6th JPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा- 2019

6th JPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा- 2019

परीक्षा तिथि – 30.01.2019

विषय : भारतीय संविधान व राजनीति, लोक प्रशासन तथा सुशासन
Subject: Indian Constitution and Polity, Public Administration and Good Governance
Section – A (भारतीय संविधान व राजनीति)
 (I) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Questions) : 
(1) निम्नांकित में से कौन-सा 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारत के संविधान की ‘प्रस्तावना’ में जोड़ा गया था ?
Which of the following was inserted in the ‘Preamble’ of the constitution of India, through 42nd Constitutional Amendment Act?
(a) संप्रभुता (Sovereignty)
(b) व्यक्ति की गरिमा ( Dignity of person)
(c) समाजवाद, पंथनिरपेक्ष (Socialist, secular)
(d) निजता (Privacy)
(II) ‘मूल कर्तव्य’ भारत के संविधान के निम्नांकित में से किस भाग में दिये गये हैं ?
The ‘Fundamental Duties’ are provided in which of the following part of the constitution of India ?
(a) भाग- II (Part-II)
(b) भाग-III (Part-III)
(c) भाग – IV (Part-IV)
(d) भाग- IV क ( Part-IV A)
(III) निम्नांकित पर विचार कीजिये और भारतीय संसद के सही गठन को चिन्हित कीजिये :
Consider the following and identify the correct composition of Indian
Parliament :
(a) लोकसभा एवं राज्यसभा (Lok Sabha & Rajya Sabha)
(b) लोकसभा+लोकसभा अध्यक्ष तथा राज्यसभा का सभापति (Lok Sabha + Speaker of Lok Sabha and Chairperson of Rajya Sabha)
(c) राष्ट्रपति + राज्यसभा + लोकसभा (President + Rajya Sabha + Lok Sabha)
(d) राष्ट्रपति + उपराष्ट्रपति + राज्यसभा + लोकसभा (President + Vice President + Rajya Sabha + Lok Sabha)
(IV) भारत के संविधान के किस अनुच्छेद के अन्तर्गत भारत का उच्चतम न्यायालय नागरिकों के मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए विभिन्न ‘रिट’ जारी करने का अधिकार रखता है?
Under which of the following Article of the Consitution of India, the Supreme Court is empowered to issue different ‘Writes’ for the enforcement of Fundamental Rights of the citizens ?
(a) अनुच्छेद 32 (Article 32)
(b) अनुच्छेद 33 (Article 33)
(c) अनुच्छेद 132 (Article 132)
(d) अनुच्छेद 226 (Article 226)
(V) भारत की प्रथम लोकसभा के पहले अध्यक्ष कौन थे?
Who was the first Speaker of the first Lok Sabha of India?
(a) जी. वी. मावलंकर (G V. Mavalankar)
(b) एस. राधाकृष्णन (S. Radhakrishnan)
(c) जी. बी. पंत (G. B. Pant)
(d) सी. डी. देशमुख (C. D. Deshmukh)
(VI) एक विधेयक को वित्त विधेयक माना जाता है (अनुच्छेद 110 के अनुसार), यदि इसमें संबंधित प्रावधान शामिल है:
A Bill is deemed to be a Money Bill (as per Article 110), if it contains provisions dealing with matters relating to :
(a) भारत सरकार के उधार लेने का नियमन (Regulations of borrowings of the government of India)
(b) भारत के समेकित निधि की निगरानी (Custody of consolidated fund of India)
(c) किसी राज्य के खातों (लेखों) की लेखा परीक्षा (Audit of accounts of a State)
(d) उपरोक्त सभी (All the above)
(VII) भारत में राजनीतिक दलों को निम्नांकित में से किसके द्वारा पंजीकृत और मान्यता प्रदान की जाती है? Political parties in India are registered and recognised by which of the following?
(a) राज्यों के संबंधित निर्वाचन आयोग द्वारा (The Respective Election Commission of States)
(b) भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा (The Election Commission of India)
(c) भारत के विधि आयोग द्वारा (The Law Commission of India)
(d) भारत सरकार के विधि मंत्रालय द्वारा (The Law Ministry of Government of India)
(VIII) भारत के संविधान की 11वीं अनुसूची में कितने विषय सम्मिलित किये गये हैं? How many items are inculded in the 11th Schedule of the Constitution of India?
(a) 28
(b) 29
(c) 30
(d) 31
(IX) भारत में राष्ट्रीय पंचायत दिवस मनाया जाता है:
In India, National Panchayati Raj Day is celebrated on
(a) 26 जनवरी को (26th Jan.)
(b) 2 अक्टूबर को (2nd October)
(c) 21 अप्रैल को (21st April)
(d) 24 अप्रैल को (24th April)
(X) भारतीय संविधान में निम्नलिखित में से कौन-सा अनुच्छेद भारत में राज्य के एक राज्यपाल के रूप में एक व्यक्ति की नियुक्ति के लिए योग्यता निर्धारित करता है ? Which one of the following Article in the Indian Constitution prescribes the qualification for appointing a person as Governor of a State in India?
(a) अनुच्छेद 156 (Article 156)
(b) अनुच्छेद 157 (Article 157)
(c) अनुच्छेद 159 (Article 159)
(d) अनुच्छेद 160 ( Article 160)
> किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दें (Answer any two questions )
2. ‘भारत में मूल अधिकारों पर अत्यधिक बल दिया जाता है जब कि मूल कर्तव्यों को कम महत्व दिया जाता है”। क्या आप सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
“Fundamental Rights in India are over stressed while Fundamental Duties are under emphasised”. Do you agree ? Give reasons to support your answer.
3. विशेषकर उदारीकरण के बाद के दौर में भारतीय प्रधानमंत्रियों की शक्तियों तथा कार्यों का परीक्षण कीजिये। Examine the powers and functions of Indian Prime Minister especially in post liberalization era.
4. 73वें और 74वें संविधान संशोधनों ने ग्रामीण और नगरीय स्थानीय संस्थाओं के कार्यकरण में जीवन को अनुप्रेरित कर दिया है। आलोचनात्मक विवेचना कीजये। The 73rd and 74the Consitutional Amendments have infused life in the working of rural and urban local government institutions. Discuss critically.
5. निम्नांकित पर टिप्पणियां लिखिये :
Write notes on the following:
(a) जनहित मुकदमेबाजी की अवधारणा (Concept of public interest litigation)
(b) संविधान में समानता के अधिकार की गारंटी । (Right to Equality guaranteed in the Constitution)
> Section-B (लोक प्रशासन तथा सुशासन)
1. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Questions) :
(I) ‘पोस्डकार्ब’ (POSDCORB) परिवर्णी शब्द किसने दिया?
(II) Who has coined the acronym ‘POSDCORB’?
(a) मूने (Mooney)
(b) गुलिक (Gulick)
(c) उर्विक (Urwick)
(d) हेनरी फेयोल (Henri Fayol)
(II) निम्नांकित में से कौन-सा एक चिन्तक लोक प्रशासन तथा निजी प्रशासन में समानताओं का समर्थक है?
Which one of the following thinkers favours similarities in Public Administration and Private Administration ?
(a) हर्बर्ट साइमन (Herbert Simon)
(b) पॉल. एच. एपलबी (Paul H. Appleby)
(c) सर जोसिया स्टाम्प (Sir Josia Stamp)
(d) एडमंड वर्क द्वारा (Edmund Burke)
(III) “यदि हमारी सभ्यता विफल होती है, तो वह मुख्यतः प्रशासन के ध्वस्त होने के कारण होगा।” यह कथन दिया गया है।
“If our civilization fails it will be mainly because of a breakdown of administration”. This statement has been
(a) एल. डी. व्हाइट द्वारा (L. D. White)
(b) अलैक्जेन्डर पोप द्वारा (Alexander Pope)
(c) बी. डॉनहम द्वारा (B. Donham)
(d) एडमंड वर्क द्वारा (Edmund Burke )
(IV) रिसर्च एवं एनालिसिस विंग (रॉ) निम्नांकित में से किसका भाग है?
Research and Analysis Wing (RAW) is part of which of the following ?
(a) गृह मंत्रालय का (Ministry of Home Affairs)
(b) मंत्रिमंडल, सचिवालय का (Cabinet Secretariat)
(c) प्रधानमंत्री कार्यालय का ( The Prime Minister’s Office)
(d) विदेश मंत्रालय का (Ministry of External Affairs)
(V) योजना आयोग को प्रतिस्थापित करते हुए निम्नांकित में से किस ‘नीति आयोग’ अस्तित्व आया?
Replacing Planning Commission on which of the following day ‘NITI Aayog’ came into existence?
(a) 15 अगस्त 2014 ( 15th August 2014)
(b) 6 दिसम्बर 2014 ( 6th December 2014)
(c) 1 जनवरी 2015 (1st January, 2015)
(d) 26 जनवरी 2015 (26th January 2015)
(VI) भारत के संविधान के निम्नांकित में से किस अनुच्छेद के अन्तर्गत संघ लोक सेवा आयोग और राज्य लोक सेवा आयोगों प्रावधान किया गया है
The Union Public Service Commission and State Public Service Commissions are provided under which of the following Article of the Constitution of India?
(a) अनुच्छेद 315 (Article 315)
(b) अनुच्छेद 323 (Article 323)
(c) अनुच्छेद 215 ( Article 215)
(d) अनुच्छेद 226 ( Article 226)
(VII) निम्नांकित में से कौन विकास प्रशासन की अवधारणा से संबंधित है ?
Who among the following is concerned with the concept of Development Administrative?
(a) फ्रेड डब्ल्यू, रिग्स (Fred W. Riggs)
(b) फ्रेंक मेरिनी (Frank Marini)
(c) एल्टन मेयो (Elton Mayo)
(d) गेबलर आसबोर्न (Gabler Osborne)
(VIII) संयुक्त राष्ट्र ने सुशासन की कुछ विशेषताओं की पहचान की है। निम्न में से कौन-सी एक उन विशेषताओं में से नहीं है ?
United Nations has identified few characterstics of Good Governance. Which one of the following is not one of those characterstics ?
(a) भागीदारी ( Participation)
(b) जवाबदेहिता (Accountability)
(c) सरकार की वैधता (Government Legitimacy)
(d) पारदर्शिता (Transparency)
(IX) निम्नलिखित में से कौन-सा एक संयुक्त राष्ट्र द्वारा सूचीबद्ध मानवाधिकारों में से नहीं है?
Which of the following is not considered to be one of the Human Rights listed by the United Nations?
(a) स्वतंत्रता एवं समानता (Freedom and Equality)
(b) जीवन तथा स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Life and Liberty)
(c) शिक्षा का अधिकार (Right of Education)
(d) निजता का अधिकार (Right to Privacy)
(X) मार्स्टिन मार्क्स द्वारा नौकरशाही के कितने प्रकार बताये गये हैं ?
How many types of Bureaucracy were given by Morstein Marx?
(a) दो (Two)
(b) तीन (Three)
(c) चार (Four )
(d) पांच (Five)
> किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दें (Answer any two questions)
2. वैश्वीकरण उपरांत की दुनिया में लोक प्रशासन के अर्थ तथा महत्व की विवेचना कीजिए |
Discuss the meaning and significance of Public Administrative in post globalised world.
3. कैसे के अधिकार अधिनियम, 2005 ने प्रशासन में पारदर्शिता के इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है? यदि नहीं तो, इसके सूचना कारणों को चिन्हित करते हुए आगे के मार्ग के लिए सुझाव दीजिए ।
How the Right to Information Act, 2005 has achieved its desired objective of enhancing transparency in admininstration? If not, identify reason and suggest the roadmap ahead.
4. निम्नांकित पर टिप्पणियां लिखिये : (Write notes on the following 🙂
(a) वित्त आयोग का गठन और भूमिका । (Composition and Role of Finance Commission.)
(b) राज्य प्रशासन में मुख्य सचिव की भूमिका । (Role of Chief Secretary in State Administration.)
5. भारत में आपदा प्रबंधन तन्त्र के संगठन तथा कार्यकरण का आलोचनात्मक विवेचन कीजिये।
Discuss critically the organization and working of disaster management machinery in India.
> प्रश्नोत्तर एवं उत्तर व्याख्या
> Section – A (भारतीय संविधान व राजनीति)
उत्तर 1: वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर
I.(c) : 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़कर इस परिप्रेक्ष्य में स्थिति स्पष्ट कर दी गई है। इसे अनुच्छेद 25-29 में धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित सभी नागरिकों के मूल अधिकार के रूप में समाविष्ट करके क्रियान्वित किया गया है। समाजवादी शब्द मूलत: उद्देशिका में समाविष्ट नहीं था, बल्कि इसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा संविधान की उद्देशिया में अंतर्निहित किया गया है। समाजवादी शब्द का आशय है कि ऐसी संरचना जिसमें उत्पादन के सभी साधनों, पूंजी, भूमि, संपत्ति आदि पर सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्रण के साथ वितरण में समतुल्य सामंजस्य हो।
II.(d): मूल कर्तव्य भारत के संविधान के भाग- IVक, (1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया ) में है। संविधान के पुनरीक्षण के लिए गठित स्वर्ण सिंह समिति की रिपोर्ट के आधार पर अनुच्छेद 51क को जोड़कर मूल कर्तव्य को शामिल किया गया। मूल कर्तव्य को सोवियत रूस के संविधान से लिया गया है। अनुच्छेद 51क के अनुसार 10 मूल कर्तव्य थे लेकिन वर्तमान में 2002 के 86वां संविधान संशोधन द्वारा संविधान के भाग- 4क के अनुच्छेद 51क में संशोधन करके इसकी संख्या 11 निर्धारित की गई है।
III.(c): संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार संघ के लिये एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों से मिलकर बनेगी। उच्च सदन राज्यसभा तथा निम्न सदन लोकसभा कहलाती है। इस प्रकार संसद, राष्ट्रपति + राज्यसभा + लोकसभा से मिलकर गठित है। राष्ट्रपति संसद का अभिन्न भाग है। इसे संसद का अभिन्न अंग इसलिये माना जाता है, क्योंकि इसकी अनुमति के बिना राज्यसभा तथा लोकसभा द्वारा कोई भी विधेयक अधिनियम का रूप नहीं लेगी ।
IV.(a): भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय नागरिकों के मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए विभिन्न रिट जारी करने का अधिकार रखता है तथा अनुच्छेद 226 के अनुसार उच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिल करने का अधिकार नागरिकों को प्रदान किया गया है। मूल अधिकार के उल्लंघन की स्थिति में उच्चतम एवं उच्च न्यायालय द्वारा बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण तथा अधिकार पृच्छा आदि रिट जारी किये जाते हैं।
V. (a) : भारत की प्रथम लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर थे। इनका कार्यकाल 15 मई, 1952 से 27 फरवरी, 1956 था । लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा का प्रमुख पदाधिकारी होता है और लोकसभा की सभी कार्यवाहियों का वह संचालन करता है। लोकसभा के प्रथम उपाध्यक्ष अनन्त शयनम आयंगर थे। इनका कार्यकाल 30.05.1952 से 8.05.1956 तक रहा।
VI.(a): अनुच्छेद 110 के अनुसार धन विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति से लोकसभा में पेश किया जाता है। लोकसभा द्वारा पारित किये जाने के बाद इसे राज्यसभा में भेजा जाता है। जब राज्यसभा को विधेयक भेजा जाता है तो उसके साथ लोकसभा अध्यक्ष का यह प्रमाणपत्र संलग्न होता है कि वह विधेयक धन विधेयक है या नहीं।
VII.(a): भारत में राजनीतिक दलों को भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा पंजीकृत और मान्यता प्रदान की जाती है। भारत का निर्वाचन आयोग एक स्थायी संवैधानिक संगठन है। इसकी स्थापना 25 जनवरी, 1950 ई. में की गई थी। इसका उद्देश्य स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन सुनिश्चित करना है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
VIII.(b): भारतीय संविधान की 11 वीं अनुसूची को 73वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा 1992 में जोड़ा गया था। इस अनुसूची में 29 विषय शामिल हैं। इस अनुसूची में पंचायत की शक्ति, ग्रामीण विकास, गरीबी उन्मूलन, बाजार, सड़क और पीने का पानी जैसे जरूरी विषय शामिल हैं।
IX. (d) : भारत में राष्ट्रीय पंचायती दिवस मनाने की शुरुआत 24 अप्रैल, 2010 को प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने की। 24 अप्रैल का दिन भारतीय संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1992 के पारित होने का प्रतीक है।
X.(b) : अनुच्छेद 157 के अनुसार राज्यपाल पद पर नियुक्त किये जाने वाले व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताएं अपेक्षित हैं(1) वह भारत का नागरिक हो, (2) वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चूका हो, (3) वह राज्य सरकार या केन्द्र सरकार या इन राज्यों के नियंत्रण के अधीन किसी सार्वजनिक उपक्रम में लाभ के पद पर न हो। (4) वह राज्य विधानसभा के सदस्य चुने जाने योग्य हो ।
प्रश्न 2: “भारत में मूल अधिकारों पर अत्यधिक बल दिया जाता है जब कि मूल कर्तव्यों को कम महत्व दिया जाता है “। क्या आप सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
उत्तर : मूल अधिकार एवं मूल कर्तव्य को सामान्यतः एक सिक्के के दो पहलू के रूप में देखा जाता है। अर्थात् एक के अभाव में दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। ये दोनों नागरिकों के लिए अनिवार्य तथा अपरिहार्य हैं। महत्व की दृष्टि से भी दोनों बराबर हैं। यद्यपि नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य आपस में संबंधित और अविभाज्य हैं लेकिन मूल संविधान में मूल अधिकारों को रखा गया है, न कि मूल कर्तव्यों को। हालांकि राज्य के कर्तव्यों को राज्य के निर्देशक तत्वों के रूप में शामिल किया गया है। बाद में 1976 में नागरिकों के मूल कर्तव्यों को संविधान में जोड़ा गया। 2002 (86वां संशोधन) एक और मूल कर्तव्य (भाग 4 – क के अनुच्छेद 51-क में संशोधन करते हुए) 6 से 14 वर्ष के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का अधिकार प्रदान करने संबंधी अभिभावकों के कर्तव्यों को जोड़ा गया है। वर्तमान में 11 मूल कर्तव्य हैं।
