6th JPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा- 2019

6th JPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा- 2019

परीक्षा तिथि – 30.01.2019

विषय : भारतीय अर्थव्यवस्था, भूमंडलीकरण एवं सतत् विकास
Subject: Indian Economy, Globalization And Sustainable Development
खण्ड I (Section-I)
1. भारतीय रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों द्वारा साख सृजन को निम्न उपायों द्वारा नियंत्रित कर सकता है RBI can restrict credit creation by Commercial Banks by
I) बैंक दर बढ़ा कर (Increasing bank rate)
II) बैंकों को सरकारी प्रतिभूतियों को बेचकर (Selling government securities to banks)
III) नगद कोष आवश्यकता को घटा कर (Reducing cash reserve requirements)
IV) अधिक बिलों का पुनर्बट्टा कर (Rediscounting more bills)
निम्नलिखित विकल्पों में से सही उत्तर चुनें :
Choose the correc answer from the options below :
(a) I और II (I and II)
(b) II और III (II and III)
(c) III और IV (III and IV)
(d) I और IV (I and IV)
2. मुद्रास्फीति का कारण है :
Inflation is due to
(a) उच्च आय की मांग (Demand for higher incomes)
(b) मांग वृद्धि के साथ आपूर्ति वृद्धि का न होना (Rising demand not accompanied by rising supply)
(c) अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक असंतुलन (Structural imbalances in the economy)
(d) उपरोक्त सभी (All of the above)
3.भारत में सकल घरेलू उत्पाद का निम्नलिखित में से कौन सबसे बड़ा अंग है ?
What among the following forms the largest components of GDP in India?
(a) उपभोग व्यय (Consumption expenditure
(b) विनियोग व्यय ( Investment expenditure)
(c) निर्यात (Export)
(d) आयात (Import)
4. निम्नलिखित में से कौन-सा मद भुगतान शेष के चालू खाते में शामिल नहीं होता है ?
Which item among the following is not included in the current account of balance of payments?
(a) वस्तुओं का निर्यात एवं आयात (Export and import of goods)
(b) सेवाओं का निर्यात एवं आयात ऋण (Export and import of services)
(c) स्थानांतरण भुगतान (Transfer payments)
(d) विदेशों से शुद्ध ऋण (Net borrowing from abroad)
5. नरसिम्हम समिति – I की नियुक्ति किसके लिए की गयी थी? Narsimham Committee-I was appointed for theresa business
(a) कृषि क्षेत्र में सुधार हेतु (Agricultural sector reform)
(b) औद्योगिक क्षेत्र में सुधार हेतु ( Industrial sector reform)
(c) बीमा क्षेत्र में सुधार हेतु ( Insurance sector reform to)
(d) बैंकिंग क्षेत्र में सुधार हेतु ( Banking sector reform ouTEE)
6.निम्न में से किसे राष्ट्रीय ऋण नहीं समझा जाता है ?
Which of the following is not considered as a national debt?
(a) जीवन बीमा पौलिसी (LIC Policies)
(b) दीर्घकालीन सरकारी बौंड (Long term government bonds)
(c) भविष्य निधि (Provident Fund)
(d) राष्ट्रीय बचत पत्र (National Saving Certificates)
7. पूंजी निर्माण दर्शाता है :
Capital formation denotes
(a) पूंजी के स्टॉक में वृद्धि हेतु किया गया व्यय प्रवाह ( Flow of expenditure devoted to increase the capital stock)
(b) पूंजी के स्टॉक में घिसावट व्यय के बाद शुद्ध वृद्धि (Net addition to capital stock after depreciation)
(c) मांग पर उत्पादन का अतिरेक (Production exceeding demand)
(d) केवल भौतिक परिसम्पत्ति पर किया गया व्यय (Expenditure on Physical assets only)
8. वर्तमान में भारत में घरेलू बचत की अनुमानित औसत दर है :
The estimated average rate of domestic saving in India currently is in the of
(a) 15 से 20% ( 15 to 20%)
(b) 20 से 25% ( 20 to 25%)
(c) 25 से 30% ( 25 to 30%)
(d) इनमें से कोई नहीं (None of these)
9. ‘तीव्रतर एवं अधिक समावेशी विकास की ओर’ निम्न में से किस योजना का लक्ष्य था?
“Towards faster and more inclusive growth” was the goal ofmobedmiamaya :
(a) नौंवीं पंचवर्षीय योजना (9th Five Year Plan basichha)
(b) दसवीं पंचवर्षीय योजना (10th Five Year Plan TertifupimATE)
(c) ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (11th Five Year Plan beate)
(d) इनमें से कोई नहीं (None of these )
10. वर्ष 2016 में HDI में विश्व में 188 देश के बीच भारत का स्थान क्या था ?
What was the rank of India in HDI among 188 natio of the world in the year 2016?
(a) 130
(b) 131
(c) 132
(d) 133
11. सतत् आर्थिक विकास निर्भर करता
Sustainable economic development depends on :
(a) निवेश, न कि बचत (Investment, not saving )
(b) बचत, न कि निवेश ( Saving, not investment)
(c) बचत एवं निवेश दोनों (Both saving and investment)
(d) न तो बचत नहीं निवेश (Neither saving nor investment)
12. वर्तमान में 100% प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग (FDI) की अनुमति किस क्षेत्र में नहीं है ?
At present 100% FDI is not allowed in :
(a) रक्षा (Defence)
(b) दवाओं (Drugs and Pharmaceuticals)
(c) बैंकों (Banks)
(d) बीमा ( Insurance)
13. भारत की केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रदत्त कुल अनुदान में निम्न में से किसका हिस्सा अधिकतम है?
Which one of the following gets maximum share in the total subsidy given by Central Government of India?
(a) खाद्य अनुदान (Food subsidy)
(b) खाद अनुदान (Fertiliser subsidy)
(c) निर्यात अनुदान (Export subsidy)
(d) पेट्रोलियम अनुदान (Petroleum subsidy)
14. पिछले दशक में निम्न में से किस क्षेत्र में सर्वाधिक FDI भारत में आया है ?
In the last decade which sector has attracted the highest FDI in India?
(a) खाद (Fertiliser)
(b) बीमा ( Insurance)
(c) दूरसंचार ( Telecommunication)
(d) खाद्य प्रसंस्करण ( Food Processing)
15. CSO द्वारा जारी किये गये राष्ट्रीय आय के नये आंकड़ों के अनुसार 2011-12 की कीमत पर कुल GDP में कृषि का हिस्सा 2013-14 में क्या था ?
(According to new series of national income, released by the CSO at 2011-12 prices, the share of agriculture in total GDP in 2013-14 was 🙂
(a) 12%
(b) 15%
(c) 18%
(d) इनमें से कोई नहीं (None of these)
16.भारतीय अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण का अर्थ है
Globalisation of Indian economy means
(a) विदेश में व्यावसायिक इकाइयां स्थापित करना (Establishing business units aboard)
(b) आयात प्रतिस्थापन के कार्यक्रम का परित्याग (Giving up programmes of import substitutions)
(c) अन्य देशों के साथ आर्थिक संबंध पर न्यूनतम संभाव्य नियंत्रण रखना (Having minimum possible restriction on economic relation with other nations)
(d) विदेशी ऋण में वृद्धि लाना (Stepping up external borrowing)
17. झारखंड की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार क्या है ?
What is the main basis of economy of Jharkhand?
(a) कृषि (Agriculture)
(b) उद्योग (Industry)
(c) खनन (Mining)
(d) परिवहन ( Transfer)
18. 10वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत योजना आयोग द्वारा झारखंड राज्य को कितनी राशि आवंटित की गयी थी ?
In 10th Five Year Plan, how much money had been allocated to Jharkhand State by Planning Commission ?
(a) ₹14,632 करोड़ (₹14,632 crore)
(b) ₹24,850 करोड़ (₹24,850 crore)
(c) ₹20,480 करोड़ (₹20, 480 crore)
(d) इनमें से कोई नहीं (None of these)
19. जनसंख्या के दृष्टिकोण से भारतीय राज्यों के मध्य झारखंड का स्थान कौन-सा है ?
From the view point of population, what is the rank of Jharkhand among Indian States ?
(a) 11वां ( 11th)
(b) 12वां ( 12th)
(c) 13वां (13th)
(d) इनमें से कोई नहीं (None of these
20. झारखंड में निम्न में कौन-सा क्षेत्र सर्वाधिक वनाच्छादित है ?
Which of the following area has the maximum forest cover in Jharkhand?
(a) चतरा ( Chatra)
(b) हजारीबाग (Hazaribagh)
(c) घाटशिला (Ghatshila)
(d) रांची (Ranchi)
खण्ड II (Section-II)
हाल ही में भारतीय विदेशी व्यापार की संरचना एवं दिशा में हुए परिवर्तन की विस्तृत चर्चा करें। Discuss in detail recent changes in composition and direction of India’s foreign trade.
OR
भारतीय कृषि पर विश्व व्यापार संगठन के प्रभाव की विस्तृत विवेचना करें।
Discuss in detail the impact of W.T.O. on Indian agriculture.
खण्ड III (Section-III)
वर्तमान राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों का वर्णन कीजिए । दर्शाएं की यह अधिनियम निम्न आय वर्ग की खाद्य असुरक्षा को कम करने में सहायक होगा।
Discuss various provisions in latest National Food Security Act. Show that the Act may reduce insecurity among low income people.
OR
‘समावेशी’ को कैसे मापा जाता है? क्या भारतीय आंकड़े रोजगार एवं प्राथमिक / माध्यमिक शिक्षा में हुए आर्थिक समावेशन को दर्शाते हैं?
How ‘inclusion’ is measured ? Do Indian data show economic inclusion in employment and primary/secondary education ?
खण्ड IV(Section-IV)
आर्थिक सुधारों के मूल्यांकन के लिए प्रयुक्त मापदंडों को ध्यान में रखते हुए, भारतीय अर्थव्यवस्था पर इनके प्रभावों की आलोचनात्मक
समीक्षा कीजिए | In the light of the parameters used for assessing economic reforms, critically examine its impact on Indian economy.
OR
भारत में कृषि बाजार के दोषों की समीक्षा कीजिए। इसके निदान के लिए सरकार द्वारा कौन-कौन से कदम उठाए जा रहे हैं ?
Examine the defects of agricultural marketing in India. What steps are being taken by the govt. to remove them?
खण्ड V (Section-V)
झारखंड सरकार की वर्तमान औद्योगिक नीति की विवेचना कीजिए। औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए, सरकार द्वारा उठाए गये कदमों की समीक्षा कीजिए।
Discuss the present industrial policy of Jharkhand Government. Examine the steps undertaken by the govt. to promote industrial development.
OR
झारखंड में कृषि क्षेत्र के खराब कार्य-प्रदर्शन के कारणों की समीक्षा कीजिए। कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता की उच्च वृद्धि दर प्राप्त करने के लिए सुझाव दें।
Discuss the causes of poor performance of agricultural sector in Jharkhand. Suggest measures for achieving a high growth rate of agricultural production and productivity.
प्रश्नोत्तर एवं उत्तर व्याख्या
खण्ड I ( Section – I)
> वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर
1. (a) : बैंक दर में वृद्धि कर RBI व्यावसायिक बैंकों की साख सृजन की क्षमता कम कर देता है चूंकि RBI द्वारा व्यावसायिक बैंकों को दिए जाने वाले ऋण महंगे हो जाते हैं।
उसी प्रकार सरकारी प्रतिभूतियों को बेचकर RBI व्यावसायिक बैंकों की तरलता कम कर उनकी साख सृजन क्षमता को नियंत्रित करता है। ये RBI द्वारा साख नियंत्रण हेतु अपनाए जाने वाले परिमाणात्मक उपाय हैं।
2. (d) : मुद्रास्फीति किसी अर्थव्यवस्था में वह स्थिति है जब मुद्रा की क्रयशक्ति कम होने लगती है तथा वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य बढ़ने लगते हैं। यह उस समय होता है जब मुद्रा की अधिकता एवं वस्तुओं तथा सेवाओं की कमी होती है अथवा उच्च आय की स्थिति होती है एवं मांग आपूर्ति से अधिक हो जाती है। अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक असंतुलन से वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन अधिक महंगा होने से भी इस स्थिति को बल मिलता है ।
3. (a): भारत में सकल घरेलू उत्पाद का सबसे बड़ा अंग उपभोग व्यय है। इसके बाद विनियोग व्यय अथवा सकल स्थिर पूंजी निर्माण का क्रम आता है।
4. (d) : विदेशों से शुद्ध ऋण, भुगतान शेष के पूंजी खाते की मद है न कि चालू खाते की।
5. (d): भारत सरकार ने देश की वित्तीय प्रणाली की वर्तमान संरचना तथा उसके विभिन्न अवयवों का आलोचनात्मक अध्ययन करने और उसमें सुधार लाने के लिए आवश्यक सुझाव देने हेतु भारतीय रिजर्व बैंक के भूतपूर्व गवर्नर श्री एम. नरसिम्हम की अध्यक्षता में एक नौ सदस्यी समिति का गठन अगस्त, 1991 को किया। समिति ने अपनी रिपोर्ट 20 नवम्बर, 1991 को वित्त मंत्री को सौंपी।
6. (a): जीवन बीमा पॉलिसी राष्ट्रीय ऋण नहीं है चूंकि यह न तो भारत की संचित निधि पर आहरित है और न ही भारत सरकार इसके किसी भुगतान हेतु बाध्य है।
7. (b): सकल पूंजी निर्माण का अर्थ किसी लेखा वर्ष में पूंजीगत वस्तुओं के कुल संचय अथवा स्टॉक से है। शुद्ध पूंजी निर्माण का आशय पूंजी के स्टॉक में घिसावट व्यय के बाद वृद्धि से है।
8. (d): भारत में घरेलू बचत की औसत दर GDP के 30% से अधिक है जो वित्तीय वर्ष 11-12 में GDP का सर्वाधिक 34.6% रही।
9. (C): 1 अप्रैल, 2007 से देश की 11वीं पंचवर्षीय योजना प्रारंभ हो गई थी। योजना के दृष्टिकोण पत्र को राष्ट्रीय विकास परिषद् द्वारा 9 दिसंबर, 2006 को अपना अनुमोदन प्रदान कर दिया गया। दृष्टिकोण-पत्र में मुख्य बल अधिक तीव्र, अधिक व्यापकाधारित और समावेशी विकास ( towards faster, more broad-based and inclusive growth) पर है।
10. (b): विश्व के कुल 188 देशों के लिए जारी HDI (Human Development Index) में भारत का 131वां स्थान है। वर्ष 2015 में भारत 130वें स्थान पर था। भारत के लिए यह सूचकांक 0.624 था, जो 2015 में 0.609 था।
11. (c) : सतत् आर्थिक विकास बचत एवं निवेश दोनों पर निर्भर करता है। हरित आधारभूत संरचना एवं तकनीक में निवेश तथा संकटकालीन आवश्यकताओं के कुशलतापूर्वक निर्वाह हेतु बचत, दोनों ही आर्थिक विकास की निरंतरता हेतु आवश्यक हैं।
12. (d): वर्तमान में बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग की सीमा 26% से अधिक किन्तु 49% तक सीमित है। रक्षा और दवाओं के क्षेत्र में सरकारी अनुमोदन के पश्चात् 100% FDI किया जा सकेगा।
13. (a): भारत की केन्द्रीय सरकार द्वारा खाद्य पर दिया जाने वाला अनुदान सर्वाधिक होता है, तत्पश्चात खाद अनुदान (fertiliser subsidy) तथा पेट्रोलियम अनुदान ( petroleum subsidy) का स्थान है।
14. (c): अप्रैल, 2000- दिसम्बर, 2016 में भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश प्राप्त करने वाले शीर्ष 5 क्षेत्र निम्नलिखित हैं
(i) सेवाएं (वित्तीय, बैंकिंग, बीमा, गैर-वित्तीय / व्यवसाय आउटसोर्सिंग, अनुसंधान एवं विकास कोरियर, तकनीकी परीक्षण एवं विश्लेषण – 50.792 बिलियन डॉलर ( 18% )
(ii)  निर्माण, विकास ( टाउनशिप, आवास, बिल्ट-अप अधोरचना) 24.188 बिलियन डॉलर ( 8% )
(iii) कम्प्यूटर हार्डवेयर – सॉफ्टवेयर-21.018 बिलियन डॉलर ( 7% )
(iv) दूरसंचार 18.382 बिलियन डॉलर ( 7% )
(v) ऑटोमोबाइल उद्योग – 15.065 बिलियन डॉलर ( 5% )
15. (d): भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 2013-14 में औसत आधार पर 13.9% है। (2011-12) की कीमतों पर
16. (c) : वैश्वीकरण का तात्पर्य भारतीय अर्थव्यवस्था तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था का एकीकरण है ताकि वस्तुओं, सेवाओं, निवेश तथा मानव संसाधनों का निर्बाध प्रवाह सुनिश्चित हो ।
इसमें अन्य देशों के साथ आर्थिक संबंधों पर न्यूनतम संभाव्य नियंत्रण भी शामिल है।
17. (a): झारखंड मूलत: एक कृषि प्रधान राज्य है। यहां की कुल आबादी का 70-80% जनसंख्या कृषि पर निर्भर है।
