6th JPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा- 2019

6th JPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा- 2019

परीक्षा तिथि – 29.01.2019
विषय : इतिहास एवं भूगोल
Subject : History & Geography
> इतिहास (History)
1. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Questions ) :
(I) किसने मगध साम्राज्य में वज्जि गणसंघ को हराकर आत्मसात किया?
Who defeated and assimilated the Vajjis into the empire of Magadha?
(a) चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupta Maurya)
(b) अशोक (Ashoka)
(c) महापद्मनन्द (Mahapadma Nanda)
(d) अजातशत्रु (Ajatsatru)
(II) हड़प्पा किस नदी के किनारे अवस्थित था?
Harappa was situated on the bank of river
(a) ब्यास (Beas )
(b) सतलज ( Satlaj)
(c ) रावी (Ravi)
(d) घग्गर (Ghaggar)
(III) निम्नलिखित में से किसने महमूद गजनी के हमले के बाद सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण किया? After the attack of Mahmud Ghazni, who among the following reconstructed the Somnath temple?
(a) भीमराज प्रथम (Bhimraja-I)
(b) भीमदेव (Bhimdeva)
(c) मूलराज (Mularaja)
(d) जयसिंह सिद्धराज ( Jayasingh Siddhraj)
(IV) किस मुगल शासक ने भारत में ओटोमन युद्ध पद्धति को अपनाया ?
Which Mughal emperor followed Ottoman system of war in India.
(a) अकबर (Akbar )
(b) शाहजहाँ (Shahjahan)
(c) बाबर ( Babar)
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं (None of these)
(V) ‘हुमायूँनामा’ की रचना किसने की
Who wrote ‘Humayun Nama?
(a) बदायूँनी (Badayuni)
(b) अबुल फजल ( Abul Fazal)
(c) अहमद यादगार (Ahmad Yadgar)
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं (none of these)
(VI) किस वर्ष में डच भारत आये ?
In which year the Dutch landed in India?
(a) 1603
(b) 1605
(c) 1610
(d) 1615
(VII) ‘मित्र मेला’ का बाद का पुनर्नामकरण हुआ:
‘Mitra Mela’ was later renamed as:
(a) अनुशीलन समिति ( Anushilan Samiti)
(b) अभिनव भारत समिति (Abhinava Bharat Samiti)
(c) युगान्तर (Jugantar)
(d) निबन्धमाला (Nibandhmala)
(VIII) स्वराज पार्टी निम्नलिखित में से किस घटना के परिणामस्वरूप बनाई गयी ?
Swaraj party was an outcome of which of the following incidents ?
(a) चौरी चौरा (Chauri Chaura)
(b) भारत छोड़ो आन्दोलन (Quit India Movement)
(c) साईमन कमीशन का आगमन (Arrival of Simon Commission)
(d) बारदोली सत्याग्रह (Bardoli Satyagarha)
(IX) बंगम मांझी नेता था:
Bangam Manjhi was the leader of
(a) हरिबाबा आन्दोलन (Haribaba Movement)
(b) सत्यधरम (Satya Dharam)
(c) सफाहोर ( Sapha Hor)
(d) सरदार आन्दोलन (Sardar Movement)
(X) टाना भगत आन्दोलन की शुरुआत की :
Tana Bhagat Movement was started by
(a) जतरा उरांव (Jatra Oraon )
(b) शिबू उरांव (Sibu Oraon)
(c) ठेबले उरांव ( Theble Oraon)
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं (none of these)
किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दें (Answer any two questions)
Section – A
2. चोल शासकों की स्थानीय शासन प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
Describe the main features of the local administration of Chola rulers.
Section – B
3. मुहम्मद बिन तुगलक की सांकेतिक मुद्रा नीति का आलोचनात्मक परीक्षण करें।
Critically examine the policy of token currency of Muhammad Bin Tughlaq.
Section – C
4. बांग्लादेश मुक्ति आन्दोलन में भारत की भूमिका का आलोचनात्मक परीक्षण करें।
Critically examine the role of India in the Liberation Movement of Bangladesh.
Section – D
5. बिरसा आन्दोलन किस हद तक सरदार आन्दोलन से प्रभावित था ? बिरसा आन्दोलन के प्रभावों की विवेचना करें।
To what extent Birsa movement was influenced by Sardar Movement? Discuss the effects of Birsa Movement.
 भूगोल (Geography)
1. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Questions ) : 
(A) किसने सर्वप्रथम यह स्थापित किया कि सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं ?
Who first established that all the planets revolve round the sun ?
(a) निकोलस कोपरनिकस (Nicholas Copernicus)
(b) जे. केपलर (J. kepler)
(c) सी. गेलिलियो (C. Galileo)
(d) डी. इमेनुअल कान्ट (D. Immanuel Kant)
(B) आर्द्रता परिणाम है: (Humidity is the results of)
(a) वाष्पीकरण का (Evaporation)
(b) वाष्पोत्सर्जन का (Transpiration)
(c) उष्मा की उपस्थिति का (Presence of heat)
(d) हवा में नमी की उपस्थिति का (Presence of moisture in the air)
(C) निम्नलिखित में से कौन सी स्थलाकृति कार्स्ट प्रदेश में पायी जाती है?
Which of the following landforms is found in Karst region ?
(a) पॉट होल (Pot hole)
(b) सिंक होल (Sink hole)
(c) ब्लो होल (Blow hole)
(d) प्लाया (Playa)
(D) भारत में उष्ण कटिबंधीय वर्षावन की उपस्थिति है : (Tropical rainforest in India is found in)
(a) आसाम और नागालैण्ड में (Assam and Nagaland)
(b) उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में (Odisha and Chattisgarh)
(c) उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में (Uttar Pradesh and Maharashtra)
(d) आसाम और केरल में (Assam and Kerala)
(E) निम्नलिखित खनिजों में से भारत किस खनिज का विश्व का सर्वाधिक भण्डारक है?
In which of the following minerals, India has the largest deposit in the world?
(a) लौह अयस्क (Irone Ore)
(b) कोयला (Coal)
(c) कायनाइट (Kyanite)
(d) मैंगनीज (Manganese)
(F) भारत में लेटेराइट मृदा का सर्वाधिक जमाव किस राज्य में है ?
Laterite production in India is highest in
(a) जम्मू और कश्मीर (Jammu & Kashmir)
(b) आन्ध्र प्रदेश (Andhra Pradesh)
(c) झारखण्ड (Jharkhand)
(d) राजस्थान (Rajasthan)
(G) भारत में कौन – सा जनगणना वर्ष ‘वृहत विभाजक’ या ‘जनांकिकीय विभाजक’ के नाम से जाना जाता है ?
Which census year is known as ‘Big Divide’ or ‘Demographic Divide’ in India?
(a) 1911
(b) 1921
(c) 1931
(d) 1941
(H) ‘टोडा’ जनजाति मुख्यतः निवास करती है: (‘Toda’ tribes mostly reside in)
(a) आसाम में (Assam)
(b) जम्मू-कश्मीर में (Jammu and Kashmir)
(c) तमिलनाडु में (Tamil Nadu)
(d) राजस्थान में (Rajasthan)
(I) झारखण्ड का सबसे ऊंचा जलप्रपात है ? (The highest waterfall in Jharkhand is)
(a) जोन्हा (Jonha)
(b) हुण्डरू ( Hundru)
(c) दसम (Dasam)
(d) बूढ़ाघाघ (Burhaghagh)
(J) झारखण्ड में काली मिट्टी कहां पायी जाती है? (Where black soil is found in Jharkhand
(a) दामोदर घाटी प्रदेश (Damodar valley region)
(b) स्वर्णरेखा नदी घाटी प्रदेश (Subarnrekha river valley
(c) राजमहल पहाड़ी प्रदेश (Rajmahal hill region)
(d) पलामू प्रदेश (Palamu region)
> किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दें (Answer any two questions)
2. पृथ्वी की आंतरिक संरचना पर भूकम्प विज्ञान किस प्रकार प्रकाश डालता है? व्याख्या कीजिए ।
Discuss how seismology throws light on the constitution of the interior of the earth.
3. वर्तमान समय में भारत का चीनी उद्योग उत्तर से दक्षिण की ओर स्थानांतरित हो रहा है, व्याख्या कीजिए ।
In recent time sugar industry in India is shifting from North to South, explain.
4. स्वतंत्रता के पश्चात् भारत के तीव्र नगरीकरण का सकारण विवरण प्रस्तुत कीजिए |
Account for the rapid urbanisation of India after independence.
5. झारखण्ड में ग्रामीण अधिवास के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
Explain the rural settlement types in Jharkhand.

> प्रश्नोत्तर एवं उत्तर व्याख्या

इतिहास ( HISROTY )

उत्तर 1 : वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर
I. (d) : अजातशत्रु ने मगध साम्राज्य में वज्जि गणसंघ को हराकर- आत्मसात किया था। मगध के पड़ोस में स्थित वज्जि संघ आठ कुलों का एक संघ था। इसमें विदेह, लिच्छवि ज्ञात्रिक एवं वज्जि महत्वपूर्ण थे । वज्जि संघ की राजधानी विदेह एवं मिथिला थी। लिच्छवियों की राजधानी वैशाली थी, जो अपने समय का एक महत्वपूर्ण नगर था। कालान्तर में आपसी वैमनस्य के कारण लिच्छवियों की एकता एवं अजेयता नष्ट हो गई। अजातशत्रु ने वैशाली पर अधिकार कर इसे मगध साम्राज्य का अंग बना लिया। II. (c) :हड़प्पा रावी नदी के बायें तट पर अवस्थित था। यह पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित माण्टगोमरी (वर्तमान शहिवाल) जिले में है। हड़प्पा में ध्वंसावशेषों के विषय में सबसे पहली जानकारी 1826 ई. में चार्ल्स मैन्सर्न ने दी। 1856 में व्रण्टन बन्धुओं ने हड़प्पा के पुरातात्विक महत्व को स्पष्ट किया। जॉन मार्शल के निर्देशन में 1921 ई. में दयाराम साहनी ने इस स्थल का उत्खनन कार्य आरंभ करवाया।
III.(b) : महमूद गजनवी के भारत पर 16वें हमले 1024 ई. के बाद सोमनाथ मंदिर का पुर्ननिर्माण गुजरात के राजा भीमदेव और मालवा के राजा भोज ने करवाया। 1093 में सिद्धराज जयसिंह ने भी मंदिर निर्माण में सहयोग किया। 1168 में विज्येश्वर कुमारपाल और सौराष्ट्र के राजा खंगार ने भी सोमनाथ मंदिर के सौंदर्यीकरण में योगदान किया था।
IV. (c) : मुगल शासक बाबर ने भारत में ओटोमन- तुर्की युद्ध पद्धति को पानीपत के प्रथम युद्ध (20 अप्रैल, 1526 ई.) में अपनाया था। इस युद्ध में बाबर ने पहली बार प्रसिद्ध ‘तुलुगमा युद्ध’ नीति का प्रयोग किया। इस युद्ध में बाबर ने तोपों को सजाने में उस्मानी विधि (रूमी विधि) का प्रयोग किया था। बाबर ने तुलुगमा युद्ध पद्धति उजबेगों से ग्रहण किया था। यह युद्ध दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी (अफगान) एवं बाबर के बीच लड़ा गया था।
V. (d) : दो भागों में विभाजित यह पुस्तक ‘गुलबदन बेगम द्वारा लिखी गयी थी। इसके एक भाग में बाबर का इतिहास तथा दूसरे भाग में हुमायूं के इतिहास का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त इस पुस्तक में तत्कालीन सामाजिक स्थिति पर भी प्रकाश पड़ता है।