भारतीय संविधान में मूल कर्तव्यों को पूर्व रूसी संविधान से प्रभावित होकर लिया गया है। उल्लेखनीय है कि प्रमुख लोकतांत्रिक देशों-जैसे- अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया आदि के संविधानों में नागरिकों के कर्तव्यों को विश्लेषित नहीं किया गया है। संभवतः एकमात्र जापानी संविधान में नागरिकों के कर्तव्यों को रखा गया है। इसके विपरीत समाजवादी देशों ने अपने नागरिकों के मूल अधिकारों एवं कर्तव्यों को बराबर महत्व दिया है।
> अर्थ एवं परिचय :
मूल अधिकारों का तात्पर्य राजनीतिक लोकतंत्र के आदर्शों की उन्नति से है। ये अधिकार देश में व्यवस्था बनाए रखने एवं राज्य के कठोर नियमों के खिलाफ नागरिकों की आजादी के की सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये विधानमंडल के कानून क्रियान्वयन में तानाशाही को मर्यादित करते हैं। संक्षेप में इनके प्रावधानों का उद्देश्य कानून की सरकार बनाना है, न कि व्यक्तियों की। ये मूल इसलिए भी हैं क्योंकि ये व्यक्ति के चहुंमुखी विकास (भौतिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक) के लिए आवश्यक हैं।
मूल अधिकारों का सर्वप्रथम विकास ब्रिटेन में तब हुआ, जब 1215 में सम्राट जान को ब्रिटेन की जनता ने प्राचीन स्वतंत्रताओं को मान्यता प्रदान करने हेतु “मैग्रा कार्टा’ पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर दिया।
> मूल अधिकारों के उद्देश्यः
> भारतीय संविधान में शामिल किये गये मूल अधिकारों के निम्नलिखित उद्देश्य हैं –
> एक ऐसी सरकार का गठन करना, जिसका उद्देश्य व्यक्तियों के हितों में अभिवृद्धि करना हो ।
> सरकार की शक्तियों को सीमित करना, जिससे सरकार नागरिकों की स्वतंत्रताओं के विरुद्ध अपनी शक्ति का प्रयोग न कर सके और
> नागरिकों के व्यक्तित्व का विकास करना।
> मूल रूप से संविधान ने सात मूल अधिकार प्रदान किये हैं
> समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
> स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
> शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
>धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 – 28 )
> संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
> संपत्ति का अधिकार ( अनुच्छेद 31 )
> सांविधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
संपत्ति के अधिकार को 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा मूल अधिकारों की सूची से हटा दिया गया है। इसे संविधान के भाग XII में अनुच्छेद 300 – क के तहत कानूनी अधिकार बना दिया गया है। इस तरह वर्तमान में छह मूल अधि कार हैं।
संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक मूल अधिकारों का विवरण है। इस संबंध में संविधान निर्माता अमेरिकी संविधान (यानि अधिकार के विधेयक से) से प्रभावित रहे हैं ।
> मूल अधिकारों की विशेषताएं :
> मूल अधिकारों को संविधान में कई विशेषताओं के साथ सुनिश्चित किया गया है जिनमें प्रमुख हैं –
> मूल अधिकारों में से कुछ सिर्फ नागरिकों के लिए उपलब्ध हैं, जबकि कुछ अन्य सभी व्यक्तियों के लिए उपलब्ध हैं चाहे वे नागरिक, विदेशी लोगों या कानूनी व्यक्ति, जैसे- परिषद् एवं कंपनियां हों ।
> ये असीमित नहीं हैं, लेकिन वादयोग्य होते हैं। राज्य उन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकता है। हालांकि ये कारण उचित है या नहीं इसका निर्णय अदालत करती है। इस तरह ये व्यक्तिगत अधिकारों एवं पूरे समाज के बीच संतुलन कायम करते हैं ।
> ये न्यायोचित हैं। ये व्यक्तियों को अदालत जाने की अनुमति देते हैं। जब भी इनका उल्लंघन होता है।
> इन्हें उच्चतम न्यायालय द्वारा गारंटी व सुरक्षा प्रदान की जाती.है। हालांकि पीड़ित व्यक्ति सीधे उच्चतम न्यायालय जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि केवल उच्च न्यायालय के खिलाफ ही अपील को लेकर जाया जाये।
> ये स्थायी नहीं हैं। संसद इनमें कटौती या कमी कर सकती है लेकिन संशोधन अधिनियम के तहत, न कि साधारण विधेयक द्वारा ।
> राष्ट्रीय आपातकाल की सक्रियता के दौरान (अनुच्छेद 20 और 21 में प्रत्याभूत अधिकारों को छोड़कर) इन्हें निलंबित किया जा सकता है। अनुच्छेद 19 में उल्लिखित 6 मूल अधिकारों को तब स्थगित किया जा सकता है, जब युद्ध या विदेशी आक्रमण के आधार पर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की गई हो। इसे सशस्त्र (आंतरिक आपातकाल) के आधार पर स्थागित नहीं किया जा सकता।
> मूल कर्तव्य :
वस्तुतः अधिकार और कर्तव्य दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। जो किसी व्यक्ति के लिए कर्तव्य है, वही दूसरे व्यक्ति के लिए अधिकार है। कोई भी अधिकार निरपेक्ष नहीं हो सकता। भारत को लोकतंत्रात्मक समाजवाद के रूप में मान्यता दी गई है, अत: इसमें गांधीजी ने भी कर्तव्यों पर जोर दिया था। उनके अनुसार अधिकारों का स्रोत कर्तव्य हैं। हम अपने कर्तव्यों को पूरा किए बगैर अधिकारों को सुनिश्चित नहीं कर सकते।
न्यायालय ने भी अपने विभिन्न वादों में नागरिकों के कर्तव्यों पर बल दिया है। उदाहरण के लिए, पर्यावरण संरक्षण तथा संवर्द्धन सिर्फ सरकार का दायित्व ही नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य भी है। मूल अधिकारों में कर्तव्य भी अंतनिर्हित है। सभी व्यक्तियों को स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। इसमें सभी व्यक्तियों द्वारा जीवन का आदर करने का कर्तव्य भी शामिल है।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 29 (1) के अनुसार, ‘प्रत्येक व्यक्ति का अपने समुदाय के प्रति कुछ कर्तव्य होते हैं जिनके अनुपालन से ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा पूर्ण विकास संभव है।’
यद्यपि स्वर्ण सिंह समिति ने संविधान में आठ मूल कर्तव्यों को जोड़े जाने का सुझाव दिया था, लेकिन 42वें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) द्वारा 10 मूल कर्तव्यों को जोड़ा गया, तथा 86वें संविधान संशोधन 2002 द्वारा 11वां कर्तव्य जोड़ा गया।
> मूल कर्तव्यों की सूची :
> अनुच्छेद 51 क के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह
> संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करे ।
> स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे।
> भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण रखे।
> देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे ।
> भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग आधारित सभी भेदभाव से परे हों, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं।
> हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे।
> प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणिमात्र के प्रति दया भाव रखे।
> वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे।
> सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे।
> व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रत्यत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को ले।
> 6 से 14 वर्ष तक की उम्र के बीच के बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध करना। यह कर्तव्य 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा जोड़ा गया।
> मूल कर्तव्यों की विशेषताएं :
निम्नलिखित बिंदुओं को मूल कर्तव्यों की विशेषताओं के संदर्भ में उल्लिखित किया जा सकता है –
> उनमें से कुछ नैतिक कर्तव्य हैं, तो कुछ नागरिक। उदाहरण के लिए स्वतंत्रता संग्राम के उच्च आदर्शों का सम्मान एक नैतिक दायित्व है, जबकि राष्ट्रीय ध्वज एवं राष्ट्रीय गान का आदर करना नागरिक कर्तव्य ।
> ये मूल भारतीय परंपरा, पौराणिक कथाओं, धर्म एवं पद्धतियों से संबंधित हैं। दूसरे शब्दों में, ये मूलतः भारतीय जीवन पद्धति के आंतरिक कर्तव्यों का वर्गीकरण है।
> कुछ मूल अधिकार जो सभी लोगों के लिए हैं चाहे वे नागरिक हों या विदेशी, लेकिन मूल कर्तव्य केवल नागरिकों के लिए हैं न कि विदेशियों के लिए।
> निदेशक तत्वों की तरह मूल कर्तव्य गैर- न्यायोचित हैं। संविधान में सीधे न्यायालय के जरिए उनके क्रियान्वयन की व्यवस्था नहीं है। यानी उनके हनन के खिलाफ कोई कानूनी संस्तुति नहीं है यद्यपि संसद उपयुक्त विधान द्वारा इनके क्रियान्वयन के लिए स्वतंत्र है ।
> मूल कर्तव्यों की आलोचना :
> संविधान के भाग VI क में उल्लिखित मूल कर्तव्यों की निम्नलिखित आधार पर आलोचना की जाती है
> कर्तव्यों की सूची पूर्ण नहीं है क्योंकि इनमें कुछ अन्य कर्तव्य जैसे- मतदान, कर अदायगी, परिवार नियोजन आदि समाहित नहीं हैं।
> कुछ कर्तव्य अस्पष्ट, बहुअर्थी एवं आम व्यक्ति के लिए समझने में कठिन है। उदाहरण के लिए विभिन्न शब्दों की भिन्न व्याख्या हो सकती है ‘उच्च आदर्श’ सामासिक संस्कृति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि।
> अपनी गैर-न्यायोचित छवि के चलते उन्हें आलोचकों द्वारा नैतिक आदेश करार दिया गया। प्रसंगवश स्वर्ण सिंह समिति ने मूल कर्तव्यों को न निभाने पर अर्थ दंड व सजा की सिफारिश की थी।
> संविधान में इन्हें शामिल करने को आलोचकों द्वारा अतिरेक करार दिया गया। ऐसा इसलिए क्योंकि संविधान में शामिल मूल कर्तव्यों को उन सभी को मानना है जो संविधान से संबद्ध न भी हों।
> आलोचकों ने कहा कि संविधान के भाग में इनको शामिल करना, मूल कर्तव्यों के मूल्य व महत्व को कम करती है। उन्हें भाग तीन के बाद जोड़ा जाना चाहिए था, ताकि वे मूल अधिकारों के बराबर रहते ।
> मूल कर्तव्यों का महत्व :
> आलोचनाओं एवं विरोध के बावजूद मूल कर्तव्यों की विशेषताओं को निम्नलिखित दृष्टिकोण के आधार पर स्वीकार किया जा सकता है
> नागरिकों की तब मूल कर्तव्य सचेतक के रूप में सेवा करते हैं जब वे अपने अधिकारों का प्रयोग करते हैं। नागरिकों को अपने देश अपने समाज और अपने साथी नागरिकों के प्रति अपने कर्तव्यों के संबंध में जानकारी रखनी चाहिए।
> मूल कर्तव्य राष्ट्र विरोधी एवं समाज विरोधी गतिविधियों, जैसे- राष्ट्र ध्वज को जलाने, सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने के खिलाफ चेतावनी के रूप में कार्य करते हैं ।
> मूल कर्तव्य नागरिकों के लिए प्ररेणा स्रोत हैं और उनमें अनुशासन और प्रतिबद्धता को बढ़ाते हैं। वे इस सोच को उत्पन्न करते हैं कि नागरिक केवल मूक दर्शक नहीं हैं बल्कि राष्ट्रीय लक्ष्य की प्राप्ति में सक्रिय भागीदार हैं।
> मूल कर्तव्य, अदालतों को किसी विधि की संवैधानिक वैधता एवं उनके परीक्षण के संबंध में सहायता करते हैं । 1992 में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि किसी अदालत को
पता लगे कि मूल कर्तव्यों के संबंध में विधि के प्रश्न उठते हैं, तो अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19 (6 स्वतंत्रताओं) के संदर्भ में इन्हें तर्कसंगत माना जा सकता है और इस प्रकार ऐसी विधि को असंवैधानिकता से बचाया जा सकता है।
> मूल कर्तव्य विधि द्वारा लागू किए जाते हैं। इनमें से किसी के भी पूर्ण न होने पर असफल रहने पर संसद उनमें उचित अर्थदंड या सजा का प्रावधान कर सकती है।
महत्वपूर्ण यह है कि जागरूक नागरिक के नाते हमें इन कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। जैसे-जैसे हममें इन कर्तव्यों का बोध बढ़ता जाएगा। हम राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कर एक बेहतर भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकेंगे।
संविधान जनता की इच्छाओं का मूर्त रूप होता है। इन इच्छाओं की पूर्ति हेतु कुछ अधिकार सुनिश्चित हैं तथा कुछ कर्तव्य भी। इन दोनों का सामंजस्य ही सर्वागीण विकास का आधार है। न्यायालय में प्रवर्तनीयता के आधार पर मूल अधिकारों की प्राप्ति सुनिश्चित की गयी है, परंतु न्यायालय में प्रवर्तनीयता के अभाव में मौलिक कर्तव्यों का निर्वहन ऐच्छिक है, जो उसके मूल अधिकारों की तुलना में कम महत्व का कारण है।
सरकार द्वारा अपनी नीतियों एवं योजनाओं के क्रियान्वयन के क्रम में कई बार ऐसी स्थितियां आती हैं, जहां मूल अधिकार एवं मूल कर्तव्यों के वास्तविक महत्व का पता चलता है। मूल अधिकारों के उल्लंघन पर जहां हम सरकार के विरुद्ध धरना, प्रदर्शन और हिंसक आंदोलन पर उतारू हो जाते हैं, वहीं इन सभी के दौरान राष्ट्र और उसकी संपत्तियों तथा जनता के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं।
मूल अधिकारों के रूप में संविधान हमें एक सम्मानजनक जीवन की गारंटी देता है तो मूल कर्तव्य इस गारंटी का आधार है, जो इन अधिकारों के पूर्ण एवं समुचित उपभोग के लिए आवश्यक है। मौलिक कर्तव्य राष्ट्र के प्रति अनुशासन और प्रतिबद्धता को बढ़ावा देने के साथ ही राष्ट्र निर्माण और उसके चहुंदिश विकास में नागरिकों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित कर राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक है। अतः इन दोनों का समुचित समन्वय अनिवार्य है।
प्रश्न 3: विशेषकर उदारीकरण के बाद के दौर में भारतीय प्रधानमंत्रियों की शक्तियों तथा कार्यों का परीक्षण कीजिये।
उत्तर : भारतीय संविधान के अंतर्गत स्पष्ट रूप से ब्रिटिश प्रधानमंत्री की तरह ही प्रधानमंत्री के पद का प्रावधान किया गया है। भारत में संविधान की धारा 74 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति के कार्य संपादन में सहायता एवं परामर्श देने के लिए एक संघीय मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होगा।
उदारीकरण वैश्वीकरण के युग (1991 ई.) के प्रारंभ के साथ भारतीय प्रधानमंत्री की स्थिति एवं शक्ति में विस्तार देखा गया है। • भारतीय शासन-व्यवस्था में प्रधानमंत्री के पद का सर्वाधिक महत्व है। प्रधानमंत्री देश का राजनीतिक शासक होने के कारण संपूर्ण शासन का आधार स्तंभ है। वह भारतीय संसदीय शासन प्रणाली का वास्तविक प्रधान है। देश से विदेश तक वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल करता है। इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भारतीय शासन व्यवस्था में प्रधानमंत्री ही वास्तविक कार्यपालिका-शक्ति है और समस्त प्रशासन का केन्द्रीय संचालक है।
> प्रधानमंत्री के कार्य व शक्तियां
> मंत्रिपरिषद् के संबंध में :
केन्द्रीय मंत्रिपरिषद् के प्रमुख के रूप में प्रधानमंत्री की शक्तियां निम्न हैं
> वह मंत्री नियुक्त करने हेतु अपने दल के व्यक्तियों की राष्ट्रपति को सिफारिश करता है। राष्ट्रपति उन्हीं व्यक्तियों को मंत्री नियुक्त कर सकता है जिनकी सिफारिश प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है।
> वह मंत्रियों को विभिन्न मंत्रालय आवंटित करता है और उनमें फेरबदल करता है।
> वह किसी मंत्री को त्यागपत्र देने अथवा राष्ट्रपति को उसे बर्खास्त करने की सलाह दे सकता है।
> वह मंत्रिपरिषद् की बैठक की अध्यक्षता करता है तथा उसके निर्णयों को प्रभावित करता है।
> वह सभी मंत्रियों की गतिविधियों को नियंत्रित, निर्देशित करता है और उनमें समन्वय रखता है।
> वह पद से त्यागपत्र देकर मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर सकता है।
> राष्ट्रपति के संबंध में :
राष्ट्रपति के संबंध में प्रधानमंत्री निम्न शक्तियों का प्रयोग करता है
> वह राष्ट्रपति एवं मंत्रिपरिषद् के बीच संवाद की मुख्य कड़ी है। उसका दायित्व है कि वह
> संघ के कार्यकलाप के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी मंत्रिपरिषद् के सभी विनिश्चय राष्ट्रपति को संसूचित करे,
> संघ के कार्यकलाप के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी, जो जानकारी राष्ट्रपति मांगें वह दे, और
> वह राष्ट्रपति को विभिन्न अधिकारियों, जैसे- भारत का महान्यायवादी,
भारत का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, संघ लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष एवं उसके सदस्यों, चुनाव आयुक्तों, वित्त आयोग का अध्यक्ष एवं उसके सदस्यों एवं अन्य की नियुक्ति के संबंध में परामर्श देता है।
> संसद के संबंध में :
प्रधानमंत्री निचले सदन का नेता होता है। इस संबंध में वह निम्नलिखित शक्तियों का प्रयोग करता है
> वह राष्ट्रपति को संसद का सत्र आहूत करने एवं सत्रावसान करने संबंधी परामर्श देता है।
> वह किसी भी समय लोकसभा विघटित करने की सिफारिश राष्ट्रपति से कर सकता है।
> वह सभा पटल पर सरकार की नीतियों की घोषणा करता है।
> अन्य शक्तियां व कार्य : 
उपरोक्त तीन मुख्य भूमिकाओं के अतिरिक्त प्रधानमंत्री की अन्य विभिन्न भूमिकाएं भी हैं
> वह नीति आयोग (योजना आयोग), राष्ट्रीय विकास परिषद्, राष्ट्रीय एकता परिषद्, अंतर्राज्यीय परिषद् और राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद् का अध्यक्ष होता है।
> वह राष्ट्र की विदेश नीति को मूर्त रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
> वह केन्द्र सरकार का मुख्य प्रवक्ता है।
> वह आपातकाल के दौरान राजनीतिक स्तर पर आपदा प्रबंधन का प्रमुख है।
> देश का नेता होने के नाते वह विभिन्न राज्यों के विभिन्न वर्गों के लोगों से मिलता है और उनकी समस्याओं के संबंध में ज्ञापन प्राप्त करता है।