18. (a): 10वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत योजना आयोग द्वारा झारखंड राज्य को ₹14,632 करोड़ की राशि आवंटित की गयी थी। दसवीं पंचवर्षीय योजना 2002 से 2007 तक निर्धारित की गयी। झारखण्ड राज्य में संतुलित विकास की महत्ता पर बल देने के लिए दसवीं योजना में राष्ट्रीय लक्ष्यों के समरूप वृद्धि दरों तथा सामाजिक विकास के लक्ष्यों को शामिल करते हुए वृहत् विकासात्मक लक्ष्यों का विवरण शामिल किया गया था।
19. (d): 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड राज्य की कुल जनसंख्या 3, 29, 88,134 है। तेलंगाना गठन के उपरांत झारखंड जनसंख्या की दृष्टि से देश का 14वां राज्य है। इससे पूर्व झारखंड का 13वां स्थान था।
20. (a): झारखंड का चतरा जिला सर्वाधिक वनाच्छादित है। जिले के कुल क्षेत्रफल का 47.72% भाग वनाच्छादित है। ( भारतीय वन सर्वेक्षण रिपोर्ट- 2015 )
> खण्ड II (Section-II) 
प्रश्न : हाल ही में भारतीय विदेशी व्यापार की संरचना एवं दिशा में हुए परिवर्तन की विस्तृत चर्चा करें ।
उत्तर : भारत के विदेशी व्यापार की संरचना (Composition of India’s Foreign Trade ) : नियोजन काल में भारत के विदेशी व्यापार की संरचना में स्पष्ट परिवर्तन देखने को मिलता है।
आयात संरचना (Import Composition ) : भारत की आयात संरचना में तीन प्रकार की वस्तुएं सम्मिलित हैं –
i) पूंजीगत वस्तुएं – जैसे मशीन, लौह धातुएं, अलौह धातुएं, ” परिवहन साधन ।
ii) कच्चा माल खनिज तेल, कपास जूट तथा रासायनिक वस्तुएं ।
iii) उपभोक्ता वस्तुएं- खाद्यान्न, विद्युत उपकरण, औषधियां वस्त्र कागज आदि ।
वर्ष 2011-12 के दौरान भारत के आयातों में खाद्य एवं संबंधित वस्तुओं का हिस्सा 3%, ईधन का हिस्सा 35.3% तथा पूंजीगत वस्तुओं का हिस्सा 13.3% था।
निर्यात संरचना ( Export Composition ) : भारत के निर्यातों को चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है
i) खाद्यान्न अनाज, चाय, तम्बाकू, कॉफी, काजू, मसाले आदि ।
ii) कच्चा माल खालें, चमड़ा, ऊन, रूई, लौह अयस्क, मैंगनिज, खनिज पदार्थ, हीरे-जवाहरात । – व्यापार
iii) विनिर्मित वस्तुएं – जूट का सामान, कपड़ा, चमड़े का सामान, रेशम के वस्त्र, तैयार खनिज, सीमेंट, रसायन, खेल के सामान, जूते।
iv) पूंजीगत वस्तुएं मशीनें परिवहन उपकरण, लोहा इस्पात, इंजीनियरिंग वस्तुएं, सिलाई मशीन।
वर्ष 2011-12 के दौरान भारत के निर्यातों में सर्वाधिक हिस्सेदारी विनिर्मित वस्तुओं ( 66.1% ) की रही। कृषि एवं संबद्ध वस्तुओं की हिस्सेदारी 12.4% तथा अयस्क एवं खनिजों की कुल निर्यातों में हिस्सेदारी 2.8% दर्ज की गयी।
मार्च, 2020 में 21.41 अरब डॉलर का निर्यात हुआ, जो मार्च 2019 में 32.72 अरब डॉलर की तुलना में 34.57 (~ ) % की नकारात्मक वृद्धि को दर्शाता है।
मार्च, 2020 में निर्यात ₹1,59,157.98 था जो मार्च 2019 में निर्यात ₹2,27,318.25, 29.98 ( – )% की नकारात्मक वृद्धि दर्शाता है।
निर्यात में गिरावट मुख्य रूप से चल रही वैश्विक मंदी के कारण थी जो वर्तमान Covid-19 संकट के कारण बढ़ गयी। बाद में आपूर्ति श्रृंखलाओं और मांग में बड़े पैमाने पर व्यवधान उत्पन्न हुए जिसके परिणामस्वरूप आदेश रद्द हो गये।
यथालौह अयस्क को छोड़कर जिसने 58.43% की वृद्धि दर्ज की अन्य सभी जिन्सों / जिन्स समूहों के मूल्य में मार्च, 2020 में मार्च, 2019 की तुलना में नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गयी है। – इंजीनियरिंग सामान ( – 43.32% ), रत्न आभूषण ( 41.05% ), चमड़ा और चमड़े के उत्पाद ( – 36.78% ), तेलयुक्त भोजन ( – 69.85%), चाय ( – 33.72%), चावल ( – 28.28%), अन्य अनाज ( – 33.42%), पेट्रोलियम उत्पाद ( – 31.39% ) । आयात : मार्च 2020 में 31.16 अरब डॉलर, (231710.92) करोड़ रुपये का आयात हुआ जो मार्च, 2019 में 43.72 अरब डॉलर (3,03,753:76 करोड़) के मुकाबले डॉलर (28.72% ) (23.73%) रुपये कम है।
अप्रैल – मार्च 2019-20 में कुल मिलाकर ₹3307977.05 करोड़ का आयात हुआ, जो 2018-19 में ₹3594674.61 रहा, दोनों वित्तीय वर्ष की तुलना में (-) 7.98% नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गयी ।
मार्च, 2020 में मुख्यतः ऋणात्मक वृद्धि वाले क्षेत्र मोती, बहुमूल्य एवं अर्द्ध बहुमूल्य पत्थर ( – 53.46% ) इलेक्ट्रॉनिक गुडस ( – 29.09% ), कोल, कोक, ब्रिकेट ( 23.54% ) , पेट्रोलियम और क्रूड उत्पाद ( – 15%) रहे। मार्च, 2020 में केवल परिवहन उपकरण के आयात में वृद्धि देखी गयी ।
सेवा का व्यापार : निर्यात (प्राप्तियां) में 6.88% की वृद्धि, आयात ( भुगतान) 12.82% की वृद्धि ।
व्यापार संतुलन :
वस्तुएं : मार्च, 2020 में व्यापार घाटा 9.76 अरब डॉलर का अनुमान। जो मार्च, 2019 में 11 अरब डॉलर था।
सेवाएं – फरवरी, 2020 के सेवाओं में व्यापार संतुलन अर्थात शुद्ध सेवा निर्यात 6.66 अरब डॉलर का अनुमान।
समग्र व्यापार संतुलन- वस्तुओं और सेवाओं दोनों को मिलाने पर अप्रैल-मार्च 2019-20 में कुल मिलाकर 70.16 अरब डॉलर का समग्र घाटा का अनुमान है, जो 2018-19 में 103. 32 अरब डॉलर था।
नयी सहस्राब्दी में भारत के निर्यात में तेजी देखी गयी है। 2000-01 में निर्यात $536.50 मिलियन से बढ़कर 2012-13 में 490736.68 मिलियन हो गया और 2015-16 में घटकर 381006.7 मिलियन हो गया।
निर्यात की वस्तुओं के विश्लेषण से यह पता चलता है कि पिछले 15 वर्षों में भारत के निर्यात में खनिज ईंधन, तेल और मोम की सबसे बड़ी हिस्सेदारी रही है। अनाज और फार्मास्यूटिकल का हिस्सा भी बढ़ा है।
निर्यात के प्रमुख गंतव्यों में अमेरिका, यूएई, हांगकांग, चीन, जर्मनी, जापान आदि हैं। आयात में भी यही देश प्रमुख हैं अमेरिका, चीन, यूएई आदि ।
> व्यापार की संरचना :
2018-19 में विनिर्मित मुख्य उत्पाद : वर्ष 2018-19 में पेट्रोलियम उत्पाद देश के निर्यात अंश में 14.1% हिस्से के साथ सर्वाधिक बड़ी वस्तु बनी रही। अन्य मुख्य निर्यातों में मोती, मूल्यवान अर्द्ध- मूल्यवान पत्थर तथा स्वर्ण और औषधि से तैयार वस्तुओं, जैविक वस्तुओं के अलावा अन्य मूल्यवान धातु के आभूषण शामिल हैं। तथापि, जैविक रसायनों का निर्यात सबसे ज्यादा हुआ था, जो 2018-19 में निर्यात का 30.6% था। 2018-19 के आयात अंश में सर्वाधिक हिस्सा पेट्रोलियम (कच्चा तेल) का था, जो 22.2% था तथा इसके बाद स्वर्ण और अर्द्ध-मूल्यवान धातु के आभूषणों का हिस्सा था, जो 6.4% तथा इसके बाद मोती/ अर्द्धमूल्यवान पत्थरों का हिस्सा था, जो 5.3% था।
2018-19 में व्यापार में मुख्य भागीदार : संयुक्त राज्य अमेरिका भारत का सर्वाधिक निर्यातोन्मुख देश बना हुआ है, जो 2018-19 में भारत के निर्यात का (मूल्य के अर्थ में ) 16% अंश के लिए उत्तरदायी है। इसके बाद संयुक्त अरब अमीरात, चीन और हांगकांग आते हैं। तथापि 2018-19 में नीदरलैंड (40.7%) को किये गये भारतीय निर्यात में बढ़ोतरी सर्वाधिक थी। इसके बाद चीन ( 25.6%) और नेपाल ( 17.4% ) का स्थान रहा।
चीन भारत में आयातों का सबसे बड़ा स्रोत बना हुआ है, जो 2018-19 में कुल आयातित मूल्य के 13.7% के लिए जिम्मेवार है। अमेरिका, यूएई और सऊदी अरब अन्य महत्वपूर्ण स्रोत हैं, जिनसे भारत आयात करता है। यद्यपि, चीन भारत का सबसे बड़ा निर्यातक बना हुआ है, परन्तु चीन से भारत का आयात 2017-18 में 76.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर से गिरकर 2018-19 में 70.3 बिलियन हो गया है, जिसने ऋणात्मक वृद्धि दर्ज की है।
सभी मुख्य क्षेत्रीय समूहों के साथ भारत की द्विपक्षीय व्यापार व्यवस्थाएं हैं। यूरोप में, यह यूरोपीय मुक्त व्यापार संघ (European Free Trade Association) का हिस्सा है, जिसमें स्वीट्जरलैंड, नॉर्वे, आईसलैंड और लिक्टनस्टाइन शामिल हैं। 2018-19 में भारत ने ईएफटीए (यूरोपीय मुक्त व्यापार संगठन) के साथ निर्यात व आयात किया है, जो क्रमश: 1534,00 मिलियन अमेरिकी डॉलर और 18,076.88 मिलियन अमेरिकी डॉलर था। सार्क देशों में, भारत और बांग्लादेश के बीच द्विपक्षीय व्यापार व्यवस्था है और दोनों द्विपक्षीय आर्थिक भागीदारी करार (सीईपीए) करने की संभावना तलाश रहे हैं। साथ ही व्यापार हेतु भारत व नेपाल भी समीक्षा बैठकें कर रहे हैं। श्रीलंका के साथ, भारत ने भारत-श्रीलंका मुक्त व्यापार करार किया हुआ है, जिसके अंतर्गत कुछ उत्पादों को छोड़कर लगभग सभी उत्पादों के लिए शुल्क – मुक्त पहुंच प्रदान की जाती है।
भारत और आसियान देश व्यापार करार की समीक्षा करने के लिए सहमत हो गये हैं। आसियान के भीतर, भारत का सिंगापुर, थाईलैंड और मलेशिया जैसे देशों के साथ व्यापार आर्थिक सहयोग करार है। 2018-19 में, भारत ने आसियान गुट के साथ निर्यात व आयात किया है, जो क्रमश: 37,460.34 मिलियन अमेरिकी डॉलर और 59,293.36 मिलियन अमेरिकी डॉलर था। लैटिन अमेरिकी देशों में, भारत का अर्जेंटीना, ब्राजील, पराग्वे और उरुग्वे एवं चिली के साथ अधिमान व्यापार करार (प्रिफ्रेंशियल ट्रेडिंग एग्रीमेंट) है। कोलंबिया के साथ भी पीटीए की संभावनाएं खोजी जा रही हैं। भारत पेरू और इक्वाडोर के साथ व्यापार संबंधी करार पर बातचीत कर रहा है। स्वतंत्र देशों के राष्ट्रकुल, जार्जिया के साथ मुक्त व्यापार करार (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट) और यूरोपियाई आर्थिक संघ के साथ पीटीए पर बातचीत चल रही है। 2018-19 में, भारत ने मर्कोसुर (MERCOSUR) गुट : के साथ निर्यात व आयात किया है, जो क्रमशः 4,705.08 मिलियन अमेरिकी डॉलर से 6,425.35 मिलियन अमेरिकी डॉलर के बीच थी।
उत्तरी अमेरिका मुक्त व्यापार करार (नाफ्टा) के अंतर्गत, भारत कनाडा व्यापार आर्थिक नीति करार (सीईपीए) पर बातचीत चल रही है। भारत, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के साथ द्विपक्षीय व्यापक आर्थिक सहयोग करार पर बातचीत कर रहा है। मॉरिशस के साथ व्यापार आर्थिक सहयोग और सहभागिता करार (क्रांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक कॉर्पोरेशन एंड पार्टनरशिप एग्रीमेंट) तथा इजरायल के साथ एफटीए पर बातचीत चल रही है।
भारत ने विभिन्न देशों/ देश समूहों के साथ 28 द्विपक्षीय बहुपक्षीय व्यापार करार हस्ताक्षरित किये हैं। वर्ष 2018-19 में भारत ने उन देशों के साथ 121.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निर्यात किया था, जिसके साथ इसके व्यापार करार थे और वह सभी देशों के साथ किये गये भारत के निर्यात का 36.9% है। भारतीय विदेश व्यापार की दिशा (Direction of Indian’s Foreign Trade ) : स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात आर्थिक नियोजन प्रारम्भ करने से भारत के विदेशी व्यापार में भारी परिवर्तन हुए। आयात एवं निर्यात में भारी वृद्धि हुई है। सरकारी हस्तक्षेप में बढ़ोतरी हुई है। विदेशी व्यापार लगभग प्रति वर्ष प्रतिकूल रहा है। आयात एवं निर्यात नये-नये देशों से बढ़ा है। यह सभी बातें भारत में विदेशी व्यापार की आधुनिक प्रवृत्तियों या स्वरूप एवं दिशा में हुए परिवर्तन या दिशा एवं रचना में परिवर्तन कहलाती हैं। इन सभी का विवरण निम्नलिखित हैं
1. विदेशी व्यापार की मात्रा में वृद्धि : आयात में आर्थिक नियोजन के कारण विदेशी व्यापार की मात्रा में बराबर वृद्धि होती रही है। आयात में 3,857 गुनी व निर्यात में 2,419 गुने की वृद्धि हुई है। जो आयात 1950-51 में 608 करोड़ रुपये के थे वे बढ़कर 2011-12 में 23, 45,463 करोड़ रुपये के हो गये। इसी प्रकार निर्यात भी जिसका मूल्य 1950-51 में 606 करोड़ रुपये था, 2011-12 में बढ़कर 14,65,959 करोड़ रुपये हो गया। कुल व्यापार जो 1950-51 1,214 करोड़ रुपये का था वह 2011-12 में बढ़कर 38, 11,422 करोड़ रुपये का हो गया है।
2. प्रतिकूल व्यापार संतुलन योजनाकाल में विदेशी व्यापार का सनतुलन दो वर्षो (1972-73 व 1976-77) को छोड़कर शेष सभी वर्षों में प्रतिकूल रहा है। 1972-73 में 104 करोड़ रुपये से व 1976-77 में 68 करोड़ रुपये से विदेशी व्यापार अनुकूल रहा है। 1950-51 में व्यापार संतुलन 2 करोड़ रुपये से प्रतिकूल था जो बढ़कर 8,79,504 करोड़ रुपये हो गया है।
3. निर्यात व्यापार की रचना में परिवर्तन : स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त निर्यात व्यापार में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। स्वतंत्रता – प्राप्ति के समय भारत सूती कपड़ा, जूट एवं जूट की वस्तुएं, चाय, चमड़ा एवं उससे बनी वस्तुएं, कच्चा लोहा, खली, काजू व मसालों का निर्यात करता था, लेकिन अब नवीन वस्तुओं का निर्यात किया जा रहा है। जैसे- साइकिलें बिजली के पंखे, सिलाई मशीनें, मोटर, रेल के डिब्बे, टेलीफोन की साज-सज्जा, मोती एवं बहुमूल्य पत्थर, जवाहरात के जेवरात, लोहा एवं इस्पात, रासायनिक पदार्थ, चांदी, चीनी, जूते एवं चप्पल आदि ।
भारत के परम्परागत निर्यातों में सूती वस्त्र, जूट एवं जूट की वस्तुएं तथा चाय आते हैं जिनका 1950-51 के कुल निर्यात में 55% हिस्सा था। अब इन तीनों का हिस्सा काफी कम हो गया है। इसके विपरीत, इंजीनियरिंग की वस्तुएं, मोती एवं बहुमूल्य पत्थर, सिले- सिलाए वस्त्र, हस्तकला की वस्तुएं व रसायन आदि का हिस्सा इसी काल में काफी बढ़ गया है।
4. आयात व्यापार की रचना में परिवर्तन आयात व्यापार में भी परिवर्तन हुए हैं। खाद्यानों का आयात बढ़ा है। मशीनें व अन्य पूंजीगत वस्तुओं, रसायन एवं उर्वरक, लोहा एवं इस्पात, पेट्रोलियम, तेल एवं अन्य चिकनाई युक्त पदार्थ, कपास, अलौह धातुओं, मोती व बहुमूल्य पत्थर आदि के आयातों में भारी वृद्धि हुई है।
5. निर्यात व्यापार की दिशा में परिवर्तन : स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत का अधिकांश निर्यात व्यापार ब्रिटेन, राष्ट्रमंडल देशों तथा अमेरिका से था। 1950-51 में भारत के कुल निर्यात में ब्रिटेन का हिस्सा 27 प्रतिशत व अमेरिका का 19% था। ब्रिटेन का हिस्सा अब घटकर 2.8 प्रतिशत रह गया है, जबकि अमेरिका का प्रतिशत 11.3 है। इसी प्रकार ऑस्ट्रेलिया व कनाडा का भाग 1950-51 में क्रमश: 7 व 2.3% था जो अब घटकर क्रमशः 0.8 व 0.7 प्रतिशत के लगभग रह गया है। लेकिन रूस का हिस्सा जो 1950-51 में 1 प्रतिशत था घटकर 0.6% हो गया है। इसी अवधि में जापान का हिस्सा 2.2% से घटकर 2.1 प्रतिशत हो गया। यही नहीं, भारत अब नये देशों; जैसे- जर्मनी, चेक गणराज्य आदि को निर्यात करने लगा है। वर्ष 2011-12 में भारत के निर्यात में पांच शीर्षस्थ देश संयुक्त अरब अमीरात (11.78% ). संयुक्त राज्य अमेरिका (11.27%), चीन (5.93%), सिंगापुर (5.49%) तथा हांगकांग (2.24% ) थे।
6. आयात व्यापार की दिशा में परिवर्तन तरह ही आयात व्यापार की दिशा में भी परिवर्तन हुआ है। 1950-51 में अमरीका एवं ब्रिटेन का हिस्सा भारत के कुल आयात में क्रमश: 24% व 19% था, वह अब 2011-12 में घटकर क्रमशः 4.8% व 1.8% रह गया है, लेकिन चीन, संयुक्त अरब अमीरात एवं सऊदी अरब से आयात में वृद्धि हुई है। वर्ष 2011-12 में भारत के आयातों में पांच शीर्षस्थ देश चीन ( 11.78%), संयुक्त अरब अमीरात ( 7.28% ), स्विट्जरलैंड ( 6.59%), सऊदी अरब ( 6.35% ) तथा संयुक्त राज्य अमेरिका (4.78% ) थे।
7. सरकार द्वारा नियंत्रित संस्थाओं द्वारा विदेशी व्यापार भारत के विदेशी व्यापार की एक विशेषता यह भी रही है कि सरकार द्वारा नियंत्रित संस्थाएं भी विदेशी व्यापार करने लगी हैं। कुछ वस्तुओं के संबंध में तो केवल इन्हीं संस्थाओं को विदेशी व्यापार करने की अनुमति दी जाती है ।
भारत में इस प्रकार की कई संस्थाएं हैं; जैसे- भारतीय राज्य व्यापार निगत हस्तकला एवं हथकरघा निर्यात निगम, भारतीय
काजू निगम, भारतीय चलचित्र निर्यात निगम, भारतीय चाय व्यापार निगम, भारतीय परियोजना एवं सामग्री निगम । इस प्रकार के निगमों के अतिरिक्त अनेक सरकारी कम्पनियां हैं, जो निर्यात व्यापार में संलग्न हैं; जैसे- हिन्दुस्तान मशीन टूल्स । सरकारी कम्पनियां व संस्थाओं का भारत के निर्यात में योगदान बढ़ रहा है ।
अथवा
प्रश्न : भारतीय कृषि पर विश्व व्यापार संगठन के प्रभाव की विस्तृत विवेचना करें।