VI.(*) : भारत में ‘संयुक्त डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1602 ई. में की गई। डच हालैण्ड के निवासी थे। दक्षिण-पूर्व एशिया के मसाला बाजार में सीधा प्रवेश प्राप्त करना ही डचों का महत्वपूर्ण उद्देश्य था। डचों ने भारत में अपना पहला कारखाना 1605 ई. में मछलीपट्टम में खोला। मछलीपट्टम से डच लोग नील का निर्यात करते थे।
VII.(b): विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) ने 1899 ई. में 16 वर्ष की अवस्था में ही अपने मित्रों के सहयोग से ‘मित्र मेला’ नामक संस्था की स्थापना की थी। 1904 ई. में इस संगठन का नाम अभिवन भारत समिति सभा (न्यू इंडिया सोसाइटी) रखा गया। दामोदर सावरकर 1906 में लंदन में अध्ययन के दौरान ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ का संचालन करने लगे।
VIII.(*):स्वराज पार्टी की स्थापना गांधीजी के असहयोग आंदोलन (1920-22 ई.) की असफलता के परिणामस्वरूप 1 जनवरी, 1923 को की गई। परिवर्तनवादियों (चितरंजन दास एवं मोतीलाल नेहरू) ने विट्ठलभाई पटेल, मदन मोहन मालवीय और जयकर के साथ मिलकर इलाहाबाद में कांग्रेस के खिलाफ, स्वराज पार्टी की स्थापना की। इसके अध्यक्ष चितरंजन दास और सचिव मोतीलाल नेहरू बनाये गये।
IX.(c): सन् 1930 ई. में गुमई (बोकारो) के बोरोबेरा गांव के बंगम मांझी के नेतृत्व में धरम सुधार आंदोलन चला। पुनर्जागरण- आन्दोलन का ही अगला चरण सफाहोर आन्दोलन माना जाता है।
X.(a) : टाना भगत आंदोलन की शुरुआत 1914 ई. में जतरा उरांव के नेतृत्व में एक धार्मिकपंथ के रूप में हुआ था, जिसने एकेश्वरवाद, मांस-मदिरा एवं आदिवासी नृत्य पर पाबंदी और झूम खेती की वापसी की वकालत की। इस आंदोलन का मुख्य क्षेत्र घाघरा, किशुनपुर, चैनपुर, रायडीह, सिसई, कुडू, मांडर आदि थे।
प्रश्न 2: चोल शासकों की स्थानीय शासन प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर : चोल प्रशासन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद राजा का होता था। चोलकालीन शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। राजा का पद
‘वंशानुगाता” व्यवस्था पर आधारित था। राजा के लिए एक ‘ मंत्रिपरिषद’ की व्यवस्था थी। राजकीय आदेशों का क्रियान्वयन ‘ओलै’ नाम के अतिविशिष्ट अधिकारी किया करते थे। राजा के प्रधान सचिव को * औलनायकम’ कहा जाता था। चोल प्रशासन में भाग लेने वाले उच्च पदाधिकारियों को “पेरुन्दनम् एवं निम्न श्रेणी के पदाधिकारियों को “शोरुन्दनम्” कहा जाता था। इस समय अधिकारियों के वेतन का भुगतान नकद रूप में न करके भूमि के रूप में किया जाता था। “विडैयाधिकारिन’ नाम का अधिकारी कार्य प्रेषक किरानी के रूप में कार्य करता था। राज्य के उच्च अधिकारियों (मंत्रियों) को “उडनकुट्टमम’ कहा जाता था।
प्रशासकीय इकाइयां- प्रशासन की सुविधा हेतु सम्पूर्ण चोल साम्राज्य 6 प्रान्तों में विभक्त था। प्रान्तों को ‘मण्डलम्’ कहा जाता था। प्रायः राजकुमारों को यहां का प्रशासन देखना पड़ता था। मण्डलम् को क्रोट्टम (कमिश्नरी) में, कोट्टम को नाडु (जिले) में एवं प्रत्येक नाडु को कई कुर्रमों (ग्राम समूह) में विभक्त किया गया था। बड़े-बड़े शहर या गांव स्वयं एक अलग कुर्रम बन जाते थे और तानियूर या तंकुरम कहलाते थे। मण्डलम् से लेकर ग्राम स्तर तक के प्रशासन हेतु स्थानीय सभाओं का सहयोग लिया जाता था। ‘नाडु’ की स्थानीय सभा को ‘नाटूर’ एवं नगर की स्थानीय सभा को निगरत्तार’ कहा जाता था। इसी प्रकार व्यवसायियों एवं शिल्पियों की सभाओं को क्रमश: ‘श्रेणी’ और ‘पूग’ कहा जाता था। चोल सम्राट परान्तक के शासन के 12वें एवं 14वें वर्ष के प्रसिद्ध उत्तरमेरूर अभिलेखों में चोल कालीन स्थानीय स्वशासन एवं ग्राम प्रशासन व्यवस्था का साक्ष्य मिलता है।
स्थानीय स्वशासन चोल शासन प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषता थी। स्थानीय स्वशासन में ‘उर’ तथा ‘सभा’ व महासभा के सदस्य वयस्क होते थे। उर सर्वसाधारण लोगों की समिति थी जिसका कार्य होता था – सार्वजनिक कल्याण के लिए तालाबों व बागीचों के निर्माण हेतु गांव की भूमि अधिग्रहण करना।
सभा या ग्राम सभा- यह मूलतः अग्रहारों व ब्राह्मण बस्तियों की संस्था थी। इसके सदस्यों को ‘पेरुमक्कल’ कहा जाता था। यह सभा ‘वारियम’ नाम की समितियों द्वारा अपने कार्य को संचालित करती थी। वारियम (कार्यकारिणी समिति) की सदस्यता हेतु 35 से 70 वर्ष के बीच के व्यक्तियों को अवसर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त वह कम से कम डेढ़ एकड़ भूमि का मालिक एवं वैदिक मंत्रों का ज्ञाता हो। इन अर्हताओं को पूरा करके चुने गये 30 सदस्यों में से 12 ज्ञानी व्यक्तियों को वार्षिक समिति ‘संम्वत्सर वारियम्’ के लिए चुना जाता था और शेष बचे 18 सदस्यों में 12 को उद्यान समिति के लिए एवं 6 को तड़ाग समिति के लिए चुना जाता था।
सभा की बैठक गांव में मन्दिर के वृक्ष के नीचे एवं तालाब के किनारे होती थी। महासभा को ‘पुरुगर्रि’, इसके सदस्यों को ‘पुरुमक्क्ल’ एवं समिति के सदस्यों को ‘वारियप्पेरुमक्कल’ कहा जाता था। व्यापारियों की सभा को ‘नगरम्’ कहा जाता था। नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे, जैसे- मणिग्राम, वलंजीयर आदि । चोल काल के ‘उर’ का रूप लघुगणतंत्र जैसा था। इस समय सार्वजनिक भूमि महासभा के अधिकार क्षेत्र में होती थी। महासभा ग्रामवासियों पर कर लगाने, उसे वसूलने एवं बेगार लेने का भी अधिकार अपने पास रखती थी। सभा या महासभा वर्ष में एक बार केन्द्रीय सरकार को कर देती थी । केन्द्र सरकार असमान्य स्थितियों में ही ग्रामसभा के स्वायत्त शासन में हस्तक्षेप करती थी।
सभा की बैठक सामान्यतः गांव के मंदिर या मंडप में होती थी। कभी-कभी इसकी बैठक गांव से बाहर तालाब के किनारे या पेड़ के नीचे भी होती थी । सामान्यतः सभा की बैठकों की सूचना नगाड़ा पीटकर या बिगुल बजाकर दी जाती थी।
नगरम् तथा नाडु : उर और सभा जहां संबद्ध स्थानीय प्रशासनिक इकाइयां थीं वही चोल अभिलेखों नगरम् तथा नाडु का भी उल्लेख मिलता है। नगरम् मूलतः व्यापारियों की सभा थी। महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्रों में नगरम् का गठन स्थानीय सभा के रूप में होता था। नाडु एक प्रशासनिक इकाई थी जो मुख्यतः भू-राजस्व व्यवस्था से संबद्ध थी। इसमें क्षेत्र विशेष के सभी ग्रामों एवं नगरों की सभाओं के प्रतिनिधियों को स्थान दिया गया था। नगरम् और नाडु के गठन के संबंध में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। कुछ विद्वानों के अनुसार इनका स्वरूप पौर- जनपद के समान था। नाडु धार्मिक अनुदान भी देती थी तथा अनुदान में मिली भूमि की व्यवस्था भी देखती थी।
स्थानीय संस्थाओं की सामान्य कार्यप्रणाली : चोलकालीन स्थानीय स्वायत्त प्रशासनिक इकाइयां सामान्यतः एक कार्यप्रणाली का पालन करती थीं। सभी सदस्यों के लिए स्थानीय संस्थाओं की बैठकों में उपस्थित रहना वांछनीय था। सभा की बैठक में ‘कोरम’ का होना आवश्यक नहीं था । बैठकों में आवश्यक और महत्वपूर्ण विषयों पर विचार-विमर्श किए जाते थे। सर्वसम्मति से किसी निर्णय पर पहुंचने का प्रयास होता था। विवादास्पद अथवा सामान्य मामलों में भी मतदान की व्यवस्था नहीं थी।
कभी-कभी सभा के गतिरोध उत्पन्न करने की चेष्टा को रोकने के लिये नियम बनाए जाते थे । सामान्यतः स्थानीय संस्थाओं की सभाएं सार्वजनिक और सामान्य हित के मामलों में सहयोग और सहमति का रुख अपनाती थीं। उदाहरणस्वरूप, परांतक प्रथम के शासनकाल में दो गांवों की सभाओं ने एक साथ मिलकर काम करने का निर्णय लिया। चोलों के अधीन विभिन्न समूह, उर, सभा, नगरम्, नाडु स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था करते थे। इन संस्थाओं के माध्यम से क्षेत्र विशेष के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अभिरुचि एवं योग्यता के अनुसार स्थानीय प्रशासन में सहभागी होने का अवसर प्राप्त होता था।
चोलों के स्थानीय प्रशासन की सबसे प्रमुख विशेषता थी ग्रामों को पर्याप्त प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान करना । इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि ग्रामसभा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कर लगाने तथा कर से मुक्ति देने का अधिकार भी रखती थी। इस प्रकार के साक्ष्य अनेक अभिलेखों से मिलते हैं। एक अभिलेख के अनुसार चोल राजा राजकेसरी के द्वितीय राजवर्ष में नलुर की ग्रामसभा ने स्थानीय दुकानों से प्राप्त होने वाली आय को, कर्ज के सूद के बदले में, स्थानीय मंदिर को स्थायी तौर पर देने की व्यवस्था की। इसी प्रकार कुमार – मतंडपुरम् के नगरत्तार ने स्थानीय आमदनी से प्राप्त होनेवाली वार्षिक राशि को एक जैन धर्मस्थल की देख-रेख के लिए देने का निश्चय किया। स्थानीय संस्थाओं की आम सभाएं सुचारू रूप से कार्यों के सम्पादन के लिए छोटी समितियां नियुक्त करती थीं। इनके सदस्यों को वेतन नहीं मिलता था। प्रत्येक सभा में वेतनभोगी कर्मचारियों का एक छोटा समूह रहता था जो कार्यसमिति की सहायता करता था। इन्हें मध्यस्थ कहा जाता था। समितियों और स्थानीय सभाओं को अनेक महत्वपूर्ण कार्य सौंपे गए थे। गांव में दिए गए सभी धार्मिक अनुदानों का प्रबंध ग्रामसभा ही करती थी। सभा मंदिरों में रामायण, महाभारत, पुराण और अन्य धर्मग्रंथों का पाठ करने वालों के लिए राजस्व – मुक्त भुमिदान में देती थी। इसी प्रकार गांव की सार्वजनिक भूमि से होने वाली आय को मंदिरों को दिए जाने की व्यवस्था थी जिससे मंदिरों में नृत्य-गान तथा अभिनय को प्रोत्साहन दिया जा सके। मंदिरों को शिक्षा के प्रचार तथा अस्पतालों की व्यवस्था के लिए भी भूमि अनुदान दिया जाता था। गांवों में जमीन संबंधी अधिकारों की सुरक्षा करना, सिंचाई की व्यवस्था करना, सार्वजनिक हित कार्य करना, कानून-व्यवस्था बनाए रखना तथा मुकदमों का फैसला करना भी सभा का काम था। इसी प्रकार के कार्य अन्य स्थानीय संस्थाएं भी करती थीं। वस्तुतः दक्षिण भारतीय इतिहास और विशेषकर चोल इतिहास में स्थानीय स्वायत्तशासी प्रशासनिक इकाइयों का महत्वपूर्ण योगदान था।