> वह सत्ताधारी दल का नेता होता है।
> वह सेनाओं का राजनैतिक प्रमुख होता है।
इस प्रकार प्रधानमंत्री देश की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था में अति महत्वपूर्ण एवं अहम भूमिका निभाता है। डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने इस संबंध में कहा है कि “हमारे संविधान के अंतर्गत किसी कार्यकारी का यदि अमेरिका के राष्ट्रपति से तुलना की जाए तो वह प्रधानमंत्री है, न कि राष्ट्रपति।”
> निष्कर्ष :
निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते है कि भारतीय संविधान में प्रधानमंत्री का पद काफी शक्तिशाली तथा प्रतिष्ठित है। प्रधानमंत्री की स्थिति निश्चित रूप से एक तानाशाह के समान है, लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री को स्थापित नियमों, प्रथाओं तथा अभिसमयों के अनुसार देश का प्रशासन करना है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो अपने पर खतरा आमंत्रित करता है। दूसरी बात यह है कि भारतीय संविधान में प्रधानमंत्री की शक्तियां विधि की देन है, अतएव बहुत हद तक ये शक्तियां प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के प्रभाव पर निर्भर करती हैं।
उदारीकरण अथवा LPG सुधारों के बाद के दौर में संवैधानिक प्रावधानों के संदर्भ में प्रधानमंत्री की भूमिका में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है, परंतु नित्य बदलते वैश्विक परिदृश्य एवं अर्थव्यवस्था की प्रकृति और उसके आंतरिक, वैश्विक संबंध में परिवर्तन ने प्रधानमंत्री की भूमिका में कुछ विशिष्ट परिवर्तन अवश्य किये हैं।
अब प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि और विचारधारा सरकार में बाजार के विश्वास का मार्ग दर्शन करने में एक महत्वपूर्ण कारक बन गयी है, जिसका उदाहरण प्रधानमंत्री बदलने पर सेंसेक्स का उतार-चढ़ाव है ।
देश की आतरिक व्यवस्था में भी नवीन नीतियों एवं योजनाओं के क्रियान्वयन एवं उनके परिणामों में प्रधानमंत्री की भूमिका काफी बदल चुकी है। विशेषकर इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में महत्वपूर्ण संवैधानिक अथवा गैर संवैधानिक संस्थाओं के नीति निर्माण में प्रधानमंत्री का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप स्पष्ट है।
उदारीकरण के पश्चात जिस क्षेत्र में प्रधानमंत्री की भूमिका सर्वाधिक परिवर्तित दिखाई दी है वह विदेशी नीति का क्षेत्र है। है भारत जैसे विशाल देश का कार्यकारी मुखिया होने के नाते वैदेशिक संबंधों में और वैश्विक मंचों पर प्रधानमंत्री ने मुखरता से भारतीय पक्ष रखा है। राजनीतिक और आर्थिक मंचों पर भारतीय जनता के हितों की रक्षा के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में अपनी नीतियों में पर्याप्त अनुकूल परिवर्तन किये गये हैं भारत-पाक, भारत-चीन, अमेरिका, रूस आदि देशों के संबंध में भारत की नीतियों में पर्याप्त परिवर्तन आया है और इसमें भारतीय प्रधानमंत्री की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। कुल मिलाकर उदारीकरण के बाद के दौर में भारतीय प्रधानमंत्री की शक्तियों और कार्यों में कोई बदलाव तो नहीं आया परंतु इन शक्तियों के इस्तेमाल के नजरिए में बदलाव अवश्य आया है।
प्रश्न 4: 73वें और 74वें संविधान संशोधनों ने ग्रामीण और नगरीय स्थानीय संस्थाओं के कार्यकरण में जीवन को अनुप्रेरित कर दिया है। आलोचनात्मक विवेचना कीजये । 
उत्तर : स्थानीय प्रशासन स्थानीय स्वशासन से संबंधित है। स्थानीय स्वशासन एक स्वतंत्र, सुसंगठित तथा शक्तिशाली राष्ट्र के लिए अत्यंत आवश्यक है। स्थानीय स्वशासन को प्रजातंत्र का प्राण कहा गया है। इन संस्थाओं के माध्यम से जनता अपने शासन का प्रबंध स्वयं करती है। यह व्यवस्था प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीकरण पर आधारित है। यह जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है। यह छोटे-छोटे सीमित क्षेत्रों का प्रशासन है। स्थानीय स्वशासन के अंतर्गत दो क्षेत्र आते हैं, यथा- ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पंचायती राज व्यवस्था जिसमें क्रमश: जिला परिषद्, पंचायत समिति और ग्राम पंचायत शामिल होते हैं। नगरीय क्षेत्रों में नगरपालिका, नगर निगम, छावनी परिषद् तथा औद्योगिक अधिसूचित क्षेत्र समिति तथा उन्नयन न्यास क्षेत्रों के लिए विशेष व्यवस्था आदि ।
पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम, तहसील, तालुका और जिला आते हैं। संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया है। इसके साथ ही संविधान की 7वीं अनुसूची ( राज्य सूची) की प्रविष्टि 5 में ग्राम पंचायतों को शामिल करके इसके संबंध में कानून बनाने का अधिकार राज्य को दिया गया है। 1993 में संविधान में 73वां संशोधन करके पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता दे दी गयी है और संविधान में भाग 9 को पुनः जोड़कर तथा इस भाग में 16 नये अनुच्छेदों ( 243 से 243 ण तक) और संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़कर पंचायत के गठन, सदस्यों का चुनाव, सदस्यों के आरक्षण तथा पंचायत के कार्यों के संबंध में व्यापक प्रावधान किये गये हैं।
> 73वां सांविधानिक संशोधन अधिनियिम (1993) और पंचायती राज व्यवस्था :
प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायती राज को सांविधानिक स्थान देने का क्रांतिकारी कदम उठाया। इसके लिए इन्होंने संसद में संशोधन अधिनियम लागू किया, जिसके लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा एक अधिसूचना जारी की गई। इस अधिनियम ने पंचायती राज संस्थाओं को सांविधानिक मान्यता प्रदान कर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत की हैं।
झारखण्ड में 23 अप्रैल 2001 को ‘झारखण्ड पंचायतीराज विधेयक’ को तत्कालीन राज्यपाल प्रभात कुमार द्वारा मंजूरी दिये जाने के बाद ‘झारखण्ड पंचायतीराज अधिनियम 2001’ के रूप में सामने आया।
इस अधिनियम के तहत राज्य में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था अपनायी गयी। इसके तहत ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, प्रखण्ड स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद की व्यवस्था की गयी है।
त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था धारा-11 में पंचायत राज व्यवस्था को तीन स्तरों पर स्थापित करके पंचायतों की स्थापना की गयी है। विधि द्वारा पंचायत राज प्रणाली की महत्वपूर्ण आधारभूत इकाई ग्राम पंचायत और उसके क्षेत्र के भीतर समाविष्ट ग्राम सभा की स्थापना से पंचायत राज व्यवस्था में विनिर्दिष्ट ग्राम की प्रशासनिक एवं विकास कार्य में सहभागिता सुनिश्चित की गयी है और ग्राम पंचायत को पंचायत समिति से एवं पंचायत समिति को जिला परिषद् से जोड़ा गया है। किन्तु इनका स्वतंत्र अस्तित्व है एवं अलगअलग कानूनी निकाय है तथा इनके अलग-अलग कृत्य हैं।
> नई पंचायती राज व्यवस्था की विशेषताएं :
> ग्रामसभा उन सभी वयस्क सदस्यों का एक निकाय होगी जिनके नाम संबंधित पंचायत क्षेत्र की मतदाता सूची में दर्ज होंगे।
> यह तीन स्तरों पर स्थापित होगी जो ग्राम प्रखंड या तहसील या ताल्लुक तथा जिला स्तर पर रहेगी। 20 लाख से कम आबादी वाले मध्यवर्ती स्तर यानी प्रखंड, ताल्लुक के स्तर पर पंचायत रहे या नहीं, यह राज्य सरकार की इच्छा पर निर्भर होगा।
> तीनों स्तरों की पंचायतों में सीटें सीधे निर्वाचन द्वारा भरी जाएंगी। इनके अलावा, ग्राम पंचायत का मुखिया मध्यवर्ती यानी प्रखंड या ताल्लुक स्तर की पंचायत का सदस्य बनाया जा सकता है और इसी प्रकार प्रखंड स्तर का अध्यक्ष | सांसद और विधायक भी मध्यवर्ती स्तर और जिला स्तर की पंचायत समितियों के सदस्य हो सकते हैं।
> समाज के कमजोर वर्गों की वास्तविक व सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए संस्थाओं में सभी तीनों स्तरों पर अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान है।
> कुल स्थान का एक तिहाई भाग महिलाओं के लिए आरक्षित रहेगा। अनुसूचित जाति एवं जनजाति के आरक्षित स्थानों का एक तिहाई भाग महिलाओं के लिए आरक्षित रहेगा।
> राज्य की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों का जितना अनुपात होगा, उसी अनुपात में पंचायतों के अध्यक्षों के पद उनके लिए आरक्षित रहेंगे।
> राज्य विधानमंडलों को यह स्वतंत्रता रहेगी कि वह पंचायत में स्थान का आरक्षण तथा उनके अध्यक्ष पदों को भी पिछड़ा वर्ग के नागरिकों के लिए आरक्षित करें।
> पंचायतों की कालावधि एकसमान औसतन पांच वर्षों की होगी और वह कालावधि समाप्त होने के पूर्व ही निकाय का निर्वाचन पूरा कर लिया जाएगा।
> प्रत्येक राज्य में एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग गठित किया जाएगा जिसके जिम्मे निर्वाचन प्रक्रिया और निर्वाचक नामावली की तैयारी की देख-रेख, निर्देशन और नियंत्रण का कार्य रहेगा।
> पंचायतों को यह विशेष जिम्मेवारी सौंपी जाएगी कि वह ग्यारहवीं अनुसूची में निर्दिष्ट विषयों पर आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय संबंधी योजनाएं तैयार करे।
> पंचायतों को अपनी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए पर्याप्त निधि दी जाएगी। निधि का प्रमुख स्रोत सरकारी अनुदान होगा और यह भी संभव है कि राज्य सरकार कतिपय करों की वसूली का भार पंचायतों को ही दे। कुछ मामलों में पंचायतों को यह अनुमति दी जाएगी कि वह स्वयं राजस्व की वसूली कर अपने पास रखे।
> 74वां संविधानिक संशोधन अधिनियम :
20 अप्रैल, 1993 को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत एवं 1 जून, ॐ1993 से प्रवर्तित 74वें संविधान संशोधन द्वारा स्थानीय नगरीय शासन के सम्बन्ध में संविधान में भाग 9-क तथा 18 नये अनुच्छेदों (243 त से 243 य छ तक) एवं 12वीं अनुसूची जोड़कर निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं
> प्रत्येक राज्य में नगर पंचायत, नगर पालिका परिषद् तथा नगर निगम का गठन किया जाएगा। नगर पंचायत का गठन उस क्षेत्र के लिए होगा, जो ग्रामीण क्षेत्र से परिवर्तित हो रहा है। नगर पालिका परिषद् का गठन छोटे नगरीय क्षेत्रों के लिए किया जाएगा, जबकि बड़े नगरों के लिए नगर निगम का गठन होगा।
> तीन लाख या अधिक जनसंख्या वाली नगर पालिका के क्षेत्र में एक या अधिक वार्ड समितियों का गठन होगा।
> प्रत्येक प्रकार के नगर निकायों के स्थानों के लिए अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में स्थानों को आरक्षित किया जाएगा तथा महिलाओं के लिए कुल स्थानों का 30 प्रतिशत आरक्षित होगा।
> नगरीय संस्थाओं की शक्तियां और उत्तरदायित्व क्या होगा, इसका निर्धारण राज्य विधान मण्डल कानून बनाकर कर सकती है। राज्य विधान मण्डल कानून बनाकर नगरीय संस्थाओं को निम्नलिखित के सम्बन्ध में उत्तरदायित्व और शक्तियां प्रदान कर सकती है
> नगर में निवास करने वाले व्यक्तियों के सामाजिक न्याय तथा आर्थिक विकास के लिए योजना तैयार करने के लिए,
> ऐसे कार्यों को करने तथा ऐसी योजनाओं को क्रियान्वयन करने के लिए, जो उन्हें सौंपा जाय।
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित विषयों, जो संविधान की बारहवीं अनुसूची में शामिल किये गये हैं, के सम्बन्ध में राज्य विधानमण्डल कानून बनाकर नगरीय संस्थानों को अधिकार एवं दायित्व सौंप सकते हैं
> नगरीय योजना (इसमें शहरी योजना भी सम्मिलित हैं),
> भूमि उपयोग का विनियम और भवनों का निर्माण,
> आर्थिक और सामाजिक विकास की योजना,
> सड़कें और पुल,
> घरेलू, औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रयोजनों के निमित जल की आपूर्ति,
> लोक स्वास्थ्य, स्वच्छता, सफाई तथा कूड़ा-करकट का प्रबंध,
> अग्रिशमन सेवायें,
> नगरीय वानिकी, पर्यावरण का संरक्षण और पारिस्थितिक पहलुओं की अभिवृद्धि,
> समाज के कमजोर वर्गों (जिसके अंतर्गत विकलांग और मानसिक रूप से मंद व्यक्ति सम्मिलित हैं) के हितों का संरक्षण,
> गंदी बस्तियों में सुधार,
> नगरीय निर्धनता में कमी,
> नगरीय सुख-सुविधाओं, जैसे पार्क, उद्यान, खेल का मैदान इत्यादि की व्यवस्था
> सांस्कृतिक, शैक्षणिक और सौन्दर्यपरक पहलुओं की अभिवृद्धि,
> कब्रिस्तान, शव गाड़ना, श्मशान और शवदाह तथा विद्युत शवदाह,
> तालाब तथा जानवरों के प्रति क्रूरता को रोकना
> जन्म-मरण सांख्यिकी (जन्म-मरण पंजीकरण सहित),
> लोक सुख सुविधायें (पथ – प्रकाश, पार्किंग स्थल, बस स्टाप, लोक सुविधा सहित),
> वधशालाओं तथा चर्म शोधनशालाओं का
विनियमन ।
> राज्य विधान मण्डल कानून बनाकर उन विषयों को विहित कर सकती है, जिन पर नगरीय संस्थायें कर लगा सकती हैं।
> नगरीय संस्थाओं की वित्तीय स्थिति का पुनर्विलोकन करने के लिए वित्त आयोग का गठन किया जाएगा, जो करों, शुल्कों, पथकरों और संस्थाओं तथा राज्य के बीच वितरण के लिए राज्यपाल से सिफारिश करेगा।
> नगरपालिका के कार्य :
> लोक सुरक्षा – इसके अंतर्गत नगरपालिका आग से सुरक्षा, पागल कुत्तों तथा जानवरों से बचाव, सड़कों एवं गलियों का प्रबंध करती है।
> जन स्वास्थ्य और सफाई इसके अंतर्गत नगरपालिका महत्वपूर्ण कार्यों को संपन्न करती है, जैसे- संक्रामक रोगों को रोकना, नालियों और गलियों की सफाई, जन्म-मृत्यु की रजिस्ट्री, हाट और कसाईखाने की व्यवस्था तथा संक्रामक रोगों के फैलने पर सूई और टीके की व्यवस्था इत्यादि।
> जन–चिकित्सा – इसके अंतर्गत नगरपालिका अस्पतालों और डिस्पेंसरियों की स्थापना, दवा – दारू का प्रबंध तथा गैर सरकारी औषधालयों की सहायता करता है।
> जनकल्याण – इसके अंतर्गत नगरपालिका नगर में डाकबंगला, सराय, फुलवारी, तालाब, सड़क इत्यादि का प्रबंध करती है।
> जन-1 – शिक्षा – इसके अंतर्गत नगरपालिका नगर में प्राथमिक स्कूलों की स्थापना तथा सार्वजनिक पुस्तकालयों की व्यवस्था करती है।
> पंचायती राज व्यवस्था भारतीय समाज की सामाजिक आर्थिक संरचना में परिवर्तन लाने में सहयोग कर रही है। ग्रामीण जनता की विकास कार्यों में भागीदारी बढ़ी है और इसके साथ जनता ने विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की विफलताओं को सामने लाते हुए आलोचनात्मक दृष्टिकोण भी अपनाया है। पंचायती राज तथा नगर विकास संस्थाओं ने नागरिक उत्तरदायित्व की भावना को जागृत करने में योगदान दिया है। केंद्र सरकार द्वारा जनहित की योजनाओं को स्थानीय स्तर पर लागू करने और उनकी सफलता सुनिश्चित करने में ये संस्थाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
स्वच्छ, समर्थ और खुशहाल भारत बनाने में इन पंचायती राज संस्थाओं तथा नगर पालिकाओं की महती भूमिका है। इन संस्थाओं में महिला नेतृत्व के प्रोत्साहन ने एक नवीन राजनीतिक संस्कृति को बढ़ावा दिया है। गांवों और कस्बों में अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग में अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति नवीन चेतना का संचार हुआ है।
विकास का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने के मार्ग में 73वें और 74वें संविधान संशोधन को एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में देखा जा सकता है।
मनरेगा, जैसी वृहत परियोजना से ये संस्थाएं विकास के केन्द्रों के रूप में सशक्त हुई हैं। पंचायतें शिक्षा, सड़क, सिंचाई, पानी, बिजली, स्वास्थ्य अवसंरचना निर्माण आदि विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपलब्धि दर्ज करा रही हैं। इस प्रकार 73वां संविधान संशोधन वह धुरी है, जिससे ग्रामीण विकास का पहिया धूम रहा है। आज भारत में ढाई लाख से अधिक पंचायतें और 30 लाख से भी अधिक निर्वाचित प्रतिनिधि और उनमें भी लगभग 13 लाख महिला प्रतिनिधि विकास की अलग ही कहानी दिखा रहे हैं। यह एक मौन लोकतांत्रिक क्रांति ही है, जिसका उद्देश्य गांधी के सपनों के भारत को साकार करना है और उससे भी आगे समर्थ और खुशहाल भारत के निर्माण में अंतिम व्यक्ति के योगदान को सुनिश्चित करना है।
73वें संविधान संशोधन ने जहां ग्रामीण विकास के रास्ते खोले वहीं 74वें संविधान संशोधन ने नगरों के विकास और रखरखाव में एक नए युग का सूत्रपात किया। भारत में नगरीकरण में तीव्रता, ग्रामीण शहरी पलायन आदि को देखते हुए नगर विकास एवं रखरखाव में नगरपालिका और नगरनिगमों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। आज हर कोई रोजगार, शिक्षा, अस्पताल एवं अन्य सुख-सुविधाओं की दृष्टि से नगरों में ही रहना चाहता है। ऐसे में इन नगरों को रहने योग्य बनाने, पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सभी क्षेत्रों की समुचित देखभाल और इन सेवाओं की उपलब्धता में इन संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है।
कुल मिलाकर 73वें और 74वें संविधान संशोधन ने वास्तव में ग्रामीण और नगरीय संस्थाओं के कार्यकरण में जीवन का संचार किया है और भारतीय नागरिक के जीवन स्तर में सुधार लाकर भारत निर्माण में उसकी सहभागिता को सुनिश्चित किया है।
इन सबके बावजूद जिन उद्देश्यों को लेकर इन संशोधनों ने स्थानीय शासन के संगठनात्मक ढांचे की व्यवस्था की थी उनमें से अधिकांश अभी प्रतीक्षा सूची में ही हैं और इसके कई कारण हैं यथा इन स्थानीय निकायों में आर्थिक संसाधनों का अभाव, ग्रामीण जनता की उदासीनता, संस्थागत क्षमता की कमी, खराब बुनियादी ढांचा, राज्य सरकारों की निष्क्रियता, पदाधिकारियों का असहयोग आदि अनेक समस्याएं है, जिनके कारण ये अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं कर पाते। इसके विपरीत ये भ्रष्टाचार के केन्द्र, दलगत राजनीति, संकीर्णता और स्वार्थसिद्धि का साधन बनकर रह गए हैं।