उत्तर : वर्ष 1994 में मोरक्को (माराकेश ) सम्मेलन के पश्चात विश्व व्यापार समझौता कृषि क्षेत्र में लागू हुआ। भारत में यह 1 जनवरी, 1995 से लागू हुआ। इस समझौते द्वारा कृषि क्षेत्र में निवेश और व्यापार के नियमों को वैश्विक स्तर पर संस्थाबद्ध करने का प्रयास किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य कृषि क्षेत्र को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर उत्पाद एवं व्यापार का निजीकरण करना था।
विश्व व्यापार संगठन का तर्क यह था कि यदि देश अपने सुरक्षित अन्न भंडार की सीमा कम कर देते हैं या खत्म कर देते हैं तो इससे विश्व व्यापार उस दिशा की ओर मुड़ जाएगा, जहां मांग अधिक होगी। किसानों को विनियमित बाजारों से लाभ होगा और उनके उत्पादों का बेहतर मूल्य मिलेगा। बाजार की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के कारण उपभोक्ताओं को भी सस्ते मूल्य पर खाद्य सामग्रियां मिलेंगी।
कृषि क्षेत्र में विश्व व्यापार समझौते का प्रभाव : विश्व व्यापार समझौतों के तहत सरकारी खरीद तथा समर्थन मूल्य को कम कर दिये जाने से किसान बेबस और लाचार हो गये। दूसरी ओर विकसित राष्ट्रों ने तरह-तरह के बहाने बनाकर अपने किसानों को भारी सहायता जारी रखी। हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि न तो सभी देशों की व्यावसायिक क्षमताएं एक जैसी होती हैं न उनके हित समान होते हैं इसलिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की शीर्ष संस्था विश्व व्यापार संगठन में कृषि सब्सिडी को लेकर अंतर्विरोध रह-रह कर सतह पर आ जाते हैं।
विकसित देशों के किसानों की व्यक्तिगत उत्पादन लागत कम हुई और बाजारों में कम कीमत पर अपने उत्पादों को बेचकर भी वे मुनाफे में रहे। वहीं हमारे किसान अपनी अत्यधिक कृषि लागत और कम बाजार भाव के कारण ऋणग्रस्त होकर आत्महत्या करने को मजबूर हुए।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान WTO में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर भी सवाल खड़े किये गये हैं। यह ठीक उसी तर्ज पर हो रहा है जिस पर WTO के कई सदस्य देश भारत की कृषि सब्सिडी को कृषि पर समझौता (AoA) नियमों के खिलाफ बताते रहे हैं।
सरकारों द्वारा घरेलू प्रतिभागियों को विदेशी प्रतिभागियों के ऊपर वरीयता तथा उन्हें सब्सिडी वगैरह में कमी लाने हेतु WTO के विभिन्न समझौतों के तहत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था के अंतर्गत कृषि एवं टेक्सटाइल को शामिल करने के लिए एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर लाया गया था। एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर में कृषि के तीन विषयों हेतु प्रावधान दिये गये हैं 1. बाजार तक आसानी से पहुंच बनाना, 2. निर्यात सब्सिडी में कमी लाना 3. घरेलू सहायता में कमी लाना। हालांकि काफी आपत्तियों के बाद भारत को अस्थायी राहत दी गयी, जिसमें कहा गया कि कोई भी WTO सदस्य भारत के खिलाफ विवाद शुरू नहीं करेगा, भले ही इसकी सब्सिडी इसकी प्रतिबद्धताओं से अधिक हो।
किसानों को मिलने वाली सब्सिडी : किसानों को मिलने वाली सब्सिडी को बॉक्स के रूप में जाना जाता है एवं इन्हें तीन समूहों में वर्गीकृत किया गया है
ग्रीन बॉक्स: इसके अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम, स्थानीय विकास कार्यक्रमों, अनुसंधान, आपदा राहत इत्यादि हेतु सरकार द्वारा प्रदान की गयी, आर्थिक सहायता को शामिल किया जाता है, जिस पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं होता है।
ब्लू बॉक्स : इस बॉक्स के तहत उस आर्थिक सहायता को शामिल किया जाता है, जो कृषकों को उत्पादों के उत्पादन में मात्रात्मक कमी लाने हेतु सरकार द्वारा दी जाती है। यह सहायता राशि व्यापार विकृति में कमी लाने हेतु दी जाती है।
अंबर बॉक्स : इसके अंतर्गत ब्लू एवं ग्रीन बॉक्स के अलावा वे सभी सब्सिडियां आती हैं, जो कृषि उत्पादन एवं व्यापार को विकृत करती हैं। इस सब्सिडी में सरकार द्वारा कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण तथा कृषि उत्पादों की मात्रा के आधार पर प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता आदि को शामिल किया जाता है। फर्टिलाइजर, बीज, विद्युत एवं सिंचाई पर दी जाने वाली ऐसी सब्सिडी व्यापार संतुलन को विकृत करती है। ये अत्यधिक उत्पादन को प्रोत्साहित करते हैं तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय बाजारों की अपेक्षा देश के उत्पादों को सस्ता बनाते हैं। इनमें कमी लाना जरूरी है, जिसके लिए विभिन्न प्रतिबद्धताएं तय की गयी हैं।
WTO का कृषि से संबंधित विवादित मुद्दा मुख्यतः इसी अंबर बॉक्स सब्सिडी से संबंधित है। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, यूरोपीय संघ, जापान, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई WTO सदस्यों द्वारा भारत की कृषि नीतियों की जांच की गयी तथा स्किम्ड दूध पाउडर, चीनी और दालें, विशेष रूप से इन सभी उत्पादों/वस्तुओं को प्रदान की जाने वाली निर्यात सब्सिडी और दालों पर आयात प्रतिबंध के लिए भारत की आपूर्ति प्रबंधन नीतियों पर भी सवाल उठाए गये।
न्यूनतम समर्थन मूल्य : यह कृषि मूल्य में किसी भी तेज गिरावट के खिलाफ कृषि उत्पादकों को सुरक्षा प्रदान करने हेतु भारत सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता है। कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों के आधार पर कुछ फसलों के लिए बुआई के मौसम की शुरुआत में भारत सरकार द्वारा न्यूनतम
समर्थन मूल्यों की घोषणा की जाती है। इसका मुख्य उद्देश्य किसानों को बिक्री की चिंताओं से राहत प्रदान करना और सार्वजनिक वितरण के लिए अनाजों की खरीद करना है। वर्तमान में एमएसपी के तहत 26 कृषि उत्पादों (अनाज धान, गेहूं, जौ, ज्वार, बाजरा आदि, दालें – चना, अरहर / तुअर, मूंग, मसूर, तिलहन – मूंगफली सरसों, सोयाबीन, सूरजमुखी आदि, अन्य फसले- नारियल, कच्चा कपास, गन्ना आदि) को शामिल किया गया है।
कृषि मंत्रालय सभी राज्यों में कृषि पर लागत का अध्ययन करवाता है। इस अध्ययन से यह पता चलता है कि किसी राज्य में कोई फसल उगाने पर लागत कितनी आती है। इस अध्ययन के साथ-साथ शेष अन्य क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP) भारत सरकार को अपनी संस्तुति देता है कि किसी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य कितना होना चाहिए।
हाल ही में अमेरिका ने गेहूं और चावल के लिए MSP के अनुदान तथा कपास हेतु सब्सिडी प्रदान करने के आधार पर सवाल उठाया। अमेरिका ने एक दूसरा मुद्दा भी उठाया था, जिसमें ‘इलिजिबल प्रोडक्शन’ की मात्रा को केन्द्र में रखा गया था। गन्ने के लिये भारत की मूल्य नीति को चुनौती देने में ऑस्ट्रेलिया ने भी अमेरिका का ही अनुसरण किया है। ऑस्ट्रेलिया का मुख्य तर्क यह था कि भारत सब्सिडी प्रदान करता है लेकिन इसे WTO के समक्ष घोषित नहीं किया गया है, जबकि गन्ना (नियंत्रण) आदेश, 1966 के मुताबिक, भारत की दीर्घकालिक अवस्थिति ऐसी रही है कि यह गन्ने के लिए उचित और लाभकारी मूल्य निर्धारित करता है, जिसका भुगतान चीनी मिलें किसानों को करती है।
WTO सदस्यों द्वारा प्रदान की गयी सब्सिडी की गणना अंतर्राष्ट्रीय कीमतों के संदर्भ में की जाती है, जिन्हें प्रतिस्पर्धी कीमत माना जाता है। कृषि समझौता को अपनाने के लिये की गयी वार्ता के दौरान प्रत्येक वस्तु का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य 1986-88 की कीमतों के औसत के रूप में लिया गया था। भारत जैसे विकासशील देशों में किसी फसल के लिये बाजार मूल्य समर्थन इसके उत्पादन के कुल मूल्य के 10% से अधिक नहीं हो सकता है। हालांकि भारत के संदर्भ में यह मूल्य कभी भी 10% से अधिक नहीं रहा। फिर भी भारत पर आरोप लगते रहे हैं कि कई फसलों हेतु बाजार समर्थन मूल्य बाजार से काफी ऊपर है।
संकट से जूझ रही भारतीय कृषि के लिए नीतियों में लचीलेपन की आवश्यकता है, जो कृषि समझौते द्वारा प्रदान किये गये ढांचे से उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। केन्द्र सरकार को कृषि क्षेत्र में संरचनात्मक परिवर्तन लाने हेतु प्रयास करना चाहिये, जिसमें छोटे और सीमांत किसानों तथा भूमिहीन श्रमिकों के हितों को केन्द्र में रखा गया हो । भारत जैसे देशों को दोहा राउंड की वार्ता पर फिर से ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। संकट से जूझ रहे कृषि क्षेत्र
से निपटने के लिये भारत को एक लचीली नीतिगत व्यवस्था की जरूरत है। इसके लिये WTO के दोहा राउंड को पुनर्जीवित करना आवश्यक है।
दोहा राउंड WTO सदस्यों के बीच व्यापार वार्ता का नवीनतम दौर है। व्यापक रूप से इसका उद्देश्य उच्च टैरिफ और अन्य बाधाओं, निर्यात सब्सिडी तथा कुछ अन्य प्रकार की घरेलू सहायता के कारण कृषि व्यापार में उत्पन्न विकृति को कम करना है।
विकासशील देशों के विरोध को देखते हुए विकसित देशों के समूह ने वर्ष 2013 में बीच का रास्ता यह निकाला कि प्रस्तावित कृषि समझौते के सबि वाले प्रावधान को 11वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन तक स्थगित रखा जाएगा। यानी अगले चार वर्ष तक कोई देश इस प्रावधान को डब्ल्यूटीओ के विवाद निपटारा प्राधिकरण में चुनौती नहीं दे सकता था। अब वर्ष 2017 में इस प्रावधान की समय सीमा की समाप्ति के साथ ही पुनः एक बार विश्व व्यापार संगठन में कृषि सब्सिडी और खाद्य सुरक्षा को लेकर वाद-विवाद की स्थिति है। यदि कृषि सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य की सीमा तय कर दी गयी तो भारत जैसे देश में खाद्य सुरक्षा के रूप में एक गंभीर संकट उठ खड़ा होगा।
ध्यातव्य है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य ही सरकारी अनाज की खरीद का आधार है। यदि इस आधार को ही डब्ल्यूटीओ ने ध्वस्त कर दिया तो न केवल किसानों के हितों को चोट पहुंचेगी, बल्कि खाद्य सुरक्षा का भविष्य भी अधर में लटक जाएगा। हालांकि कुछ संधियों के मद्देनजर भारत को इस संबंध में कुछ रियायतें मिली हुई है, लेकिन इन रियायतों की भी अपनी एक सीमा है और WTO का कृषि समझौता खाद्य सुरक्षा नीति के विरुद्ध होने के साथ ही देश की नीति-निर्धारण की संप्रभुता में हस्तक्षेप भी है।
निष्कर्षतः हम पाते हैं कि WTO की स्थापना जिस उद्देश्य से की गयी थी कि उनमें वह पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है। भारत जैसे विशाल आबादी और सीमित संसाधनों वाले विकासशील देशों के लिए WTO को अपनी नीतियों का पूनर्मूल्यांकन तथा पुनर्गठन समय की मांग है। इसके अभाव में WTO की भूमिका विकास के पथप्रदर्शक के बजाय वाद-विवाद केन्द्र के रूप में बदल जाएगी । भारत अपने किसानों और जनता के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है । कतिपय सरकारी एवं निजी प्रयासों द्वारा कृषि एवं खाद्य उपलब्धता के क्षेत्र में विकास के अवसर सृजित किए जा रहे हैं।
> खण्ड III (Section-III)
प्रश्न: वर्तमान राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों का वर्णन कीजिए। दर्शाएं की यह अधिनियम निम्न आय वर्ग की खाद्य असुरक्षा को कम करने में सहायक होगा।
उत्तर : खाद्य सुरक्षा को परिभाषित करते हुए कृषि संस्था ने कहा है कि, “सभी व्यक्तियों को सभी समय पर उनके लिए आवश्यक मूलभूत भोजन (भौतिक एवं आर्थिक रूप में) उपलब्ध होना खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करता है। “
देश की लगातार बढ़ती आबादी हेतु खाद्यान्न की सतत आपूर्ति के लिए उपलब्ध सीमित संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग करना अनिवार्य है, जिससे पानी की प्रत्येक बूंद, मृदा के प्रति इकाई क्षेत्र, उर्वरक के प्रत्येक कण और मानव श्रम के प्रत्येक क्षण से अधिकाधिक कृषि उत्पादन लिया जा सके ताकि कोई भी भारतीय भूखे पेट न सोये और साथ ही खाद्यान्न के क्षेत्र में भारत दुनिया का नेतृत्व कर सके।
देश में खाद्य और पौष्टिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का एकमात्र दीर्घकालीन उपाय प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्यवर्धक व पौष्टिक भोजन प्रदान करने के लिए फसल विविधीकरण और समेकित कृषि प्रणालियों के साथ फसल उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने में निहित है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 : लोगों की खाद्य सुरक्षा के प्रति वचनबद्धता को और सुदृढ़ बनाने के लिए भारत सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 (एनएफएसए) जो 10 दिसंबर, 2013 को लागू गया। इस अधिनियम में मानव जीवनचक्र दृष्टिकोण के अनुसार अनाज और पोषक आहार सुरक्षा का प्रावधान किया गया है। इसके अंतगर्त लोगों को उचित दाम पर समुचित मात्रा में बेहतर भोजन सुनिश्चित करने की व्यवस्था है ताकि वे गरिमापूर्ण जीवन जी सकें। यह अधिनियम खाद्य सुरक्षा के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव का सूचक है, जिसमें खाद्य सुरक्षा को कल्याण के एक उपाय की बजाए कानूनी अधिकार का रूप दिया गया है।
यह अधिनियम 75 प्रतिशत ग्रामीण आबादी और 50% शहरी आबादी को कवर करता है। इसमें लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सस्ता अनाज लाभार्थियों को मुहैया कराया जाता है। एक तरह से यह अधिनियम देश की दो तिहाई आबादी को लाभ पहुँचाता है। पात्र व्यक्ति हर महीने क्रमश: ₹3, ₹2 और ₹ 1 प्रति किलोग्राम की सस्ती दर से पाँच किलोग्राम चावल, गेहूँ और मोटे अनाज प्राप्त करने का हकदार है। वर्तमान अंत्योदय अन्न योजना से संबंधित परिवार, जो निर्धनों में सबसे निर्धन समझे जाते हैं, उपरोक्त मूल्यों पर प्रतिमाह प्रति परिवार 35 किलोग्राम अनाज प्राप्त करते रहेंगे।
इस अधिनियम में जिला और राज्य स्तरों पर शिकायत निवारण तंत्र की व्यवस्था का भी प्रावधान है। पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अलग से प्रावधान किये गये हैं।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम अब 34 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में कार्यान्वित किया जा रहा है, जो 73 करोड़ से भी अधिक लाभार्थियों को कवर करता है, परन्तु लक्षित कवरेज करीब 81 करोड़ लोगों को अधिनियम के दायरे में लाने की है। चंडीगढ़, पुदुचेरी और दादर और नगर हवेली के शहरी क्षेत्रों में, यह अधिनियम रोकड़ अंतरण पद्धति के रूप में लागू किया जा रहा है, जिसके
अंतर्गत खाद्य सब्सिडी सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में अंतरित की जाती है, जिससे उनके पास मुक्त बाजार से अनाज खरीदने का विकल्प होता है।
> अधिनियम के प्रमुख उपबंध –
1. प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिमाह 5 किलो अनाज उपलब्ध कराया जाएगा। चावल ₹3 प्रति किलो, गेहूं ₹2 प्रति किलो और मोटा अनाज ₹1 प्रति किलो की दर पर उपलब्ध कराया जाएगा।
2. इसके जरिये 75 प्रतिशत ग्रामीण आबादी और 50 प्रतिशत शहरी आबादी सहित कुल मिलाकार देश की 67 प्रतिशत आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जाएगी।
3. ‘गरीबों में गरीब परिवारों के लिए चलाई जा रही ‘अंत्योदय योजना’ को जारी रखा गया। खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लागू होने के बाद भी अंत्योदय परिवारों को 35 किलो अनाज प्रतिमाह उपलब्ध कराया जाएगा।
4. इस अध्यादेश के अंतर्गत एपीएल, बीपीएल या प्राथमिकता समूह और सामान्य समूह के वर्गीकरण को नकारते हुए और समावेशन मानकों का उपबंध किया गया है।
5. महिलाओं और बच्चों के प्रति संवेदनशीलता प्रदर्शित करते हुए यह अधिनियम महिलाओं और बच्चों ( 6 माह 3 साल) हेतु 500 कैलोरी और 15 ग्राम प्रोटीन के पोषण स्तर का निर्धारण भी करता है। गर्भवती महिलाओं और दुग्धपान कराने वाली माताओं को मातृत्व लाभ के रूप में 6000 रुपये की नकद राशि भी उपलब्ध करायी जायेगी। 6-14 वर्ष के बच्चों के घर पर राशन या गर्म पका हुआ खाना भी उपलब्ध कराया जायेगा।