प्रश्न 3: मुहम्मद बिन तुगलक की सांकेतिक मुद्रा नीति का आलोचनात्मक परीक्षण करें।
उत्तर : मुहम्मद बिन तुगलक दिल्ली के सभी सुल्तानों में सर्वाधि क कुशाग्र बुद्धि सम्पन्न, धर्मनिरपेक्ष, कलाप्रेमी एवं अनुभवी सेनापति था । वह अरबी एवं फारसी का विद्वान तथा खगोलशास्त्र, दर्शन, गणित, चिकित्सा विज्ञान, तर्कशास्त्र आदि में पारंगत था । अलाउद्दीन की भांति अपने शासन काल के प्रारंभ में उसने न तो खलीफा से अपने पद की स्वीकृति ली और न उलेमा वर्ग का सहयोग लिया, यद्यपि बाद में उसे ऐसा करना पड़ा। न्याय विभाग पर उलेमा वर्ग का एकाधिपत्य समाप्त किया। काजी के जिस फैसले से
वह संतुष्ट नहीं होता था उसे बदल देता था। सर्वप्रथम मुहम्मद तुगलक ने ही बिना किसी भेदभाव के योग्यता के आधार पर पदों का आवंटन किया। नस्ल और वर्ग – विभेद को समाप्त करके योग्यता के आधार पर अधिकारियों को नियुक्त करने की नीति अपनायी। वस्तुतः यह उस शासक का दुर्भाग्य था कि उसकी योजनाएं सफलतापूर्वक क्रियान्वित नहीं हुई जिसके कारण वह इतिहासकारों की आलोचना का पात्र बना।
मुहम्मद तुगलक के सिंहासन पर बैठते समय दिल्ली सल्तनत कुल 23 प्रांतों में बंटी थी जिनमें मुख्य थे – दिल्ली, देवगिरि, लाहौर, मुल्तान, सरसुती, गुजरात, अवध, कन्नौज, लखनौती, बिहार, मालवा, जाजनगर (उड़ीसा), द्वारसमुद्र आदि। कश्मीर एवं बलूचिस्तान दिल्ली सल्तनत में शामिल नहीं थे। दिल्ली सल्तनत की सीमा का सर्वाधिक विस्तार इसी के शासनकाल में हुआ था। परन्तु इसकी क्रूर नीति के कारण राज्य में विद्रोह आरंभ हो गया जिसके फलस्वरूप दक्षिण में नए स्वतंत्र राज्य की स्थापना हुई और ये क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से अलग हो गए। बंगाल भी स्वतंत्र हो गया। राज्यारोहण के बाद मुहम्मद तुगलक ने कुछ नवीन योजनाओं का निर्माण कर उन्हें क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया जैसे- 1. दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.), 2. राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.), 3. सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.), खुरासान एवं कराचिल का अभियान आदि ।
सांकेतिक मुद्रा ( तांबे या पीतल के सिक्कों) का चलन (1329-30 ई.) : मुहम्मद तुगलक ने अपने समय में विभिन्न प्रकार के सुन्दर सिक्के चलाये और उन सभी का उचित मूल्य निश्चित किया परन्तु सांकेतिक मुद्रा का चलन उसकी एक विशिष्टता रही। बरनी के कथनानुसार खजाने में धन की कमी और साम्राज्य विस्तार की नीति को कार्य रूप में परिणत करने की वजह से मुहम्मद तुगलक को सांकेतिक मुद्रा चलानी पड़ी। ईरान में सांकेतिक मुद्रा चलाई गयी थी यद्यपि वहां यह प्रयोग असफल हुआ था। परन्तु चीन में सांकेतिक मुद्रा का प्रयोग सफलतापूवर्क किया गया था। सम्भवतया नवीन अन्वेषणों का प्रयोग करने वाले मुहम्मद तुगलक ने उन देशों से प्रेरणा प्राप्त की। आधुनिक इतिहासकारों का यह भी कहना है कि उसके समय में सम्पूर्ण विश्व में चांदी की कमी हो गयी थी और भारत में तो बहुत ही कमी थी। इस कारण उसने सांकेतिक मुद्रा चलायी।
बरनी के मतानुसार, सुल्तान ने तांबे के सिक्के चलाये और फरिश्ता के अनुसार, ये सिक्के पीतल के थे । सम्भवतया, दोनों ही धातुओं के सिक्के चलाये गये थे। सुल्तान ने उनका मूल्य चांदी के ‘टंका’ के बराबर कर दिया। पहले तांबे के सिक्के को ‘जीतल’ (पैसा) पुकारते थे, अब ‘टंक (रुपया) भी तांबे अथवा पीतल का होने लगा।
परन्तु सुल्तान की यह योजना असफल हुई। डॉ. मेंहदी हुसैन के अनुसार, “यह योजना पूर्णतया उपयुक्त और कूटनीतिक थी। परन्तु व्यावहारिक रूप में उसने वे सब सावधानियां नहीं बरतीं जो ऐसे प्रयोग के लिए आवश्यक थीं।” प्रो. मुहम्मद हबीब के अनुसार इस योजना की असफलता का दोष नागरिकों पर था जिन्होंने उन नवीन सिक्कों की धातु को परखने का उसी प्रकार प्रयत्न नहीं किया जिस प्रकार वे चांदी और सोने के सिक्कों को परखते थे और इसके फलस्वरूप वे असली और नकली सिक्कों में अन्तर न कर सके। परन्तु अन्य इतिहासकार इसका मूल दोष मुहम्मद तुगलक को देते हैं। उनके अनुसार, सुल्तान की यह भूल थी कि उसने ये सिक्के ऐसे नहीं बनवाये जिनकी नकल करना संभव न होता। वास्तव में इस असफलता का दायित्व दोनों पर था। सुल्तान ने उन सिक्कों की नकल न किये जाने की व्यवस्था नहीं की और नागरिकों ने इसका लाभ उठाकर नकली सिक्के बनाने आरंभ कर दिये। बरनी के अनुसार, “प्रत्येक हिन्दू का घर टकसाल बन गया।” परन्तु हिन्दू ही क्यों, मुसलमान भी इस लोभ से वंचित नहीं रहे होंगे और जो भी नकली सिक्के बना सकता था, उसने उन्हें बनाया। प्रजा ने पीतल और तांबे के सिक्कों में कर और लगान दिया तथा अपने घरों में चांदी व सोने के सिक्के एकत्र करना आरंभ कर दिया। व्यापार में भी व्यक्ति चांदी और सोने के सिक्कं लेना चाहते थे तथा तांबे और पीतल के सिक्के देना चाहते थे। इससे व्यापार और मुख्यतया विदेशी व्यापार नष्ट होने लगा।
ये सिक्के अधिक से अधिक तीन या चार वर्ष चले। सुल्तान ने इस योजना की असफलता को देखकर सरकारी टकसाल द्वारा जारी की गयी सभी सांकेतिक मुद्रा को वापस ले लिया और व्यक्तियों को उनके बदले में चांदी और सोने के सिक्के दे दिये। यह सुल्तान की बहुत बड़ी उदारता थी। सरकारी टकसालों के सम्मुख तांबे और पीतल के सिक्कों के ढेर लग गये। सुल्तान ने जाली सिक्कों के अतिरिक्त सभी सिक्कं बदलवा दिये। इससे राज्य की आर्थिक क्षमता दुर्बल हुई।
इस प्रकार मुहम्मद तुगलक अपनी सभी योजनाओं में असफल रहा। यह कहा जा सकता है कि उसके सुधार समय से आगे थे, उसकी प्रजा और उसके अधिकारी उन योजनाओं को न तो समझ सके और न ही उन्होंने उसके साथ सहयोग किया। परन्तु इतना कहने से उसकी योजनाओं की असफलता के मुख्य कारणों पर प्रकाश नहीं पड़ता। सुल्तान की योजनाओं की असफलता बहुत कुछ स्वयं उसके कारण थी। सुल्तान में कल्पना-बुद्धि तो थी परन्तु व्यावहारिकता की कमी थी। वह नवीन योजनाएं तो बना सकता था और वे सम्भवतया सिद्धांत के आधार पर ठीक भी होती थीं परन्तु उन्हें कार्य रूप में परिणत करने की जो आवश्यकताएं थीं उनकी पूर्ति सुल्तान नहीं कर पाता था। वह बहुत उग्र और असंयमी था। तनिक-सी असफलता उसे क्रुद्ध कर देती थी और शीघ्र सफलता न मिलने पर वह अपनी योजनाओं को त्याग देता था। उसे अपने नागरिकों और अधिकारियों की योग्यता एवं क्षमता से लाभ उठाना तथा उनका सहयोग प्राप्त करना नहीं आता था। उसमें एक सुल्तान की दृष्टि से परिस्थितियों और व्यक्तियों के चरित्र को परखने की योग्यता का अभाव था। इस प्रकार उसमें एक व्यक्ति समूह का नेता होने के गुण का अभाव था। मुहम्मद तुगलक की असफलताओं के मुख्य कारण यही थे। इस कारण स्वयं सुल्तान और उसके चरित्र के अभाव ही उसकी और उसकी योजनाओं की असफलता का कारण बने।
प्रश्न 4: बांग्लादेश मुक्ति आन्दोलन में भारत की भूमिका का आलोचनात्मक परीक्षण करें।
उत्तर : 1971 के आम चुनाव के तुरंत बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में एक बहुत बड़ा राजनीतिक सैनिक संकट खड़ा हो गया। भारत अनिवार्यतया इस मुकाबले में खींच लिया गया जिसके परिणामस्वरूप भारत और पाकिस्तान के बीच खूनी युद्ध हुआ।
पाकिस्तान का निर्माण इस विचारधारात्मक सिद्धांत के आधार पर किया गया था कि अपने धार्मिक विश्वास के कारण भारत के मुसलमान एक अलग कौम हैं। परंतु पंजाबी भाषी पश्चिमी पाकिस्तान और बांग्ला भाषी पूर्वी पाकिस्तान को साथ बांधे रखने के लिए धर्म ही काफी नहीं था। पश्चिमी पाकिस्तान के राजनीतिक और आर्थिक अभिजातां ने शीघ्र ही पाकिस्तान के सैनिक प्रशासनिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थानों पर अपना प्रभुत्व जमा लिया जिसके परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान के खिलाफ आर्थिक और राजनीतिक भेदभाव पनपने लगे। इसके अलावा राजनीतिक जनवाद के अभाव में बंगालियों के पास ऐसा कोई साधन मौजूद नहीं था जिससे वे इस परिस्थिति में सुधार ला सकें। परिणामस्वरूप गुजरते समय के साथ पूर्वी पाकिस्तान के लोग पाकिस्तान में जनवाद तथा पूर्वी पाकिस्तान के लिए अधिक स्वायत्ता की मांग के लिए एक शक्तिशाली आंदोलन विकसित करने लगे। इस आंदोलन के साथ समझौता करने के बदले पाकिस्तान के शासक वर्ग ने इसे कुचलने का फैसला किया जिसने अंततः इस आंदोलन को पाकिस्तान से आजादी के आंदोलन में बदल दिया।
दिसम्बर, 1970 में पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल याह्या खान ने स्वतंत्र चुनाव करवाए जिसमें बंगाल की अवामी पार्टी को शंख मुजीबुर रहमान के लोकप्रिय नेतृत्व के तहत पूर्वी बंगाल को 99 प्रतिशत से अधिक सीटें प्राप्त हुई और पाकिस्तान के नेशनल एसेंबली में संपूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया। परंतु सेना और याह्या खान ने पश्चिमी पाकिस्तान के एक अग्रणी नेता जुल्फीकार अली भुट्टो को अपना समर्थन दिया और अवामी पार्टी को सरकार बनाने देने से इनकार कर दिया। शेख मुजीबुर रहमान ने जब संसदीय प्रावधानों को लागू करने के लिए एक सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया तो 25 मार्च, 1971 को अचानक एक चाल चलते हुए याह्या खान ने पूर्वी पाकिस्तान पर सैनिक कार्रवाई का आदेश दिया।
पाकिस्तानी सेना ने बर्बरता पूर्ण रवैया अपनाया खासतौर पर पूर्वी पाकिस्तान में बचे हुए हिन्दुओं के खिलाफ जिनके सामने लगभग संपूर्ण नरसंहार का खतरा मौजूद था। परंतु इन हिन्दुओं के अलावा बड़ी संख्या में मुसलमानों, ईसाइयों और बौद्धों को अपना घर छोड़कर पश्चिम बंगाल, असम और मेघालय में शरण लेने के लिए बाध्य कर दिया गया। नवम्बर, 1971 तक पूर्वी बंगाल से आए शरणार्थियों की संख्या एक करोड़ तक पहुंच चुकी थी। पूर्वी बंगाल से आए लोगों के लिए भारत में सहानुभूति की एक लहर थी और पाकिस्तान के खिलाफ तुरंत कार्रवाई की मांग बढ़ती जा रही थी। हालांकि इंदिरा गांधी यह समझ रही थी कि पाकिस्तान के साथ युद्ध होना लाजमी है, परंतु वह जल्दबाजी में किसी भी कार्रवाई के खिलाफ थीं। इस पूरे संकट के दौरान वह न केवल अत्यधिक साहस, बल्कि भरपूर सावधानी सोच – विचार और ठंडे दिमाग से की गयी गणनाओं के आधार पर काम कर रही थी ताकि ऐसा प्रतीत न हो कि पूर्वी पाकिस्तान में स्वायत्तता के लिए चलाया जाने वाला सम्पूर्ण आंदोलन और उससे उपजा विद्रोह कोई जनविद्रोह नहीं, बल्कि एक भारतीय षड्यंत्र है। वह ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती थीं जिससे भारत के ऊपर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और तौर-तरीकों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया जा सके।
