अपने देश में ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों की समस्या की विवेचना करें। कार्बन क्रेडिट क्या है ? देश के आर्थिक विकास के लिए कितना वैश्विक उष्माकरण (Global Warming) झेला जा सकता है ?
अपने देश में ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों की समस्या की विवेचना करें। कार्बन क्रेडिट क्या है ? देश के आर्थिक विकास के लिए कितना वैश्विक उष्माकरण (Global Warming) झेला जा सकता है ?
(47वीं BPSC / 2007 )
उत्तर – हमारी वर्तमान ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति मुख्यतः परंपरागत स्रोतों से ही होती है लेकिन जीवाश्म ईंधनों के सीमित भंडार एवं जल- – विद्युत एवं नाभिकीय ऊर्जा के सीमित उत्पादन क्षमता के कारण ऊर्जा के कुछ गैर-परंपरागत स्रोतों के विकास की आवश्यकता है। ऊर्जा के ये स्रोत सामान्यतः नवीकरणीय हैं एवं सर्वसुलभ हैं । गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के रूप में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायोमास, भू-तापीय ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, समुद्र तरंग ऊर्जा, हाइड्रोजन ऊर्जा, बायोडीजल आदि हैं। इनमें सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायोगैस, लघु पनबिजली का उपयोग किया जा रहा है। शेष गैर-परंपरागत स्रोत अभी प्रयोग एवं परीक्षण के दौर में हैं। जिन स्रोतों का प्रयोग किया जा रहा है, उनका विकास भी पर्याप्त मात्रा में नहीं हो सका है तो इसका कारण कुछ समस्याएं हैं, जो निम्नवत् हैं
1. भारत में गैर-परंपरागत ऊर्जा कार्यक्रम में अनुसंधान की गति धीमी है। ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों पर ही विशेष ध्यान दिया जा रहा है। केन्द्र स्तर पर नाभिकीय ऊर्जा हेतु जिस तरह की सक्रियता दिखाई जा रही है, उतनी सक्रियता एवं धन निवेश से गैर परंपरागत स्रोतों का काफी विकास हो सकता है, जो स्थायी एवं सर्व सुलभ होगा। अनुसंधान के अभाव में ये स्रोत काफी महंगे साबित हो रहे हैं। अतः सरकार द्वारा इसके विकास को गंभीरता से न लेना इसकी सबसे बड़ी समस्या है।
2. कुछ गैर-परंपरागत स्रोतों की एक बड़ी समस्या दुर्गम स्थानों में इनकी उपलब्धता है। भू-गर्भीय ऊर्जा, समुद्री-ताप ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा आदि में प्रचुर संभावना होने के बावजूद इनके अनुसंधान की गति धीमी है। पुनः ये अनेक स्थानों में बिखरे पड़े हैं। कहीं-कहीं संभावना है, परंतु लागत के अनुपात में उत्पादन कम होने की समस्या है। अतः इनके विकास के लिए ज्यादा तत्परता नहीं दिखाई जाती।
3. इन स्रोतों के विकास में भ्रष्टाचार भी बाधक है। पंचायतों द्वारा स्ट्रीट लाइट के लिए सौर-प्लेटों की खरीद में भारी भ्रष्टाचार होता है। आबंटित धन का लगभग तीसरा अथवा चौथा भाग इन उपकरणों को खरीदने में व्यय किया जाता है। बाकी पैसा पंचायत-नेताओं, अधिकारियों एवं ठेकेदारों द्वारा गोल कर लिए जाते हैं। ऐसे में ये सस्ते उपकरण जल्द ही खराब हो जाते हैं और बाद में आकलन किया जाता है कि ये स्रोत ज्यादा कारगर नहीं है जमीनी स्तर पर ऐसे भ्रष्टाचार बायोगैस प्लांट आदि में भी होते हैं।
कार्बन क्रेडिट- क्योटो प्रोटोकॉल (1997) के बाद पूरी दुनिया में उद्योगों को कार्बन डाईऑक्साइड (CO,) गैस के उत्सर्जन में कटौती के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कार्बन क्रेडिट का प्रावधान किया गया। कार्बन क्रेडिट ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए उन्हें मौद्रिक रूप देने का तरीका है। सर्वप्रथम सरकारी नियामक एजेंसी उद्योगों के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की सीमा तय करती है। यदि कोई उद्योग, इकाई निर्धारित सीमा से कम कार्बन उत्सर्जन करती है तो उस उद्योग – इकाई को कार्बन क्रेडिट मिलता है जिसे बेचकर वह धन कमा सकती है तथा सीमा से अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाली औद्योगिक इकाई कार्बन क्रेडिट हासिल करने वाली औद्योगिक इकाई से कार्बन क्रेडिट खरीदती है। आदित्य बिड़ला ग्रुप की सीमेंट कंपनी ग्रासीम इंडस्ट्रीज विश्व की पहली सीमेंट कंपनी बन गई है जिसने अपने कार्बन क्रेडिट को यूरोप में बेचकर धन अर्जित किया है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रति टन कार्बन क्रेडिट की कीमत 15-20 डॉलर है।
वर्तमान आर्थिक विकास का ढांचा परंपरागत ऊर्जा संसाधनों पर निर्भर है एवं परंपरागत ऊर्जा संसाधन (कोयला, पेट्रोलियम) ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए मुख्यतया जिम्मेदार हैं। ग्रीन हाउस गैसों ने विश्व के तापमान को काफी बढ़ा दिया है। भविष्य में इसके गंभीर परिणामों की आशंका है। ऐसे में जब आर्थिक विकास को जारी रखना पूरे विश्व खासकर भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले विकासशील देश के लिए मजबूरी है, तो हमें ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायोगैस, बायोडीजल इत्यादि के विकास पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जिससे हमारी दीर्घकालिक ऊर्जा आवश्यकता पूरी होगी, वहीं आर्थिक विकास भी अबाध गति से जारी रहेगी।
> गैर-परंपरागत स्रोत-सौर/ पवन/भू-तापीय/ज्वारीय/समुद्र, तरंग/हाइड्रोजन ऊर्जा, बायोमास, बायोडीजल।
> गैर-परंपरागत स्रोतों की समस्याएं –
> अनुसंधान की कमी
> भौगोलिक समस्या (कुछ गैर-परंपरागत स्रोत – भू-गर्भीय, ज्वारीय ऊर्जा आदि में अनुसंधान संबंधी समस्या)
• कार्बन क्रेडिट
> क्योटो प्रोटोकॉल (1997) के बाद कार्बन क्रेडिट का प्रावधान किया गया।
> कार्बन क्रेडिट ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए उन्हें मौद्रिक रूप देने का तरीका है।
> यदि कोई उद्योग-इकाई निर्धारित सीमा से कम कार्बन उत्सर्जन करती है, तो उस इकाई को कार्बन क्रेडिट मिलता है जिसे बेचकर वह धन कमा सकती है।
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