इनके निराकरण हेतु कुछ आवश्यक कदम उठाने की आवश्यकता है, जिनमें :
> वित्तीय शक्तियों के उपयोग के लिए प्रोत्साहन ।
> 14वें वित्त आयोग की अनुदान सिफारिशों का अच्छी तरह लागू करना।
> नवीन वित्तीय संसाधनों की पहचान और उनके दोहन द्वार वित्तीय आत्मनिर्भरता की प्राप्ति
> पारदर्शिता को प्रोत्साहन
> समय पर तथा विश्वसनीय मूल्यांकन एवं लेखा परीक्षण
> समुचित प्रशिक्षण एवं निर्देशन
> पंचायतों के कार्यनिष्पादन के आधार पर वर्गीकरण एवं उसके अनुसार प्रोत्साहन
> भ्रष्टाचार एवं गुटबाजी निरोधी तंत्र का विकास
> नवीन डिजीटल तकनीकों का यथास्थान प्रयोग
आदि कुछ महत्वपूर्ण कदम हैं, जिनसे इन संस्थाओं को और भी सशक्त और प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
प्रश्न 5 (a) : जनहित मुकदमेबाजी की अवधारणा।
उत्तर : जनहित मुकदमेबाजी की अवधारणा : भारत में लोकहित अथवा जनहित याचिका (वाद) को प्रारंभ करने का श्रेय न्यायमूर्ति पी.ए. भगवती और न्यायमूर्ति बी. आर. कृष्ण अय्यर का रहा है। इसके प्रयोग की शुरुआत 1970 के उत्तरार्द्ध में हुई। जनहित याचिका में जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं, शोषण, पर्यावरण, बालश्रम, स्त्रियों का शोषण आदि विषयों पर न्यायालय को किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा सूचित करने पर न्यायालय स्वयं उसकी जांच कराकर या वस्तु स्थिति को देखकर जनहित में निर्णय देता है। इस प्रकार के वाद उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। निचली अदालतों को ऐसे वादों पर विचार करने का अधिकार प्राप्त नहीं है ।
वास्तव में जनहित याचिकाएं जनहित को सुरक्षित बनाना तथा बढ़ाना चाहती हैं। ये लोकहित भावना पर कार्य करती हैं। ये ऐसे न्यायिक उपकरण हैं जिनका लक्ष्य जनहित प्राप्त करना है। इनका लक्ष्य तीव्र तथा सस्ता न्याय एक आम आदमी को दिलवाना है। भारतीय कानून में सार्वजनिक हित की रक्षा के लिए जनहित याचिका के तौर पर जो मुकदमें करने का प्रावधान है, वह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अन्य सामान्य अदालती याचिकाओं से अलग है। इसकी खास बात यह है कि इसमें ये आवश्यक नहीं है कि पीड़ित पक्ष स्वयं अदालत में जाए, बल्कि यह किसी भी नागरिक या स्वयं न्यायालय द्वारा पीड़ितों के पक्ष में दायर किया जा सकता है। इसके पक्ष और विपक्ष में कई बातें कही जाती हैं, लेकिन निर्विवाद रूप से इसके महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता है। भारतीय न्यायिक व्यवस्था का यह ऐसा अवदान है, जिसकी चाहे जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। ऐसा इसलिए कि इससे आम आदमी के सकारात्मक पक्ष को मजबूती मिली है। यह बात अलग है कि कभी-कभी इसके दुरुपयोग की बातें भी सामने आती हैं, लेकिन तब विद्वान जजों द्वारा ऐसे तत्वों को स्पष्ट आईना भी दिखाया गया है, जिससे इसके अनुप्रयोग को लेकर सारी आशंकाएं अब तक निर्मूल साबित हुई हैं।
यदि जनहित याचिका के तहत उठाये गए अब तक के मामलों पर नजर दौड़ाएं तो यह स्पष्ट पता चलता है कि इसने बहुत व्यापक क्षेत्रों पर अपना सार्थक असर डाला है। खास कर कारागार और बन्दी, सशस्त्र सेना, बालश्रम, बंधुआ मजदूरी, शहरी विकास, पर्यावरण और संसाधन, ग्राहक मामले, शिक्षा, राजनीति और चुनाव, लोकनीति और जवाबदेही, मानवाधिकार और स्वयं न्यायपालिका को भी इसने तह तक प्रभावित किया है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका का विस्तार बहुत हद तक समानान्तर रूप से हुआ है और जनहित याचिका का मध्यम वर्ग ने सामान्यतः स्वागत और समर्थन किया है।
उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक व्याख्या से व्युत्पन्न है जनहित याचिकाः यहां पर यह ध्यान देने की बात है कि जनहित याचिका भारतीय संविधान या किसी कानून में परिभाषित नहीं है, बल्कि यह उच्चतम न्यायालय के संवैधानिक व्याख्या से व्युत्पन्न है, जिसका कोई अंतर्राष्ट्रीय समतुल्य नहीं है। यूं तो इस प्रकार की याचिकाओं का विचार सबसे पहले अमेरिका में जन्मा। जहां इसे ‘सामाजिक कार्यवाही याचिका’ कहते हैं। यह न्यायपालिका का आविष्कार तथा न्यायाधीश निर्मित विधि है। जबकि भारत में जनहित याचिका पी. एन. भगवती ने प्रारंभ की थी।
वास्तव में, ये जनहित याचिकाएं जनहित को सुरक्षित बनाना तथा बढ़ाना चाहती हैं। ये लोकहित भावना पर कार्य करती है। ये ऐसे न्यायिक उपकरण हैं जिनका लक्ष्य जनहित प्राप्त करना है। इनका लक्ष्य तीव्र तथा सस्ता न्याय एक आम आदमी को दिलवाना है, जिसके मद्देनजर कार्यपालिका व विधायिका को उनके संवैधानिक कार्य करवाने हेतु बाध्य किया जाता है। ये ‘समूह हित’ में काम आती हैं ना कि व्यक्ति हित में। यदि इनका दुरुपयोग किया जाये तो याचिकाकर्ता पर जुर्माना तक किया जा सकता है। हालांकि, इनको स्वीकारना या ना स्वीकारना न्यायालय के रुख पर निर्भर करता है।
> उच्चतम न्यायालय द्वारा जनहित याचिकाओं की स्वीकृतिः यहां पर यह जानना भी जरूरी है कि जनहित याचिकाओं की स्वीकृति हेतु उच्चतम न्यायालय ने कुछ नियम बनाये हैंपहला, लोकहित से प्रेरित कोई भी व्यक्ति या संगठन इन्हें ला सकता है। दूसरा, कोर्ट को दिया गया पोस्टकार्ड भी रिट याचिका माना जा सकता है। तीसरा, कोर्ट को अधिकार होगा कि वह इस याचिका हेतु सामान्य न्यायालय शुल्क भी माफ कर दे। चतुर्थ, ये राज्य के साथ ही निजी संस्थान के विरुद्ध भी लायी जा सकती हैं। वहीं इसके निम्नलिखित लाभ भी हैं
> पहला – इस याचिका से जनता में स्वयं के अधिकारों तथा  न्यायपालिका की भूमिका के बारे में चेतना बढ़ती है। यह मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को वृहद बनाती है जिसमें व्यक्ति को कई नये अधिकार मिल जाते हैं।
> दूसरा – कार्यपालिका व विधायिका को उनके संवैधानिक कर्तव्य पूरा करने के लिये बाधित करती है। साथ ही, यह भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की सुनिश्चितता तय करती है। यह बात दीगर है कि जनहित याचिकाओं की आलोचनाएं भी की जाती है और कहा जाता है कि ये सामान्य न्यायिक संचालन में बाधा डालती है और इनके दुरुपयोग की प्रवृत्ति भी परवान पर है। इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं कुछ बंधन इसके प्रयोग पर लगाये हैं।
> देश में न्यायालयों की सर्वोच्चता स्थापित होने से जनहित याचिकाओं को मिली और अधिक मजबूती: हालांकि, बाद के फैसलों में न्यायालयों की सर्वोच्चता स्थापित हुई और इस बीच विधायिका और न्यायापालिका के बीच मतभेद और संघर्ष भी हुआ। खासकर गोलकनाथ और पंजाब राज्य (1967) केस में 11 जजों की खंडपीठ ने 6-5 के बहुमत से माना कि संसद ऐसा संविधान पारित नहीं कर सकती जो मौलिक अधिकारों का हनन करता हो। वहीं, केशवानंद भारती और केरल राज्य (1973) केस में उच्चतम न्यायालय ने गोलकनाथ निर्णय को रद्द करते हुए यह दूरगामी सिद्धांत दिया कि संसद को यह अधिकार नहीं है कि वह संविधान की मौलिक संरचना को बदलने वाला संशोधन करे और यह भी माना कि न्यायिक समीक्षा मौलिक संरचना का भाग है।
सच कहा जाए तो आपातकाल के दौरान नागरिक स्वतंत्रता का जो हनन हुआ था, उसमें उच्चतम न्यायालय के एडीएम जबलपुर और अन्य तथा शिवकांत शुक्ला (1976) केस, जिसके फैसले में न्यायालय ने कार्यपालिका को नागरिक स्वतंत्रता और जीने के अधिकार को प्रभावित करने की स्वछंदता दी थी, का भी योगदान माना जाता है। इस फैसले ने अदालत के नागरिक स्वतंत्रता के संरक्षक होने की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। आपातकाल (1975-1977) के पश्चात न्यायालय के रुख में गुणात्मक बदलाव आया और इसके बाद जनहित याचिका के विकास को कुछ हद तक इस आलोचना की प्रतिक्रिया के रूप में देख सकते हैं। वहीं मेनका गांधी और भारतीय संघ (1978) केस में न्यायालय ने ए.के. गोपालन केस के निर्णय को पलट कर जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों को विस्तारित किया। उच्चतम न्यायालय ने जनहित याचिकाओं को प्रगतिशील लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्राणतत्व माना है। साथ ही, अनावश्यक याचिकाकर्ताओं को कड़ी चेतावनी और जुर्माना भी लगाया है, जिससे उसकी गंभीरता का बोध होता है।
> जनहित याचिका से जुड़े प्रमुख मुकदमे एवं अपेक्षित मान्यताएं : जहां तक जनहित याचिका से जुड़े प्रमुख मुकदमे का सवाल है तो यहां पर कहना उचित है कि जनहित याचिका का प्रथम मुख्य मुकदमा 1979 में हुसैन आरा खातून और बिहार राज्य (एआईआर 1979 एससी 1360) केस में कारागार और विचाराधीन कैदियों की अमानवीय परिस्थितियों से संबद्ध था। यह एक अधिवक्ता द्वारा दि इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छपी एक खबर, जिसमें बिहार की जेलों में बन्द हजारों विचाराधीन कैदियों का हाल वर्णित था, के आधार पर दायर किया गया था। इस मुकदमे के नतीजतन 40,000 से भी ज्यादा कैदियों को रिहा किया गया था। त्वरित न्याय को एक मौलिक अधिकार माना गया था, जो उन कैदियों को नहीं दिया जा रहा था। इस सिद्धांत को बाद के केसों में भी स्वीकार किया गया।
वहीं, एम. सी. मेहता और भारतीय संघ तथा अन्य (1985-2001) इस लंबे चले केस अदालत ने आदेश दिया कि दिल्ली मास्टर प्लान के तहत और दिल्ली में प्रदूषण कम करने के लिये दिल्ली रिहायशी इलाकों से करीब 1,00,000 औद्योगिक इकाइयों को दिल्ली से बाहर स्थानांतरित किया जाए। इस फैसले ने वर्ष 1999 के अंत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में औद्योगिक अशांति और सामाजिक अस्थिरता को जन्म दिया था और इसकी आलोचना भी हुई थी कि न्यायालय द्वारा आम मजदूरों के हितों की अनदेखी पर्यावरण के लिये की जा रही है। इस जनहित याचिका ने करीब 20 लाख लोगों को प्रभावित किया था जो उन इकाइयों में सेवारत थे | एक और संबद्ध फैसले में उच्चतम न्यायालय ने अक्टूबर 2001 में आदेश दिया कि दिल्ली की सभी र्वजनिक बसों को चरणबद्ध तरीके से सिर्फ सीएनजी (कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस) ईंधन से चलाया जाए। क्योंकि यह माना गया कि सीएनजी डीजल की अपेक्षा कम प्रदूषणकारी है। हालांकि बाद में यह भी पाया गया कि बहुत कम गंधक वाला डीजल (यूएलएसडी) भी एक अच्छा या बेहतर विकल्प हो सकता है। जहां तक अस्वीकृत याचिकाओं का सवाल है। तो यह कहा जा सकता है कि अन्नामुद्रक के सांसद पी. जी. नारायणन द्वारा मद्रास उच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका, जिसमें न्यायालय से संघ सरकार को जनहित में सन टीवी प्राइवेट लिमिटेड का डायरेक्ट टू होम सेवा के आवेदन को अस्वीकृत करने का अनुरोध किया गया था, को न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया था।
इसी प्रकार विभिन्न निरर्थक जनहित याचिकाओं को कोर्ट अस्वीकृत करता आया है। यह उसका विवेकाधिकार भी है।
प्रश्न 5 (b) : संविधान में समानता के अधिकार की गारंटी।
उत्तर : न्यायिक निर्णयों के अनुसार अधिकार भारतीय संविधान का मूल ढांचा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14-18 के तहत सभी व्यक्तियों को विधि के समक्ष समता, राज्य के अधीन सेवाओं में समान अवसर और सामाजिक समता प्रदान करने की व्यवस्था की गयी है । संविधान में समानता को स्थापित करने के लिए नागरिकों तथा गैर नागरिकों को निम्नलिखित अधिकार प्रदान किये गये हैं।
> विधि के समक्ष समता तथा विधियों के समान संरक्षण का अधिकारः अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त यह अधिकार सभी व्यक्तियों, अर्थात नागरिकों तथा गैर नागरिकों को प्रदान किया गया है। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि भारत के राज्यक्षेत्र में राज्य किसी भी व्यक्ति को विधि (कानून) के समक्ष समानता या कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। इस अनुच्छेद में दो प्रकार के अधिकारों का उल्लेख किया गया है कि राज्य सभी व्यक्तियों के लिए एक समान कानून बनाएगा तथा उस कानून को सभी व्यक्तियों पर एक समान रूप से लागू किया जाएगा।
> कानून का समान संरक्षण- पदावली को सं. रा. अमेरिका के संविधान से ग्रहण किया गया है। इसका तात्पर्य है कि समान परिस्थितियों में पाये जाने वाले व्यक्तियों को कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जाएगा।
अनुच्छेद 14 में प्रयुक्त समानता का अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि यह आवश्यक है कि सभी व्यक्तियों के लिए एक समान ही कानून हो । विभिन्न न्यायिक निर्णयों से यह स्पष्ट हो चुका है कि राज्य द्वारा कानून निर्माण के संबंध में या उसके संरक्षण के संबंध में व्यक्तियों के मध्य भेद किया जा सकता है लेकिन यह भेद युक्तिसंगत आधार पर होना चाहिए । उदाहरणार्थ-अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति, राज्यपालों, विदेशी राजनयिकों, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, संसद तथा विधान मण्डलों के सदस्यों को कुछ विशेष अधिकार दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त समाज के विभिन्न वर्गों के संबंध में भिन्न-भिन्न कानून बनाये जा सकते हैं। न्यायिक निर्णयों के अनुसार (i) आयु, (ii) लिंग, (iii) भौगोलिक या क्षेत्रीय, (iv) कारोबार या पेशे की प्रकृति, (v) प्राधिकार के स्रोत, (vi) अनुभव या वरिष्ठता, (vii) अपराध तथा अपराधी की प्रकृति और (ix) कर निर्धारण के आधार पर व्यक्तियों के बीच भेद किया जा सकता है। इसी प्रकार विदेशी कूटनीतिज्ञों को न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से छूट प्रदान की गई है।
अनुच्छेद 14 में निहित विधि का शासन संविधान का आधारभूत ढांचा है। अतः इन्हें अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित करके भी नष्ट नहीं किया जा सकता है।
> धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध – अनुच्छेद 14 में प्रतिपादित समता के अधिकार को अनुच्छेद 15 (1) में और अधिक स्पष्ट किया गया है, जिसमें राज्य पर यह कर्तव्य अधिरोपित किया गया है कि वह किसी नागरिक के विरुद्ध, धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग तथा जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर विभेद नहीं करेगा। इस अनुच्छेद में व्यक्ति शब्द के स्थान पर नागरिक शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका तात्पर्य है कि नागरिकों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के संबंध में विभेद किया जा सकता है। इस अनुच्छेद में केवल, धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद को प्रतिषिद्ध किया गया है। जिसका तात्पर्य है कि इनके अतिरिक्त अन्य आधारों, जैसे भाषा या निवास स्थान के आधार पर विभेद किया जा सकता है। इसलिए कुछ राज्य अपने यहां के विद्यालयों में धर्म तथा निवास स्थान के आधार पर प्रवेश में विभेद करते हैं। खण्ड (2) में स्पष्ट किया गया है कि नागरिकों के मध्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर (i) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या (ii) राज्य निधि से पूर्णतः या भागत: पोषित तथा साधारणतया जनता के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नान घाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के संबंध में भेद नहीं किया जाएगा। इस खण्ड में भी केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग तथा जन्म स्थान शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि अन्य आधारों पर भेद किया जा सकता है।
इस अनुच्छेद में दो और खण्ड अर्थात (3) तथा (4) समाविष्ट हैं, जो राज्य को संरक्षणात्मक भेदभाव करने की अनुज्ञा देते हैं। ये दोनों खण्ड स्त्रियों तथा बच्चों के लिए और सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों की उन्नति के लिए तथा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए राज्य को विशेष उपबंध करने की अनुज्ञा देते हैं। अनुच्छेद 15 (3) में स्त्रियों तथा बच्चों के लिये विशेष उपबंध की व्यवस्था की गई है। उच्चतम न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि राज्य को सरकारी नौकरियों में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को प्राथमिकता देने की शक्ति है, अर्थात् यदि पुरुष और स्त्री समान रूप से योग्य हैं लेकिन स्त्री अधिक अपयुक्त है तो स्त्री को प्राथमिकता दी जा सकती है। इसे आरक्षण की कार्यवाही नहीं माना जाएगा। स्त्रियों एवं बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार राज्य को पहले से ही दिया गया था लेकिन सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के सदस्यों के संबंध में विशेष प्रावधान करने का प्रावधान प्रथम संविधान संशोधन, 1951 द्वारा संविधान में अनुच्छेद 15 (4) को अन्तः स्थापित करके किया गया। यह संशोधन मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोरइराजन ए. आई. आर. 1951 एस. सी. 226 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए किया गया था।
