ताइवान के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस का निधन हो गया। लेकिन चार दिन बाद 23 अगस्त को जापान सरकार ने विमान दुर्घटना की खबरों का खंडन किया। इससे नेताजी की मौत एक रहस्य बन कर रह गई। यहां गौरतलब है कि नेताजी ने अपना पूरा जीवन रहस्यमय तरीके से ही जिया, पर उनकी मौत भी इतने रहस्यमय तरीके से होगी ये किसी ने नहीं सोचा था । नेताजी की रहस्मयी मौत के साथ ही आजाद हिंद फौज ने स्वतंत्रता आंदोलन की अपनी धार खो बैठा। लेकिन सुभाष चंद्र बोस ने अपने त्याग और बलिदान से भारत की आजादी की लड़ाई में जो योगदान दिया वह सदा के लिए अविस्मरणीय रहेगा।
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