6. यह अधिनिमय बेघर-बार लोगों के लिए खाद्य- को -सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु सामुदायिक रसोई घर चलाए जाने का भी उपबंध करता है।
7. राष्ट्रीय और राज्य खाद्य सुरक्षा आयोग के गठन का भी प्रावधान किया गया है। राज्य खाद्य सुरक्षा आयोग अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए राज्य सरकार को सलाह देगा। इसके द्वारा जिला शिकायत निवारण अधिकारी के फैसले की जांच की जाएगी और राज्य खाद्य सुरक्षा आयोग के फैसले के विरुद्ध राष्ट्रीय आयोग के समक्ष अपील संभव है। इस आयोग में अध्यक्ष और सचिव के अलावा 5 सदस्य होंगे। दो सदस्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से सम्बद्ध होने चाहिए और दो सदस्य महिलाएं, साथ ही, खाद्य सुरक्षा कानून के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए जिला स्तर पर शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना की जाएगी। कॉल सेंटर और हेल्पलाइन सुविधा उपलब्ध करायी जाएगी। क्रियान्वयन में पारदर्शिता को सुनिश्चित करने हेतु सामाजिक अंकेक्षण का भी उपबंध किया गया है ।
8. प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में यदि केन्द्र राज्यों को अपने हिस्से का अनाज उपलब्ध करा पाने में असमर्थ है, तो उसके बदले राज्यों को केन्द्र द्वारा कोष उपलब्ध कराया जाएगा। अधिनियम प्राकृतिक विपदाग्रस्त लोगों के लिए तीन माह तक निःशुल्क भोजन का भी प्रावधान करता है।
9. यदि किसी अधिकारी या प्राधिकार की दायित्वहीनता और गैर जिम्मेवारी के कारण इस कानून पर अमल नहीं हो पा रहा है, तो संबंधित अधिकारी पर आर्थिक जुर्माना किया जाएगा।
10. इस अध्यादेश का क्रियान्वयन लक्षित जन वितरण प्रणाली के तहत किया जाएगा। इस क्रियान्वयन की जिम्मेवारी राज्यों की होगी।
11. प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने हेतु यह अधिनियम पीडीएस रिफॉर्म की आवश्यकता पर बल देता है।
12. राशन कार्ड में मुखिया के रूप में परिवार की सबसे बुजुर्ग महिला सदस्य का नाम अंकित होगा। वयस्क महिला सदस्य की अनुपस्थिति में सबसे बुजुर्ग पुरुष सदस्य को उस परिवार का मुखिया माना जाएगा।
13. प्रत्येक राज्य सरकार राज्य, जिला, ब्लॉक और उचित मूल्य की दुकानों के स्तर पर निगरानी समितियों के गठन को सुनिश्चित करेगी।
इस प्रकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि यह अधिनियम निम्न आय वर्ग की खाद्य असुरक्षा कम करने पर ही केन्द्रित है। इस अधिनियम के विभिन्न उपबंध खाद्यान्नों की सस्ते मूल्य पर और समय पर उपलब्धता को सुनिश्चित करते हैं तथा किसी गड़बड़ी की स्थिति में शिकायत निवारण की भी व्यवस्था करते हैं।
अथवा
प्रश्न : ‘समावेशी’ को कैसे मापा जाता है? क्या भारतीय आंकड़े रोजगार एवं प्राथमिक/माध्यमिक शिक्षा में हुए आर्थिक समावेशन को दर्शाते हैं?
उत्तर : समावेशी विकास का अर्थ (Meaning of Inclusive Growth) : समावेशी विकास का अर्थ है विकास की ऐसी संकल्पना जो समाज के सभी लोगों, मुख्य रूप से गरीब तथा पिछड़े लोगों को, जो विकास से वंचित हैं, को विकास की मुख्यधारा से जोड़ना। समावेशी विकास अर्थव्यवस्था में विकास के वितरणात्मक पहलू से संबंधित है। इसका अर्थ है कि अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि दर का लाभ देश के सभी लोगों को मिले।
समावेशी विकास के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये तीन
> पहलू आवश्यक हैं
>>आर्थिक विकास की ऊंची दर ।
> अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास से उत्पन्न लाभ का समान वितरण
> वित्तीय समावेशन
भारत में ‘समावेशन’ विकास’ की अवधारणा 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान मुख्य रूप से चर्चा में आयी। समावेशी विकास की दिशा में प्रगति हेतु निम्नलिखित उपायों पर बल देना आवश्यक है।
> रोजगार के अवसरों में वृद्धि जिससे ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में रहने वाले सभी बेरोजगार लोगों को रोजगार मिले तथा उनकी आय में वृद्धि हो ।
> आवश्यक आधारभूत सुविधाएं जैसे-पानी, सड़क, आवास, भोजन इत्यादि तक सभी की पहुंच सुनिश्चित हो।
> कृषि क्षेत्र में निवेश में वृद्धि, जिससे इस क्षेत्र में प्रगति के अवसर बढ़ें तथा अधिक लोगों को रोजगार मिले तथा उनकी आय में वृद्धि हो ।
> समाज के कमजोर वर्ग जैसे- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक, निर्धन वर्ग तथा महिलाओं की सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति में सुधार हो ।
समावेशी विकास के मापक यदि किसी देश की जनसंख्या के सबसे निचले वर्ग के लोगों की प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो रही हो तो यह समावेशी विकास की स्थिति कही जा सकती है। मानव विकास सूचकांक (Human Development Index – HDI) में वृद्धि होने पर भी समावेशी विकास की स्थिति सुनिश्चित होती है।
सरकार द्वारा समावेशी विकास की स्थिति प्राप्त करने के लिये कई योजनाओं की शुरुआत की गई । इनमें शामिल हैंदीनदयाल अंत्योदय योजना, समेकित बाल विकास कार्यक्रम, मिड-डे मील, मनरेगा, सर्व शिक्षा अभियान इत्यादि । वित्तीय समावेशन के लिये सरकार द्वारा कई पहलों की शुरुआत की गई है। इनमें मोबाइल बैंकिंग, प्रधानमंत्री जन धन योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, वरिष्ठ पेंशन बीमा इत्यादि महत्त्वपूर्ण योजनाओं को शामिल किया गया है।
महिलाओं को मद्देनजर रखते हुए सरकार द्वारा स्टार्ट-अप इंडिया, सपोर्ट टू ट्रेनिंग एंड एम्प्लायमेंट प्रोग्राम फॉर वीमेन जैसी योजनाओं की शुरुआत की गई है। इसके अलावा महिला उद्यमिता मंच तथा प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना जैसे प्रयास भी महिलाओं के लिये किये गए वित्तीय समावेशन के प्रयासों में शामिल हैं। किसानों एवं कृषि कार्य हेतु वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने के लिये सरकार द्वारा मृदा स्वास्थ्य कार्ड, नीम कोटेड यूरिया, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन जैसी महत्त्वपूर्ण योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है।
दिव्यांगजनों को समावेशी विकास में शामिल करने के लिये सरकार द्वारा निःशक्ता अधिनियम 1995 कल्याणार्थ राष्ट्रीय न्यास अधिनियम 1999 सिपडा, सुगम्य भारत अभियान, • स्वावलंबन योजना तथा इसके अलावा दिव्यांगजन अधिकार नियम, 2017 जैसे कदम उठाए गए हैं।
रोजगार एवं प्राथमिक/माध्यमिक शिक्षा में हुये आर्थिक समावेशन को हम सरकार द्वारा चलायी जा रही विभिन्न योजनाओं एवं उनकी उपलब्धियों के आधार पर स्पष्ट कर सकते हैं।
रोजगार के क्षेत्र में आर्थिक समावेशन हेतु-
पिछले चार सालों में ग्रामीण क्षेत्रों में ढांचागत सुधार, विविध तरह की आजीविकाओं और गरीबी कम करने के लिये वित्तीय संसाधन जुटाने के लिये पीएमएवाई-जी, पीएमजीएसवाई एमजीएनआरइजीएस, डीएवाई-एनआरएलएम कार्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। ये कार्यक्रम ढांचागत निर्माण और आजीविका विकास में योगदान दे रहे हैं, जिनसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार पैदा हो रहे हैं। “
कौशल के मोर्चे पर अभियान के साथ-साथ संगठित वित्तीय सेवाओं की उपलब्धता का दायरा बढ़ाने के लिये भी कोशिशें की जा रही हैं, जो स्वरोजगार संबंधी मौकों को बढ़ावा देने के लिये जरूरी है। जन धन, आधार और मोबाइल आधारित सेवाओं के जरिये वित्तीय समावेशन हासिल करना मुमकिन हुआ है।
नौकरियों और स्वरोजगार दोनों को सहयोग के लिये एकीकृत रणनीति दीनदयाल अंत्योदय योजना राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (डेएवाई-एनयूएलएम) का हिस्सा है। आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के तहत इस पर काम हो रहा है। यह मिशन सभी शहरों में गरीब और कमजोर आबादी के लिये आजीविका के अवसर तैयार करने की दिशा में काम कर रहा है ।
अन्य प्रमुख योजनाओं में शहरी मिशन मसलन स्वच्छ भारत अभियान – शहरी, प्रधानमंत्री आवास योजना – शहरी, स्मार्ट सिटी मिशन, अटल मिशन फॉर रेजुवेनशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (अमृत) योजना आदि दीर्घकालिक रोजगार के अवसर पैदा करने के मामले में डीएवाई-एनयूएलम को मदद करते हैं।
कौशल संबंधी प्रशिक्षण और नियोजन के जरिये रोजगार – स्किल इंडिया मिशन
> स्वरोजगार कार्यक्रम –
इस मिशन का स्वरोजगार संबंधी हिस्सा लोगों और समूहों को छोटे उद्यम स्थापित करने के लिये 7 फीसदी ब्याज दर पर बैंक कर्ज मुहैया कराता है।
प्रधानमंत्री आवासीय योजना- शहरी, स्वच्छ भारत अभियानशहरी, अमृत और स्मार्ट सिटी मिशन जैसे अभियानों के जरिये शहरी इलाकों में बड़े पैमाने पर निवेश हो रहा है। तेज रफ्तार वाली परिवहन परियोजनाओं के जरिये शहरों में आने-जाने की सुविधा में भी सुध कार हो रहा है। तेजी से बढ़ते शहरी ढांचे के निर्माण और रखरखाव के कारण रोजगार के जबरदस्त मौके पैदा हो रहे हैं।
भारत सरकार रोजगार के अवसर पैदा करने की गति बढ़ाने के प्रति वचनबद्ध है और उसने रोजगार तक सभी को पहुंच सुनिश्चित करने के लिये बहुपक्षीय दृष्टिकोण अपनाया है, जिसमें समाज के गरीब और कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान केंद्रित किया गया है।
बड़ी संख्या में युवाओं के लिये रोजगार के अवसरों की उपलब्धता और उन तक पहुंच बढ़ाने के लिये भारत में नेशनल करियर सर्विस (एनसीएस) प्लेटफार्म के जरिये सार्वजनिक रोजगार सेवा में बदलाव किया गया है ताकि रोजगार के इच्छुक व्यक्तियों, नियोक्ताओं और प्रशिक्षण प्रदाताओं को सूचना प्रौद्योगिकी के सक्षम उपयोग के जरिये एक साझा मंच पर लाया जा सके।
भारतीय कामगारों की गतिशीलता सुनिश्चित करने के लिये 460 जिलों में प्रधानमंत्री कौशल केन्द्र (पीएमकेके) के रूप में बहुकौशल संस्थान स्थापित किये गये हैं और नये केन्द्र भी खोले जा रहे हैं। इससे कौशल बाजार के अनुकूलन पेशों की क्षमता में बहुत इजाफा हुआ है और परिणामस्वरूप रोजगार प्राप्त करने के अवसर भी बढ़े हैं।
> स्वरोजगार में मदद करने से जुड़ी योजनाएं –
दीनदयाल अंत्योदय योजना-सूक्ष्म उद्यमों के लिये अपने रोगजार वाले और उद्यमियों को सक्षम बनाने के लिये ग्रामीण
> स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान खोलना
> आजीविका ग्रामीण एक्सप्रेस योजना
> स्टार्टअप ग्राम उद्यमिता कार्यक्रम
> प्रधानमंत्री मुद्रा योजना
> स्टैंडअप इंडिया
> प्रधानमंत्री रोजगार सृजन योजना
> एस्पायर (नवाचार, ग्रामीण उद्योग और उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिये योजना)
> स्फूर्ति (पारंपरिक भारतीय उद्यमों को नये सिरे से शुरू करने के लिये धन दिये जाने की योजना )
> नारियल उद्यमी योजना (नारियल उद्योग के लिये स्फूर्ति योजना)
> शिक्षा के क्षेत्र में आर्थिक समावेशन हेतु सरकार द्वारा की जा रही पहलें –
यूनीफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फार्मेशन फॉर स्कूल एजुकेशन ( यू – डीआईएसई) 2016-17 के अनुसार भारत में स्कूलों की कुल संख्या 15.3 लाख थी जिनमें से 12.97 लाख स्कूल ग्रामीण क्षेत्रों में थे। स्कूलों में कुल दाखिलों की संख्या 25.13 करोड़ थी जिनमें से 18.2 करोड़ दाखिले ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में हुए। ये आंकड़े देश में पहली कक्षा से लेकर 12वीं तक के सभी विद्यार्थियों के हैं। इस तरह भारत में स्कूलों की कुल संख्या में से 84.46 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में हैं जिनमें देश के कुल विद्यार्थियों का 71.2 प्रतिशत ग्रामीण विद्यार्थियों के नाम दर्ज हैं।
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय का राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण विश्व में अपनी तरह के सबसे बड़े सर्वेक्षणों में से एक है। इसमें देश के 38 राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों के 701 जिलों
में 1,10,000 स्कूलों के 22 लाख विद्यार्थियों के सीखने के नतीजों के आधार पर प्राप्त की गयी दक्षता के मूल्यांकन का प्रयास किया जाता है।
राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण के विभिन्न अध्ययनों में जिन बातों पर सार्वजनिक और निजी संस्थाओं ने चिंता जताई है वह न सिर्फ उपलब्धता (स्कूल/कॉलेज जैसे बुनियादी ढांचे आदि) से संबंधित हैं बल्कि उन तक विद्यार्थियों की पहुंच (दूरी), गुणवत्ता (सीखने के नतीजे), बालिकाओं की शिक्षा, शिक्षण की गुणवत्ता, कौशल शिक्षा को लेकर है।
> स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में सरकार द्वारा की जा रही  विभिन्न पहलें –
जवाहर नवोदय विद्यालयों का विस्तार, समग्र शिक्षा का संपूर्ण भारत में विस्तार और उनके बजट आवंटन में भारी बढ़ोतरी; कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों का विस्तार, दोपहर भोजन योजना के भोजन की गुणवत्ता में सुधार, उन्नत भारत अभियान, स्वच्छता अभियान, मैसिव ऑनलाइन कोर्सेज (मूक्स), एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय योजना का विस्तार, डिजिटल पहल तथा राज्यों द्वारा शिक्षा से संबंधित कई अन्य प्रयासों को बढ़ावा जैसे कई महत्वपूर्ण कदमों के जरिये सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के विकास का प्रयत्न किया है। इनमें से कई कार्यक्रम/योजनाएं/परियोजनाएं खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों के लिये हैं। इसके साथ ही बुनियादी ढांचे के विस्तार, ग्रामीण स्कूलों के अध्यापकों की गुणवत्ता में सुधार जैसे कार्यक्रमों को समग्र शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्यक्रम से जोरदार बढ़ावा मिलने की संभावना है।
> जवाहर नवोदय विद्यालय :
इस समय देश में कुल 661 नवोदय विद्यालय सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। इनमें ग्रामीण क्षेत्रों में कम से कम 75 प्रतिशत सीटें विद्यार्थियों को उपलब्ध कराने का प्रावधान है।
इस योजना की यशगाथा इस तथ्य से साबित हो जाती है कि 2018-19 के परीक्षा परिणामों में जवाहर नवोदय विद्यालयों के विद्यार्थियों का बारहवीं कक्षा का समग्र पास प्रतिशत 96.62 रहा जो बारहवीं कक्षा के राष्ट्रीय पास प्रतिशत (83.4) से बहुत अधिक है।
> समग्र शिक्षा
यह सर्वांगीण शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है। इसमें केन्द्र द्वारा पहले से प्रायोजित तीन योजनाओं- सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान और शिक्षक शिक्षा योजना का विलय किया गया है और स्कूल – पूर्व कक्षाओं से लेकर 12वीं कक्षा तक की शिक्षा के विकास के लिये हाल ही में समन्वित योजना के तौर पर शुरू किया गया है। योजना के अंतर्गत बजट आवंटन में भारी बढ़ोतरी की गयी है और इसे 2019-20 में 36,322 करोड़ रुपये कर दिया गया है। यह राशि 2018-19 के बजट की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक है।
समग्र शिक्षा के कई फायदे हैं और उम्मीद कि इससे ग्रामीण क्षेत्रों को जबर्दस्त फायदा होगा। इस योजना के अंतर्गत प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालय खोलने, स्कूलों में अतिरिक्त कक्षाओं तथा शौचालयों के निर्माण और कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय खोलने की योजना बनाने में स्पेशल फोकस डिस्ट्रिक्ट्स, शैक्षिक रूप से पिछड़े ब्लॉकों, वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जिलों और विकास आकांक्षी जिलों को प्राथमिकता देने का प्रावधान किया गया है। समग्र शिक्षा योजना में ग्रामीण क्षेत्रों समेत सभी इलाकों में स्कूलों के बुनियादी ढांचे को सुदृढ़ करने में राज्यों को सहयोग प्रदान किया जाता है।
> पुनर्गठित कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय (केजीबीवी) योज –