1971 की शुरुआत से ही भारतीय सेना एक द्रुत सैनिक कार्रवाई के लिए तैयारी कर रही थी, हालांकि यह अतिगोपनीय था, ताकि इसका इस्तेमाल तभी किया जा सके जब शरणार्थी समस्या का कोई शांतिपूर्ण समाधान न प्राप्त हो । इसके अलावा सैनिक कार्रवाई की गति अत्यधिक तीव्र होनी थी ताकि महाशक्तियों द्वारा इस संघर्ष के बीच-बचाव करने और युद्ध – विराम लागू करवाने की कोशिशों से पहले ही इसे खत्म कर दिया जा सके। युद्ध की स्थिति में अमेरिका और चीन द्वारा संभावित हस्तक्षेप के खिलाफ अपने को सुरक्षित करने के लिए 9 अगस्त को भारत ने शीघ्रतापूवर्क शांति, बंधुत्व और सहयोग के लिए भारत- सोवियत मैत्री संधि पर 20 साल की अवधि के लिए हस्ताक्षर किए। इस संधि में यह प्रावधान था कि किसी देश में सैनिक खतरे के उपस्थित होने पर तत्काल ही आपसी सलाह मशविरा तथा यथोचित जवाबी कार्रवाई करने के लिए सहयोग किया जाएगा। इस संधि का भारत की जनता ने बड़े पैमाने पर स्वागत किया और इसने उनके मनोबल को काफी बढ़ा दिया।
शुरू से ही इंदिरा गांधी यह मानकर चल रही थी कि बांग्लादेश के मुद्दे और शरणार्थियों की समस्या पर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध अवश्यंभावी है। इसके लिए वे पूरी तरह तैयार हो चुकी थीं। हालांकि भारतीय सेना पूरी तरह तैयार थी और दरअसल 4 दिसम्बर की तिथि बांग्लादेश की मुक्ति के लिए भारतीय सेना द्वारा सीधी कार्रवाई शुरू करने के लिए निर्धारित कर दी गयी थी, फिर भी श्रीमती गांधी पहले कदम उठाने से हिचक रहीं थीं। परन्तु इस समय याह्या खान ने बटन को पहले दबाते हुए उनका काम आसान कर दिया। वे भी पूरी तरह आश्वस्त थे कि युद्ध तो होना ही है। मुक्तिवाहिनी सेना द्वारा बढ़ते हुए गुरिल्ला युद्ध से परेशान तथा बांग्लादेश में भारतीय सेना के कदम से परेशान होकर याह्या खान ने पहले हमला कर फायदा उठाने का निश्चय किया। 3 दिसम्बर को पाकिस्तानी वायुसेना ने पश्चिमी भारत के आठ सैनिक हवाई अड्डों पर अचानक धावा बोल दिया। वे यह उम्मीद कर रहे थे कि इससे भारतीय वायुसेना को गंभीर क्षति पहुंचाई जा सकेगी और बांग्लादेश के मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीकरण करके संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप को सुनिश्चित किया जा सकेगा, परन्तु वे अपने दोनों ही उद्देश्यों में असफल रहे। भारतीय वायुसेना अपेक्षाकृत अक्षतिग्रस्त रह गयी क्योंकि पाकिस्तानी आक्रमण का पूर्वानुमान करते हुए भारतीय वायुसेना पहले ही अंदरूनी हवाई अड्डों में सुरक्षित पीछे हट चुकी थी।
भारत ने तुरन्त बांग्लादेश को मान्यता प्रदान की और करारा सैनिक जवाब दिया। भारत की रणनीति यह थी कि पाकिस्तानी सेना को मजबूत सुरक्षात्मक कार्रवाइयों के सहारे पश्चिम सेक्टर में उलझाए रखा जाए और पूर्व में एक संक्षिप्त द्रुतगति के निर्णायक युद्ध द्वारा पाकिस्तानी सेना को आत्मसर्मपण करने को मजबूर कर दिया जाए।
जनरल जे.ए. अरोड़ा के विलक्षण नेतृत्व में भारतीय सेना मुक्तिवाहिनी के साथ मिलकर वास्तव में पूरे पूर्वी बंगाल को दौड़ते हुए पार कर गयी और इसकी राजधानी, ढाका में मात्र 11 दिनों में पहुंचकर पाकिस्तानी छावनी को घेर लिया। हेनरी किसिंजर के शब्दों में, जो उस समय अमरीका के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट थे, चूंकि राष्ट्रपति निक्सन ‘पाकिस्तान को हारने नहीं देना चाहते थे’, इसलिए अमेरिकी सरकार ने हस्तक्षेप करने की कोशिश की। भारत को आक्रमणकारी घोषित किया और सभी आर्थिक मदद बंद कर दी। परन्तु संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इसके द्वारा युद्ध – विराम तथा आपसी सैनिक वापसी संबंधित दो प्रस्ताव सोवियत संघ द्वारा वीटो कर दिया गया और उसमें ब्रिटेन और फ्रांस ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। चीन की तरफ से भी खतरा सामने नहीं आया और उसने सिर्फ टु मौखिक भर्त्सना तक ही अपने हस्तक्षेप को सीमित रखा । कमोबेश हताशा और 19वीं सदी की युद्ध बेड़ों पर आधारित राजनीति की तर्ज पर निक्सन ने अमरीका के सातवें बेड़े को कूच करने का आदेश दिया, जिसका नेतृत्व परमाणु बम से लैस वायुयान वाहक यूएसएस एंटरप्राइज कर रहा था। 9 दिसम्बर को बंगाल की खाड़ी के लिए रवाना हुआ यह बेड़ा भारत पर दबाव डालने के उद्देश्य से चला था ताकि ढाका के पतन को कुछ दिनों के लिए टाला जा सके, परन्तु इंदिरा गांधी ने शांति-भाव से अमरीकी धमकी को नजरअंदाज कर दिया और इसके बदले भारतीय सेना के प्रमुख जनरल मॉनेक शॉ से कहा कि भारत की सैनिक योजना को और भी शीघ्रता से पूरा किया जाए । 13 दिसम्बर को भारतीय सेनाओं ने ढाका को चारों तरफ से घेर लिया और पराजित एवं पस्त हो चुके 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को 16 दिसम्बर के दिन आत्मसर्मपण करने के लिए मजबूर कर दिया।
17 दिसम्बर को ढाका के आत्मसमर्पण के ठीक बाद भारत सरकार ने पश्चिमी मोर्चे पर एक तरफा युद्ध-विराम की घोषणा कर दी। युद्ध का जारी रहना राजनयिक और सैनिक दोनों ही धरातलों पर जोखिम भरा हो सकता था। अमेरिका, चीन और संयुक्त राष्ट्र तब कहीं और अधिक सक्रिय होकर हस्तक्षेप करने की संभावना रखते थे। सोवियत संघ भी युद्ध को आगे बढ़ाने के पक्ष में नहीं था। पश्चिमी मोर्चे पर युद्ध सैनिकों और साज- समान की दृष्टि से भी कहीं अधिक महंगा साबित हो सकता था। जहां पूर्व में आम जनता ने भारतीय सैनिकों का अपने मुक्तिदाता के रूप में स्वागत किया था। वहीं पश्चिम में जनता और सुरक्षित बची सशस्त्र सेना अपने घरों और देश को बचाने के लिए दृढ़ता से लड़ाई कर सकती थी। इसके अलावा पश्चिमी हिस्से में संघर्ष को जारी रखना अपने आप में उद्देश्यहीन था क्योंकि पाकिस्तान का विखंडन अथवा इसके किसी हिस्से को जीतना भारतीय नीति का न तो उद्देश्य था और न ही यह हो सकता था।
पाकिस्तान ने तुरन्त युद्धविराम को सहज स्वीकार कर लिया और मुजीबुर्रहमान को रिहा कर दिया जो बांग्लादेश में 12 जनवरी, 1972 को सत्तारूढ़ हुए।
भारत को बांग्लादेश युद्ध से कई फायदे हुए । दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन बदल गया, जिसमें भारत एक सर्वोच्च शक्ति के रूप में उभरा। गंभीर शरणार्थी समस्या को सुलझा लिया गया और करीब 1 करोड़ शरणार्थियों को शीघ्रतापूवर्क बिना किसी रुकावट के उनके घरों में बांग्लादेश भेज दिया गया। इसने 1962 में मिली अपमानजनक पराजय की याद को धो दिया और भारत को खोया हुआ गौरव और आत्मसम्मान फिर से प्राप्त हो गया।
युद्ध समाप्त हो चुका था और – विराम लागू हो चुका था। परन्तु शांति नहीं आई थी। भारत के पास अब भी 90 हजार युद्ध-बंदी और पाकिस्तानी भू-भाग का करीब 9 हजार वर्ग किलोमीटर कब्जे में था। पाकिस्तान ने अभी तक बांग्लादेश को मान्यता नहीं दी थी। इंदिरा गांधी ने महसूस किया कि भारत और पाकिस्तान के बीच आपस में किया गया समझौता एक स्थायी शांति के लिए आवश्यक था। एक शत्रुतापूर्ण पाकिस्तान भारत पर न केवल हमेशा उच्च स्तर के रक्षा खर्च के लिए दबाव बनाए रखता, बल्कि उससे उपमहाद्वीप के मामले में बाहरी शक्तियों को हस्तक्षेप का मौका भी मिलता। इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो के बीच एक शिखर सम्मेलन जून, 1972 में शिमला में हुआ। बड़े पैमाने पर कठोर सौदेबाजी चलती रही और तब दोनों पक्षों में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसे शिमला समझौता के नाम से जाना जाता है। भारत पाकिस्तान से हथियाए गए इलाकों को वापस करने पर सहमत हो गया सिवाय कश्मीर के कुछ रणनीति की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों को छोड़कर, जो कारगिल के सेक्टर में थे। ये बिंदु श्रीनगर और लद्दाख में लेह के बीच सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सड़क – सम्पर्क की सुरक्षा के लिए आवश्यक था। बदले में पाकिस्तान कश्मीर में मौजूदा नियंत्रण रेखा का आदर करने के लिए सहमत हो गया और यह वादा किया कि वह इसे एक-तरफा तौर पर शक्ति प्रयोग या शक्ति प्रयोग की धमकी द्वारा बदलने की कोशिश नहीं करेगा। दोनों देश सभी आपसी विवादों को द्विपक्षीय बातचीत द्वारा बिना किसी बाहरी शक्ति अथवा संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता के आपस में सुलझाने को सहमत हुए। भारत पाकिस्तान के युद्धबंदियों की वापसी के लिए भी सहमत हो गया परन्तु यह बांग्लादेश – पाकिस्तान समझौते के तहत होना तय हुआ। यह अगले साल ही हो पाया जब पाकिस्तान ने अगस्त 1973 में बांग्लादेश को मान्यता प्रदान कर दी।
प्रश्न 5: बिरसा आन्दोलन किस हद तक सरदार आन्दोलन से प्रभावित था? बिरसा आन्दोलन के प्रभावों की विवेचना करें।
उत्तर : बिरसा आन्दोलन की पृष्ठभूमि : रेण्ट और बेगारी सम्बन्धी विवादों और मूलवासियों के अधिकारों की वापसी के लिए सरकार ने छोटानागपुर टेन्योर एक्ट बनाया, लेकिन उसे मुण्डा केन्द्रों के रूप में चिन्हित क्षेत्र के बहुत छोटे हिस्से में लागू किया गया था, जबकि पूरे झारखण्ड में उस तरह के विवाद गंभीर रूप लेते जा रहे थे। 1856 में मुण्डा समुदाय की ओर से भारत सरकार को एक प्रतिवेदन दिया गया जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि मुण्डा समुदाय के कुछ लोग इस देश के मूलवासी हैं। वे रेवेन्यू कानूनों के दायरे में नहीं आते, न ही उनके परम्परागत अधिकारों को किसी भी कानून से छीना जा सकता है। वैसे अंग्रेज अधिकारियों का मानना था कि इस प्रतिवेदन के पीछे वैसे कुछ मुण्डा नेताओं का हाथ था लोगों ने ईसाई धर्म को कबूल कर लिया था। उन लोगों ने यह अफवाह भी फैलाई कि कोर्ट से उन लोगों ने मुण्डा राज की पुनर्स्थापना के लिए डिग्री भी हासिल कर ली है। साथ ही पूरे मुण्डा क्षेत्र में उन लोगों ने कोर्ट के फैसले को लागू करवाने के लिए चन्दा वसूलने की कार्रवाई शुरू कर दी। हालांकि अंग्रेज अधिकारियों के अनुसार इस तरह के किसी फैसले का अस्तित्व नहीं था, लेकिन मुण्डा समुदाय के लोग इस बात पर शत-प्रतिशत विश्वास कर रहे थे कि -मुण्डा राज’ की वापसी होने वाली है और बहुत सारी कोशिशों के बावजूद अंग्रेज उनके इस विश्वास को नहीं तोड़ सके।