अनुच्छेद 15 (4) के तहत राज्य सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों या अनुसूचित जातियों/जनजातियों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है। सरकारी सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान संविधान के इसी प्रावधान अर्थात् अनुच्छेद 15(4) के अधीन किया गया है। सरकारी सेवाओं में आरक्षण प्रदान करने के मानदण्ड के नियम बनाने के लिए 1953 में काका कालेलकर तथा 1978 में मण्डल आयोग का गठन किया गया था। काका कालेलकर आयोग की सिफारिश को अमान्य कर दिया गया। लेकिन मण्डल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सरकारी सेवाओं में आरक्षण प्रदान किया गया है, जिसे उच्चतम न्यायालय ने भी संवैधानिक निर्णय माना है, हालांकि मण्डल आयोग से संबंधित मामले इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ में तथा पूर्व के कई अन्य मामलों में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि किसी भी शर्त पर आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना
चाहिए ।
वस्तुत: अनुच्छेद 15(3) और 15 (4) के प्रावधान अनुच्छेद 15 (1) और (2) में दिये गये सामान्य नियम के अपवाद हैं क्योंकि 15 (1) और 15 (2) धर्म, वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का प्रतिषेध करता है जबकि अनुच्छेद 15 (3) और 15 (4) विशेष उपबंधों की बात करता है।
20 जनवरी, 2006 से प्रभाव में आया 93वां संविधान संशोधन अधिनियम 2005 के अनुसार अनुच्छेद 15(4) के बाद खण्ड (5) को जोड़ते हुए स्पष्ट किया गया है कि इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 19 (1) (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए कोई प्रावधान बनाने से नहीं रोकेगी, भले ही ये प्रावधान शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश से संबंधित ही क्यों न हों। इन शैक्षिक संस्थानों में सरकारी अनुदान प्राप्त या गैर अनुदान प्राप्त दोनों ही प्रकार के निजी शैक्षिक संस्थान भी शामिल होंगे लेकिन अनुच्छेद 30 (1) के अंतर्गत अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान इन प्रावधानों के दायरे में नहीं आएंगे।
> लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता – संविधान के अनुच्छेद 16 में लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता के मूल अधिकार को शामिल किया गया है तथा इसी अनुच्छेद में इस मूल अधिकार के कुछ अपवादों को भी शामिल किया गया है। यह मूल अधिकार केवल नागरिकों को प्राप्त है। इस अनुच्छेद के खण्ड ( 1 ) में कहा गया है। राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी तथा खण्ड (2) में कहा गया है कि राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अयोग्य होगा और न तो उससे भेद किया जाएगा।
अपवाद – उक्त मूलाधिकार के निम्नलिखित अपवाद अनुच्छेद 16 में ही निर्मित किये गये हैं, जो क्रमशः खण्ड (3), (4) तथा (5) में अन्तर्विष्ट हैं
> संसद कानून बनाकर किसी राज्य या स्थानीय प्राधिकारी के अधीन आने वाले किसी वर्ग या वर्गों के पद पर नियोजन या
नियुक्ति के संबंध में निवास विषयक प्रावधान कर सकती है। चूंकि राज्यों को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान या निवास स्थान के आधार पर भेद करने का अधिकार नहीं है, इसलिए इनके अतिरिक्त राज्य अन्य आधारों पर लोक नियोजन में नियुक्ति के लिए भेद कर सकता है। उदाहरणार्थ राज्य की भाषा के ज्ञान, , शैक्षणिक अर्हता, शारीरिक स्वास्थ्य तथा साक्षात्कार के आधार पर सरकारी नौकरियों में भेद किया जा सकता है तथा भूतपूर्व सैनिकों, स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों तथा महिलाओं के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिया जा सकता है।
> अस्पृश्यता का अन्त – सामाजिक समता में अभिवृद्धि करने के लिए संविधान में प्रावधान किया गया है कि अस्पृश्यता की कुरीति को समाप्त किया जाय । अस्पृश्यता को समाप्त करने तथा इसे दण्डनीय अपराध बनाने के लिए संविधान के अनुच्छेद 17 में प्रावधान किया गया है कि “ अस्पृश्यता का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा, जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।”
संविधान में अस्पृश्यता को परिभाषित नहीं किया गया है। मैसूर उच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में स्पष्ट किया है कि अस्पृश्यता का अर्थ उन सामाजिक कुरीतियों से है जो कि भारत में जाति प्रथा से उत्पन्न हुई है।
अस्पृश्यता का अंत करने के लिए कानून बनाने का अधिकार संसद को अनुच्छेद 35 द्वारा दिया गया है। संसद ने इस अधिकार के प्रयोग में 1955 में “अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955″ पारित किया था। बाद में इसे 1976 में संशोधित करके इसके नाम में परिवर्तन कर दिया गया और अब यह “सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955″ के रूप में प्रवृत्त है। “
इस अधिनियम के अंतर्गत निम्नलिखित कृत्यों को अस्पृश्यता के रूप में शामिल किया गया है
> किसी व्यक्ति को सार्वजनिक पूजा स्थल में प्रवेश करने से या ऐसे स्थान में पूजा करने से रोकना।
> अस्पृश्यता के आधार पर अनुसूचित जाति के किसी सदस्य का अपमान करना।
> प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अस्पृश्यता का उपदेश देना।
> एतिहासिक, दार्शनिक, धार्मिक या अन्य आधार पर अस्पृश्यता को न्यायोचित ठहराना।
> किसी दुकान, जलपान गृह, होटल या सार्वजनिक मनोरंजन के स्थान पर प्रवेश पर रोक लगाना ।
> अस्पताल में प्रवेश नहीं करने देना।
> कोई माल बेचने या सेवाएं देने से मना करना।
सर्वोच्च न्यायालय ने पीयूडीआर बनाम भारत संघ वाद (एशियाई खेल के मामले) में ये अभिनिर्धारित किया है कि अनुच्छेद 17 द्वारा प्रदत्त अधिकार प्राइवेट व्यक्तियों के विरुद्ध प्रवृत्त किया जा सकता है। इसे सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है कि इस अधिकार का अतिलंघन न किया जाये।
> उपाधियों का अन्त – उपाधियों को समाप्त करने के लिए अनुच्छेद 18 में प्रावधान किये गये हैं जो निम्नलिखित हैं
> राज्य सेना या विद्या संबंधी सम्मान के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।
> भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।
> जो व्यक्ति भारत का नागरिक न होते हुए राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का कोई पद धारण करता है, वह विदेशी राज्य से कोई उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
> राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
संविधान द्वारा उपाधियों का अन्त इसलिए किया गया था कि इनसे समाज में भेदभाव उत्पन्न होता था। लेकिन संविधान में विशेष सैनिक सेवा के लिए परमवीर चक्र, महावीर चक्र, वीर चक्र तथा अशोक चक्र आदि देने की अनुमति दी गयी थी । इसी तरह संविधान में विद्या या शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने के लिए उपाधि तथा पदक प्रदान करने को प्रतिषिद्ध किया गया था। संविधान द्वारा किये गये प्रतिषेध के बावजूद विशिष्ट सामाजिक सेवा करने वाले व्यक्तियों को भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण तथा पद्मश्री देने का प्रारंभ भारत सरकार ने 1954 में प्रारंभ किया लेकिन जनता पार्टी की सरकार के 1977 में पदारूढ़ होने के बाद इन उपाधियों का अन्त कर दिया गया क्योंकि तत्कालीन महान्यायवादी ने भारत सरकार को सलाह दी थी कि ये उपाधियां संविधान के अनुच्छेद 18 के खण्ड (1), (2) तथा (3) का उल्लंघन करती है। लेकिन 1980 में जनता पार्टी के पतन के बाद इन्हें पुनः दिया जाना प्रारंभ कर दिया गया।
1966 में बालाजी राघवन बनाम भारत संघवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री अलंकरण अनुच्छेद 18 (1) के तहत प्रयुक्त ‘उपाधि’ के अंतर्गत ‘उपाधि’ नहीं है क्योंकि इनका प्रयोग पाने वाले व्यक्ति के नाम के आगे या पीछे नहीं किया जा सकता है।
> Section-B
(लोक प्रशासन तथा सुशासन)
उत्तर 1: वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर
1. (b) : पोस्टडकार्ब परिवर्णी शब्द लूथर गुलिक ने दिया था। उर्विक तथा हेनरी फेयोल जैसे विद्वानों द्वारा पोस्टकार्ब दृष्टिकोण को अपनाया गया, जिसका व्यवस्थित व व्यापक प्रयोग करने का श्रेय लूथर गुलिक को जाता है। गुलिक ने इस दृष्टिकोण को लोक प्रशासन के संदर्भ में प्रस्तुत किया है।
II.(b) : लोक प्रशासन एवं निजी प्रशासन में समानताओं के समर्थक हेनरी फेयोल हैं। इस विचारधारा के समर्थकों में हेनरी फेयोल, एम.पी. फालेट तथा उर्विक आदि का नाम लिया जाता है। हेनरी फेयोल का कहना है कि “अब हमारे समक्ष कई प्रशासनिक इकाई नहीं है, बल्कि एक है जिसे सार्वजनिक तथा निजी दोनों ही प्रशासनों के लिए समान रूप से भलीभांति प्रयोग किया जा सकता है ।
III.(c) : यह कथन बी. डॉनहम का है। डॉनहम के अनुसार राज्य एवं सरकार का यहां तक की स्वयं सभ्यता का भविष्य, सभ्य समाज के कार्यों को निष्पादन करने में सक्षम प्रशासन के विज्ञान, दर्शन और कला के विकास करने की हमारी योग्यता पर निर्भर है। डॉनहम का यह कथन लोक प्रशासन के महत्व के संबंध में है।
IV.(c) : रिसर्च एवं एनालिसिस बिंग (रॉ) प्रधानमंत्री कार्यालय का भाग है। इसकी स्थापना 21 सितम्बर, 1968 को की गई । इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है। इसके संस्थापक कार्यपालक सामंत गोयल (सचिव) थे। इसके अधीनस्थ संस्थाएं – एविएशन रिसर्च सेंटर, द रेडियो रिसर्च सेन्टर, द इलेक्ट्रॉनिक एवं टेक्नीकल सर्विसेस, नेशनल टेक्नीकल फैसेलिटीज ऑर्गेनाईजेशन, स्पेशल फ्रंटियर फोर्स आदि हैं।
V. (c) : नीति आयोग (राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान) भारत सरकार द्वारा गठित एक नया संस्थान है जिसे योजना आयोग के स्थान पर बनाया गया। यह सरकार के थिंक टैंक के रूप में सेवाएं प्रदान करता है। है। इसकी स्थापना 1 जनवरी, 2015 में की गई। इसका कार्यालय नई दिल्ली में है। इसके प्रथम अध्यक्ष नरेन्द्र मोदी ( प्रधानमंत्री) थे तथा प्रथम उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया थे। वर्तमान में राजीव कुमार इसके उपाध्यक्ष हैं।
VI.(a) : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 315 में लोक सेवा आयोग के संबंध में यह प्रावधान किया गया है कि संघ सरकार के लिए संघ लोक सेवा आयोग और प्रत्येक राज्य के लिए राज्य लोकसेवा आयोग होगा।
VII.(a): फ्रेड डब्ल्यू रिग्स विकास प्रशासन की अवधारणा से संबंधित हैं। रिग्स के अनुसार विकास प्रशासन उन परियोजनाओं एवं कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए संगठित प्रयास से संबद्ध है, जो विकास से संबंधित उद्देश्यों को प्राप्त करने में लगे हुये व्यक्तियों द्वारा प्रवर्तित किये जाते हैं।
VIII. (c) : संयुक्त राष्ट्र ने सुशासन की जिन विशेषताओं की सब पहचान की है उसमें सरकार की वैधता शामिल नहीं सहारा – अफ्रीका से संबंधित विश्व बैंक के 1989 के दस्तावेज में सुशासन की अवधारणा का उल्लेख ठोस विकास के परिप्रेक्ष्य में किया गया है। इस संबंध में चार प्रमुख बिन्दु को रेखांकित किया गया है- 1. सार्वजनिक क्षेत्र का प्रबंध, 2. जवाबदेहता, 3. विकास के लिए वैधानिक ढांचा और 4. सूचना एवं पारदर्शिता।
IX.(c) : शिक्षा का अधिकार संयुक्त राष्ट्र द्वारा सूचीबद्ध मानवाधि कार में नहीं है। मानवाधिकार घोषणा-पत्र 1948 में मुख्य प्रावधान निम्नांकित हैं- 1. नागरिकता का अधिकार (अनुच्छेद-5), 2. समानता अधिकार (अनुच्छेद 14-18), 3. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-19), 4. जीने का अधिकार (अनुच्छेद-21), 5. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28), 6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद-32)।
X.(c) : मार्स्टिन मार्क्स जर्मन-अमेरिकी राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने नौकरशाही के चार प्रकार बताए हैं जो निम्नलिखित हैं
> अभिभावक नौकरशाही ( Guardian Bureaucracy)
> जातिगत नौकरशाही (Caste Bureaucracy)
> संरक्षक नौकरशाही ( Patronage Bureaucracy)
> योग्यता आधारित नौकरशाही (Merit Bureaucracy)
प्रश्न 2 : वैश्वीकरण उपरांत की दुनिया में लोक प्रशासन के अर्थ तथा महत्व की विवेचना कीजिए |
उत्तर : वैश्वीकरण के उपरांत केवल व्यापारिक एवं वाणिज्यिक क्षेत्र में ही परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता बल्कि लोक प्रशासन में भी देखा जा रहा है। आज वैश्विक महामारी के युग में यह बात खुलकर सामने आ रही है ।
1990 के बाद ‘नई विश्व व्यवस्था, (New World Order) की स्थापना के प्रयत्न प्रारंभ हुए हैं। खाड़ी युद्ध के बाद सोवियत संघ के विघटन और शीत युद्ध के अन्त ने लोक प्रशासन के अध्ययन हेतु नए दिशा संकेत प्रदान किए। अब शासन-व्यवस्थाओं को नौकरशाही से मुक्त करने तथा पदसोपान सिद्धांत को तिलांजलि देने के संबंध में सोचा जाने लगा है। अब परम्परागत नौकरशाही एवं पदसोपान व्यवस्था के स्थान पर ‘बाजार आश्रित लोक प्रशासन’ (Market based Public Administration) तथा ‘उद्यमी सरकार’ की धारणा पर जोर दिया जाने लगा है। लोक प्रशासन को निजी प्रशासन की ओर धकेला जा रहा है जहां अच्छी लोक सेवा के लिए ‘प्रतियोगिता’ (Competition) को आवश्यक माना जाता है।
> लोक प्रशासन का महत्व धीरे-धीरे पूरे विश्व में बढ़ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं स्थानीय सभी क्षेत्रों में सार्वजनिक महत्व के विषयों का प्रबंध ही लोक प्रशासन है। अब लोक प्रशासन, ऐसा प्रशासन है जो जनता के हित में किया जाता है। लोक प्रशासन सरकार का अराजनीतिक अधिकारी तंत्र है, जो सरकार की सक्रिय नीति और विधि को लागू करता है। यह राजनीतिक परिवेश में कार्य करता है तथा राजनीतिक निर्णय करने वालों के नीतिगत निर्णयों को क्रियान्वित करने में सहायता करता है। लोक प्रशासन में सार्वजनिक नीति-विषयक अध्ययन के जुड़ने के पश्चात् इसके अध्येयताओं के लिए सार्वजनिक विषयों की विषय-वस्तु को समझना अत्यंत आवश्यक हो गया है। यह मौलिक क्षेत्र है, अतः लोक प्रशासन न केवल प्रक्रियागत पक्ष से संबंधित है, बल्कि वैश्वीकरण के उपरांत अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मूलभूत क्षेत्र से भी जुड़ गया है।
> वैश्वीकरण के उपरांत लोक प्रशासन का महत्व : हमारे जीवन का शायद कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जो कि राज्य के क्रिया-कलापों से अछूता हो । कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के बाद राज्य के दायित्वों एवं उसकी गतिविधियों में भी वृद्धि हुई है तथा इस कारण लोक प्रशासन का महत्व भी बढ़ता जा रहा है। राज्य के सभी गतिविधियों का संचालन लोक प्रशासन ही करता है। लोक प्रशासन कुशलता के साथ लोगों की विविध आवश्यकताओं पर विचार करता है तथा उनकी समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है। आधुनिक राज्य को ‘प्रशासकीय राज्य’ की संज्ञा दी गई है। वर्तमान समाज में प्रत्येक व्यक्ति जीवन के हर मोड़ पर लोक प्रशासन से संबद्ध रहता है। उसके जन्म से पूर्व ही गर्भवती माता की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के रूप में लोक प्रशासन की व्यक्ति में रुचि प्रारम्भ हो जाती है जो कि उसके मृत्युपर्यंत बनी रहती है।
> मार्शल डिमॉक ने इसकी महत्ता पर लिखा है कि, “प्रशासन का क्षेत्र इतना विस्तृत हो गया है कि प्रशासन दर्शन, जीवन दर्शन जैसा प्रतीत होने लगा है।
> गेरॉल्ड कैडन के अनुसार लोक प्रशासन की समकालीन समाज में निम्नलिखित भूमिका है
> राज्य व्यवस्था का परीक्षण;
> स्थायित्व और व्यवस्था का अनुरक्षण;
> सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन का संस्थानीकरण;
> वृहत स्तरीय वाणिज्यिक सेवाओं का प्रबंधन;
> वृद्धि एवं आर्थिक विकास को सुनिश्चित करना;
> समाज के कमजोर वर्गों का संरक्षण;
> लोकमत का निर्माण, तथा ;
> लोक नीतियों को प्रभावित करना। ;
इन विवरणों के फलस्वरूप जिन आर्थिक व सामाजिक शक्तियों का उदय हुआ उसका सामना व्यक्तिगत स्तर पर संभव नहीं बल्कि इसके लिए प्रभावशाली संगठन की आवश्यकता है।
वर्तमान समाज में नागरिकों के लिए लोक प्रशासन का व्यवहारिक महत्व है क्योंकि यह लोगों की आवश्यकताओं पर विचार कर उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास करता है, क्रियाशील नागरिकता के प्रति योगदान देता है तथा सामाजिक विज्ञान के रूप में सरकारी ढांचे व प्रक्रियाओं के बारे में ज्ञान एकत्रित करता है। सरकार के उद्देश्यों तथा व्यावहारिक आवश्यकताओं के कारण शैक्षणिक विषय के रूप में लोक प्रशासन का विकास हुआ।
लोक प्रशासन को सामाजिक कार्य के रूप में भी देखा जा सकता है। अतः इसके शैक्षणिक अध्ययन का उद्देश्य सरकारी नीतियों व उसके कार्य-कलापों का समाज पर जो प्रभाव पड़ता है, उसे समझना होता है | तीसरी दुनिया के परिप्रेक्ष्य में तो लोक प्रशासन का महत्व और भी अधिक है। विकासशील देशों में इसकी विशेष महत्ता है । औपनिवेशिक युग की समाप्ति के बाद इन देशों में जो सामाजिक-आर्थिक विकास प्रारंभ हुआ उसके लिए ये अपनी सरकार पर निर्भर थे । ‘विकास प्रशासन’ का उदय भी इसी परिप्रेक्ष्य में हुआ।
> विकासशील देशों में लोक प्रशासन का महत्व :
विकासशील देशों में विश्व की कुल जनसंख्या का 70 प्रतिशत हिस्सा निवास करता है, किंतु विश्व की कुल आय का केवल 20 प्रतिशत हिस्सा ही इनके खाते में आता है। इन देशों में आय के असमान वितरण के कारण जनसंख्या का एक विशाल वर्ग निर्धनता की काली छाया में जीने हेतु अभिशप्त है। विकासशील देशों की पहचान गरीबी, असमानता एवं निम्न उत्पादकता जैसे कारकों के माध्यम से की जाती है।
सामाजिक एवं आर्थिक विकास की सफलता केवल इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि विकासशील देशों में उपयुक्त रणनीतियों का निर्माण होता है अपितु यह इस बात पर भी निर्भर करती है कि वर्तमान प्रशासनिक संरचना एवं लोक प्रशासन की अभिवृत्ति में परिवर्तन हो, जिससे यह अधिक