इस योजना के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षित बालिकाओं के लिये 3,700 कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय होस्टलों का विस्तार कर उनमें 12वीं तक की कक्षाओं की बालिकाओं के रहने की व्यवस्था की जायेगी। इससे आमतौर पर अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य वंचित वर्गों की 6 लाख से अधिक बालिकाओं को फायदा होगा।
> दोपहर का भोजन योजना
इस योजना का एक लक्ष्य समाज के वंचित वर्गों, जैसे निर्धन, दलित, जनजातीय बच्चों, खेतिहर मजदूरों समेत मजदूरों के बच्चों और बालिकाओं को दोपहर के भोजन के जरिये स्कूल आने के लिये आकृष्ट करना है। वर्ष 2018-19 में देश भर में 11.35 लाख स्कूलों के 9.12 करोड़ बच्चों को स्कूलों में पौष्टिक और गर्मागर्म पका हुआ दोपहर का भोजन उपलब्ध कराया गया।
मध्याह्न भोजन योजना 2001 में लागू हुई और शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 में पारित हुआ। स्कूलों में बच्चों का दाखिला बढ़ाने और समानता पर आधारित शिक्षा के अवसर प्रदान करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। असल में 2007 से ग्रामीण और शहरी दोनों ही तरह के इलाकों में 6 से 14 वर्ष के बच्चों के दाखिले का आंकड़ा 95 प्रतिशत को पार कर चुका है।
> पुनर्गठित एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय (ईएमआरएस) योजना –
वर्ष 2022 तक ऐसे प्रत्येक ब्लॉक में, जहां अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक है, और जहां कम से कम 20,000 जनजातीय आबादी है, एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय खोला जायेगा। 564 उप-जिलों में से इस समय 102 उप-जिलों में एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय हैं।
देश के दूरदराज इलाकों और ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यार्थियों को तेजी से, उद्देश्यपूर्ण और गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने और अध्यापकों को अध्यापन के साथ-साथ प्रशिक्षण प्रदान करने में डिजिटल पहलों की विशेष भूमिका है।
हाल में ऑपरेशन डिजिटल बोर्ड शुरू किये जाने का उद्देश्य देशभर के सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में ( इस तरह के सेकेंडरी और सीनियर सेकेंडरी स्कूलों की संख्या करीब 1.5 लाख है।) डिजिटल बोर्ड की शुरुआत करना है। इसी तरह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने पहले चरण में 300 विश्वविद्यालयों और 10,000 कॉलेजों को डिजिटल बोर्ड के दायरे में लाने की योजना बनायी है जिसके अंतर्गत 2 लाख कक्षाएं शामिल होंगी।
भारत में शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन और इसके विस्तार के लिये हाल में किये गये जोरदार प्रयासों के दूरगामी परिणाम सामने आये हैं। इनके अंतर्गत न सिर्फ बुनियादी ढांचे पर जोर दिया जा रहा है बल्कि गुणवत्ता की ओर भी ध्यान दिया जा रहा है। शिक्षा प्रदान करने की प्रणाली में सुधार के लिये टेक्नोलॉजी संबंधी अनोखे समाधान खोजे जा रहे हैं।
इसी क्रम में नवीन शिक्षा नीति 2020 भी एक महत्वपूर्ण कदम है जिसके तहत वर्ष 2030 तक सकल नामांकन अनुपात (Gross Enrolment Ratio – GER) को 100 प्रतिशत लाने का लक्ष्य रखा गया है। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत केन्द्र व राज्य सरकार के सहयोग से शिक्षा क्षेत्र पर जीडीपी के 6% हिस्से के सार्वजनिक व्यय का लक्ष्य रखा गया है।
शिक्षक दिवस के अवसर पर मनाये जा रहे शिक्षक पर्व में प्रधानमंत्री द्वारा नयी पहलों की घोषणा की गयी है। जिसमें उन्होंने भारतीय सांकेतिक भाषा शब्दकोश ( श्रवण बाधितों के लिये ऑडियो और अंतर्निहित पाठ सांकेतिक भाषा वीडियो, ज्ञान के सार्वभौमिक डिजाइन के अनुरूप), बोलने वाली किताबें (टॉकिंग बुक्स, नेत्रहीनों के लिये ऑडियो किताबें), केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीआई) के स्कूल गुणवत्ता आश्वासन और आकलन रूपरेखा, निपुण भारत के लिये निष्ठा शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम और विद्यांजलि पोर्टल की शुरुआत की।
> खण्ड IV (Section-IV)
प्रश्न : आर्थिक सुधारों के मूल्यांकन के लिए प्रयुक्त मापदंडों ध्यान में रखते हुए, भारतीय अर्थव्यवस्था पर इनके प्रभावों आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए |
उत्तर : 1980 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था में अध:संरचनात्मक समस्याएं महसूस की जाने लगीं। जब भारत के सकल घरेलू उत्पाद एवं राजकोषीय घाटे, मुद्रा स्फीति तथा ऐसी ही अन्य समस्याओं का अनुपात बहुत अधिक बढ़ने लगा। वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय क्रान्तियों तथा क्रमशः संकुचित होती जा रही विश्व व्यवस्था ने भी अर्थव्यवस्था में मूलभूत परिवर्तनों की अपेक्षाएं बढ़ा दी।
1962 में चीनी आक्रमण, 1965 और 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध तथा 1977 के बाद से लगातार राजनीतिक अस्थिरता के
दौर ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया। 1990 में खाड़ी क्षेत्र में हुए अमरीका- ईराक युद्ध ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था को कुप्रभावित किया। खनिज तेल की आपूर्ति में तो बाधा पहुंची ही, मौद्रिक आपूर्ति में भी अनियमितता आयी।
23 जुलाई, 1991 को भारत ने राजकोषीय और भुगतान शेष (बीओपी) संकट के लिए प्रतिक्रिया के रूप में आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया प्रारंभ की।
> भारत के आर्थिक सुधारों में दो प्रकार की युक्तियां (Measures) शामिल हैं
1. समष्टि अर्थशास्त्रीय स्थिरीकरण युक्तियां (Macro Economic Stablisation Measures ) : इन उपायों द्वारा लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि करके अर्थव्यवस्था की सकल मांग को बढ़ाने की कोशिश थी।
2. संरचनात्मक सुधार युक्तियां (Structural Reforms) : इन उपायों के अंतर्गत उत्पादन प्रक्रिया को उन्मुक्त करके अर्थव्यवस्था में सकल आपूर्ति को बढ़ाने का उद्देश्य निहित था।
इन सुधारों को अर्थशास्त्री अनेक पीढ़ियों में विभाजित करते हैं किन्तु प्रथम पीढ़ी (1991-2000) सुधार के नियामक ही अन्य सुधारों के लिए ठोस धरातल है ।
प्रथम पीढ़ी सुधार (1991-2000 ) : सरकार द्वारा वर्ष 2000 – 01 में प्रथम पीढ़ी के सुधारों की घोषणा की गयी तथा उसी वर्ष आरंभ भी कर दिया गया । इस प्रकार पहले के सुधारों को सरकार द्वारा प्रथम पीढ़ी का सुधार माना गया। प्रथम पीढ़ी के सुधारों में प्रमुख नियामक निम्नांकित हैं :
1. निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन
2. सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार
3. वैदेशिक क्षेत्र में सुधार
4. वित्तीय क्षेत्र में सुधार
5. कर सुधार
इस पीढ़ी के सुधारों ने अर्थव्यवस्था को नयी दिशा देने की कोशिश की जिससे ‘कमांड’ प्रकार की अर्थव्यवस्था बाजार अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर हुई। जिसमें देशी एवं विदेशी निजी क्षेत्र की भूमिका को बढ़ाने पर बल रहा ।
द्वितीय पीढ़ी सुधार ( 2000-01 ) के बाद : द्वितीय पीढ़ी के सुधारों में प्रमुख नियामक निम्नांकित हैं :
1. कारक बाजार सुधार
2. सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार
3. वैधानिक क्षेत्र में सुधार
4. क्रांतिक क्षेत्र में सुधार
5. सरकार एवं लोक संस्थानों में सुधार
भारत में आर्थिक सुधारों की विभिन्न पीढ़ियों के पूर्व की समाप्ति अनुपूरक और सुधारों की अगली पीढ़ी के प्रारंभ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये । वस्तुतः वर्तमान में सभी पीढ़ियां एक साथ चल रही है, ताकि अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्ष्य को परिलक्षित
किया जा सके। भारत में सुधार की विभिन्न पीढ़ियां यह भी तय करती हैं कि सुधार एक सतत प्रक्रिया है, जिसे बदलती परिस्थितियों के साथ बदलने की आवश्यकता होती है। सुधार अर्थव्यवस्था का लक्ष्य नहीं है, बल्कि अर्थव्यवस्था का सुधार लक्ष्य है।
> आर्थिक सुधारों का मूल्यांकन करने के मानदंड
आर्थिक विकास के लक्ष्यों को प्रथम एवं द्वितीय पंचवर्षीय योजना में परिभाषित किया गया है। वे आर्थिक सुधारों के प्रभाव का निर्णय करने के लिए मानदंडों के रूप में भी कार्य करते हैं। बड़े लक्ष्य निम्न हैं:
i) GDP की अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि दर
ii) रोजगार संभावनाओं में वृद्धि जो पूर्ण रोजगार को प्राप्त कर सके
iii) गरीबी रेखा के नीचे की जनसंख्या के अनुपात को कम करना
iv) समाज के निर्धन एवं कम समृद्ध वर्ग के लोगों की दशाओं में सुधार करने के लिए न्याय या वितरणात्मक न्याय को प्रोत्साहित करना
v) भारत में धनी एवं निर्धन राज्यों के बीच क्षेत्रीय विषमताओं को कम करना
vi) जनसंख्या के स्वास्थ्य एवं शिक्षा के रूप में मानव विकास में सुधार लाना
1990 के दशक के प्रारंभ में आर्थिक वातावरण में प्रारंभिक अस्त व्यवस्ता के पश्चात् आर्थिक वृद्धि में सुधार हुआ है तथा हाल के वर्षों में GDP वृद्धि का औसत लगभग 7.5 प्रतिशत रहा है। तथापि, वृद्धि प्रक्रिया में एकरूपता नहीं रही है तथा उसमें वर्ष प्रतिवर्ष उतार-चढ़ाव होते रहे हैं। ऐसा कभी घरेलू विपरीत तत्वों के कारण तो कभी बाह्य वातावरण के विपरीत होने के कारण हो जाता है।
वर्तमान में कोविड-19 जैसी महामारी ने भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव डाला है।
आर्थिक सुधारों ने निर्धनता अनुपात में कमी उत्पन्न की है। किन्तु सभी वर्षों में समान रूप से नहीं। 1993-2000 की अवधि में निर्धनता में ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में लगभग 10 प्रतिशत की कमी आयी है। जो एक संतोषजनक स्थिति प्रस्तुत करती है। तथापि, उसके पश्चात् 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या के प्रतिशत में वृद्धि हुई है जो निर्धनता कम करने की अप्रभावकारी व्यूहरचना का संकेत करती है।
भारत ने आर्थिक विकास का परंपरागत रास्ता अपनाया है जिसमें सकल घरेलू उत्पाद में प्राथमिक क्षेत्र ( कृषि और संबंधित क्षेत्र) का हिस्सा 1950-51 के 52% के स्तर से घटकर 2017-18 में 17% रह गया है। इसी तरह सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र का हिस्सा 35% (1950-51) से बढ़कर 54% (201718) हो गया है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ‘रोजगार और बेरोजगारी सर्वेक्षण 2011-12’ के अनुसार 48.47 करोड़ की श्रम शक्ति ने एक अलग रास्ता अपनाया है। इनमें से 49% प्राथमिक क्षेत्र (कृषि) में संलग्न हैं, इसके बाद 27% सेवा क्षेत्र में कार्य करते हैं और 24% को उद्योगों में रोजगार मिला है।
2004-05 से 2011-12 के दौरान करीब 18 लाख लोग हर साल श्रम शक्ति में जुड़े और करीब इतनों ने ही रोजगार प्राप्त किया जिससे बेरोजगारी दर 2.2% पर लगभग स्थिर बनी रही। इस तरह भारत ने रोजगार बाजार की दृष्टि से वैश्विक आर्थिक मंदी से निपटने में लचीलापन दिखाया है। लेकिन भारत की एक विशेषता इसकी विशाल आबादी है और करोड़ों नौजवानों को उत्पादक क्षेत्रों में रोजगार मुहैया कराया जा सकता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुमान के अनुसार युवाओं में बेरोजगारी करीब 6% के आस-पास रही ।
इसी पृष्ठभूमि में भारत सरकार कई तरह के बहु-आयामी उपायों के जरिये श्रम बाजार की स्थितियों में सुधार पर जोर दे रही है। इनमें रोजगारों की बहुलता के साथ विकास, सामाजिक सुरक्षा के उपायों का दायरा बढ़ाने, श्रम सुधार आदि शामिल हैं।
1980-81 से 1990-91 की अवधि में GDP की औसत वार्षिक वृद्धि 5.6 प्रतिशत थी। तथापि, सुधारों के बाद की अवधि में यह 1991-2000 की अवधि में 5.7 से बढ़कर 2001-12 की अवधि में 7.6 प्रतिशत हो गयी है जो पिछले दशक में उल्लेखनीय वृद्धि प्रदर्शित करती है । तथापि, सुधार-पूर्व अवधि (1980-81 से 1990-91) कृषि में वृद्धि दर 3.7 प्रतिशत वार्षिक थी तथा 1991-2012 की अवधि में कम होकर 2.9 प्रतिशत रह गयी है। आर्थिक सुधारों की अवधि में कृषि क्षेत्र में लगभग स्थिरता यह प्रदर्शित करती है कि वृद्धि प्रक्रिया का जोर उद्योग, निगमित क्षेत्र, बैंकिंग, आधारभूत ढाँचा एवं दूरसंचार पर था तथा कृषि क्षेत्र की लगभग अनदेखी की गयी थी। इसका एक स्वाभाविक कारण कृषि क्षेत्र में सकल पूँजी निर्माण में कमी रही है।
विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में विनियोग 1993-94 में कुल देश के सकल पूँजी निर्माण के 0.42 प्रतिशत से 7.79 प्रतिशत होकर लगभग स्थैतिक बना हुआ है। चूँकि सार्वजनिक क्षेत्र अधिकांशतः सिंचाई एवं ग्रामीण विनियोग की देखभाल करता है, अतः इससे खाद्यान्न उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। हरित क्रांति ने भी देश के सभी क्षेत्रों को समान रूप से लाभान्वित नहीं किया तथा इसके परिणामस्वरूप कृषीय वृद्धि में कमी गयी।
> उद्योग
आर्थिक सुधारों के बड़े उद्देश्यों में से एक उद्देश्य उद्योग में विनियोग की बाधाओं को दूर करना था। औद्योगिक लाइसेंस व्यवस्था की समाप्ति उदार बनाने एवं औद्योगिक उत्पादन को तीव्र करने के लिए की गयी थी। तथापि, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) में सुधार पूर्व अवधि (1980-81 से 1990-91) में 7.8 प्रतिशत की वृद्धि दर प्रदर्शित की, जो सुधारों के बाद की अवधि में कम होकर 5.8 प्रतिशत हो गयी।
विदेशी व्यापार के क्षेत्र में निर्यात प्रोत्साहन प्रयास आयात में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि द्वारा निष्प्रभावी कर दिये गये हैं। एक धनात्मक व्यापार संतुलन का सृजन करने में सक्षम चीन से भिन्न भारत इस संबंध में बहुत पीछे है। भारत के व्यापार का एक उल्लेखनीय लक्षण विशुद्ध अदृश्य मदों में निरंतर वृद्धि है जिसका एक बड़ा भाग सॉफ्टवेयर के निर्यातों द्वारा है। अतः भारत विशुद्ध अदृश्य मदों के खाते में लाभ प्राप्त करने वाला रहा है।
आर्थिक सुधारों का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य क्षेत्रीय विषमताओं को कम करना भी था। सरकार पिछड़े राज्यों को अपेक्षाकृत अधिक आवंटन द्वारा सहायता करती रही है ताकि क्षेत्रीय विषमताएँ कम हो जायें।
2004-05 से 2008-09 की अवधि में संपूर्ण भारत में वृद्धि दर तीव्र हुई है जिसके परिणामस्वरूप संपूर्ण भारत की NSDP में 1990-2000 की अवधि में 5.5% वार्षिक से वृद्धि होकर 2004-09 की अवधि में 8.54% वार्षिक हो गयी है।
निष्कर्षतः हम देख सकते हैं कि आर्थिक सुधारों के पश्चात अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में सकारात्मक बदलाव आये हैं। भले ही कहीं इसका रंग फीका और कहीं चटक है। हालांकि निर्धनता, रोजगार, शिक्षा और कृषि आदि पर मिशन मोड में कार्य करने की जरूरत है।
आर्थिक सुधारों का प्रभाव (GDP) वृद्धि के रूप में सकारात्मक रहा है तथा विदेशी विनियोग में वृद्धि भी संतोषजनक रही है। तथापि, हमारे राष्ट्र की निर्धनता एवं बेरोज़गारी जैसी बड़ी समस्याओं को इन आर्थिक सुधारों से कोई समाधान नहीं मिला है। कृषीय वृद्धि की भी उपेक्षा हुई है जैसा कि सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा इसमें पूँजी विनियोग की लगभग स्थैतिकता देखी जा सकती है। आर्थिक सुधार औद्योगिक वृद्धि को तीव्र करने में भी सफल नहीं हुए हैं।
आर्थिक सुधारों ने भारतीयों के विदेशी बाजारों में प्रवेश करने की अपेक्षा विदेशियों को भारतीय बाजारों में अधिक सीमा तक प्रवेश करने में सहायता की है। निरंतर बना रहने वाला व्यापार घाटा इसका प्रमाण है। आर्थिक सुधार क्षेत्रीय विषमताओं को कम करने में भी असफल हो गये हैं। बड़े एवं छोटे राज्यों के बीच के अंतर में समय के साथ वृद्धि हो रही है।
अथवा
प्रश्न : भारत में कृषि बाजार के दोषों की समीक्षा कीजिए। इसके निदान के लिए सरकार द्वारा कौन-कौन से कदम उठाए जा रहे हैं ?