मुण्डा सरदारों द्वारा चन्दा वसूली जारी रही और साथ ही इस आन्दोलन का विरोध करने वालों के साथ मारपीट, उनके फसलों की लूट और कभी-कभी उनकी हत्या की घटनाएं भी होने लगीं। 1893 से 1895 के बीच अनेक सरदारों को लूटपाट और भयादोहन के आरोप में सजा दी गयी लेकिन यह अभियान थमा नहीं, दावानल की तरह इसका प्रभाव क्षेत्र निरन्तर बढ़ता गया। सिंहभूम का पोडाहाट, सम्पूर्ण मुण्डा केन्द्री तथा उरांव डोमीनेटेड सदर एवं गुमला सब डिविजन- सभी आन्दोलित हो उठे। उसी दौरान बिरसा मुण्डा का उदय हुआ जो बिरसा भगवान के रूप में आज भी आदिवासियों के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
बिरसा मुण्डा साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ युद्ध का उद्घोष और औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ सबसे पिछड़ी समझी जाने वाली आदिवासी जनता के निर्णायक संघर्ष के प्रतीक बन गये हैं। जिस वक्त राजनीति की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस अंग्रेजों की छत्रछाया में सीमित, आन्तरिक स्वशासन की मांग कर रही थी, उससे कई वर्ष पूर्व बिरसा मुण्डा अंग्रेजों से लड़े भी । महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने वर्षों बाद जिस सिविल नाफरमानी का अंग्रेजों के खिलाफ प्रयोग किया, उस सिविल नाफरमानी की उद्घोषणा उनके वर्षों पूर्व आदिवासी अस्मिता के प्रतीक बिरसा मुण्डा ने किया था। कांग्रेस की लड़ाई सिर्फ अंग्रेजों से थी, जबकि बिरसा मुण्डा को न सिर्फ अंग्रेजों से लड़ना पड़ा, बल्कि आन्तरिक औपनिवेशिक शासन का पोषण करने वाली उन ताकतों से भी जो आदिवासियों की अस्मिता और पहचान, उनकी विशिष्ट सामाजिक और शोषण मुक्त आर्थिक व्यवस्था को नष्ट करने पर तुले थे | बिरसा मुण्डा इस बात के ज्वलन्त उदाहरण बन गये कि इतिहास अपने अनुकूल व्यक्ति को पैदा कर लेता है।
अगस्त, 1895 में वन संबंधी बकाये की माफी के लिए चले आंदोलन का नेतृत्व बिरसा ने किया। उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से ब्रिटिश हुकूमत को आवेदन देने एवं अधिकारियों को समझाने-बुझाने का प्रयास किया किन्तु उसका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं आया। बाध्य होकर बिरसा ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत का करते हुए कहा कि सरकार खत्म हो गयी। अब जंगल-जमीन पर आदिवासियों का राज होगा । बिरसा के तीखे तेवर से बौखलाए प्रशासन ने 9 अगस्त, 1895 को चलकद में पहली बार उन्हें गिरफ्तार किया किन्तु पुलिस उन्हें अपने साथ ले जाने में नाकामयाब रही। इनके अनुयाइयों ने उन्हें मौके पर ही पुलिस से छुड़ा लिया। 24 अगस्त, 1895 को पुलिस अधीक्षक मेयर्स के नेतृत्व में पुलिस दल ने चलकद में रात के अंधेरे में बिरसा को उनके घर से गिरफ्तार कर रांची जेल भेज दिया। कोई आपराधिक अभियोग गठित नहीं हो पाने के कारण वे दो वर्षों बाद ही जेल से रिहा हो गये। जेल भेजने से पहले एक सरकारी कोशिश उन्हें पागल करार कर पागलखाने में डालने की भी हुई थी पर डॉक्टरों ने उनके मंसूबे पर पानी फेरते हुए उन्हें पूर्णतः स्वस्थ घोषित किया। सन 1897 के 30 नवम्बर को जेल से बिरसा की रिहाई हो गयी ।
अच्छे आचरण की हिदायतों के साथ रिहाई के तुरंत बाद ही बिरसा भूमिगत हो गये। खुफिया और पुलिस का जर्रे-जर्रे में तैनाती होने के बावजूद गुमनाम बिरसा ने दो वर्षों में उस क्षेत्र में अंग्रेजों के राजनैतिक प्रभुत्व को समाप्त करने, सभी बाहरी तथा विदेशी तत्वों को बाहर निकालने तथा स्वतंत्र मुण्डाराज स्थापित करने के उद्देश्य से एक योजना बना डाली। यह योजना इतने गुप्त तरीके से बनायी गयी कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का खुफिया तंत्र उसे भांप तक नहीं पाया था। बिरसा जानते थे कि क्रिस्मस (25 दिसम्बर) की पूर्व संध्या के अवसर पर सभी ईसाई 24 दिसम्बर की रात से ही समारोह स्थलों पर जमा हो जाते हैं एवं सारी रात मद्यपान कर नशे में धुत्त हो सामूहिक रूप से नाचते गाते रहते हैं। देश-दुनिया से बेखबर ईसाईयों पर हमले के लिए बिरसा ने 25 दिसम्बर, 1897 की तिथि तय की।
नियत समय पर बिरसा का उलगुलान (विद्रोह) शुरू हुआ। सिंहभूम का पोड़ाहाट, कुन्द्रुघुटु, सोनपुर क्षेत्र, बंदगांव आदि के लगभग 150 वर्गमील क्षेत्र, खूंटी और तमाड़ के लगभग 300 वर्गमील तथा रांची जिले के 100 वर्गमील क्षेत्र में तीर चले, आगजनी की घटनाएं हुई और अनेक लोग घायल हुए और मरे भी। काले ईसाईयों के घायल होने की खबर पर बिरसा ने मनाही का संदेश भेजा जिससे काले ईसाइयों पर प्रहार रुक गया। इस बीच प्रशासन पूरी तरह ठप हो गया। यह सब कुछ इतना अप्रत्याशित था कि प्रशासन को भी कोई राह नहीं सूझ रही थी । दूर-दूर से फौज के आ पहुंचने के बाद पुलिस और सेना ने संयुक्त अभियान शुरू किया। कई मुठभेड़ें हुई पर हर बार बिरसा बच कर निकलते रहे। बिरसा को गिरफ्तार न कर पाने से बौखलाई सेना और पुलिस का दमन-चक्र तेज होता गया। बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां, कुर्की-जब्ती और उत्पीड़न का दौर चलता रहा।
बिरसा की गिरफ्तारी हुई करीब डेढ़ महीने बाद 3 फरवरी, 1900 को। उनकी गिरफ्तारी के लिये ईनाम में एक बड़ी राशि (500 रुपये) घोषित की गयी थी। प्रलोभन में पड़कर मानमारू और जरायकेला गांव के सात लोगों ने सोते में बिरसा को पकड़ा और बंदगांव में कैम्प कर रहे डिप्टी कमिश्नर को सौंप कर ईनाम की राशि आपस में बांट ली।
सिंहभूम के बजाय रांची जेल में बिरसा को रखा गया और बाद में मुकदमा भी वहीं की अदालत में चलाया गया। इस बार भी सरकार उन पर कोई ठोस अभियोग गठित न कर पायी, जिससे बिरसा को फांसी या लम्बी कैद की सजा दी जा सके। बिरसा की और से यूरोपियन बैरिस्टर जैकब द्वारा मुकदमा लड़ने के कारण सरकारी पक्ष लड़खड़ाने लगा था। जहां बिरसा के छूट जाने की एकाध अटकलें भी लगने लगी थी, वहीं 9 जून, 1900 को रांची जेल में हैजे के कारण बिरसा की मृत्यु की खबर फैली । शव उनके परिवार वालों को नहीं सौंप कर सरकार ने उसे जेल कर्मचारियों से गुपचुप जलवा दिया, जबकि मुण्डाओं में दफनाने का रिवाज है। प्रकाशित पोस्टमार्टम रिर्पोट और विवरणों के आधार पर संदेह किया जाता है कि मुकदमें में हार जाने के खौफ से धीमा जहर देकर बिरसा को मार डाला गया था। अंग्रेजी हुकूमत द्वारा महान क्रांतिकारी बिरसा के वजूद को मिटा डालने की कोशिशों के बावजूद बिरसा न सिर्फ झारखण्ड वरन् देश के लोगों के दिलों-दिमाग में महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में अमर हो गये।
> बिरसा आंदोलन के प्रभाव / परिणाम :
बिरसा – आंदोलन से उत्पन्न प्रश्न एक सार्वजनिक प्रश्न बन गया। आंदोलनकारियों के प्रति समाज के जागरूक लोगों का समर्थन बढ़ता गया, जिसका अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा और सरकार द्वारा भूमि सुधार कदम उठाये गये। इस तरह 1900 से 1901 के बिरसा- आंदोलन के असफल होने के बावजूद उसके उद्देश्य अवश्य सफल हुए। सरकारी अधिकारियों ने महसूस किया कि असंतुष्ट मुण्डाओं के लिए एक अधिकार अभिलेख (खतियान) तैयार करने की अति आवश्यकता है। इस आंदोलन के कारण अधिकारी आदिवासियों की समस्याओं को समझने के लिए बाध्य हो गये। मुण्डाओं ने मांग की कि हमें हमारी जमीन की सुरक्षा दी जाये, जमीन पर हमारे अधिकार को मान्यता मिले और मुण्डारी खुंटकट्टी-व्यवस्था सुरक्षित रखी जाये।
तत्कालीन कमिश्नर फौरबेस ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि जब तक समूचे मुण्डा प्रदेश में अधि कार-अभिलेख तैयार नहीं किया जाता और बैठ – बेगारी समाप्त नहीं की जाती तब तक विद्रोह होते रहेंगे। 1869 का भूँइहरी बन्दोबस्त खूंटी, तमाड़, बुण्डू और सोनाहातु थानों के मुण्डारी खुंटकट्टी-क्षेत्रों तक लागू नहीं किया गया था, जो बिरसा – आंदोलन का क्षेत्र बना, अतः इन क्षेत्रों में नया बन्दोबस्त कार्यक्रम शुरू किया गया।
भूमि-बन्दोबस्ती कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि भूमि-संबंधी सारे बकायों और जिन्स ( अनाज, पदार्थ) में देय सारे बकायों का अनिवार्य रूप से लगान (नकद) में रूपान्तरण हुआ, जिससे बैठ-बेगारी प्रथा का अंत हुआ और इस तरह एक और झगड़े का निपटारा हो गया। 1897 का भूमि – लगान रूपान्तरण अधिनियम, जो लागू नहीं किया जा सका था, उसका उन्मूलन ही हो गया। सरकारी ऋणों की व्यवस्था के बाद अब मुण्डा किसान काफी हद तक सूदखोरों के चंगुल से बच गये। दीवानी और फौजदारी मुकदमों की संख्या में कमी आ गयी, जो फसल की चोरी एवं दूसरों की जमीन में अनधिकार प्रवेश के होते थे। लगानों के मुकदमे अब प्रायः एक ही सुनवाई में निबटाये जाने लगे, क्योंकि जमींदारों द्वारा लगान की रसीद दी जाने लगी, जिसे पेश करके तुरंत
न्याय प्राप्त किया जा सकता था। बंगाल के लेफ्टिनेन्ट गर्वनर के अनुरोध पर मुण्डा प्रदेश के सबसे अधिक प्रसिद्ध मिशनरी हौफमैन ने मुण्डाओं की भूमि व्यवस्था का पूरा विवरण तैयार किया। हौफमैन और बन्दोबस्त-पदाधिकारी ई. लिस्टर ने मुण्डारी खुंटकट्टी-व्यवस्था पर जो विवरण-पत्र तैयार किया, वह एक मूल्यवान दस्तावेज है, जिसमें पहली बार मुण्डारी भूमि व्यवस्था के सिद्धांतों को स्पष्ट किया गया है। 1903 के काश्तकारी संशोधन अधिनियम द्वारा पहली बार मुण्डा खुंटकट्टी- व्यवस्था को कानूनी मान्यता दी गयी। यह अधिनियम, 1908 के छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम के प्रारंभिक रूप जैसा था।