संवेदनशील, प्रतिस्पर्द्धात्मक तथा विकासशील देशों के लोगों की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम बन सके। इसका तात्पर्य यह है कि लोक प्रशासन की संस्थापना इसलिए हुई है कि यह उत्पादकता में तीव्रता से वृद्धि कर सके। इसी के समान सामाजिक कल्याण योजनाओं के लिए भी प्रभावी एवं कुशल क्रियान्वयन की आवश्यकता होती है। पिछली परिस्थितियों के विपरीत विकासशील देशों में सरकार के कार्यों में न केवल आकार एवं संख्या के परिप्रेक्ष्य में वृद्धि हुई है अपितु इसकी जटिलता में भी वृद्धि हुई, विशेषत निम्नलिखित क्षेत्रों में
> आर्थिक गतिविधियां : विकासशील देशों में सरकार पर पूंजी प्रदान करने, अर्थव्यवस्था का नियमन करने एवं देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए नियोजन का उत्तरदायित्व होता है। नियोजन को परिभाषित राष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु मुख्य औजार के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त, विकासशील देशों में सरकार उद्यमिता के प्रोत्साहन एवं जोखिमयुक्त क्रियाकलापों से भी संबद्ध होती है।
> सामाजिक एवं शैक्षिक गतिविधियां : सामाजिक क्षेत्र में, विकासशील देश की सरकार पर यह दायित्व होता है कि वह नागरिकों को शैक्षिक एवं सामाजिक दृष्टि से शिक्षित बनाये। इसी से निर्धनता, सामाजिक एवं शैक्षिक असमानता तथा अन्य सामाजिक बुराइयों को दूर किया जा सकता है। उच्च शिक्षा, मानव शक्ति विकास एवं कार्य कुशलता में विकास के लिए सघन प्रशिक्षण, विशेष रूप से वैज्ञानिकों, अभियंताओं, चिकित्सकों, प्रशासकों एवं अन्य तकनीकी कर्मियों को, प्रदान करना सरकार की जिम्मेदारी है।
> राजनीतिक गतिविधियां : राष्ट्र राज्य का निर्माण, विधि का आधुनिकीकरण, न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका को सुदृढ़ बनाना इत्यादि सभी ऐसे कार्य हैं, जो विकासशील देशों की राजनीतिक गतिविधियों में सम्मिलित होते हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन का महत्व हमारे दैनिक जीवन में निरंतर बढ़ता जा रहा है। पिछली सदी के पुलिस राज्य की अवधारणा अब कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में बदल गई है। आज राज्य की समस्त क्रियाओं एवं गतिविधियों का क्रियान्वयन व संचालन लोक प्रशासन द्वारा ही होता है। अत: राज्य के बढ़ते हुए दायित्वों एवं गतिविधियों के साथ इसका महत्व भी बढ़ता जा रहा है।
प्रश्न 3: कैसे सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 ने प्रशासन में पारदर्शिता के इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है ? यदि नहीं तो, इसके कारणों को चिन्हित करते हुए आगे के मार्ग के लिए सुझाव दीजिए।
उत्तर : सूचना का अधिकार कानून भारत की जनता को सरकार से सूचना पाने का अधिकार प्रदान करना है। सूचना का अधिकार कानून लागू होने के बाद भारत विश्व का 55वां ऐसा देश हो गया है, जहां देशवासियों को कानून के माध्यम से किसी भी विभाग, केन्द्र अथवा परियोजना से किसी भी प्रकार की सूचना प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो गया है।
सूचना प्राप्त करने का अधिकार से सम्बन्धित विधेयक संसद द्वारा पारित किया गया तथा इस विधेयक को 15 जून, 2005 को राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई थी। यह कानून 12 अक्टूबर, 2005 को जम्मू और कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू हो गया था।
> सूचना का अधिकार कानून की आवश्यकता : सरकार और अधिकारियों के कामकाज में सुधार लाने या पारदर्शिता लाने के लिए यह प्रयास बेहद आवश्यक था। देश में फैले भ्रष्टाचार और उच्च पद पर आसीन अधिकारियों में व्याप्त लाल फीताशाही पर नियंत्रण करने के लिए यह कदम उठाना अनिवार्य था। भ्रष्टाचार रूपी दीमक जो पूरे देश को खाए जा रहा था उससे देशवासियों को बचाने के लिए लोगों को कानून द्वारा सूचना प्राप्त करने का अधिकार एक ऐतिहासिक कदम साबित होगा।
भारत में ‘सूचना के अधिकार’ की लड़ाई आजादी की दूसरी और लोकतंत्र की पहली लड़ाई मानी गई है। दुनिया के कई देशों की जनता ने इसे ‘जीवन जीने का अधिकार’ की तरह मानकर व्यापक संघर्ष किया है। विचारों की स्वतंत्रता में विषयों पर विचार और सूचना ग्रहण करने, जानने और प्राप्त करने, कराने का अधिकार एवं चुप रहने का अधिकार भी है। किसी व्यक्ति द्वारा अपने विचारों की अभिव्यक्ति करना किसी लोकतंत्र की प्राण शक्ति (Life Line) है। इसके बिना जनता की तार्किक एवं आलोचनात्मक शक्ति को जो प्रजातांत्रिक सरकार के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है, विकसित नहीं किया जा सकता। लोकतांत्रिक सरकार एक खुली सरकार होती है। लोकतंत्र में इस स्वतंत्रता का वही स्थान है, जो शरीर में ‘ रक्त संचार’ का होता है और इसको किसी प्रकार से रोकना लोकतंत्र की मृत्यु की घोषणा के समान है। सामान्यतः सूचना के अधिकार का अर्थ जानने के अधिकार से लगाया जाना चाहिए, लेकिन चूंकि सरकार के कुछ कार्य गोपनीय होते हैं।
इसलिए जिन कार्यों को जनता के हित में गोपनीय रखना आवश्यक होता है उन्हें ही गोपनीय रखना चाहिए, न कि सरकार के हित को साधने वाली सूचनाओं को । सरकार के बाह्य और आंतरिक सुरक्षा से संबंधित सूचनाओं को गोपनीय रखना आवश्यक है, लेकिन सरकार के विकास कार्यक्रमों तथा
इससे संबंधित योजनाओं को गोपनीय रखने की आवश्यकता नहीं है और इनके संबंध में जनता को सूचना का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। सूचना की स्वतंत्रता को विश्वव्यापी मान्यता प्राप्त है। इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसम्बर, 1948 को जारी किए गए ‘मानवाधिकारों की विश्व घोषणा में स्पष्ट किया गया है। इस घोषणा में विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत अधिकारों की सूची दी गई है।
यूरोप के कुछ देशों में सूचना के अधिकार को व्यापक महत्व दिया गया है। जर्मनी के संविधान के अनुच्छेद 5 में प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को सभी स्रोतों की जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है। किसी व्यक्ति के सूचना के अधिकार के उल्लंघन से संबंधित मामलों का निस्तारण करने के लिए संवैधानिक न्यायलय के गठन का प्रावधान जर्मनी के संविधान में किया गया है। स्वीडन में 1966 में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधीन सूचना के अधिकार को शामिल किया गया है। लेकिन इस देश में व्यक्ति की गोपनीयता को मान्यता दी गई है। यही स्थिति डेनमार्क, नार्वे आदि देशों की है। अमेरिका में 1964 में सूचना की स्वतंत्रता से संबंधित अधिनियम को पारित करके सूचना के अधिकार को विधिक मान्यता प्रदान की गई है।
इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट है कि असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि वह सरकारी कागजातों की प्रतिलिपि उचित मूल्य देकर प्राप्त कर सकता है और यदि सरकारी अधिकारी प्रतिलिपि प्रदान नहीं करता है, तो इसके लिए शासकीय अपील की जा सकती है।
भारत में सूचना के अधिकार की मांग आपातकाल के बाद से ही शुरू हो चुकी थी। 1978 में जस्टिस पी. के. गोस्वामी की अध्यक्षता में द्वितीय प्रेस आयोग का गठन कर उसे इस बारे में सुझाव देने के लिए कहा गया। सितम्बर, 1996 में प्रेस परिषद् द्वारा सूचना के अधिकार का मॉडल विधेयक भारत सरकार को प्रस्तुत किया गया। सरकार ने इस पर विचार करने के लिए एच. डी. शैरी की अध्यक्षता में एक कार्य समिति का गठन किया। इस समिति में ज्यादा प्रतिनिधित्व नौकरशाही से जुड़े लोगों का था जिसने इस अधिकार की मूल भावना को ही बदल दिया।
समिति ने मई 1997 में प्रस्तुत विधेयक के प्रारूप में सूचना के अधिकार (राइट टू इनफॉर्मेशन) को सूचना की स्वतंत्रता (फ्रीडम ऑफ इनफॉर्मेशन) में बदल दिया। इस समिति द्वारा प्रस्तुत विधेयक में सिर्फ सरकारी अनुदान प्राप्त कम्पनियों, संस्थाओं, ट्रस्ट एवं सहकारी संस्थाओं को ही इस कानून के दायरे में रखा गया है। साथ ही सूचना न देने वाले अधिकारी को दंडित करने का प्रावधान भी नहीं है जबकि प्रेस परिषद् द्वारा सम्पूर्ण प्रशासनिक तंत्र को जनहित एवं मानवाधिकार पर विशेष ध्यान देकर सरकार व प्रशासन को उत्तरदायी बनाने का प्रयास निहित है। देश में यद्यपि सूचना के अधिकार के संदर्भ में कोई विधि अधिनियमित नहीं की गई है, किन्तु भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के तहत भारत के सभी नागरिकों को अपने विचारों को प्रकट करने, भाषण देने तथा विचारों को लोगों तक पहुंचाने की स्वतंत्रता है। अनुच्छेद 19(1) का यह अधिकार अनुच्छेद 19 (2) में वर्णित उपबंधों के अधीन है।
यद्यपि इस स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता का स्पष्ट उपबंध नहीं है, परन्तु न्यायिक निर्णय के आधार पर कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मे प्रेस की स्वतंत्रता, जानने / सूचना की स्वतंत्रता भी अन्तर्निहित है। इस विषय पर न्यायालय के कुछ निर्णयों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उच्चतम न्यायालय ने एस.पी. गुप्ता और अन्य बनाम भारत संघ (A.I.R. 1932S.C. 14) में यह अभिनिर्धारित किया कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) में जानने का अधिकार शामिल है। इसमें सरकार के संचालन से संबंधित सूचनाएं जानने का अधिकार भी आता है। केवल अपवादिक मामले में जब देश की सुरक्षा अथवा लोकहित में आवश्यक हो तब भी उनका प्रकटीकरण नहीं किया गया था। इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार बनाम राजनारायण के वाद में 1975 में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस देश की जनता को प्रत्येक सार्वजनिक कार्य के बारे में जानने का अधिकार है, जो सार्वजनिक पदाधिकारियों द्वारा सार्वजनिक रूप से प्रदान किया जाता है। यद्यपि सूचना का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है, लेकिन यह ऐसा कारक है कि जब किसी ऐसे मामले में गोपनीयता का दावा किया जाता है, जिनका जन सुरक्षा पर किसी तरह प्रभाव पड़ने वाला नहीं है, तब उसे लेकर सतर्क होना स्वाभाविक है, फिर भी गोपनीयता के आवरण का प्रयोग जनता के हित में नहीं किया जाता। 1981-82 में भारत सरकार से संबंधित एक वाद में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री पी. एच. भगवती ने स्पष्ट किया था कि पारदर्शी सरकार की अवधारणा का सीधा रिश्ता जानने के अधिकार से है और यह अधिकार हमारे संविधान के मूल अधिकार में शामिल है।
इंडियन एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स बनाम भारत संघ (1985S.C. R. 641) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस स्वतंत्रता के महत्व को स्पष्ट करते हुए यह मत व्यक्त किया कि यह स्वतंत्रता निम्न उद्देश्यों की पूर्ति करती है।
(a) यह व्यक्ति की आत्मोन्नति में, (b) सत्य की खोज / स्थापना में (c) व्यक्ति की निर्णयन क्षमता में एवं (d) स्थिरता और सामाजिक परिवर्तन में सामंजस्य स्थापित करने में सहायक होती है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय के अलावा कई उच्च न्यायालयों ने भी सूचना के अधिकार को जरूरी साबित करने वाले फैसले दिए हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2 नवम्बर, 2000 को एक ऐतिहासिक निर्णय में निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया था कि वह संसदीय विधानसभा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के अपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी मतदाताओं को मीडिया के माध्यम से उपलब्ध कराएं तथा न्यायालय ने यह भी कहा कि चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार के लिए यह अनिवार्य हो कि वह यह सब जानकारी नामांकन पत्र में भी भरें। न्यायाधीश अनिल देव सिंह और एम. के. शर्मा की दो सदस्यीय खण्ड पीठ ने स्पष्ट किया कि आयोग को चाहिए कि वह उम्मीदवारों के बारे में सूचनाएं एकत्र करने के लिए केन्द्र/राज्य सरकारों और खूफिया ब्यूरो को निर्देश जारी करे। न्यायालयों के अतिरिक्त कुछ राज्य सरकारों, जैसे कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश ने इस अधिकार के प्रति जागरूकता दिखाई है।
भारत में सूचना के अधिकार को अधिकार का दर्जा प्रदान किए जाने की नितांत आवश्यकता है। आज देश में भ्रष्टाचार के जितने गड़े मुर्दे उखड़ रहे हैं उस पर पहले ही रोक लग सकती थी यदि ‘सूचना के अधिकार’ मामले में पारदर्शिता होती, किन्तु इस संबंध में पिछले 25 वर्षों में केन्द्र सरकार द्वारा कानून न बना पाने के कारण पारदर्शी शासन और वास्तविक लोकतंत्र सिर्फ सपने की बात हो गई है। उक्त अनुभव देश में सूचना के अधिकार की आशाजनक तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते नौकरशाही से लेकर राजनेताओं तक में इस अधिकार के प्रति न सिर्फ उदासीनता वरन् खौफ भी देखा गया है। मौजूदा राजनीतिक व सामाजिक दौर में सूचना के अधिकार से नौकरशाही, राजनेताओं और अपराधियों के समीकरणों के ध्वस्त होने का खतरा स्पष्ट दिखाई देता है। यही कारण है कि जब भी इस अधिकार के प्रति सकारात्मक पहल होती है उसे निष्क्रिय करने वाले तत्व सक्रिय हो उठते हैं। आज तक यह विधेयक जिस दुश्चक्र में फंसता आया है उससे जल्दी मुक्त होना किसी इच्छाधारी सरकार के बूते की बात है अन्यथा देश की जनता इस अधिकार के अभाव में जीने को अभिशप्त रहेगी।
> इसके अंतर्गत की गई व्यवस्थाएं : अधिनियम में यह व्यवस्था की गई है कि केन्द्र द्वारा एक केन्द्रीय सूचना आयोग का गठन किया जायेगा जिसमें एक मुख्य सूचना आयुक्त तथा अन्य सूचना आयुक्त होंगे। मुख्य सूचना आयुक्त तथा अन्य सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के लिये एक समिति गठित की गई है।
इस समिति के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होंगे तथा लोकसभा में विपक्ष के नेता तथा प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत केन्द्रीय माननीय मण्डल का एक मंत्री इसके सदस्य होंगे।
> प्रावधान : सूचना का अधिकार कानून के तहत सूचना प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति को केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी अथवा राज्य सूचना अधिकारी के समक्ष आवेदन करना होगा। आवेदनकर्ता को मात्र 12 रुपये व्यय करने होंगे जिसमें आवेदन का शुल्क 10 रुपया है।
अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत सरकारी रिकार्ड के निरीक्षण की सुविधा भी उपलब्ध है। इसके लिए एक घंटे के लिए कोई शुल्क देय नहीं होगा, परन्तु इसके बाद प्रत्येक 15 मिनट के लिए आकांक्षी को 5 रुपये शुल्क देना होगा।
सूचना का अधिकार कानून के अन्तर्गत ऐसी सूचनाएं सरकार द्वारा देशवासियों को उपलब्ध नहीं करायी जा सकती जो देश की एकता, अखंडता एवं सुरक्षा से संबंधित प्रश्न हों। केन्द्र और राज्य सरकारों के अतिरिक्त पंचायतीराज संस्थाएं, स्थानीय शासन तथा गैर-सरकारी संगठन जिन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी अनुदान प्राप्त होता है, को भी इस कानून में शामिल किया गया है।
सूचना के अधिकार कानून में यह प्रावधान है कि सूचना प्राप्त करने के लिए किसी भी अधिकार को लोक सूचना अधिकारी धारा 8 और 9 के आधार पर आवेदन को रद्द कर सकता है। परन्तु यदि यह सूचना किसी व्यक्ति के जीवन से जुड़ी हो तो आवेदन प्राप्त होने के 48 घंटे के भीतर आवश्यक जानकारी देने को लोक सूचना अधिकारी बाध्य है।
> उपयोगिता एवं लाभ : सूचना का अधिकार कानून को 2005 में मान्यता मिल चुकी है। पूरे देश में यह लागू भी हो गया है। यह भारत जैसे प्रजातान्त्रिक देश को एक मजबूत आधार प्रदान करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है।
> इसकी कमियां : सरकार को केन्द्रीय सूचना आयोग एवं राज्य सूचना आयोग के विभिन्न पदों पर अधिकारियों को नियुक्त करने से पहले सोचना होगा क्योंकि सेवानिवृत्त और सेवारत नौकरशाहों को मुख्य सूचना आयुक्त और अन्य सूचना आयुक्त के पद पर नियुक्त करने से कोई लाभ नहीं होगा। पुराने अधिकारियों से यह बिल्कुल उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे अपनी ही बिर के की गलतियों को बताएंगे। गलत छवि वाले या बाहुबलियों को स्थान देना समाज
के सामने गलत संदेश प्रेषण करने का परिचायक है। क्योंकि अवकाश प्राप्त वरिष्ठ आइ.ए.एस. अधिकारी ‘वजाहत हबीबुल्ला’ को जिन्हें प्रथम मुख्य सूचना आयुक्त बनाया गया है को कर्नाटक उच्च न्यायालय सूचना छिपाने के मामले में पहले भी फटकार लगा चुकी है।
> उपसंहार : सूचना का अधिकार कानून की अवधारणा निश्चित रूप से उपयोगी है एवं इसका उद्देश्य भी कल्याणपूर्ण है परन्तु वास्तविकता से जुड़ने में इसके सामने कई चुनौतियां हैं। एक ओर कार्यपालिका की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है तो दूसरी ओर अधिकारीगण अपने ऊपर पड़नेवाले राजनैतिक दबावों से अपने आपको किस तरह अलग रख पायेंगे तथा इस कानून का लाभ लोगों को पहुंचा सकेंगे, यह भी विचारणीय है।
आवश्यकता इस बात की है कि अच्छी सोच-समझ वाले लोगों को जो विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े हैं, लाना सकारात्मक कदम होगा। चूंकि यह अधिनियम जनता के हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया है इसलिए यह आवश्यक है कि जनता की जरूरतों को समझने वाले निपुण और गुणवान लोगों को ही तरजीह दी जाए। सूचना आयोग के पदों पर यथासम्भव निष्पक्षता एवं ईमानदारी के लिये प्रसिद्ध रहे सेवानिवृत्ति न्यायाधीश, कानूनविदों और समाजसेवियों को नियुक्त किया जाना चाहिए ताकि आम लोगों के हित पूरे हों ।