उत्तर : कृषि के वाणिज्यीकरण के बाद से कृषि उत्पादों के विपणन की स्थिति उत्पन्न हुई है। कृषक को फसल की उचित कीमत प्राप्त हो इसके लिये आवश्यक होगा कि किसान अपनी फसल को सही समय पर व सही स्थान पर विक्रय कर सके। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के पश्चात किसान के लिये घरेलू बाजार के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी अवसर खुले हैं।
वर्तमान व्यवस्था कृषि विपणन की वर्तमान व्यवस्था में परंपरा एवं आधुनिकता के तत्व मिले-जुले हैं। उत्पाद का एक बड़ा अंश अभी भी किसानों द्वारा गांवों में ही विक्रय कर दिया जाता है। ग्रामीण क्षेत्र में किसान को एक भाग अभी भी महाजनों के कर्ज में डूबा है, जो उन्हें बाजार कीमत से कम कीमत पर उत्पाद बेचने पर मजबूर करते हैं। इसके अतिरिक्त गांवों में लगने वाली हाट में भी छोटे एवं मध्यम किसान अपने उत्पादों को बेचते हैं, जिसमें थोक व्यापारियों का एजेंट खेतिहर किसान-मजदूर व कृषि से भिन्न व्यवसायों में संलग्न व्यक्ति खरीददारी करते हैं। किसान अपनी फसल को मंडियों में दलालों की सहायता से आढ़तियों को बेचते हैं। यह मंडिया शहरों या कस्बों में स्थिति होती हैं। इन मंडियों में बड़े किसान ही अधिकांशतः अपना माल बेचते हैं, क्योंकि छोटे किसान अपर्याप्त परिवहन सुविधाओं व दलाल- आढ़तियों की सांठगांठ से रक्षा करने एवं किसानों को फसल का उचित मूल्य प्रदान कराने के उद्देश्यों को सहकारी विपणन प्रणाली के अंतर्गत प्राप्त किया जा सकता है। सहकारी समितियां सदस्य कृषकों से उत्पाद एकत्र कर मंडियों में बेचती हैं जिससे किसानों को फसल की उचित कीमत प्राप्त हो पाती है। मंडियां उत्पादक एवं अंतिम उपभोक्ता के मध्य कड़ी का कार्य करती है। मंडियों में कृषि उत्पादों का विपणन योग्य अधिशेष जमा रहता है।
कृषि विपणन व्यवस्था के दोष : भारत में कृषि विपणन व्यवस्था में अनेक कमियां हैं, जिसके कारण किसान अपनी उपज की उचित कीमत प्राप्त नहीं कर पाते । वर्तमान व्यवस्था में निम्नलिखित दोष हैं
> अपर्याप्त भंडारण : गांवों में भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं होती है और अधिकांश किसान मिट्टी के बर्तनों, मिट्टी के कोठियों या खोड़ियों में फसल को संग्रहित कर रखते हैं जिसके कारण फसल का एक भाग अव्यवस्थित हो जाता है।
> श्रेणीकरण एवं मानकीकरण का अभाव : कृषि उत्पाद की विभिन्न किस्मों को समुचित ढंग से श्रेणीकृत नहीं किया जाता एवं निष्कृष्ट व उच्च किस्मों को एक ही ढेरी में ‘दड़ा प्रणाली’ के अंतर्गत बेच दिया जाता है जिससे किसानों को हानि होती है।
> अपर्याप्त परिवहन सुविधाएं : गांवों व शहरों के मध्य परिवहन व्यवस्था की स्थिति देश में संतोषजनक नहीं हैं। अधिकांश फीडर रोड कच्चे हैं जिन पर बरसात के दिनों में परिवहन संभव नहीं होता। शेष वर्ष में भी सड़कों की स्थिति भारी परिवहन को प्रोत्साहन प्रदान नहीं करती। रेल यातायात की सुविधा कम ही ग्रामों को सुलभ है। समुचित परिवहन व्यवस्था के अभाव में किसानों के लिये बाजारों तक माल पहुंचाने के लिये पर्याप्त प्रोत्साहनों का अभाव होता है। अपर्याप्त परिवहन व्यवस्था के कारण ही किसान निकटतम मंडी में फसल बेचने में सुविधा अनुभव करता है, भले ही कीमतें अन्य स्थानों पर अधिक हों।
> अनियमित बाजार अनियमित मंडियों में किसानों को विविध प्रकार से लूटा जाता है। प्याऊ, बोराबंदी, तुलाई, पल्लेदारी, गर्दा इत्यादि के नाम पर किसान से धन वसूला जाता है। नियमित मंडियों के सापेक्ष भारत में अनियमित मंडियां अधिक हैं। इन मंडियों में ही किसानों का सर्वाधिक शोषण होता है एवं किसानों का एक बड़ा वर्ग इसके कारण प्रभावित होता है।
> बाजार सूचनाओं का अभाव : किसानों को विभिन्न मंडियों में प्रचलित कीमतों के संदर्भ में सही सूचना समय पर नहीं मिल पाती है जिसके कारण उन्हें कीमतों के लिये व्यापारियों पर निर्भर रहना पड़ता है। किसानों तक मंडियों में प्रचलित भावों (कीमतों) के संदर्भ में सूचनाएं उपलब्ध कराना आरंभ किया गया है, परंतु वास्तविक भावों एवं संचार माध्यमों के माध्यम से प्रसारित भावों के मध्य अंतर होता है एवं व्यापारी भी प्रकाशित भावों से कम पर ही सौदा करते हैं ।
> अपर्याप्त साख सुविधाएं: भारतीय किसान फसल आने पर उसे तत्काल बेचने की मनःस्थिति में रहता है। ऐसे समय में कीमतें कम होती हैं और किसान को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। किसानों को आर्थिक हानि से बचाने के लिये उसे पर्याप्त ऋण उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। जिससे किसान फसल बेचने के लिये सही समय एवं उचित कीमत की प्रतीक्षा कर सके। किसानों को ऋण उपलब्ध कराना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि बड़े किसानों के पास प्रतीक्षा करने की सामर्थ्य भी है व संसाधन भी, परंतु अल्प कीमतों पर फसल बेचने का सर्वाधिक दबाव फसल सहभाजकों, लघु व सीमांत किसानों पर होता है।
> विपणन व्यवस्था में सुधार के उपाय : कृषि विपणन की व्यवस्था को सुधारने की दृष्टि से भारत सरकार ने अनेक कदम उठाए –
i) विनियमित मंडियां : विनियमित बाजारों को, अनियंत्रित / अनियमित मंडियों में दलाल – आढ़तियों की साठगांठ से किसानों के हितों की रक्षा करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है। इन मंडियों का विधान सुनिश्चित होता है। मंडी की व्यवस्था एक समिति देखती है, जिसमें राज्य सरकार, स्थानीय संस्थाओं, आढ़तियों, दलालों व किसानों के प्रतिनिधि होते हैं। यह समिति निम्नलिखित कार्यों का संपादन करती हैं
1. तुलाई एवं दलाली के कमीशन को सुनिश्चित करती है।
2. दलाल की निष्पक्षता सुनिश्चित करने का प्रयास करती है ।
3. अनाधिकृत कटौतियों पर प्रतिबंध लगाती है।
4. माप-तौल के लिये सही बट्टों का उपयोग सुनिश्चित करती है।
5. झगड़े की स्थिति में मध्यस्थ की भूमिका निभाती है।
6. खुली नीलामी पद्धति को प्रभावी बनाती है।
ii) श्रेणी व मानक निर्धारण :
कृषि उत्पादों के श्रेणीकरण व मानकीकरण से किसानों को उत्तम गुणवत्ता के उत्पादों को उत्पादित करने का प्रोत्साहन मिलता है एवं उपभोक्ता भी ऐसे उत्पादों के लिये उचित कीमत देने को उत्सुक होता है। भारत सरकार ने कृषि उपज ( श्रेणीकरण एवं विपणन) अधिनियम के माध्यम से घी, आटा, अण्डे, मसाले, इत्यादि वस्तुओं की श्रेणियां सुनिश्चित की है। वस्तुओं की गुणवत्ता की जांच करने के उद्देश्य से केंद्रीय गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशाला (नागपुर) व आठ प्रादेशिक प्रयोगशालाएं स्थापित की गयी हैं। महत्वपूर्ण उत्पादों के सैंपल बाजार से प्राप्त किये जाते हैं एवं उनके भौतिक-रासायनिक गुणों की जांच के उपरांत श्रेणी निर्धारित की जाती है व उत्पादों के पैकेट पर AGMARK (Agriculture Marketing) की मुहर लगा दी जाती है। वर्तमान में कुल 162 कृषि व संबद्ध उत्पादों के संदर्भ में श्रेणी मानक तैयार किये जाते हैं।
iii) मानक बाटों का प्रयोग : सरकार ने देश में प्रचलित विभिन्न माप- प-तौलों की प्रणालियों को समाप्त कर 1 अप्रैल, 1962 से मीट्रिक प्रणाली लागू की जिससे एक ओर जहां किसानों को शोषण से मुक्ति मिली, वहीं दूसरी ओर देशभर में एक समान व्यवस्था कायम हो गयी ।
iv) गोदाम एवं भण्डारण सुविधाएं: गोदाम एवं भण्डारण सुविधाओं से किसानों के लिये सही समय व उचित कीमत पर माल बेचने की क्षमता में वृद्धि होती है। किसान, प्रमाणित गोदामों में संग्रहीत अपने माल की रसीद की प्रतिभूति पर वाणिज्यिक बैंक व सहकारी संस्थाओं से ऋण प्राप्त कर नकदी की आवश्यकता पूरी कर सकता है तथा सही समय की प्रतीक्षा कर सकता है।
भारत में गोदाम व भण्डारण सुविधाओं के विस्तार के लिये 1957 में अखिल भारतीय साख सर्वेक्षण समिति ने राष्ट्रीय, राज्यीय व ग्रामीण स्तर पर गोदाम के निर्माण की सिफारिश की थी। भारत में भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिये भारतीय खाद्य निगम, केंद्रीय गोदाम निगम एवं 16 राज्य गोदाम निगम प्रयत्नशील हैं। इसके अतिरिक्त ग्रामीण स्तर पर सहकारी समितियां गोदाम विकसित करने की ओर प्रयासरत हैं।
v ) विपणन एवं निरीक्षण निदेशालय : विपणन एवं निरीक्षण निदेशालय समय-समय पर देशभर में प्रमुख कृषि उत्पादों की गुणवत्ता-जांच का कार्य करता है। इसके साथ ही कृषि विपणन के विभिन्न आयामों के संदर्भ में अनुसंधान कार्य भी करता है। निदेशालय के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं
> कृषि एवं संबद्ध उत्पादों का श्रेणी व मानकीकरण करना ।
> बाजार एवं बाजार व्यवहारों का वैधानिक विनियमन करना ।
> बाजार विस्तार करना।
> बाजार सर्वेक्षण, आयोजन एवं अनुसंधान करना ।
> कर्मचारियों को प्रशिक्षण प्रदान करना ।
> शीत भण्डारण आदेश, 1980 एवं मांस खाद्य उत्पाद आदेश 1973 को प्रशासित करना ।
vi) सरकारी खरीद एवं समर्थन मूल्य निर्धारण: भारत सरकार विभिन्न कृषि उत्पादों के लिये प्रत्येक फसल मौसम से पूर्व न्यूनतम समर्थन मूल्यों की घोषणा करती है। इस मूल्य पर सरकार किसानों से उनके उत्पाद खरीदने को तत्पर रहती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कृषि कीमत आयोग (जिसका नाम 1985 में परिवर्तित कर कृषि लागत व कीमत आयोग कर दिया गया।) की सिफारिशों के अनुसार किया जाता है। हालांकि इस संदर्भ में सरकार ही अंतिम फैसला लेती है। भारतीय खाद्य निगम जैसी सरकारी एजेंसियां न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खुले बाजार से खरीददारी करनी आरंभ कर देती हैं, जिससे गिरती कीमतें थम जाती हैं। सरकार इन उत्पादों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से अंतिम उपभोक्ता को उचित कीमत पर उपलब्ध कराती है। इस प्रकार किसान व उपभोक्ता दोनों के ही हितों की रक्षा होती है।
सहकारी विपणन : कृषि विपणन में सहकारी संस्थाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। सहकारी संस्थाएं किसानों की दलाल एवं आढ़तियों की शोषणात्मक प्रवृत्तियों से रक्षा करती है । सहकारी संस्थाओं ने स्वयं को मात्र विपणन तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि वे किसानों को कृषि आगतों के लिये ऋण भी उपलब्ध कराती है एवं भण्डारण व प्रसंस्करण की सुविधाएं भी उपलब्ध कराती हैं। ये सहकारी संस्थाएं भारत के लगभग सभी गांवों में फैली हैं एवं कुल ग्रामीण परिवारों के 67 प्रतिशत परिवार सहकारी संस्थाओं के सदस्य हैं।
राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ लिमिटेड (नैफेड) : नैफेड सर्वोच्च सहकारी विपणन संगठन है, जो चयनित कृषि उत्पादों के खरीद, वितरण व आयात-निर्यात में संलग्न हैं। यह सरकार की अनाशवान वस्तुओं (दाल, गेहूं, तिलहन इत्यादि) के संदर्भ में न्यूनतम समर्थन मूल्य, कार्यवाही एवं नाशवान वस्तुओं (फल व सब्जियों) के संदर्भ में बाजार हस्तक्षेप कार्यवाही के लिए नोडल एजेंसी का कार्य करता है ।
फ्यूचर ट्रेडिंग : आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया जारी रखने के क्रम में फ्यूचर-ट्रेडिंग को पुनः आरंभ किया गया है। फ्यूचर ट्रेडिंग अभी केवल गुड़, आलू, कास्टर, सीड, काली मिर्च, हल्दी, कॉफी, कपास, अरंडी तेल, पटसन (जूट), तिलहन व खाद्य तेल इत्यादि वस्तुओं के संदर्भ में ही की जा सकती है।
मूल्यनिर्धारण: भारत में कृषि वस्तुओं की कीमतों में काफी उतार-चढ़ाव देखा गया है, परन्तु सामान्य रूप से स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से इसमें धीरे-धीरे वृद्धि ही होती गयी है।
इस प्रकार की कीमत अस्थिरता का अर्थव्यवस्था पर अत्यन्त बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे एक ओर कृषि का विकास अवरुद्ध होता है तो दूसरी ओर उद्योग तथा सेवा क्षेत्रों में भी अस्थिरता आ जाती है। सरकार को अनेक कड़े कदम उठाने को बाध्य होना पड़ता है । मिलता है और इससे अर्थव्यवस्था सर्वाधिक प्रभावित होती है। कीमतों में अस्थिरता से जमाखोरी, मुनाफाखोरी आदि को भी बढ़ावा निम्न आय वर्ग कीमतों में वृद्धि के परिणामस्वरूप अपनी जरूरी आवश्यकताएं भी पूरा नहीं कर पाता। यदि वर्तमान वर्ष में किसी फसल की कीमत घट जाये, तो अगले वर्ष कृषक उसकी खेती कम मात्रा में करता है। इस प्रकार की चक्रीय प्रवृत्ति अर्थव्यवस्था के लिए अत्यन्त हानिकारक होती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर लिये अपनी सुनिश्चित नीति की घोषणा की है। सरकार ने कृषि कीमत निर्धारित करने का निर्णय किया और इसके
> खण्ड V (Section-V)
प्रश्न : झारखंड सरकार की वर्तमान औद्योगिक नीति की विवेचना कीजिए। औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए, सरकार द्वारा उठाए गये कदमों की समीक्षा कीजिए।
उत्तर : झारखण्ड की औद्योगिक नीति ( Industrial Policy of Jharkhand) : 15 नवम्बर 2000 को झारखण्ड राज्य का गठन हुआ। अगस्त, 2001 में झारखण्ड सरकार ने नई औद्योगिक नीति की घोषणा की।
झारखण्ड की नई औद्योगिक नीति का उद्देश्य राज्य को विदेशी पूंजी निवेश और घरेलू पूंजी निवेश के अनुकूल बनाना है। इसके अन्य उद्देश्यों में प्रमुख हैं, आधारभूत संस्थानों से संबंधित योजनाओं का त्वरित कार्यान्वयन, रोजगार के अवसरों में बढ़ोतरी, उत्पादकता में सुधार, राज्य के सभी भौगोलिक क्षेत्रों का संतुलन के साथ विकास तथा कुटीर उद्योगों का विकास करना ।
झारखण्ड औद्योगिक नीति – 2012 : झारखंड औद्योगिक नीति, 2001 के लागू होने के बाद राज्य के औद्योगिक विकास में प्रगति हुई। इस नीति के कारण 26 वृहत्तर उद्योग (मेगा उद्योग ) 106 वृहद् उद्योग तथा मध्यम उद्योग और 18, 109 सूक्ष्म एवं छोटे उद्योगों की स्थापना हुई। जिसके कारण 28424.06 करोड़ रुपये का निवेश और 63000 लोगों को इन उद्योगों में रोजगार प्राप्त हुआ। इस नीति के कारण राज्य के राजस्व में वृद्धि हुई। साथ ही कुछ प्रक्षेत्रों में जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि हुई। लगभग 17 वृहत्तर उद्योगों ने उत्पादन शुरू किया एवं अन्य कई उद्योगों की स्थापना वित्तीय वर्ष 2011-12 में हुई।