प्रस्तावित कानून का एक बड़ा प्रारूप तैयार किया गया। उसे बनाने की तैयारी के लिए गवर्नर सर एन्ड्रयू अगस्त, 1907 में रांची आये। उन्होंने छोटानागपुर के अफसरों, जमींदारों और रैयतों की एक बैठक बुलायी, जिसमें प्रस्तावित कानून-संबंधी अधिकांश मामलों में, उन लोगों के बीच एक व्यावहारिक, सर्वसहमति का आधार प्राप्त कर लिया गया। यह विधेयक बाद में कौंसिल में पेश हुआ, और पारित होकर छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 6, 1908 के नाम से जाना जाने लगा। इस अधिनियम द्वारा एक शताब्दी से चले आ रहे भूमि-संबंधी असंतोष से उत्पन्न विद्रोह बन्द हो गये, क्योंकि खुंटकट्टीदार काश्तों की कानूनी परिभाषा दी गयी। इस कानून द्वारा कुछ ऐसे बिन्दुओं को सुरक्षा प्रदान की गयी, जिनको मुण्डा अपनी सामाजिक प्रणाली का मूल अंग घोषित करते आ रहे हैं। इस कानून के अन्तर्गत प्रावधान में कहा गया कि गांवों की सीमाओं के अंतर्गत भूमि, ग्राम-परिवार समुदाय की सम्पत्ति है और ये परिवार उन गांवों के मूल संस्थापकों के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी हैं, इसलिए उनमें से किसी परिवार से उसका भूमि-अधिकार छीना नहीं जा सकता है। डिप्टी कमिशनर को यह शक्ति दी गयी कि खुंटकट्टी गांव में यदि किसी बाहरी आदमी ने जबरन कोई जमीन हड़प रखी है, तो बिक्री और उसके स्वामित्व के अंतरण पर रोक लगा दी गयी और लगान के लिए रसीद देने की भी व्यवस्था की गयी ।
बिरसा आंदोलन के बाद आदिवासियों और प्रशासन के बीच की दूरी कम करने के लिए कई प्रशासनिक कदम भी उठाये गये। 1902 में गुमला अनुमण्डल (अवर प्रमण्डल) बना (अब यह जिला है), जिससे लोगों को न्याय पाने के लिए रांची की लम्बी दूरी की कष्टमय यात्रा न करनी पड़े। अधिकारियों को भी जमींदारों और रैयतों के संबंधों पर नजर रखने की सुविधा मिली। इस तरह गुमला, जो पहले अत्यधिक अशांत क्षेत्र था, पूर्णत: शांत हो गया। दिसम्बर, 1905 में खूंटी अनुमण्डल (अवर प्रमण्डल) बना, जिसका श्रेय बिरसा – आंदोलन को ही मिलना चाहिए, क्योंकि उसी के कारण अधिकारियों को यह जरूरत महसूस हुई कि मुण्डाओं के बीच, उनके क्षेत्र के ठीक केन्द्र में प्रशासन केन्द्र स्थापित किया जाये। इस अनुमण्डल को पहले ‘मुण्डा अनुमण्डल’ कहा जाता था।

> भूगोल (GEOGRAPHY)

उत्तर 1: वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर
(A) i.: सन् 1543 ई. में, निकोलस कोपरनिकस ने ब्रह्मांड के अपने कट्टरपंथी सिद्धांत को विस्तृत किया जिसमें कहा की पृथ्वी, अन्य ग्रहों के साथ, सूर्य के चारों ओर घूमती थी।
(B) i.: आर्द्रता वाष्पीकरण का परिणाम है। वायुमंडल में विद्यमान अदृश्य जलवाष्य की मात्रा ही आद्रता कहलाती है। वायुमंडलीय आद्रता की प्राप्ति महासागरों, झीलों, नदियों, हिम क्षेत्रों तथा हिमानियों से होने वाले वाष्पीकरण द्वारा होती है।
(C) ii. : एक सिंकहोल, जिसे सेनोट, सिंक, सिंक – होल, स्वैलेट, स्वॉलो होल या डोलिन के रूप में भी जाना जाता है, सतह की परत में किसी प्रकार के पतन के कारण जमीन में एक अवसाद या छेद है। इसका निर्माण अधिकांश कार्स्ट प्रक्रियाओं के कारण कार्बोनेट चट्टानों का रासायनिक विघटन या घुटन प्रक्रिया द्वारा होता है।
(D) ii.: भारत में उष्ण कटिबंधीय वर्षावन की उपस्थिति ओडिशा और छत्तीसगढ़ में है। इसे मानसूनी वन भी कहते हैं। ये वन 70 से 200 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन वनों का विस्तार गंगा की मध्य एवं निचली घाटी अर्थात भावर एवं तराई प्रदेश, पूर्वी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ का उत्तरी भाग, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल के कुछ भाग में मिलता है। इसमें पाये जाने वाले वृक्षों में साल, सागवान, चंदन, शीशम, आदि प्रमुख
(E) iv.: भारत मैंगनीज का विश्व में सर्वाधिक भंडारक है। मैंगनीज एक बहुमूल्य खनिज है, जिसका उपयोग लोहे से इस्पात बनाने में, अनेक रसायन उद्योगों में तथा शीशा और चीनी मिट्टी के बरतनों पर रंग चढ़ाने में किया जाता है। इस खनिज का 14 करोड़ टन का भण्डार भारत के दो राज्य मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में पाया गया है। अन्य उत्पादक राज्य हैं- ओडिशा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, बिहार, गोवा आदि।
(F) ii. : भारत में लेटेराइट मृदा का सर्वाधिक जमाव आन्ध्र प्रदेश में है। है। इस मृदा का निर्माण मानसूनी जलवायु में शुष्क तथा आर्द्र मौसम के क्रमिक परिवर्तन के कारण होने वाली विक्षालन प्रक्रिया से हुआ है। इस मृदा में नाइट्रोजन, चूना, फास्फोरस तथा मैग्नीशियम की मात्रा कम होती है, जिससे इसकी उपजाऊ शक्ति कम रह जाती हैं। यह मृदा पश्चिमी घाट, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, असम तथा राजमहल की पहाड़ियों में मिलती है।
(G) ii. : भारत में 1921 ई. का जनगणना वर्ष वृहद विभाजक या जनांकिकीय विभाजक के नाम से जाना जाता है। भारत में जब से जनगणना शुरू हुई थी तब से सदा धनात्मक वृद्धि होती आई है। केवल सन् 1921 ई. में ही एक अपवाद (25012 करोड़ जनसंख्या, 0.30 दशक प्रतिशत वृद्धि ) है, जब वृद्धि ऋणात्मक रही। इसका कारण था इन्फ्लूएंजा, प्लेग, चेचक, हैजा आदि महामारी का प्रकोप तथा 1914 से 1918 का प्रथम विश्व युद्ध
(H) * : ‘टोडा’ जनजाति मुख्यतः केरल (नीलगिरी पहाड़) में निवास करती है।
(I) iv. : बूढ़ाघाघ झारखण्ड का सबसे ऊंचा जलप्रपात है। बूढ़ाघाघ प्रपात लातेहार जिले के महुआटांड से 15 किमी. की दूरी पर स्थित है। इसकी ऊंचाई 450 फीट ( 143 मी.) है। इसे लोधाघाघ के नाम से भी जाना जाता है । यह बूढ़ाघाघ नदी पर स्थित है।
(J) iii. : झारखण्ड में काली मिट्टी राजमहल पहाड़ी प्रदेश में पायी जाती है। इस मिट्टी का निर्माण बैसाल्टिक चट्टानों के ऋतुक्षरण के परिणामस्वरूप हुआ है। इस मिट्टी में लोहा, चूना, मैग्नीशियम, एल्युमिनियम की अधिकता पायी जाती है, जबकि नाइट्रोजन, जैविक पदार्थ तथा फॉस्फोरस अम्ल की कमी पायी जाती है। राजमहल में इस मिट्टी में धान तथा चना की अच्छी फसल उपजायी जाती है।
प्रश्न 2: पृथ्वी की आंतरिक संरचना पर भूकम्प विज्ञान किस प्रकार प्रकाश डालता है ? व्याख्या कीजिए |
उत्तर : पृथ्वी की आंतरिक संरचना आज भी विद्वानों के लिए कौतूहल का विषय बनी हुई है, क्योंकि इसके रहस्य से पूर्णरूपेण पर्दा नहीं उठ पाया है। यद्यपि पृथ्वी का आंतरिक भाग भूगोल के अध्ययन क्षेत्र से बाहर पड़ता है, फिर भी कई कारणों से इसका अध्ययन भूगोल के अंतर्गत किया जाना आवश्यक है। प्रथमतः यह कि पृथ्वी के धरातल पर उत्पन्न होने वाली अनेक भू-आकृतियों की उत्पत्ति जिन शक्तियों के माध्यम से होती है, उन शक्तियों का संबंध भूगर्भ से जुड़ा होता है। अतः भू-आकृतियों की उत्पत्ति को समझने के लिए भूगोलशास्त्रियों को भूगर्भ का समुचित ज्ञान होना आवश्यक है।
दूसरी बात यह है कि समस्थिति सिद्धांत, भूकंप, ज्वालामुखी आदि भू-आकृति विज्ञान के अभिन्न अंग हैं तथा इन तीनों की सही व्याख्या तभी की जा सकती है, जब भूगर्भ का समुचित ज्ञान हासिल कर लिया जाये।
पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में अब तक उपलब्ध सभी जानकारियां परोक्ष प्रमाणों पर ही आधारित हैं, क्योंकि मानव के लिए पृथ्वी के आंतरिक भागों को देख पाना संभव नहीं है। मनुष्य द्वारा खनिज प्राप्ति हेतु जो कुएं या गहरे खान खोदे गये हैं। उनकी गहराई 5 से 6 किलोमीटर तक है। यहां तक पृथ्वी की संरचना का ज्ञान भली-भांति हो पाता है, लेकिन यह गहराई पृथ्वी के अर्द्धव्यास अर्थात् 6371 किलोमीटर की तुलना में नगण्य है। कुछ प्रमाण धरातल के नीचे आदि काल में निक्षेपित आग्नेय चट्टानों से भी प्राप्त होते हैं, जो लम्बे काल से चलती रहने वाली अपरदन की क्रिया से धरातल पर उभर आये हैं, परन्तु यह भी 10-15 किमी. से अधिक गहराई की अवस्थाओं का ज्ञान प्रदान नहीं करते। कुल मिलाकर, यही कहा जा सकता है इन स्रोतों के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना की पूर्णरूपेण सही व्याख्या प्रस्तुत नहीं की जा सकती। पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में विभिन्न विद्वानों ने अत्यंत जटिल विधियों तथा सूक्ष्म वैज्ञानिक यंत्रों की सहायता से अनुसंधान किया है, जिसमें भू-भौतिकी तथा भूकम्प विज्ञान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में जानकारी देने वाले स्रोतों को तीन प्रमुख वर्गों में बांट कर कई निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। ये तीन वर्ग हैं –
(1) अप्राकृतिक साधन, यथा- भूगर्भ की तापीय तथा भौतिक अवस्था – इसमें मुख्य रूप से घनत्व, तापमान तथा दबाव को शामिल किया जाता है।
(2) पृथ्वी की उत्पत्ति से जुड़े सिद्धांत के साक्ष्य।
(3) प्राकृतिक साक्ष्य, यथा- उल्कापिंड, ज्वालामुखी एवं भूकंप |
भूकम्प शास्त्र के प्रमाण : वर्तमान समय में पृथ्वी की आंतरिक संरचना को समझने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान भूकम्पीय तरंगों का है। भूगर्भ में जब कहीं चट्टानों पर अत्यधिक प्रतिबल (Stress) पड़ता है, तब ये टूटने-फूटने लगते हैं, जिससे ऊर्जा मोचन के साथ भूकम्प की उत्पत्ति होती है। भूकम्प के उत्पत्ति स्थल को उद्गार केन्द्र (Focus) कहते हैं तथा उद्गम केन्द्र के ठीक ऊपर धरातल पर जो बिन्दु आता है, उसे अधिकेन्द्र (Epicentre) कहते हैं।
साधारणतः भूकम्प की लहरें उद्गम केन्द्र से चल कर अधिकेन्द्र पर पहुंचती हैं और वहां से सभी दिशाओं में चलती हैं। भूकम्प के दौरान मुख्य रूप से तीन प्रकार की लहरें / तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो निम्न हैं
(i) प्राथमिक तरंगें (‘P’ Waves) : यह लहर अनुदैर्ध्य होती है तथा ध्वनि तरंगों के समान संचरण करती है। इसकी गति सर्वाधिक होती है, जो लगभग 8 km/sec की चाल से चलती है। यह ठोस, तरल एवं गैसीय तीनों माध्यम से गुजर सकती है।
(ii) गौण या आड़ी तरंगें (Transverse, Secondary or ‘S’ Waves) : ये तरंगें अनुप्रस्थ होती हैं और इसमें पदार्थ के कणों की गति लहरों की दिशा के प्रति समकोण बनाती हुई होती है। यह जल तरंगों या प्रकाश तरंगों की भांति कार्य करती है। यह अधिकेन्द्र से 120° की दूरी पर लुप्त हो जाती है तथा केवल ठोस में संचरण कर सकती है। इसकी गति 5 से 6 km / sec है।
(iii) धरातलीय तरंगें (Surface Waves or ‘L’ Waves) : ये तरंगें केवल धरातल के ऊपर तक ही सीमित रहती हैं और भूगर्भ में प्रवेश नहीं करतीं। अतः भूगर्भ का ज्ञान प्रदान करने के दृष्टिकोण से यह व्यर्थ है।
इन P-S युग्मों के अलावा दो और युग्मों ( लहरों के) का पता चला, जिनकी गति P-S से कम थी। इनमें प्रथम युग्म Pg-Sg है, जिसकी खोज 1909 में क्रोसिया के कुल्पा घाटी में भूकम्प के समय हुई। इसकी गति 5.43.3k.m./sec थी । यह केवल महाद्वीपीय चट्टानों अर्थात् ग्रेनाइट में संचरण करती है। दूसरा युग्म P* – S* का है, जिसका पता 1923 में कोनार्ड ने टार्न भूकम्प के अध्ययन के क्रम में लगाया। इसकी गति P-S तथा Pg – Sg के बीच की थी, यथा – P* की 6-7.2 km/sec तथा S* की 3.5 से 4.0km/secl