प्रश्न 4 (a): वित्त आयोग का गठन और भूमिका ।
उत्तर : संविधान के अनुच्छेद 280 में वित्त आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है। वित्त आयोग के गठन का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है। वित्त आयोग में राष्ट्रपति द्वारा एक अध्यक्ष तथा चार सदस्य नियुक्त किये जायेंगे। वित्त आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की योग्यता क्या होगी, इसका निर्धारण करने का अधिकार संसद को दिया गया है।
संसद ने इसके लिए 1951 में वित्त आयोग अधिनियम, 1951 पारित किया, जिसे बाद में 1955 में संशोधित किया गया। इस अधिनियम के अनुसार वित्त आयोग का अध्यक्ष वह व्यक्ति होगा, जिसे सार्वजनिक मामलों में पर्याप्त अनुभव हो। 4 अन्य सदस्यों के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निर्धारित की गई हैं
> कोई ऐसा व्यक्ति जो किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश हो या, न्यायाधीश रह चुका हो या न्यायाधीश नियुक्त होने की योग्यता रखता हो,
> उसे सरकार के वित्त एवं लेखा का विशिष्ट ज्ञान हो,
> उसे वित्तीय मामलों और प्रशासन का व्यापक अनुभव हो,
> वह अर्थशास्त्र का विशेषज्ञ हो ।
वित्त आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाने के समय यह ध्यान रखना आवश्यक होता है कि नियुक्त किये जाने वाले व्यक्ति का आर्थिक स्वार्थ न हो।
आयोग में एक अध्यक्ष के अतिरिक्त 4 सदस्य नियुक्त किये जाते हैं। सदस्यों में से ही एक सदस्य सचिव के रूप में पद धारण करता है। सदस्य सचिव भारत सरकार के वित्त मंत्रालय का पद स्थापित अधिकारी होता है। वह आयोग के कार्यों में प्रशासनिक सहायता उपलब्ध कराता है।
वित्त आयोग द्वारा एक निश्चित अवधि में अपनी विस्तृत रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपना आवश्यक होता है।
इस अधिनियम में यह भी प्रावधान किया गया है कि आयोग अपनी प्रक्रिया स्वयं निर्धारित करेगा तथा अपने कार्य के निष्पादन में एक असैनिक न्यायालय के अधिकारों का प्रयोग करेगा। आयोग अपने कार्यों को सम्पन्न करने के लिए किसी व्यक्ति से जानकारी प्राप्त करने के लिए उसे बुला सकता है।
आयोग केन्द्र तथा राज्य के वित्तीय सम्बन्धों के सम्बन्ध में सिफारिश करता है। आयोग द्वारा पेश की गयी सिफारिशों को राष्ट्रपति संसद के पटल पर रखता है। राष्ट्रपति द्वारा अब तक 15 वित्त आयोगों का गठन किया जा चुका है। जनवरी, 2013 में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाई. रेड्डी की अध्यक्षता में 14वें वित्त आयोग का गठन किया था। इस पांच सदस्यी आयोग के अन्य सदस्यों में पूर्व वित्त सचिव सुषमा नाथ, नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पब्लिक फाइनेंस एण्ड पॉलिसी (NIPF) के निदेशक एम. गोविन्द राव, योजना आयोग के सदस्य अभिजीत सेन व राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के पूर्व कार्यवाहक चेयरमैन सुदीमो शामिल हैं।
आयोग का गठन 2015-20 के दौरान पांच वर्षों की अवधि में केन्द्र एवं राज्यों के बीच राजस्व सहभागिता तथा इस अवधि में राज्यों को देय केन्द्रीय अनुदानों आदि मामलों में संस्तुतियां प्रस्तुत करने के उद्देश्य से किया गया है। आयोग को केन्द्र एवं राज्यों के बीच के राजस्व सहभाजन (Revenue Sharing) का फार्मूला सुझाने तथा केन्द्र द्वारा राज्यों के दिये जाने वाले अनुदानों के संबंध में फार्मूले के निर्धारण के अतिरिक्त जल एवं विद्युत जैसी जन सेवाओं के मूल्य निर्धारण हेतु ऐसी नियामक प्रक्रिया सुझाना ताकि उन्हें नीतिगत हस्तक्षेपों से मुक्त रखा जा सके आदि मुद्दों पर अपनी संस्तुतियां प्रस्तुत करने को कहा गया है। आयोग की सिफारिश 1 अप्रैल, 2015 में 31 मार्च 2020 की अवधि के दौरान प्रभावी रही ।
12वें वित्त आयोग का अध्यक्ष प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ. सी. रंगराजन को नियुक्त किया गया था। इस आयोग के अन्य सदस्यों में पूर्व कैबिनेट सचिव टी. आर. प्रसाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एण्ड पॉलिसी के प्रो. डी. के. श्रीवास्तव व योजना आयोग के सदस्य सोमपाल शास्त्री शामिल थे। ऐसा पहली बार हुआ कि योजना आयोग के किसी सदस्य को इस सदस्यता के साथ ही वित्त आयोग का भी सदस्य बनाया गया।
> 15वें वित्त आयोग की सिफारिशें :
हाल ही में केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2021-22 से आगामी पांच वर्षों की अवधि के लिए करों के वितरण पूल में राज्यों की हिस्सेदारी को 41% तक बनाए रखने से संबंधित 15वें वित्त आयोग की सिफारिश को स्वीकार कर लिया है।
उर्ध्वाधर हिस्सेदारी ( केंद्र और राज्यों के बीच कर की हिस्सेदारी ) :
> 15वें वित्त आयोग ने राज्यों की उर्ध्वाधर हिस्सेदारी को 41% बनाए रखने की सिफारिश की है, जो कि आयोग की वर्ष 2020-21 में दी गई अंतरिम रिपोर्ट के समान है। यह राशि वर्तमान वितरण पूल के 42% के स्तर के समान ही है, जिसकी सिफारिश 14वें वित्त आयोग द्वारा की गई थी।
> हालांकि इसमें जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति में बदलाव के बाद बने नए केंद्रशासित प्रदेशों (लद्दाख और जम्मू-कश्मीर) की स्थिति के मद्देनजर 1% का आवश्यक समायोजन भी किया किया गया है।
> क्षैतिज हिस्सेदारी ( राज्यों के बीच आवंटन) : राज्यों के बीच कर राजस्व के विभाजन के लिये आयोग ने जो सूत्र प्रस्तुत किया है, उसके मुताबिक राजस्व हिस्सेदारी का निर्धारण करते समय जनसांख्यिकीय प्रदर्शन को 12.5%, आय के अंतर को 45% जनसंख्या और क्षेत्रफल प्रत्येक के लिए 15%, वन और पारिस्थितिकी के लिये 10% तथा कर एवं राजकोषीय प्रबंधन के लिए 2.5% वेटेज दिया जाएगा।
> राजस्व घाटा अनुदान : राज्यों एवं संघ के राजस्व और व्यय के आकलन के समान मानदंडों के आधार पर आंकते हुए 15वें वित्त आयोग ने 17 राज्यों को राजस्व घाटा अनुदान ₹2,94,514 करोड़ देने की सिफारिश की है।
> राज्यों के लिए प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन एवं अनुदान :
> ये अनुदान मुख्यतः चार विषयों के इर्द-गिर्द घूमते हैं।
> पहला विषय सामाजिक क्षेत्र है जहां स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
> दूसरा विषय ग्रामीण अर्थव्यवस्था है जहां कृषि और ग्रामीण सड़कों के रखरखाव पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
> तीसरा विषय शासन एवं प्रशासनिक सुधार है जिसके तहत आयोग ने आकांक्षी जिलों तथा ब्लॉकों के लिये अनुदान की सिफारिश की है।
> चौथे विषय के रूप में बिजली क्षेत्र के लिए एक प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन प्रणाली शामिल है, जो अनुदान से संबंधित नहीं है, बल्कि यह राज्यों को अतिरिक्त उधार प्राप्त करने के लिये एक महत्वपूर्ण विंडो प्रदान करती है।
> केन्द्र के लिये राजकोषीय स्थान : 15वें वित्त आयोग द्वारा राज्यों को किया गया कुल हस्तांतरण (कर वितरण + अनुदान) केन्द्र सरकार की अनुमानित सकल राजस्व प्राप्तियों का लगभग 34% है, जिससे केन्द्र सरकार के पास अपनी आवश्यकताओं के दायित्वों को पूरा करने के लिये पर्याप्त राजकोषीय स्थान बचता है।
> स्थानीय सरकारों के अनुदान :
> आयोग ने अपनी सिफारिशों में नगरपालिकाओं और स्थानीय सरकारी निकायों के लिये अनुदान के साथ-साथ नए शहरों के इन्क्यूबेशन हेतु प्रदर्शन आधारित अनुदान तथा स्थानीय सरकारों के लिये स्वास्थ्य अनुदान को भी शामिल किया है।
> शहरी स्थानीय निकायों के लिये अनुदान की व्यवस्था के तहत
> मूल अनुदान केवल उन शहरों/कस्बों के लिये प्रस्तावित है जिनकी आबादी 10 लाख से कम है। 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों को 100% अनुदान ‘मिलियन-प्लस सिटीज चैलेंज फंड (MCF) के माध्यम से प्रदर्शन के आधार पर दिया जाएगा।
> 10 लाख से अधिक आबादी के शहरों का प्रदर्शन उनकी वायु गुणवत्ता में सुधार और शहरी पेयजल आपूर्ति, स्वच्छता एवं ठोस अपशिष्ट प्रबंधन आदि मापदंडों के आधार पर मापा जाएगा।
> आलोचना :
> प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन स्वतंत्र निर्णय और नवाचार को प्रभावित करता है। राज्य की उधार लेने की क्षमता पर किसी भी प्रकार के प्रतिबंध से राज्य द्वारा किये जाने वाले खर्च पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जिससे राज्य का विकास प्रभावित होगा। परिणामस्वरूप यह सहकारी वित्तीय संघवाद को कमजोर करेगा।
> यह केन्द्र सरकार को अपने राजकोषीय विवेक (Fiscal Prudence) के लिये जिम्मेदार नहीं ठहराता है और संघ एवं राज्यों की संयुक्त जिम्मेदारी को कम करता है।
> वित्त आयोग के कर्तव्य – संविधान के अनुसार वित्त आयोग के निम्नलिखित कर्तव्य होंगे
> केन्द्र और राज्य के मध्य करों के शुद्ध आगमों के वितरण के बारे में और राज्यों के बीच ऐसे आगमों के भाग के आवंटन के बारे में सिफारिश करना,
> भारत की संचित निधि में से राज्यों के राजस्व में सहायता अनुदान को शामिल करने वाली सिफारिश करना,
> राज्यों के वित्त आयोग द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर पंचायतों के संसाधनों की अनुपूर्ति के लिए राज्य की निधि में संवर्द्धन के लिए आवश्यक उपायों के बारे में सिफारिश करना ।
> नगरपालिकाओं की निधि की आपूर्ति के लिए राज्य की निधि में संवर्द्धन के लिए आवश्यक उपायों के बारे में सिफारिश करना।
> सुदृढ़ वित्तीय हित में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को सौंपे गये किसी अन्य विषय के बारे में सिफारिश करना ।
वित्त आयोग द्वारा की गई प्रत्येक सिफारिश को राष्ट्रपति उस पर की गई कार्यवाही के स्पष्टीकरण ज्ञापन सहित संसद के सदनों के समक्ष रखता है ।
वित्त आयोग का मुख्य कार्य केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभाजित होने वाले करों के समुचित बंटवारे, राज्यों को अनुदान देने के क्रम में व्यावहारिक सिद्धान्त बनाने तथा राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित किये गये अन्य कार्यों पर अपनी
सिफारिश देना है। वस्तुतः वित्त आयोग के कार्यों की सूची बहुत लम्बी हो सकती है क्योंकि यह गठित होने वाले आयोग को सौंपे जाने वाले कार्यों पर निर्भर करता है।
वित्त आयोग को अपने कार्यों को मूर्तरूप देने के लिए कार्य प्रणाली का निर्धारण करने में स्वतंत्रता प्राप्त है। वित्त मंत्रालय का अधिकारी जो आयोग का सदस्य सचिव होता है इस संबंध में आवश्यक वित्तीय, आर्थिक तथा प्रशासनिक आंकड़े वित्त मंत्रालय, योजना आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक आदि संगठनों से एकत्र करता है।
> प्रश्न 4 (b): राज्य प्रशासन में मुख्य सचिव की भूमिका ।
उत्तर : राज्य प्रशासन के अंतर्गत मुख्य सचिव की भूमिका: राज्य सरकार की पदसोपान व्यवस्था के अंतर्गत मुख्य सचिव का पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद है। इसके विषय में यह माना जाता है कि, “मुख्य सचिव एक ऐसा स्रोत है जिसके माध्यम से सरकारी आदेश उसके अधिकारियों तक पहुंचते हैं। अधिकांश जिला अधिकारियों हेतु वही सरकार राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत उसकी भूमिका स्वयं उसके नेतृत्व संबंधी गुणों एवं उसकी कार्यकुशलता पर निर्भर करती है। कई बार यह आशंका भी व्यक्त की जाती है कि भविष्य में शायद ही किसी मुख्य सचिव की नियुक्ति प्रशासनिक स्तर पर की जाए तथा वह अपना कार्य स्वतंत्रतापूर्वक, निष्पक्षतापूर्वक एंव निडरतापूर्वक संपन्न कर सके। प्रशासनिक सुधार आयोग के अध्ययन दल ने राज्य के प्रशासन संबंधी अपने प्रतिवेदन में यह सुझाव प्रेषित किया है कि मुख्य सचिव के पद को अधिक शक्तिशाली बनाया जाना आवश्यक है क्योंकि मुख्य सचिव को मुख्यमंत्री के अधीन मुख्य समन्वयक के रूप में कार्य करना होता है। मुख्य सचिव के पद को प्रभावशाली बनाने हेतु राज्य के सबसे वरिष्ठ अधिकारियों की सूची में से सर्वाधिक वरिष्ठ व्यक्ति को ही मुख्य सचिव के पद पर आसीन किया जाना चाहिए; उसके कार्यकाल की अवधि लंबी होनी चाहिए ताकि वह प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य कर सके । वस्तुतः इन्हीं संपर्कों के माध्यम से वह राज्य की समस्याओं के संबंध में उपयोगी जानकारी प्राप्त करता है।
राज्य की प्रशासनिक प्रणाली के अंतर्गत इसके विशद् कार्यो एवं उत्तरदायित्वों को दृष्टिगत रखते हुए यह उचित ही होगा कि वह कुछ विशेष प्रकार के महत्वपूर्ण मामले ही अपने पास रखे तथा कम महत्वपूर्ण मामलों में अधिक हस्तक्षेप न करे। दूसरे शब्दों में, मुख्य सचिव की सफलता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि राज्य की लोक सेवा में उसे अपने अधिकारियों का कितना विश्वास एवं आदर प्राप्त है तथा केन्द्र में उसका कितना प्रभाव है ?
राज्य प्रशासन में सचिवालय के सचिवों के पद सोपान के शीर्ष पर मुख्य सचिव होता है, जो राज्य के तमाम सचिवों में प्रधान होता है तथा उसका नियंत्रण सचिवालय के सभी विभागों पर होता है। मुख्य सचिव राज्य के सामान्य प्रशासन विभाग का अध्यक्ष होता है, जिसका राजनीतिक अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होता है। इसलिए मुख्य सचिव ही मुख्यमंत्री का प्रधान सलाहकार तथा मंत्रिमंडल का सचिव होता है, वह राज्य सरकार का मुख्य प्रवक्ता तथा जन-संपर्क अधिकारी भी होता है। वास्तव में, वह राज्य की प्रशासनिक गतिविधियों को निर्देशित करता है। उसके द्वारा विभिन्न विभागों के बीच समन्वय स्थापित करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए जाते हैं। इस महत्वपूर्ण पद का पद-भार ग्रहण करने वाला व्यक्ति आवश्यक रूप से राज्य का वरिष्ठ लोक सेवक ही होता है।
भारत के सभी राज्यों के मुख्य सचिवों की स्थिति एक समान नहीं है। तमिलनाडु में मुख्य सचिव वरिष्ठतम लोक सेवक होता है। उत्तर प्रदेश में मुख्य सचिव राजस्व मंडल के सदस्यों से कनिष्ठ होता है। पंजाब में भी मुख्य सचिव वित्त आयुक्त से कनिष्ठ होता है। 1973 से मुख्य सचिव के पद का मानकीकरण कर दिया गया है तथा इस पद को पाने वाला व्यक्ति भारत सरकार के सचिव के बराबर की श्रेणी का होता है तथा उसी के बराबर वेतन प्राप्त करता है। अतः मुख्य सचिव के स्तर को सामान्य स्तर वालों में प्रथम के बराबर किया गया है।
मुख्य सचिव की नियुक्ति में वरिष्ठता का विचार तो महत्वपूर्ण होता ही है तथापि सेवा अभिलेख, कार्य निष्पादन की योग्यता तथा मुख्यमंत्री की उसमें पूर्ण आस्था एवं निर्भरता की भी उसके चयन में प्रभावी भूमिका होती है। विभिन्न राज्यों में मुख्य सचिवों के चयन से यह स्पष्ट होता है कि सामान्यतया मुख्यमंत्री अपनी पंसद के व्यक्ति को ही मुख्य सचिव के पद पर नियुक्ति करता है। प्रशासनिक सुधार आयोग का मत है कि मुख्य सचिव का चयन बहुत ही सावधानी से किया जाना चाहिए, वह एक वरिष्ठतम प्रभावी व्यक्ति होना चाहिए। जिसे अपनी योगयता, अनुभव, ईमानदारी और निष्पक्षता के कारण सभी अधिकारियों का विश्वास और आदर प्राप्त हो, इसलिए मुख्य सचिव को राज्य प्रशासन की धुरी कहा गया है। मुख्य सचिव राज्य प्रशासन के संपूर्ण प्रशासनिक क्रियाकलाप के सुगम संचालन और दक्षता के लिए जिम्मेदार होता है। सर्वप्रथम, तो वह मंत्रिमंडल का सचिव होता है और इसलिए वह प्रशासनिक मामलों में मंत्रिमंडल के सलाहकार के रूप में कार्य करता है। दूसरा, वह संपूर्ण प्रशासन का प्रमुख होता है तथा उसे राज्य प्रशासन के सभी विभागों में समन्वयकारी भूमिका का निर्वहन करना पड़ता है। तीसरा, उसकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी उस विभाग से होती है जिसका वह स्वयं प्रशासनिक अध्यक्ष होता है।
> मुख्य सचिव के कार्य
> मंत्रिमंडल के परामर्शदाता के रूप में सचिवः मुख्य मुख्य सचिव राज्य के मंत्रिमंडल का सचिव होता है। इस रूप में वह मंत्रिमंडल की बैठकों का एजेंडा तैयार करता है, बैठकों की व्यवस्था करता है तथा समस्त मंत्रिमंडलीय कार्यवाहियों का रिकॉर्ड रखता है। मंत्रिमंडलीय बैठकों में प्रस्तुत किए जाने वाले समस्त मामले मुख्य सचिव के माध्यम से ही प्रेषित किए जाते हैं। फिर वह चाहे किसी भी विभाग से संबंधित क्यों न हो। मुख्य सचिव मंत्रिमंडलीय बैठकों में भाग लेता है तथा मंत्रिमंडल को नीति निर्माण की प्रक्रिया के संबंध में आवश्यक सहायता एवं परामर्श प्रदान करता है। कई बार वह स्वयं अपनी ओर से भी किसी भी मामले पर अपने विचार प्रस्तुत कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह अनौपचारिक रूप से भी मुख्यमंत्री को समय-समय पर आवश्यक सुझाव एवं परामर्श प्रदान कर सकता है।
राज्य प्रशासन में समन्वयक के रूप में मुख्य सचिव की भूमिका:
संपूर्ण प्रशासन में समन्वय स्थापित करने में मुख्य सचिव की अतिमहत्वपूर्ण भूमिका होती है। समूचे सचिवालय का प्रशासन मुख्य सचिव के नियंत्रण के अधीन होता है। सचिवालय के कार्यों को सुचारु एवं अधिक प्रभावी ढंग से चलाने के लिए वह कोई भी कदम उठा सकता है। राज्य सरकार के किसी भी विभाग से संबंधित किसी भी मामले की पत्रावली का निरीक्षण करने का अधिकार मुख्य सचिव को प्राप्त है। इस प्रकार के मामलों में यदि वह आवश्यक समझे तो पत्रावली को संबंधित मंत्री को आवश्यक आदेश हेतु लौटा सकता है अथवा अपने सुझावों सहित उसे मुख्यमंत्री को प्रेषित कर सकता है। इस अधिकार द्वारा उसे विभिन्न विभागों की गतिविधियों एवं कार्यों पर नियंत्रण रखने का अवसर प्राप्त हो जाता है, जिसमें राज्य प्रशासन में समन्वय की स्थापना होती है। मुख्य सचिव अपने राज्य केन्द्र एवं अन्य राज्य सरकारों के मध्य आवश्यक संचार सूत्र का कार्य करता है। सामान्यतः अंतर्राज्यीय सद्भाव एवं मतभेदों के समस्त मामलों पर मुख्य सचिव से परामर्श लिया जाता है।
विभाग के अध्यक्ष के रूप में मुख्य सचिव की भूमिकाः
राज्य प्रशासन के अंतर्गत कई बार मुख्य सचिव कुछ विभागों का प्रभारी भी होता है। राजस्थान में सामान्य प्रशासन, कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार, मंत्रिमंडल सचिवालय तथा योजना विभाग मुख्य सचिव के पास है। मुख्य सचिव की अत्यधिक व्यस्तता के कारण इन समस्त विभागों के दिन-प्रतिदिन के
प्रशासनिक कार्यों का उत्तरदायित्व मुख्य रूप से एक उप-सचिव अथवा विशेष सचिव पर होता है। उप सचिव अथवा विशेष सचिव अपने कार्यों का संपादन मुख्य सचिव के निदेशन में ही करता है। इन समस्त विभागों में कुछ मामलों पर अंतिम निर्णय मुख्य सचिव ही लेता है। उल्लिखित कार्यों के अतिरिक्त मुख्य सचिव द्वारा निम्नलिखित अन्य महत्वपूर्ण कार्यों का संपादन भी किया जाता है।
> मुख्य सचिव सचिवालय भवनों एवं उनके कक्षों पर प्रशासनिक नियंत्रण रखता है।
> राज्य में राष्ट्रपति शासन आरोपित होने की स्थिति में वह संपूर्ण राज्य प्रशासन के संचालन हेतु उत्तरदायी होता है। मंत्रिमंडल की अनुपस्थिति में समस्त महत्वपूर्ण निर्णय मुख्य सचिव द्वारा ही लिए जाते हैं तथा समस्त सचिवालय विभाग इसके निदेशन में ही कार्य करते हैं ।
> आपातकालीन स्थिति में वह राज्यों के ‘तंत्रिका तंत्र’ की भांति कार्य करता है।
> मुख्य सचिव राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखने हेतु आवश्यक कार्यवाही करता है।
> मुख्य सचिव लोक सेवाओं का अध्यक्ष होता है तथा सरकारी सेवावर्ग की नियुक्ति, स्थानान्तरण एवं पद  – मुक्ति इत्यादि की शक्तियां उसमें निहित होती है।
प्रश्न 5: भारत में आपदा प्रबंधन तन्त्र के संगठन तथा कार्यकरण का आलोचनात्मक विवेचन कीजिये।
उत्तर : आपदा प्रबंधन, आपदा न्यूनीकरण, आपदा के तात्कालिक एवं दीर्घकालिक उपाय : आपदा प्रबंधन से तात्पर्य है, आपदाओं को रोकने या कम करने (घटाने) तथा उनसे सुरक्षा के उपाय ढूंढ़ना। आपदाओं की आशंका से लोगों को सतर्क करना और घटित होने पर राहत कार्य के लिए लोगों की या स्वयंसेवी संस्थाओं की सेवाएं लेने का प्रबंध करना भी आपदा प्रबंधन का अंग है। जिन आपदाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है, उनकी पूर्व सूचना यदि लोगों को यथासमय दे दी जाए और आपदाओं से बचाने हेतु प्रभाव में आनेवाले क्षेत्र कुछ को पहले ही खाली करा लिया जाए तो संभावित क्षति को थोड़ा कम किया जा सकता है।
जहां पूर्वानुमान संभव न हो, वहां राहत कार्य एवं डॉक्टरी सुविधा द्वारा प्रभावित लोगों को सहायता पहुंचाई जा सकती है। साथ ही ग्राम, ब्लॉक, जिला एवं केन्द्रीय स्तर पर प्राकृतिक दुर्घटनाओं के पश्चात प्रभावित लोगों के पुनर्वास एवं राहत की दिशा में कार्य किए जा सकते हैं। आपदा प्रबंधन में निवारक और संरक्षी उपाय, तैयारी तथा मानवों पर आपदा के प्रभाव को कम करने के लिए राहत कार्यों की व्यवस्था तथा आपदा प्रवण क्षेत्रों के सामाजिक व आर्थिक पक्ष सम्मिलित किये जाते हैं। आपदा प्रबंधन की, संपूर्ण प्रक्रिया को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है : प्रभाव चरण और पुननिर्माण चरण तथा समन्वित दीर्घकाल विकास और तैयारी चरण ।
> प्रभाव चरण – प्रभाव चरण के तीन अंग हैं- आपदा की भविष्यवाणी करना, आपदा के प्रेरक कारकों की बारीकी से खोजबीन तथा आपदा आने के बाद प्रबंधन के कार्य ।
> पुनर्वास और पुनर्निर्माण चरण – आपदाएं मृत्यु और विनाश के चिह्न छोड़ जाती हैं। प्रभावित लोगों को चिकित्सा सुविधा और अन्य विभिन्न प्रकार की सहायता की जरूरत होती है।
> दीर्घकालीन विकास और तैयारी चरण – दीर्घकालीन विकास के अंतर्गत विविध प्रकार के निवारक और सुरक्षात्मक उपायों की योजना बना लेनी चाहिये ।
विश्व भर के लोगों को जागरूक करने के लिए यूनेस्को (UNESCO) ने 1990-2000 के दशक को आपदा राहत दशक रूप में मनाया। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की स्थापना इस दिशा में भारत सरकार द्वारा उठाये गये सकारात्मक कदम का उदाहरण है।
आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 :
इस अधिनियम में आपदा को किसी क्षेत्र में घटित एक महाविपत्ति, दुर्घटना, संकट या गंभीर घटना के रूप में परिभाषित किया गया है, जो प्राकृतिक या मानवकृत कारणों या दुर्घटना या लापरवाही का परिणाम हो और जिससे बड़े स्तर पर जान की क्षति, मानव पीड़ा, पर्यावरण की हानि एवं विनाश हो और जिसकी प्रकृति या परिमाण प्रभावित क्षेत्र में रहने वाले मानव समुदाय की सहन क्षमता से परे हो ।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना :
पहली राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (National Disaster Management Plan (NDMP) का शुभारंभ 1 जून, 2016 को किया गया। योजना में आपदा से निपटने की क्षमता बढ़ाने और जानमाल का नुकसान कम करने पर मुख्य रूप से ध्यान केन्द्रित किया जाएगा। आपदा प्रबंधन योजना समुदायों को आपदाओं से निपटने, उन्हें आपदाओं के प्रति तैयार करने, सूचना देने, शिक्षा और संचार गतिविधियों की अधिक आवश्यकता पर जोर देती है।
योजना में आपदा प्रबंधन के सभी चरण रोकथाम, शमन, प्रतिक्रिया और प्रतिलाभ शामिल किए गए हैं। योजना को इस तरह तैयार किया गया है कि यह आपदा प्रबंधन के सभी चरणों में एकसमान ढंग से लागू की जा सकती है। योजना एक कॉम्प्रीहेंसिव डाक्यूमेंट है इसमें डिजास्टर मैनेजमेंट के सभी पहलू जैसे प्रिवेंशन, मिटिगेशन, प्रिपेयरनेस, पोस्ट डिजास्टर
रिसपोंस, रिलिफ, रिहेब्लिटेशन सारे आयाम इसमें कवर किए गए हैं।
आपदा न्यूनीकरण के अंतर्गत आपदाओं के विध्वंसक बलों को कम करना, आपदाओं के परिणाम को कम करना तथा आपदाओं के प्रतिकूल प्रभावों को कम करना आदि प्रमुख लक्ष्य शामिल हैं।
आपदा निवारण के अंतर्गत मनुष्यों की जीवन की सुरक्षा के साथ-साथ उनकी सम्पत्ति को बचाने का कार्यक्रम भी शामिल होता है। इस प्रकार आपदा निवारण का प्रमुख उद्देश्य आपदाओं के आगमन पर आर्थिक क्षति को कमतर करना होता है। आपदा निवारण का स्वरूप आपदा की प्रकृति तथा आपदा से प्रभावित होने वाले क्षेत्र की पर्यावरणीय दशाओं पर निर्भर करता है । आपदा निवारण के अंतर्गत आपदाओं द्वारा होने वाले प्रतिकूल प्रभावों, विशेषकर आर्थिक क्षति को कम करने के लिए प्रभावित क्षेत्रों का मानचित्रण, आपदा प्रभावित क्षेत्रों में समुचित भूमि उपयोग, सागर दीवार के निर्माण एवं मैंग्रोव के रोपण द्वारा तटीय रक्षण भवनों की संरचना में सुधार तथा भवन डिजाइन कोड का अनुकरण आदि को शामिल किया जाता है। आपदा निवारण कार्यक्रमों के सफलतापूर्वक क्रियान्वयन एवं लक्ष्य की प्राप्ति के लिये दो मूलभूत उपागमों को अपनाना.चाहिए –
> टॉप डाउन आपदा निवारण उपागम
> बॉटम अप आपदा निवारण उपागम
> टॉप-डाउन आपदा निवारण उपागम: यह आपदा निवारण हेतु सरकारी संस्थाओं द्वारा चलाए जाने वाले आपदा प्रबंधन के विभिन्न उपायों पर निर्भर करता है। इसके अंतर्गत आपदा प्रबंध न कार्यक्रम ऊपर से नीचे के क्रम में चलाया जाता है।
> बॉटम – अप आपदा निवारण उपागम : बॉटम-अप आपदा निवारण उपागम को समुदाय आधारित उपागम भी कहा जाता है। इस उपागम के अन्तर्गत आपदा निवारण के कार्यक्रमों में स्थानीय जनता की प्रत्यक्ष तौर पर भागीदारी होती है। इस उपागम में नीचे से ऊपरी क्रम में लोगों की भागीदारी होती है।
राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबंधन :
> किसी भी आपदा की स्थिति में प्रतिक्रिया दिखलाने से पूर्व केंद्रीय सरकार के प्रमुख कारक: किसी भी आपदा की स्थिति में केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया निम्नलिखित कारकों पर आधारित होती है
(i) आपदा की गंभीरता,
(ii) बचाव ऑपरेशन का पैमाना,
(iii) प्रभावित राज्य सरकार की वित्तीय संस्थाओं के संसाधनों में वृद्धि करने तथा अन्य समर्थन के लिए केंद्र सरकार से कितनी सहायता की आवश्यकता है।
किसी भी प्रकार के आपदा प्रबंधन के दौरान केंद्रीय सरकार की भूमिका :
> वित्तीय सहायता – चूंकि अधिकतर राज्य सरकारों के पास आवश्यकतानुसार पर्याप्त धन नहीं होता इसलिए धन का प्रमुख भार केंद्र सरकार द्वारा वहन किया जाता है।
> निर्णय लेने वाली संस्थाएँ – केंद्रीय स्तर पर आपदा प्रबंधन के लिए उत्तरदायी निर्णय लेने वाली मानक संस्थाएँ निम्नलिखित हैं
> यूनियन मंत्रिमंडल जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं।
> मंत्रियों का समूह जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं।
> राष्ट्रीय संकटकालीन प्रबंधन समिति जिसके अध्यक्ष कैबिनेट सचिव हैं।
> पृथक मंत्रालय – गृह मंत्रालय केंद्र का एक प्रमुख मंत्रालय है जो सूखे के अतिरिक्त सभी प्राकृतिक आपदाओं के लिए आपदा प्रबंधन के क्रियाकलापों में तालमेल रखता है। सूखे की देख-रेख कृषि तथा सहकारिता विभाग के अंतर्गत कृषि मंत्रालय द्वारा की जाती है। अन्य मंत्रालयों को उनके अधिकार क्षेत्र में आनेवाली आपदाओं की स्थिति में आपातकालीन समर्थन देने का दायित्व सौंपा जाता है। उदाहरण के तौर पर किसी भी प्रकार की महामारी के लिए स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण मंत्रालय उत्तरदायी होता है। –
> संकटकालीन प्रबंधन ग्रुप की भूमिका – केंद्रीय राहत कमिश्नर तथा विभिन्न मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारियों की अध्यक्षता में संकटकालीन प्रबंधन ग्रुप आकस्मिक योजनाओं, प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए आवश्यक उपायों तथा आपदा के समय तालमेल रखने के बारे में विचार करता है।
> तकनीकी संगठन – तकनीकी संगठन जैसे भारतीय मौसम विभाग (चक्रवात तथा बाढ़ ) भवन तथा सामग्री विकास परिषद् (निर्माण निगम), भारतीय मानक ब्यूरो (मानक), सुरक्षा अनुसंधान तथा विकास संस्था (परमाणु), जैविक नागरिक सुरक्षा के डायरेक्टर जनरल आदि आपदा प्रबंधन के कार्यों में तालमेल के लिए पर्याप्त सर्मथन प्रदान करते हैं।
> भारतीय सशस्त्र सेनाओं की भूमिका – भारतीय सशस्त्र सेनाएँ भी केंद्र सरकार के निर्देशों के अनुसार कार्य करता है। जब स्थिति नगरीय प्रशासन के सामर्थ्य के बाहर हो जाती है। तब ये हस्तक्षेप करती हैं तथा कार्य को अपने हाथों में ले लेती हैं।
किसी भी प्रकार की आपदा के दौरान राज्य सरकारों की भूमिका-
> प्राकृतिक आपदा से निपटने का उत्तरदायित्व अनिवार्य रूप से राज्य सरकार का होता है।
> मुख्यमंत्री अथवा राज्य का मुख्य सचिव राज्य स्तर की
> समिति का अध्यक्ष होता है जो राज्य के राहत उपायों की व्यवस्था करता है।
> राहत कमिश्नर जो राज्य में प्राकृतिक आपदा की स्थिति में राहत तथा पुनः स्थापना उपायों का प्रभारी होता है, राज्य स्तर की समिति के नियंत्रण तथा निर्देश में कार्य करता है।
> अनेक राज्यों में राजस्व विभाग का सचिव भी राहत उपायों का प्रभारी होता है।
> राज्यों के पास ‘राज्य राहत नियमावली’ होती है तथा राज्यों की आकस्मिक योजना नामक राहत नियमावली होती है, जो उसे आपदा के दौरान प्रबंधन करने में मदद देती है।
> जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन :
जिला स्तर की आपदा प्रबंधन समिति के चार सदस्यों के नाम एवं कार्य –
> मुख्य चिकित्सा अधिकारी
> मुख्य अभियंता, जल और सिंचाई विभाग
> पशु चिकित्सा अधिकारी
> राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि।
जिला आपदा प्रबंधन समिति के प्रमुख कार्य :
> जिला आपदा प्रबंधन योजना – जिला आपदा प्रबंधन समिति जिले की जरूरतों के अनुसार जिला आपदा योजना को तैयार करने के लिए स्थानीय तथा केंद्रीय प्रशासन की मदद करती है ।
> तालमेल – यह जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन टीम के सदस्यों के प्रशिक्षण के लिए तालमेल में मदद करती है।
> जागरूकता पैदा करना – यह सेमिनार की व्यवस्था तथा कृत्रिम अभ्यास करती है, पैम्पलेट बाँटती है तथा लोगों को आपदा की जानकारी तथा आपदा से कैसे निपटा जाए के विषय में जागरूक करने के लिए घर-घर में प्रचार करती है।
ब्लॉक स्तर पर आपदा प्रबंधन समिति :
> ब्लॉक स्तर पर आपदा प्रबंधन समिति की संरचना : सभी आपदा प्रबंधन क्रिया-कलापों के लिए ब्लॉक स्तर पर प्रखंड विकास पदाधिकारी प्रमुख अधिकारी होता है। समिति के अन्य सदस्यों में समाज कल्याण विभाग, स्वास्थ्य विभाग, ग्रामीण जल आपूर्ति विभाग, पुलिस अग्नि सेवाओं के अधिकारी, युवा संगठनों के प्रतिनिधि, समुदाय पर आधारित संगठन, गैर सरकारी संगठन, प्रतिष्ठित वरिष्ठ नागरिक, निर्वाचित प्रतिनिधि आदि शामिल होते हैं।
> ब्लॉक आपदा प्रबंधन समिति के कार्य :
> ब्लॉक आपदा प्रबंधन योजना-  ब्लॉक आपदा प्रबंधन समिति ब्लॉक की जरूरतों के अनुसार ब्लॉक आपदा प्रबंधन – योजना तैयार करने के लिए स्थानीय तथा केंद्रीय प्रशासन को मदद करती है।
> तालमेल- यह ब्लॉक स्तर पर आपदा प्रबंधन टीम के सदस्यों के प्रशिक्षण के लिए तालमेल में मदद करती है।
> कृत्रिम अभ्यास – यह किसी प्रकार की आपदा के लिए लोगों को तैयार करने के लिए कृत्रिम अभ्यास करती है।
> जागरूकता पैदा करना – यह सेमिनार की व्यवस्था तथा कृत्रिम अभ्यास करवाती है, पैम्पलेट बाँटती है तथा लोगों को आपदा की जानकारी एवं आपदा से कैसे निपटा जाए के बारे में जागरूक करने के लिए घर-घर में प्रचार करती है।
गांव में आपदा प्रबंधन समिति :
> गांव में आपदा प्रबंधन समिति का अध्यक्ष : सरपंच अथवा गाँव का मुखिया गाँव की आपदा प्रबंधन समिति का अध्यक्ष होता है। इनके निम्नांकित कार्य हैं
> वह गाँव के आपदा प्रबंधन समिति के लिए योजनाएँ तैयार करवाता है तथा आपदा प्रबंधन टीमों को प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए विभिन्न एजेन्सियों से तालमेल करता है।
> विभिन्न आपदाओं का सामना करने के लिए वह निरंतर अंतराल पर ग्रामवासियों के लिए कृत्रिम अभ्यास का प्रबंध करता है।
आपदा के दौरान सहायक प्रमुख संगठन : नागरिक सुरक्षा सेना :
> नागरिक सेना का उद्देश्य उपद्रव की स्थिति में जन-जीवन तथा उत्पादन की निरंतरता बनाए रखने में मदद करती है।
> राष्ट्रीय नागरिक सुरक्षा कॉलेज की स्थापना 23 अप्रैल, 1957 में नागपुर में हुई थी। यह संगठन केंद्रीय सरकार के आपातकालीन राहत संगठन के प्रशिक्षण विभाग के रूप में कार्य करता है।
> केंद्रीय संस्था राहत सेवाओं के नेताओं को नवीनतम तथा विशेष प्रशिक्षण देने पर बल देती है जो कि प्राकृतिक आपदाओं के दौरान राहत ऑपरेशन कुशल प्रबंधन के लिए जरूरी है।
> देश में लगभग 5,00,000 नागरिक सुरक्षा स्वयंसेवक हैं जो आपदा के दौरान दुर्घटनाग्रस्त व्यक्तियों की सहायता करने तथा आपदा का सामना करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं।
> राष्ट्रीय कैडेट कोर (N.C.C) :
> मूलभूत गुणों का विकास – राष्ट्रीय कैडेट कोर युवाओं में चरित्र, साहस, अनुशासन, नेतृत्व, धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण, साहसिक कार्य की प्रेरणा, खेल भावना तथा निःस्वार्थ सेवा के आदर्शों का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है ताकि वे हितकारी नागरिक बन सकें।
> मानवीय संसाधन- ये प्रशिक्षित तथा कर्मशील युवा तैयार करने में मदद करती है।
> सुरक्षा की दूसरी रेखा – एन. सी. सी. सशस्त्र सेनाओं सहित जीवन के हर क्षेत्र में नेतृत्व प्रदान कर सुरक्षा की दूसरी रेखा निर्माण करने में मदद करती है तथा उन्हें राष्ट्र की सेवा के लिए उपलब्ध कराती है।
होमगार्ड 
> आंतरिक सुरक्षा को बनाए रखने में पुलिस के सहायक के रूप में कार्य करना ।
> किसी भी प्रकार की आपातकालीन स्थिति जैसे हवाई आक्रमण, अग्नि, चक्रवात, भूकंप, महामारी आदि में समुदाय को मदद करना।
> किसी भी प्रकार की आपदा के दौरान आवश्यक सेवाओं को बनाए रखने में सहायता करना ।
> साम्प्रदायिक शांति को बढ़ावा देना तथा कमजोर वर्गों की सुरक्षा करने में प्रशासन की मदद करना ।
>>सामाजिक, आर्थिक तथा कल्याणकारी क्रिया-कलापों में भाग लेना तथा नागरिक सुरक्षा के कर्तव्यों को पूरा करना ।
शिक्षा के क्षेत्र में आपदा प्रबंधन :
शिक्षा में आपदा प्रबंधन की जानकारी देने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम –
> कुशल युवा उपलब्ध कराने के लिए स्कूलों से लेकर तकनीकी कॉलेजों तक तथा उच्च स्तरीय शिक्षा पाठयक्रमों में आपदा प्रबंधन का अध्ययन आरंभ किया गया है।
> आपदा प्रबंधन के सभी पक्षों में विद्यार्थियों को संवेदनशील बनाने के उद्देश्य से पाठ्यक्रमों में आपदा प्रबंधन की रूपरेखा तैयार की गयी है।
> आपदा प्रबंधन के सभी पक्षों में देश की प्रमुख शिक्षण संस्थाएं जैसे भारतीय तकनीकी संस्था (IITs) तथा आपदा प्रबंधन की राष्ट्रीय संस्था विभिन्न विभागों के विभिन्न सरकारी स्तर के अधिकारियों को प्रशिक्षण देकर देश के लिए कुशल मानवीय संसाधनों को उपलब्ध कराती है।
> अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने इंजीनियरिंग में आपदा प्रबंधन पाठ्यक्रम प्रारंभ किया है।
> मेडिकल पाठ्यक्रमों, नगर योजना तथा वस्तु – विद्या पाठ्यक्रमों में आपदा प्रबंधन की शिक्षा प्रारंभ करने का प्रयास किया गया है।
> अखिल भारतीय सेवाओं जैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS), भारतीय पुलिस सेवा (IPS) तथा भारतीय वन्य सेवा (IFS) में आपदा प्रबंधन को आधारभूत पाठ्यक्रम का एक हिस्सा बना दिया गया है।
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