औद्योगिक नीति 2016 ( वर्तमान औद्योगिक नीति) : वर्तमान नीति; विशेषरूप से खनिज और प्राकृतिक संसाधनआधारित उद्योगों, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों, बुनियादी ढांचे का विकास और बीमार इकाइयों को पुनर्जिवित करने तथा निवेश को अधिकतम करने के लिए अनुकूल औद्योगिक वातावरण तैयार करने के लिए बनाई गयी है। इसका उद्देश्य राज्यभर में उद्योगों की स्थापना करने, राजस्व पैदा करने, रोजगार सृजन करने तथा प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने से संबंधित है।
इसका मकसद भारत सरकार की विभिन्न नीतियों एवं कौशल मिशन, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्मार्ट सिटी योजना, स्वच्छ भारत मिशन आदि योजनाओं को झारखंड में उचित प्रकार से लागू किया जाना है। जिससे झारखंड राज्य के सामाजिक एवं मानवीय क्षेत्रों में समग्र विकास हो सके।
> नीति का उद्देश्य
1. झारखंड राज्य को निवेशकों के लिए पसंदीदा राज्य बनाना तथा स्थायी औद्योगिक विकास को बढ़ावा देना।
2. समय पर परियोजना की मंजूरी के लिए वेब आधारित पारदर्शी कार्य तंत्र बनाना, जिससे परियोजना की मंजूरी, उत्पादन की घोषणा और वित्तीय एवं गैर वित्तीय सहायता में सुलभता हो ।
5. औद्योगिक और निवेश प्रोत्साहन नीति, एमएसएमई एक्ट, 2006 एवं अन्य नीति के माध्यम से औद्योगिक और सेवा क्षेत्र में रोजगार का सृजन ।
6. सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों के कपड़ा क्षेत्र, ऑटो कंपोनेंट, खाद्य प्रसंस्करण, सूचना तकनीकी एवं सहायक उद्योगों को बढ़ावा देना।
7. खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों में वृद्धि, अपव्यय में कमी, मूल्य संवर्द्धन (Value Addition) के स्तर को बढ़ाने के लिए प्रयास करना, जिससे किसानों की आय में वृद्धि हो ।
8. झारखंड औद्योगिक पार्क पॉलिसी, 2015 के तहत निजी संयुक्त उद्यम और पीपीपी मोड में अधिक औद्योगिक पार्क का निर्माण करना।
9. सूचना प्रौद्योगिकी और ऑटो घटकों के लिए विशेष निर्यात क्षेत्र (SEZ) को बढ़ावा देना।
10. एकल खिड़की के माध्यम से परियोजना मंजूरी को समयबद्ध तरीके से निपटाना।
11. फूड पार्कों की स्थापना करके कृषि क्षेत्र और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की क्षमता का विकास करना।
12. राज्य के कौशल और मानव संसाधन में गुणात्मक वृद्धि करना।
13. नए टूल रूम को बढ़ावा देना और मौजूदा टूल रूम की गतिविधि यों का विस्तार करना।
झारखंड में व्यापारिक गतिविधियों तथा आर्थिक वातावरण में सुधार करने के लिए कई कार्य किए गये हैं
झारखंड विनियोग प्रोत्साहन बोर्ड : झारखंड को निवेश के लिए पसंदीदा राज्य बनाने के लिए इसका गठन किया गया है, जो उद्योगों को दिशा-निर्देश तथा मार्गदर्शन प्रदान करेगा। यह बोर्ड झारखंड को उद्योगों का ब्रांड एंबेसेडर बनाने के लिए प्रक्रियाओं में सरलीकरण, नीतियों का निर्माण तथा सुधार के लिए निर्देश प्रदान करेगा।
उद्योग प्रोत्साहन हेतु एकल खिड़की व्यवस्था : झारखंड में उद्योगों तथा निवेश में प्रोत्साहन के लिए उद्योग, खनन तथा भू-विज्ञान विभाग द्वारा एकल खिड़की निपटारा व्यवस्था का निर्माण किया गया है, जिससे व्यापार सुगमीकरण तथा राजकोषीय सहायता समयबद्ध तरीके से प्राप्त हो सके।
औद्योगिक गलियारा : भारत सरकार अमृतसर-दिल्लीकोलकाता औद्योगिक गलियारे को विकसित कर रही है, जो पूर्वी समर्पित माल ढुलाई गलियारा ( Eastern Dedicated Freight Corridor) पर स्थित है। झारखंड सरकार बरही, हजारीबाग में समन्वित विनिर्माण क्लस्टर का निर्माण करने जा रही है। साथ ही सरकार कोडरमा-बहरागोड़ा औद्योगिक गलियारे का विकास कर रही है।
झारखंड में औद्योगिक गलियारों को प्रोत्साहन : राज्य सरकार केन्द्र सरकार की विभिन्न योजनाओं के अनुसार औद्योगिक गलियारों का विकास कर रही है, यथा :
1. रिफैक्ट्री क्लस्टर, चीरकुंडा, धनबाद, झारखण्ड रिफैक्ट्री एंड रिसर्च डेवलपमेंट सेंटर नेहरू रोड, चीरकुंडा ।
2. ब्लैक स्मीथ / हैंड फोर्जिंग क्लस्टर, भेंडरा,
बोकारो ।
3. ब्रास एंड ब्रॉन्ज यूटेनसिल्स क्लस्टर, बिष्णुगढ़, हजारीबाग।
4. बम्बो क्लस्टर, बुंडू और सुनाहातु, रेहाबुंडू, रांची।
5. ऑटो सर्विस क्लस्टर, धनबाद |
6. ट्राइबल आर्ट प्रोडक्टस्, खरसावां।
आदि को मिलाकर लगभग 16 औद्योगिक गलियारों का विकास किया जा रहा है।
सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों का विकास : सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में 8 प्रतिशत, कुल विनिर्माण क्षेत्र में 45 प्रतिशत और कुल निर्यात में 40 प्रतिशत का योगदान भारतीय अर्थव्यवस्था में है। यह क्षेत्र कृषि के बाद सबसे ज्यादा रोजगार प्रदान करने वाला क्षेत्र है और सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र के विकास में इसका अद्वितीय योगदान है। झारखंड सरकार इस क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत है।
हस्तकरघा का विकास : झारखंड हस्तकरघा के क्षेत्र में समृद्ध राज्य है। यहां 40 से अधिक किस्म के हस्तकरघे जैसेटेराकोटा, तसर प्रिंट, अगरबत्ती, बांस, चमड़ा क्राफ्ट, ट्राइबल ज्वेलरी, पर्ल ज्वेलरी, पेपर पैकेजिंग, ढोकरा, टाई एंड डाई आदि मौजूद हैं। झारखंड झारक्राफ्ट के माध्यम से गलियारे का विकास किया जा रहा है।
फिल्म उद्योग : इसे विकसित करने के लिए सरकार ने झारखंड फिल्म पॉलिसी, 2015 का निर्माण किया है।
अक्षय ऊर्जा : सौर आधारित परियोजनाओं की स्थापना के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जा रहा है। झारखंड में चरणबद्ध तरीके से वर्ष 2020 तक 2650 मेगावाट की सौर विद्युत ऊर्जा उत्पादन करने का लक्ष्य है।
झारखण्ड का औद्योगिक विकास (Industrial Development of Jharkhand) : झारखण्ड राज्य विभिन्न खनिज संपदा से परिपूर्ण है। देश की लगभग 40 प्रतिशत खनिज संपदा इस राज्य में उपलब्ध है। खनिज संपदा से परिपूर्ण होने के बावजूद झारखण्ड राज्य में बड़े पैमाने पर मूल्यवर्धित उत्पाद करने वाले औद्योगिक इकाइयों की कमी है। राज्य सरकार का यह प्रयास है कि खनिज के मूल्यवर्धन करनेवाले उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाय, जो अधिक से अधिक मूल्यवर्धित सामग्री का उत्पादन
करे ।
झारखण्ड अपनी स्थापना की शुरुआत से ही संसाधन के मामले में परिपूर्ण होते हुए भी औद्योगिक विकास की दृष्टि से बीमार और पिछड़ा हुआ है। लेकिन सरकार की कई दूरगामी नीतियों के कारण झारखण्ड के दिन बहुरने लगे हैं। इसका जीता-जागता उदाहरण यह है कि कारोबार के दृष्टि से सुगम राज्यों की सूची में झारखंड जहां पहले 29वें स्थान पर विराजमान था, आज वहां से लंबी छलांग लगाते हुए तीसरे स्थान पर पहुंच चुका है।
औद्योगिक रूप से पिछड़े क्षेत्र खासकर संथाल परगना के औद्योगिक विकास हेतु विशेष प्रयास किए जा रहे हैं। गोड्डा में भारत सरकार के सहयोग से मेगा हैंड्लूम कलस्टर का कार्य प्रारंभ किया गया है, जिससे संथाल परगना के सभी छह जिलों के बुनकरों को लाभ होगा। राज्य सरकार द्वारा ‘मेक इन इंडिया’ के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए व्यवसाय प्रारंभ करने के लिए प्राप्त किए जानेवाले प्रमाण-पत्रों/निबंधनों के आवेदनों को सरलीकरण कर ऑनलाइन आवेदन प्राप्त करने तथा निर्धारित समयावधि में ऑन लाइन निर्गत किये जाने की व्यवस्था की गई है।
इस व्यवस्था के तहत निवेशकों को सभी प्रकार की आवश्यक सूचनाएं उपलब्ध कराई जाएगी एवं ऑनलाइन आवेदन की सुविधा उपलब्ध है। यह एकल हस्ताक्षर तकनीक लागू करनेवाला झारखण्ड भारत का पहला राज्य है। वर्तमान में यह सुविधा उद्योग विभाग, वाणिज्य कर विभाग, श्रम विभाग, औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकार, झारखण्ड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में लागू है।
> झारखण्ड में औद्योगिक विकास को गतिशील बनाने हेतु चार विशिष्ट नीतियां बनाई गई हैं
1. झारखण्ड राज्य प्रसंस्करण उद्योग नीति, 2015
2. झारखण्ड फीड प्रसंस्करण उद्योग नीति, 2015
3. झारखण्ड औद्योगिक पार्क नीति, 2015
4. झारखण्ड निर्यात नीति, 2015
राज्य के सभी औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकारों में निवेश हेतु भू-आवंटन प्रस्तावों के ऑन लाइन माध्यम से समयबद्ध एवं पारदर्शी, निष्पादन हेतु राज्य सरकार द्वारा चार विनियमन पारित किए गए हैं
1. आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकरण विनियमन, 2015
2. बोकारो औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकरण विनियमन, 2015
3. रांची औद्यौगिक क्षेत्र विकास प्राधिकरण, विनियमन, 2015
4. संथाल परगना औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकरण, विनियमन 2015
रांची में NID अहमदाबाद के सहयोग से CRAFT AND DESIGN संस्थान की स्थापना की जा रही है। C-DAC के माध्यम से पांच स्थानों पर कम्प्यूटर आधारित डिजाइन में प्रशिक्षण की व्यवस्था की जा रही है। झारक्राफ्ट के माध्यम से हस्तशिल्प तथा हस्तकरघा के उत्पादों को विपणन का मंच प्रदान किया गया है। स्व रोजगार हेतु राज्य में कौशल विकास के माध्यम से प्रशिक्षण दिया जा रहा है। एम.एस.एम.ई.टूल रूम, रांची एवं गवर्नमेंट टूल रूम, दुमका द्वारा कौशल विकास से जुड़े विभिन्न औद्योगिक ट्रेडों में प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जिससे कि राज्य में कुशल औद्योगिक कामगार उपलब्ध हो सके। साथ ही दोनों टूल रूमों द्वारा चार वर्षीय डिप्लोमा कोर्स के प्रशिक्षणार्थियों को शत-प्रतिशत रोजगार प्राप्त हो रहा है।
12वीं पंचवर्षीय योजना में उद्योग विभाग द्वारा राज्य के औद्योगिक विकास हेतु सतत प्रयास किया जा रहा है। जिसके फलस्वरूप कई क्षेत्रों में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है।
तसर रेशम उत्पादन में झारखण्ड राज्य का देश में प्रथम स्थान है। वर्तमान में रेशम उत्पादक कृषक, प्रति फसल लगभग 40-50 हजार तक की आय अर्जित कर रहे हैं | Integrated Silk Production Chain स्थापित होने से राज्य में नाभिकीय बीज, बुनियादी बीज एवं वाणिज्यिक बीजों के लिए अन्य संस्थानों पर निर्भरता समाप्त हुई तथा अन्य राज्यों को भी वाणिज्यिक बीजों की आपूर्ति की गई ।
झारखण्ड राज्य खादी ग्रामोद्योग बोर्ड न सिर्फ सफलतापूर्वक राज्य में खादी के विकास एवं प्रसार में उत्कृष्ट भूमिका निभा रहा है, बल्कि ग्रामीण स्तर पर स्वरोजगार भी उपलब्ध करा रहा है। राज्य खादी बोर्ड एवं खादी आयोग तथा ग्रामीण विकास विभाग के संयुक्त तत्वावधान में फरवरी, 2016 में ‘राष्ट्रीय खादी’ एवं ‘सरस महोत्सव’ का आयोजन रांची में किया गया।
राज्य में हथकरघा के विकास हेतु हथकरघा को तकनीकी एवं वित्तीय सहायता मिली, जिसके फलस्वरूप इनकी आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है। C-DAC के माध्यम से राज्य के पांच स्थानों रांची, हजारीबाग, लातेहार, देवघर एवं सरायकेला-खरसावां में कम्प्यूटर एडेड डिजाइन में प्रशिक्षण हेतु योजना की स्वीकृति एवं राशि आवंटित की गई।
झारखण्ड हस्तशिल्प कला से परिपूर्ण राज्य है। काथ, एपलिक, ढोकरा, टेराकोटा इत्यादि पारंपरिक हस्तशिल्प सामग्रियों को विकसित करने हेतु पूरे राज्य में कार्यरत विभागीय हस्तशिल्प केन्द्रों एवं झारक्राफ्ट के सहयोग से उन्नत प्रशिक्षण दिया जा रहा है। NID अहमदाबाद के सहयोग से रांची में झारखण्ड इंस्टीट्यूट ऑफ क्राफ्ट एड डिजाइन’ की स्थापना की स्वीकृति प्रदान की गई है। आदित्यपुर में Electronic Manufacturing Cluster की स्थापना तथा बरही में ग्रोथ सेंटर के रूप में Intergrated Manufacturing Cluster की स्थापना की गई। रांची – पतरातू – रामगढ़ इंडस्ट्रीयल कोरिडोर का निर्माण, जो न सिर्फ औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ाने में सहायक होंगे, बल्कि पूंजी निवेश के नए अवसर के सृजन में भी सहायक होंगे। ‘औद्योगिक गलियारे’ की स्थापना हेतु परियोजना प्रतिवेदन ‘जिन्फ्रा ‘ द्वारा तैयार किया गया है। भारत सरकार द्वारा Eastern Dedicated Freight Corridor के साथ-साथ ‘अमृतसर-दिल्ली – कोलकाता Industrial Corridor विकसित करने की महत्वकांक्षी योजना है। इस योजना का 196 किलोमीटर क्षेत्र झारखण्ड राज्य से गुजरता है। इसी के पास Intergrated Manufacturing Cluster स्थापित करने के लिए बरही (हजारीबाग) में ग्रोथ सेंटर को चिन्हित किया गया है। राज्य की औद्योगिक इकाइयों को विश्वस्तर की प्रतिस्पर्धा में बने रहने के उद्देश्य से Modified Industrial Infrastructure Upgradation Scheme (MIIUS) की योजना कार्यान्वित की जा रही है। इसके अंतर्गत औद्योगिक इकाइयों को Common Facilities तथा Zero Liquid Discharge Effluent Treatment Plant के आधार पर स्थापना की जायेगी एवं इसे बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएगी ।
विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र : निर्यातोन्मुखी उद्योगों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से ‘विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र स्थापित करने की योजना है। इसके अंतर्गत, ऑटोमोबाइल एवं ऑटो कम्पोनेंट ‘विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र’ की योजना है।