उपरोक्त लहरों/तरंगों की गति एवं भ्रमण पथ के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना को समझने में पर्याप्त सहायता मिली है। इन तरंगों की विशेषता है कि इनका वेग माध्यम के घनत्व में वृद्धि के साथ बढ़ता जाता है तथा कम घनत्व के माध्यम में कम हो जाता है। विभिन्न प्रकार की भूकम्पीय तरंगों के भूगर्भ में गहराई के साथ वेग में अंतर एवं भ्रमण पथ के आधार पर कई निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, यथा
(i) अगर शैलों की प्रयास्थता बढ़ती जाती है, तो P-S तरंगों के वेग में वृद्धि होती जाती है।
(ii) इन तरंगों के वेग में अचानक वृद्धि उस स्थान के ऊपर तथा नीचे स्थित शैलों के संघटन तथा घनत्व में अंतर को दर्शाता है।
(iii) यदि P तरंग के वेग में कमी आ जाये तथा S तरंगें वहां प्रवेश नहीं कर सकें, तो यह स्पष्ट होता है कि उक्त स्थान की शैलें ठोस न होकर तरल अवस्था में हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि S तरंगें तरल से होकर नहीं गुजर सकतीं।
(iv) यदि P तरंगों के वेग में कमी आ जाये तथा S तरंगें भी किसी तरह गुजर जायें, तो यह आंशिक ठोस एवं आंशिक पिघली अवस्था का सूचक है।
(v) S तरंगें अधिकेन्द्र से 120° की दूरी पर लुप्त हो जाती हैं, जिससे विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला कि पृथ्वी का आंतरिक भाग तरल अवस्था में है। 110-120° के बीच जहां S तरंगें रिकॉर्ड नहीं होती, उसे छाया प्रदेश ( Shadow Zone) कहा गया है।
(vi) इन लहरों का मार्ग सीधा न होकर वक्राकार होता है, जो यह प्रमाणित करता है कि पृथ्वी के भीतर घनत्व में विभिन्नता है।
उपरोक्त तथ्यों एवं भूकम्पीय तरंगों की प्रकृति के आधार पर पृथ्वी को तीन प्रमुख संकेन्द्रीय कोशों में विभाजित किया जाता है, जिन्हें क्रस्ट (Crust), मेंटल (Mantle) तथा क्रोड़ (Core ) कहा जाता है।
प्रश्न 3: वर्तमान समय में भारत का चीनी उद्योग उत्तर से दक्षिण की ओर स्थानांतरित हो रहा है, व्याख्या कीजिए । 
उत्तर : भारत के कृषि आधारित उद्योगों में चीनी उद्योग का विशेष महत्व है। यह उद्योग एक वजन ह्रास उद्योग है, जिसमें कच्चे माल के रूप में गन्ना का प्रयोग किया जाता है। वेबर के उद्योग स्थानीयकरण सिद्धांत के अनुसार एक ही कच्चा माल आधारित वजन ह्रास उद्योग हो तो उसका विकास मुख्यतः कच्चे माल के क्षेत्र में होता है। भारत में औसतन 100 टन गन्ने से 10 से 11 टन चीनी प्राप्त होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कच्चे माल के क्षेत्र में स्थानीयकरण की प्रवृत्तियां हैं। चूंकि यह कृषि आधारित उद्योग है, जिसके कच्चे माल का उत्पादन ग्रामीण क्षेत्रों में होता है। इसलिए यह उद्योग मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे नगरों में विकसित होता है। भारत में चीनी उद्योग के स्थानीयकरण की प्रवृत्तियों का अध्ययन हम उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के संदर्भ में करते हैं।
आरंभिक काल में इस उद्योग का स्थानीयकरण उत्तर प्रदेश एवं बिहार के गन्ना उत्पादक क्षेत्रों तक सीमित था। स्वतंत्रता प्राप्ति तक सम्पूर्ण भारत का 90% गन्ना और चीनी उत्पादन उत्तर प्रदेश तथा बिहार में होता था और देश की 75% चीनी मिलें यहीं स्थापित थी । ये दोनों राज्य परम्परागत रूप से गन्ना उत्पादक थे, क्योंकि यहां की जलवायु उपोष्ण थी। साथ ही, कृषकों को एक नकदी फसल की आवश्यकता थी और इस दृष्टि से गन्ना ही सर्वाधिक उपयुक्त फसल थी। अत: पश्चिम में मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) से पूर्व में मुजफ्फरपुर (बिहार) के मध्य का क्षेत्र विश्व का सबसे बड़ा गन्ना एवं चीनी उत्पादक के रूप में विकसित हुआ।
परन्तु, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मुख्यतः द्वितीय पंचवर्षीय योजना के समय गन्ना की कृषि में विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। साथ ही, तीसरी पंचवर्षीय योजना के समय चीनी उद्योग का विकेन्द्रीकरण हुआ। इस प्रकार, 1960 के बाद महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश में गन्ने की कृषि एवं चीनी उद्योग का तेजी से विकास होने लगा। इसका मूल कारण यह था कि कृषकों ने जब प्रारंभिक स्तर पर गन्ने की कृषि प्रारंभ की तो उन्होंने अनुभव किया कि यहां की जलवायु अनुकूल है। साथ ही, यहां गन्ने की कृषि की अवधि लम्बी प्रति हेक्टेयर उपज अधिक तथा रस में मिठास अधिक था। ” अतः यहां चीनी की उपलब्धता 15 से 18 प्रतिशत तक पायी गयी। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत में उद्योग एवं नगरों के विकास के कारण चीनी की मांग में वृद्धि हुई। इन्हीं अनुकूल परिस्थितियों के परिणामस्वरूप दक्षिण भारत में गन्ने की कृषि एवं चीनी उद्योग का विकास हुआ। 1975 के बाद भारतीय चीनी उद्योग में और भी अधिक विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रारंभ हुई। यह मुख्यतः तीन दिशाओं में हुआ। ये हैं
1. पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान के गंगानगर
जिला ।
2. गुजरात।
3. पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिला ।
इस प्रकार उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि कच्चे माल आधारित उद्योग होने के बावजूद चीनी उद्योग का व्यापक विकेन्द्रीकरण हुआ है।
जहां तक उत्पादन का प्रश्न है तो वर्ष 1937 में चीनी का उत्पादन 11 लाख टन था, जो वर्ष 1991 में बढ़कर 119 लाख टन तथा वर्ष 2004 में 165 लाख टन तथा 2013-14 में बढ़कर 245.54 लाख टन हो गया। देश का चीनी उत्पादन 15 जनवरी, 2020 तक एक साल पहले की तुलना में 31 फीसदी बढ़कर 142.70 लाख टन हो गया। भारतीय चीनी मिल संघ (इस्मा) ने अक्टूबर, 2020 से शुरू चीनी विपणन वर्ष 2020-21 में चीनी उत्पादन 13 फीसदी बढ़कर 310 लाख टन रहने का अनुमान जताया है।
उपरोक्त विवरण एवं तालिका से स्पष्ट है कि चीनी के उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई है। फिर भी यह उद्योग कई समस्याओं से ग्रसित हैं, जिनका विवरण निम्नवत है
1. गुड़ एवं खाड़सारी उद्योग से प्रतिस्पर्धा |
2. उपलब्धता दर कम होना।
3. मिल मालिकों द्वारा किसानों के साथ उचित व्यवहार न करना । मिल मालिकों द्वारा किसानों को इस कदर मजबूर कर दिया जाता है कि उन्हें मिल मालिकों की शर्त के अनुसार गन्ना देना पड़ता है।
4. अधिकतर कारखाने रुग्ण और पुरानी अवस्था में हैं ।
5. गन्ने के क्षेत्रफल में कमी आना।
6. दोहरी मूल्य नीति का प्रतिकूल प्रभाव मिल मालिकों को 40 प्रतिशत चीनी सरकार को देना पड़ता है। अतः मुनाफा कमाने
के लिए मिल मालिकों को बाकी 60 प्रतिशत बाजार में अधि क कीमत पर बेचना पड़ता है। मिल मालिक संघ की कोशिश होती है कि इन मूल्यों के बीच ज्यादा अंतर न हो।
7. उप उत्पादों का सही उपयोग नहीं हो पा रहा है। अगर उप उत्पादों का सही उपयोग हो तो चीनी का मूल्य भी कम होगा और कारखाने लाभ की स्थिति में भी होंगे।
8. मिल मालिकों के संघ की मांग है कि चीनी कारखानें के 40 किमी. त्रिज्या के अंदर कोई गुड़ उद्योग न हो। अभी वर्तमान में यह दूरी 25 किमी. है।
9. कारखानों को अपना फार्म लगाने की छूट हो ।
अतः उपरोक्त समस्याओं के संतोषजनक समाधान के बाद ही चीनी उद्योग का विकास संभव है।
प्रश्न 4: स्वतंत्रता के पश्चात् भारत के तीव्र नगरीकरण का सकारण विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर : भारत की जनसंख्या में होने वाली वृद्धि के समान ही नगरीय जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। यह वृद्धि नगरों द्वारा उत्पन्न आकर्षण शक्तियों से न जुड़ कर मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पन्न प्रतिकर्षण शक्तियों से जुड़ी हुई है। प्रतिकर्षण शक्तियों के कारण भारत में वृहद स्तर पर ग्रामीण-नगरीय जनसंख्या का स्थानांतरण होता है। इस स्थानांतरण के कारण नगरों में जनसंख्या वृद्धि उसकी ग्राह्य क्षमता से अधिक होती है, जिसके परिणामस्वरूप नगर में अनेक प्रकार की रचनात्मक, आर्थिक-सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
यद्यपि भारत में नगरीकरण की वर्तमान प्रवृत्ति तीव्र है, लेकिन इस तीव्र प्रवृत्ति का विकास मुख्यतः स्वतंत्रता के बाद हुआ है।
उपरोक्त तालिका से यह स्पष्ट है कि स्वतंत्रता के पूर्व नगरीकरण की प्रवृत्ति काफी धीमी थी, जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नगरीय जनसंख्या में काफी तेजी से वृद्धि हुई है। स्वतंत्रता प्राप्ति की
के पूर्व नगरीय जनसंख्या में धीमी प्रगति का मूल कारण चीनी उद्योग, जूट उद्योग तथा कपास उद्योग जैसे कृषि आधारित उद्योगों का विकास था, जिसके लिए नगरों की आवश्यकता नहीं थी। साथ ही, इस काल में जन्म दर एवं मृत्यु दर उच्च होने के कारण ग्रामीण जनसंख्या की वृद्धि दर कम थी, जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण-नगरीय जनसंख्या स्थानांतरण की प्रवृत्ति नहीं थी।
इसी प्रकार उपरोक्त तालिका से यह भी स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नगरीय जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। ऐसा तीन कारणों से संभव हुआ। पहला, विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा औद्योगिक, परिवहन और खनन के विकास का नियोजित प्रयास किया गया, जिसका सीधा प्रभाव नगरीकरण की प्रवृत्ति पर पड़ा और अनेक नवीन नगर विकसित हुए। दूसरा, सार्वजनिक सेवाओं जैसे चिकित्सा, परिवार कल्याण तथा रोजगार सेवाओं के प्रसार के परिणामस्वरूप मृत्यु दर पर नियंत्रण हुआ और ग्रामीण जनसंख्या में विस्फोट की प्रवृत्ति शुरू हुई, जो अन्ततः ग्रामीण-नगरीय स्थानांतरण का कारण बना। तीसरा, शिक्षा का प्रसार, वाणिज्य एवं व्यापार में वृद्धि, बहुद्देशीय केन्द्रों की स्थापना, सामरिक महत्व के नगरों का विकास, नये राजधानी एवं जिला प्रशासन के विकास ने भी नगरीकरण की प्रवृत्ति को तेज किया।
नगरीय जनसंख्या में पहली सर्वाधिक वृद्धि 1941-51के दशक में देखने को मिलती है, जिसका मूल कारण भारत-पाक विभाजन था, क्योंकि विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए अधिकांश लोगों ने मुख्यतः नगरों में अधिवास किया। दूसरी सर्वाधिक वृद्धि 1971-81 के दशक में देखने का मिलती है, जिसका मूल कारण ग्रामीण-नगरीय जनसंख्या का स्थानांतरण था। लेकिन स्वतंत्रता के बाद सबसे कम वृद्धि 1951-61 के दशक में देखने को मिलती है, जिसका मूल कारण प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि के विकास को प्राथमिकता देना था।
यद्यपि द्वितीय पंचवर्षीय योजना में औद्योगीकरण पर जोर दिया गया, लेकिन इसका वास्तविक प्रभाव 1961-71 के दशक में देखने को मिलता है।
नवीनतम अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि भारत में नगरीकरण की प्रवृत्ति धीमी हो गयी है। अर्थात् 1981-91 के दशक में नगरीय जनसंख्या को वार्षिक वृद्धि दर जो 3.65% थी वह 1991-2001 के मध्य घट कर 3.09% हो गयी है। नगरीकरण की प्रवृत्ति में इस कमी के बावजूद वार्षिक वृद्धि दर अभी भी 3% से ऊपर है। 2001-2011 के दशक में मिलियन प्लस नगर संकुलनों / नगरों की जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर 3.18% है और यह नगरीय विस्फोट का द्योतक है। भारत में नगरीकरण की प्रवृत्ति की निम्नलिखित विशेषताएं हैं
नगरों के आकार एवं संख्या में परिवर्तन : छोटे नगरों तुलना में बड़े नगरों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। इसके
परिणामस्वरूप बड़े नगर न केवल वृहत होते जा रहे हैं, वरन् उनकी संख्या में भी तेजी से बढ़ोतरी होती जा रही है। इसके विपरीत छोटे नगरों की संख्या में कमी आई है।
महानगरों में जनसंख्या का अति केन्द्रीकरण : महानगरों में रोजगार के अधिक अवसर के कारण इनकी जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। इसके परिणामस्वरूप भारत की कुल जनसंख्या का 31.1% ( 2011 की जनगणना के अनुसार ) नगरीय जनसंख्या में अधिवासित है। वर्ष 1901 में महानगरों की संख्या मात्र एक थी, जो वर्ष 1951 में बढ़कर 4 और वर्ष 2001 में बढ़कर 35 तथा 2011 में 53 हो गयी । वृहत मुम्बई (18.41 मिलियन), दिल्ली (16.31 मिलियन) तथा कोलकाता ( 14.11 मिलियन) विश्व के उन महानगरों में हैं, जिनकी जनसंख्या 1 करोड़ से अधिक है।
भारत में नगरीकरण की प्रवृत्ति की तीसरी महत्वपूर्ण विशेषता, नगरीय जनसंख्या का असमान वितरण है। कुछ राज्यों में अत्यधिक नगरीकरण हुआ है, जबकि अनेक ऐसे राज्य हैं, जहां नगरीकरण का स्तर अति निम्न है। सर्वाधिक नगरीकृत केन्द्रशासित प्रदेश में दिल्ली (97.5%), चण्डीगढ़ (97.3%), लक्षद्वीप (78.1% ) तथा दमन एवं दीव (75.2%) हैं। इसी प्रकार सर्वाधिक नगरीकृत राज्यों में गोवा (62.2%), मिजोरम ( 52.1%), तमिलनाडु ( 48.4%), केरल (47.7%) तथा महाराष्ट्र (45.2%) जैसे राज्य सम्मिलित हैं। इसके विपरीत हिमाचल प्रदेश, बिहार, असम तथा ओडिशा ऐसे राज्य हैं जहां नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत 10 से 20 के बीच है।
अतः उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि तीव्र नगरीकरण के बावजूद भारत में नगर विकास की गति संतोषजनक नहीं है। इससे निम्नलिखित समस्याएं उत्पन्न हुई हैं- सबसे प्रमुख समस्या नगरीय जनसंख्या की वृद्धि से संबंधित है। इस वृद्धि से नगर में संरचनात्मक एवं आर्थिक समस्याएं विशेष रूप से उत्पन्न हुई हैं। नगर में आवासों की कमी सबसे बड़ी समस्या है। एक अनुमान के अनुसार भारत के नगरों में तत्काल लाखों मकानों की आवश्यकता है। आवास निर्माण की गति धीमी होने के कारण न केवल मकान के किराए एवं जमीन के मूल्य में अभूतपूर्व वृद्धि हुई, बल्कि गंदी बस्तियों का भी तेजी से विकास हुआ है। इसी प्रकार, नगरीय जनसंख्या में वृद्धि के अनुपात में सार्वजनिक सेवाओं- स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा सेवा, सफाई का विस्तार नहीं हो पाया है, जिससे प्रदूषण एवं जनांकिकी ( शिशु मृत्यु दर में बढ़ोतरी) की समस्या उठ खड़ी हुई है।
दूसरी महत्वपूर्ण समस्या यातायात एवं प्रदूषण से संबंधित है। नगरों में बड़ी संख्या में लोग अभिगमन का कार्य करते हैं। इससे परिवहन भार एवं संख्या में वृद्धि होने के कारण न केवल नगरीय सड़क व्यवस्था अनेक नगरों में अनियमित हो गयी है, वरन् वायु प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण की समस्या भी उत्पन्न हुई है। इसी प्रकार जल-मल की उचित निकासी व्यवस्था के अभाव में जल प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई है। प्रदूषण की समस्या के परिणामस्वरूप बीमारियों के प्रकोप में बढ़ोतरी हुई है।
गन्दी बस्ती की वृद्धि तथा अनियमित परिवहन एवं प्रदूषण के अतिरिक्त महानगर का क्षैतिज फैलाव, उपनगरों की संख्या में बढ़ोतरी, •अवैध निर्माण तथा सामाजिक तनाव में वृद्धि प्रमुख समस्या है। महानगरीय क्षेत्र में बढ़ते अपराध एवं परिवहन दुर्घटना भी महत्वपूर्ण समस्या है। एक अन्य महत्वपूर्ण समस्या असंतुलित नगरीकरण से संबंधित है। कुछ प्रदेशों में नगरीकरण में तेजी से वृद्धि हो रही है, जबकि कुछ प्रदेशों में अत्यधिक पिछड़ी हुई है। इससे भारत जैसे विकासशील देश में आर्थिक विषमता में वृद्धि की संभावना है। अतः उत्तर-पूर्व भारत, पूर्वी भारत तथा मध्यवर्ती मैदानी भारत के क्षेत्रों में स्थानीय संसाधन के आधार पर नियोजित रूप से नगरीकरण की आवश्यकता है।
इस प्रकार उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारत जैसे विकासशील देश के लिए तीव्र नगरीकरण एक समस्या है, लेकिन संतुलित नगरीकरण देश के लिए आवश्यक भी है।
प्रश्न 5: झारखण्ड में ग्रामीण अधिवास के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : ग्रामीण अधिवास का तात्पर्य प्राथमिक कार्यों में संलग्न लोगों की आश्रय स्थली है जो अपने पेशे के अनुरूप इन्हें निर्मित करते हैं। इसी आश्रय स्थली को ‘गांव’ कहा जाता है। इसे ‘ग्रामीण बस्ती’ या ‘ग्रामीण अधिवास’ नाम से भी संबोधित करते हैं ।
ग्रामीण अधिवास या बस्तियों की प्रमुख विशेषता यह होती है कि यहां के अधिकांश अधिवासों की रचना अनियोजित या अर्द्धनियोजित होती है। ग्रामीण बस्ती की गृह रचना स्थानीय गृह निर्माण सामग्री पर आधारित होती है। इन बस्तियों में यातायात एवं संचार के साधनों का अभाव रहता है। ग्रामीण बस्ती अनेक आकार-प्रकार और विविध प्रारूपों की होती है।
इस दृष्टि से मानव आवासों के दो प्रकार होते हैं। जब व्यक्तिगत वास स्थान सापेक्षतः लघु अध्यासित भू खण्डों में समूहित होते हैं और सुसंजन की उच्च मात्रा को प्रदर्शित करते हैं तो विभिन्न आकार एवं आमाप के समूहन प्रकट होते हैं। इस प्रकार के अधिवासों को एकत्रित, संहत, केंद्रीकृत आदि नामों से अभिहित किया जाता है। इसके विपरीत जब व्यक्तिगत वास स्थान अध्यासित क्षेत्र पर विस्तृत रूप में प्रसारित होते हैं और भू-आकारों, कृष्य क्षेत्रों तथा अन्य प्राकृतिक घटकों द्वारा पृथक भी होते हैं तो ऐसे अधिवासों को प्रकीर्ण, परिक्षिप्त आदि नामों से अभिहित किया जाता है। झारखंड क्षेत्र में प्रकीर्णन की मात्रा कहीं-कहीं इतनी अधिक है कि मानचित्र पर ये ग्राम नगर आकारिकी के विलग्न टुकड़े लगते हैं।
उपरोक्त दो प्रकारों ( संहत एवं प्रकीर्ण) के मध्य अनेक स्तर की बस्तियाँ पायी जाती हैं जिन्हें कई तरह से सांख्यिकीय विधि द्वारा गणना कर विभाजित किया जाता है।
विद्वानों ने ग्रामीण अधिवासों को अनेक भौतिक-सांस्कृतिक कारकों के आधार पर पांच प्रमुख प्रकारों में विभक्त किया है(1) सघन अधिवास, (2) अर्द्धसघन अधिवास, (3) पूंजीकृत अधिवास, (4) विरल अधिवास, (5) अर्द्धविरल अधिवास | झारखंड क्षेत्र में प्रायः सभी प्रकार के अधिवास क्षेत्र उपलब्ध हैं किंतु इसके मुख्य प्रकार हैं- ( 1 ) सघन अधिवास, (2) विरल अधिवास।
1. सघन अधिवास – इसका तात्पर्य ऐसे बसाव क्षेत्र से है जहां लोगों के आवास एक-दूसरे से काफी सटे हुए हों । आवासों में दूरी की कमी हो। प्राय: सभी के छत या छप्पर एक-दूसरे से सटे हुए होते हैं। इसके दो उपप्रकार होते हैं
(क) अर्द्धसघन अधिवास,
(ख) पूंजीकृत अधिवास
2. विरल अधिवास – इसका तात्पर्य है मानवीय आवासों का एक-दूसरे से दूर में स्थित होना । अध्ययन करने पर इस बिखराव के कई प्रकार दिखाई देते हैं जिसे दो प्रमुख प्रकारों में रखा जा सकता है- समूहन पार्श्व और प्रकीर्णन पार्श्व। इसके उपप्रकार निम्नवत हैं। –
(A) संहत गुच्छ से पल्लीयुक्त बस्तियों के मध्य
(i) गुच्छ एवं पल्ली
(ii) गुच्छ एवं कुटी
(iii) गुच्छ एवं पल्ली एवं कुटी
(B) पल्ली युक्त एवं ‘सेक्त्रित’
(i) पल्ली एवं कुटी
(ii) विवृत गुच्छ
(iii) क्रमिक कुटी
(iv) सेवित्रत कुटी
आवासों के प्रकार – किसी भी क्षेत्र में मकानों का प्रकार उसके निर्माण में लगने वाली वस्तुओं की उस क्षेत्र में उपलब्धता तथा उस क्षेत्र की जलवायु दशा पर निर्भर करता है। मकान निर्माण सामग्री में छतों के प्रकार के अनुसार झारखंड क्षेत्र मुख्यतः दो भागों में विभक्त है- (1) खपड़े के छत एवं (2) फूस के छत। हालांकि अब गांवों में भी पक्के छत काफी संख्या में बने हैं किंतु इनका प्रतिशत अभी भी बहुत ही कम है। मकान के छतों का निर्माण तीन प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है- (1) दो पदार्थों वाले, (2) तीन पदार्थों वाले और (3) चार पदार्थों वाले। इन पदार्थों में निम्नलिखित चीजें होती हैं- खपड़ा, फूस, ईट, चूना, लोहा तथा एसबेस्टस । उपर्युक्त पदार्थों से निर्मित मकानों के प्रकारों को निम्नलिखित दस विभागों में विभाजित किया जा सकता है(1) गंगा मैदान प्रकार, (2) हजारीबाग प्रकार, (3) पलामू प्रकार, (4) रांची प्रकार, (5) दक्षिण-पश्चिम पलामू प्रकार, (6) पंचपरगना प्रकार, (7) चाईबासा प्रकार, (8) पश्चिम बंगाल प्रकार, (9) संथाल परगना प्रकार और (10) दक्षिणी सिंहभूम प्रकार |
> इन प्रकारों को मुख्यतः पांच प्रकारों से भी चिन्हित किया जा सकता है –
1. पलामू प्रकार (पलामू, गढ़ावा), 2. हजारीबाग प्रकार ( हजारीबाग, चतरा, कोडरमा, गिरिडीह, बोकारो), 3. रांची प्रकार ( रांची, लोहरदगा, गुमला), 4. सिंहभूम प्रकार ( पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम), 5. पश्चिम बंगाल प्रकार (संथाल परगना व धनबाद ) ।
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