औद्योगिक पार्क की स्थापना झारखण्ड औद्योगिक पार्क नीति 2015 के अंतर्गत औद्योगिकीकरण में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने हेतु ‘निजी औद्योगिक पार्क’ एवं PPP Mode पर ‘औद्योगिक पार्क’ की स्थापना का प्रस्ताव है। इसके अंतर्गत वस्त्र/परिधान पार्क, आई. टी. ई. एस. पार्क, जैव प्रौद्योगिकी पार्क, रत्न एवं आभूषण पार्क, जड़ी-बूटी पार्क, रासायनिक एवं औषधीय पार्क की स्थापना की जायेगी।
झारखण्ड औद्योगिक आधारभूत संरचना विकास निगम (जिडको) : ‘जिडको (Jharkhand Industrial Infrastructure Development Corporation, JIIDCo)’ की स्थापना राज्य में औद्योगिक आधारभूत संरचना निर्माण के उद्देश्य से किया गया है। ‘जिडको’ की कुल शेयर पूंजी 50 करोड़ है।
विकास में ‘जिडको’ की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। जगदीशपुर-हल्दिया गैस पाइप लाइन की योजना ‘जिडको’ एवं गेल के संयुक्त तत्वावधान में की जाएगी। ‘जिडको’ एक लाभ अर्जित करनेवाला लोक उपक्रम है।
निर्यात प्रोत्साहन : झारखण्ड एक Land Locked राज्य है। जिसके कारण यहां के उद्यमियों एवं व्यापारियों को अपने उत्पादों को निर्यात करने में न सिर्फ कठिनाई होती है, बल्कि उन्हें अत्यधिक लागत का भी वहन करना पड़ता है। उद्योग विभाग द्वारा रांची में एयर कार्गो, कॉम्पलेक्स की स्थापना की जा रही है। इसके लिए भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण के साथ समझौता किया गया है एवं निर्यात को प्रोत्साहित करने हेतु झारखण्ड निर्यात नीति, 2015 अधिसूचित की गयी है।
> औद्योगिक नीति-2021
झारखंड में पांच लाख लोगों को रोजगार और एक लाख करोड़ के निवेश का लक्ष्य रखकर बनी झारखंड औद्योगिक एवं निवेश प्रोत्साहन नीति – 2021 को मंत्रिपरिषद की बैठक में मंजूरी दे दी गई है। यह नीति एक अप्रैल 2021 से पांच वर्षों के लिए लागू होगी। नई नीति में पांच सेक्टरों टेक्सटाइल एंड अपेरल, ऑटोमोबाइल्स, ऑटो कंपोनेंट्स एंड इलेक्ट्रिक व्हीकल, एग्रोफूड प्रोसेसिंग एंड मीट प्रोसेसिंग इंडस्ट्री, फार्माक्यूटिकल्स और इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम डिजाइन एंड मैन्युफैक्चरिंग पर सर्वाधिक फोकस किया गया है।
इसी प्रकार नीति के तहत आठ सेक्टर पर जोर दिया गया है। ये सेक्टर हैं- स्टार्टअप एंड इंक्यूबेशन सेंटर्स, शिक्षा एवं तकनीकी संस्थान, हेल्थकेयर, पर्यटन, सूचना प्रौद्योगिकी, ब्रुअरी एंड डिस्टीलरी।
झारखंड की नई औद्योगिक एवं निवेश प्रोत्साहन नीति में पहली बार जल्द भौतिक रूप से काम शुरू करने के लिए यूनिट को पांच प्रतिशत की अतिरिक्त कैपिटल सब्सिडी दी जाएगी। इसी प्रकार निजी विश्वविद्यालय, मेडिकल एजुकेशन एंड हेल्थ केयर फैसिलिटी को इनसेंटिव का प्रावधान किया गया है। इसके साथ ही कॉप्रिहेंसिव प्रोजेक्ट इंसेंटिव, स्टांप ड्यूटी रिम्बर्समेंट, क्वालिटी सर्टिफिकेशन एंड रजिस्ट्रेशन में सरकार की ओर से सहायता उपलब्ध होगी।
उद्योग नीति का उद्देश्य अनुकूल कारोबारी माहौल बनाना है। साथ ही उत्कृष्ट बुनियादी ढांचा, प्रगतिशील और अनुकूल औद्योगिक संबंध प्रदान करके झारखंड को निवेशकों के लिए सबसे पसंदीदा जगह बनाना है। यह नीति एक अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र बनाने पर केंद्रित है जो झारखंड में स्थित उद्योगों को अभिनव और विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाती है।
अथवा
प्रश्न : झारखंड में कृषि क्षेत्र के खराब कार्य प्रदर्शन के कारणों की समीक्षा कीजिए। कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता की उच्च वृद्धि दर प्राप्त करने के लिए सुझाव दें।
उत्तर : झारखण्ड मूलतः एक कृषि प्रधान राज्य है। राज्य में खेती योग्य 38 लाख हेक्टेयर भूमि है, जिसमें बोयी गयी भूमि का क्षेत्रफल
कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 23% है। यहां की कुल क्रियाशील आबादी का लगभग 70-80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। राज्य में कृषि सामान्यतः परम्परागत ढंग से की जाती है जिससे यहां की कृषि व्यावसायिक न होकर जीवन निर्वाह प्रकृति की है। यहां की फसलों के कुल उत्पादन में 95% खाद्य फसलों का है, जबकि अखाद्य फसलों का हिस्सा केवल 5% है। अन्य खाद्य फसलों में गेहूं, मक्का, ज्वार, मडुआ आदि प्रमुख हैं।
वर्ष 2000 में झारखण्ड राज्य गठन के समय राज्य में कृषि की स्थिति काफी दयनीय थी। कृषि हेतु आवश्यक आधारभूत संरचना, यथा- सिंचाई हेतु डैम, तालाब, कुंआ, नलकूप इत्यादि सहित उन्नत बीज, उर्वरक तथा कृषि औजारों का नितांत ही अभाव था। फलतः कृषि उत्पादों की मात्रा अति न्यून थी। झारखण्ड राज्य निर्माण के उपरांत सरकारी तथा गैर सरकारी प्रयासों की बदौलत कृषि क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन हुआ है, किन्तु वर्तमान स्थिति भी संतोषप्रद नहीं कही जा सकती।
झारखण्ड में अनुमानत: सिर्फ 1.50 प्रतिशत भूमि ही सुनिश्चित सिंचाई सुविधा से लैस है। 97 प्रतिशत भूमि एक फसली है। सिर्फ 3.14 प्रतिशत भूमि ही दो फसली है। यहां की अधिकांश खेती वर्षा पर निर्भर है। हालांकि इस राज्य में अनुमानतः 16 वृहद और 102 निर्मित व निर्माणाधीन सिंचाई परियोजनाएं हैं। करीब 33310 जलाशय, सतही जल लिफ्ट करने की 100411 प्रणालियां और करीब 128340 आहर हैं। भूगर्भ जल के उपयोग के लिये करीब 211066 कुंएं और 7098 ट्यूब वेल हैं। सरकारी दावों के अनुसार झारखंड में वृहद एवं मझोली परियोजनाओं से फिलहाल 6.94 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होने का अनुमान है। सतही जल की छोटी-छोटी योजनाओं से करीब 2.62 लाख और भूगर्भ जल से करीब 1.90 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती है। इस हिसाब से झारखंड राज्य में सिर्फ 11.46 लाख हेक्टेयर भूमि को किसी न किसी प्रकार की सिंचाई सुविधा उपलब्ध है।
धान राज्य की मुख्य खाद्य फसल है। उत्पादन की दृष्टि से इसका स्थान प्रथम है। झारखण्ड में धान का सबसे बड़ा उत्पादक क्षेत्र सिंहभूम, रांची, गुमला और दुमका है, जहां झारखण्ड के कुल धान उत्पादन के लगभग आधे हिस्सा का उत्पादन होता है। वर्ष 2016-17 में 1678.96 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में धान की खेती की गयी जिससे 4988.065 हजार टन धान का उत्पादन हुआ। राज्य में इसकी उत्पादकता 2971 किग्रा. प्रति हेक्टेयर रही। मक्का उत्पादन की दृष्टि से राज्य का स्थान दूसरा है। झारखण्ड में मक्का का उत्पादन सबसे अधिक पलामू में होता है। इसके बाद हजारीबाग, दुमका, गिरिडीह और साहेबगंज का स्थान आता है। वर्ष 2016-17 में 286.23 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मक्का की खेती की गयी जिससे 578.06 हजार टन मक्का का उत्पादन हुआ। राज्य में इसकी उत्पादकता 2020 किग्रा. प्रति हेक्टेयर रही।
राज्य में वर्ष 2015-16 में 553.493 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में दलहन की खेती की गयी जिससे 495.134 हजार टन कुल दलहन का उत्पादन हुआ। राज्य में इसकी उत्पादकता 895 किग्रा. प्रति हेक्टेयर रही ।
वर्ष 2015-16 में 283.187 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में तिलहन की खेती की गयी जिससे 188.448 हजार टन तिलहन का उत्पादन हुआ। राज्य में इसकी उत्पादकता 778 किग्रा. प्रति हेक्टेयर रही।
इस प्रकार आत्मनिर्भरता के हिसाब से झारखण्ड में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता 355 ग्राम है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 685 ग्राम है। इस राज्य की वर्तमान आवश्यकता 330 ग्राम प्रति व्यक्ति है। इस दृष्टिकोण से राज्य में खाद्यान्न का उत्पादन आवश्यकता के हिसाब से मात्र पचास प्रतिशत है।
वर्ष 2014-15 में राज्य में 83.85 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में फल की फसलें उगाई गयी थीं, जिनसे 859.01 हजार मीट्रिक टन फलों का उत्पादन हुआ। राज्य में उगाये जाने वाले प्रमुख फलों में आम, अमरूद, लीची, नींबू, पपीता और जैकफ्रुट (कटहल) हैं। राज्य में फल की उत्पादकता 11.97 टन/हेक्टेयर थी ।
झारखण्ड फल उत्पादन में निम्न स्तर पर है, इसके साथ-साथ राज्य में खपत उत्पादन का दो-तिहाई है, जो दूसरे राज्यों से पूरा किया जा रहा है, जिससे यह फलों का एक शुद्ध आयातक राज्य बन गया है। राज्य सरकार और विशेषकर राष्ट्रीय बागवानी मिशन की हालिया पहल यह है कि राज्य में फलों की खेती को बढ़ावा देने और फलों से आय बढ़ाने के लिए जोर दिया जाये।
सरायकेला, पूर्वी सिंहभूम जैसे जिले में काजू बागान का प्रमुख हिस्सा है। वर्ष 2014-15 में काजू की खेती 19.66 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में की गयी, जिससे 9.86 हजार मीट्रिक टन काजू का उत्पादन हुआ। वर्ष 2014-15 के सर्वेक्षण के अनुसार 295.23 हजार हेक्टेयर क्षेत्र से 4196.7 मीट्रिक टन सब्जियों का उत्पादन हुआ। आलू, प्याज, बैंगन, टमाटर, मटर, मिर्चा और चुकन्दर आदि उगाये जाने वाली मुख्य सब्जियां हैं। राज्य में सब्जियों की उत्पादकता 15.6 एमटी प्रति हेक्टेयर है।
> झारखंड में कृषि से संबंधित अनेक समस्याएं हैं, जिसके प्रमुख कारण हैं
> भूमि की अम्लीय प्रकृति
> सिंचाई साधनों का अपर्याप्त विकास
> कृषि में शोध एवं नवाचार की कमी
> पर्याप्त वित्त पोषण का अभाव
> बीज की गुणवत्ता तथा उर्वरक संबंधी समस्याएं
> भूमि संबंधी समस्या
झारखंड में लगभग 10 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि अम्लीय भूमि के अंतर्गत आती है, जिसका pH 5.5 से कम है, जिसमें उत्तरी – पूर्वी पठारी जोन, जोन-4 के अंतर्गत जामताड़ा, धनबाद, बोकारो, गिरिडीह, हजारीबाग तथा रांची के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 50% से अधिक भूमि अम्लीय है। इसी प्रकार सिमडेगा, गुमला, लोहरदगा तथा सरायकेला, पूर्वी तथा पश्चिमी सिंहभूम में 7% भूमि अम्लीय है।
भूमि के पोषक तत्वों को देंखे तो झारखंड प्रदेश में मुख्यतः फास्फोरस और सल्फर की कमी पायी जाती है। कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 66% भाग में फास्फोरस और 40% भाग में सल्फर की कमी पायी गयी है। यही स्थिति पोटैशियम नाइट्रोजन और कार्बन की है। साथ ही सूक्ष्म पोषक तत्वों की भी पर्याप्त कमी है।
उच्च मूल्य वाली कृषि को सीमित मात्रा में अपनाया जाना : झारखंड में अधिकांश कृषक परिवार छोटे और सीमांत किसान हैं। यहां धान मुख्य भोजन है और अधिकांश किसान मौसम (मानसून) में केवल एक ही फसल यानि धान की खेती करते हैं, जबकि फल और सब्जियों जैसी उच्च मूल्य की फसलों में अनाज की तुलना में अधिक लाभ प्राप्त करने की क्षमता होती है। हालांकि सब्जियों की खेती के लिए आवश्यक सिंचाई सुविधाओं का अभाव है।
अधिकांश किसान उच्च मूल्यवर्द्धित फसलों की खेती नहीं कर पाते इसके पीछे पूंजीगत तथा तकनीक से जुड़ी समस्याएं हैं। झारखंड में प्रति परिवार भूमि उपलब्धता बहुत कम है, जिससे उत्पादकता और संसाधान उपयोगदक्षता दोनों में कमी आती है। इसके लिए सामुदायिक कृषि के विकल्पों पर विचार करने की आवश्यकता है। फसल चक्रण तथा फसल तीव्रता में कमी भी खराब कृषि प्रदर्शन का एक कारण है। सिंचाई सुविधाओं की उपलब्धता बहु मौसम फसलों और उच्च मूल्यवर्द्धित फसलों के उत्पादन को बढ़ावा दे सकती है।
उच्च उत्पादकता बीजों की उच्च औसत लागत के साथ जुड़ी होती है। अधिकांश किसान बीज, उर्वरक आदि जैसी उत्पादन सामग्री खरीदने में अपनी आय का 45% खर्च कर देते हैं। इस व्यय अनुपात को कम करते हुए उच्च गुणवत्ता वाले बीजों, उर्वरकों तथा कृषि उपकरणों की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए।
सही समय और सर्वश्रेष्ठ कीमतों पर उत्पादन को बाजार तक लाना भी उत्पादन और उत्पादकता को प्रभावित करता है, झारखंड में किसानों को उत्पाद के खराब होने, बिचौलियों के जाल, उच्च
परिवहन एवं विपणन लागत जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, इसके लिए समुचित भंडारण, परिवहन तथा वितरण प्रणाली की आवश्यकता है।
झारखंड में कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि हेतु अनेक हैं सुधारों एवं उपायों की आवश्यकता है, उनमें कुछ प्रमुख हैं –
> मृदा स्वास्थ्य संवर्धन- मिट्टी की भौतिक, जैविक तथा रासायनिक संरचना को अनुकूलतम बनाते हुए इसके कार्बनिक पदार्थों में सुधार द्वारा उत्पादकता में सुधार संभव है साथ ही मिट्टी के पोषक तत्वों की समुचित जानकारी तथा उनमें सुधार भी आवश्यक है।
> सिंचाई जल प्रबंधन एवं आपूर्ति में सुधार जल की उपलब्धता को देखते हुए सिंचाई के लिए समुचित विधियों का प्रयोग, यथा- स्प्रिंकल, ड्रिप विधि का प्रयोग तथा प्रति बूंद अधिक फसल जैसे उपायों को अपनाना आवश्यक है। वर्षा जल संचयन भी इसमें सहायक है।
> पर्याप्त वित्त पोषण तथा ऋण उपलब्धता भी उच्च उत्पादन एवं उत्पादकता का प्रमुख कारक है। इसके अभाव में किसान कृषि के किसी भी क्षेत्र में नवीन प्रयोग नहीं कर सकते, अतः कम ब्याज दरों और अधिक अवधि वाले ऋण उन्हें सुलभ होने चाहिए।
> उन्नत प्रौद्योगिकी एवं प्रशिक्षण कृषि में उन्नत प्रौद्योगिकी जैसे आर्टिफिशियल इंटेलीजेन्स, ऑटो पायलट ट्रैक्टर तथा जीपीएस युक्त फसल सेंसर आदि का प्रयोग समय की मांग है साथ ही कृषकों का समुचित प्रशिक्षण तथा समय-समय पर कृषि प्रदर्शनियों एवं सेमिनारों द्वारा नवीन शोधों एवं नवाचारों से परिचय भी अत्यंत आवश्यक है।
> फसल विविधीकरण, बीजों एवं उर्वरकों के समुचित उपयोग की जानकारी, बिजली उपलब्धता, बैंकिंग प्रणाली का समर्थन आदि अनेक ऐसे उपाय हैं, जिनके द्वारा उत्पादन एवं उत्पादकता के साथ कृषकों की आय बढ़ाई जा सकती है।
ध्यातव्य है कि पशुपालन, मछलीपालन, मुर्गीपालन, मधुमक्खी पालन आदि क्षेत्रों में भी ध्यान देने की आवश्यकता है। ये क्षेत्र भी कृषकों के आय सृजन एवं उत्पादों के मूल्यवर्द्धन में सहायक हैं।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *