सिलेबस को परिभाषित कीजिए। वर्तमन सिलेबस में से अपने पसन्द का कोई भी सिलेबस लेकर सिलेबस निर्माण के सिद्धान्तों के आधार पर उसकी समीक्षा कीजिए एवं उसकी कमियों को पहचानिए ।
सिलेबस को परिभाषित कीजिए। वर्तमन सिलेबस में से अपने पसन्द का कोई भी सिलेबस लेकर सिलेबस निर्माण के सिद्धान्तों के आधार पर उसकी समीक्षा कीजिए एवं उसकी कमियों को पहचानिए ।
अथवा
पाठ्यक्रम एवं उसकी विषय-वस्तु के निर्माण के सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
अथवा
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर— शिक्षा को त्रिध्रुवी प्रक्रिया माना जाता है, जिसमें अध्यापक, विद्यार्थी तथा पाठ्यक्रम आता है। पाठ्यक्रम अध्यापक तथा विद्यार्थी के मध्य कड़ी का काम करता है। अतएव शैक्षिक क्रिया में पाठ्यक्रम का विशेष महत्त्व है।
सिलेबस (पाठ्यक्रम ) का अर्थ–’करीकुलम’ (Curriculum) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के एक शब्द ‘क्यूर’ से हुई है, जिसका अर्थ है— (दौड़ का मैदान) Race Course । इस प्रकार ‘पाठ्यक्रम’ दौड़ का मैदान है, जिस पर बालक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये दौड़ता है । ” अन्य शब्दों में किसी निश्चित लक्ष्य अथवा उद्देश्य तक पहुँचने के लिए एक दौड़ का मार्ग अथवा वह रास्ता जिस पर चलकर मनुष्य अपनी मंजिल पर पहुँचता है। इसके अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिये कुछ विद्वानों द्वारा बताई गई परिभाषायें निम्न प्रकार हैं—
कनिंघम के अनुसार, “पाठ्यक्रम कलाकार (अध्यापक) के हाथ में एक साधन है जिससे वह अपनी सामग्री (विद्यार्थी) को अपने आदर्श (लक्ष्य) के अनुसार अपने स्टूडियो ( विद्यालय) में ढालता है । “
क्रो एवं क्रो के अनुसार, “पाठ्यक्रम विद्यार्थी के उन समस्त अनुभवों से सम्बन्धित होता है, जो उसे विद्यालय में और उससे बाहर प्राप्त होते हैं, जो उसके मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक तथा नैतिक विकास में सहायक हैं । “
मुदालियर कमीशन के मतानुसार, “पाठ्यक्रम विभिन्न अनुभवों का योग है। “
अतः हम कह सकते हैं कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में हुए अनुसंधानों के कारण पाठ्यक्रम का अर्थ विस्तृत एवं व्यापक हो गया है। वर्तमान पाठ्यक्रम के व्यापक अर्थ में सम्पूर्ण शैक्षिक वातावरण, विषय एवं शिक्षण को समाहित किया जाता है। जबकि प्राचीनतर समय में पाठ्यक्रम का तात्पर्य केवल साधारण रूप से विद्यालय में पढ़ाए जाने वाले विषयों से ही लिया जाता था। हम कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम एक ऐसा साधन या मार्ग है जिसका अनुसरण कर अध्यापक और बालक दोनों मिलकर शिक्षा के उद्देश्य रूपी मंजिल को तय कर सकते हैं। सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम में सभी विषयों तथा अनुभवों का मिश्रण होता है, इसमें ऐसी विषय वस्तु तथा अनुभवों का समावेश किया जाता है जिससे सामाजिक अध्ययन शिक्षण के उद्देश्यों की पूर्ति किसी न किसी रूप में होती है।
पाठ्यक्रम के सिद्धान्त–शैक्षिक प्रक्रिया पाठ्यक्रम रूपी धुरी के चारों ओर चक्कर काटती है। किसी भी विषय के उद्देश्य निश्चित करने के पश्चात् शैक्षिक जगत् में पाठ्यक्रम का स्थान आता है। कुछ सिद्धान्त जिनके आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए, इस प्रकार हैं —
(1) उद्देश्यों तथा लक्ष्यों को ध्यान में रखना–शिक्षा एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है। अतएव इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है; जैसे उद्देश्य होंगे, पाठ्यक्रम भी वैसा ही होना चाहिए। सामाजिक अध्ययन का उद्देश्य बच्चों का सामाजीकरण करना तथा उनमें लोकतन्त्रात्मक नागरिकता का विकास करना है। तर्क, चिन्तन तथा विचार-विश्लेषण शक्ति को विकसित करना अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना को बढ़ाना आदि। पाठ्यक्रम इन्हीं उद्देश्यों के आधार पर आधारित होना चाहिए। पाठ्यक्रम में वह सभी विषय शामिल होने चाहिए जिनसे इन उद्देश्यों की प्राप्ति हो सके।
(2) बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम–पाठ्यक्रम बच्चों के लिए है बालक पाठ्यक्रम के लिए नहीं। पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय बच्चों की वर्तमान आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए। यदि बालक प्रकृति के आधार पर ज्ञान की अपेक्षा अनुभवों को अधिक महत्त्व देता है तो पाठ्यक्रम अधिकतर अनुभवों पर आधारित होना चाहिए। बालक के अन्दर कुछ जन्मजात प्रवृत्तियाँ हैं । पाठ्यक्रम इन प्रवृत्तियों पर आधारित होना चाहिए। बालक प्रकृति से सक्रिय है, इसलिए पाठ्यक्रम क्रियाओं पर आधारित होना चाहिए। यदि बालक में पहलकदमी, सहयोग, सामाजिकता आदि के गुण भरने हैं तो हमें इन भावनाओं का विकास उनमें सार्थक क्रियाओं द्वारा करना चाहिए ।
(3) एकीकरण का सिद्धान्त–एकीकरण का अर्थ है बालक के सामने पाठ्यक्रम कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया जाए कि वह अपने वातावरण से आवश्यक तालमेल स्थापित कर ले। इसके अतिरिक्त सामाजिक अध्ययन एक ऐसा विषय है जिसका सम्बन्ध अनेक विषयों से है। इन विषयों को पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय भिन्न-भिन्न इकाइयों को स्वतन्त्र व पृथक्-पृथक् नहीं करना चाहिए, बल्कि इन सभी का एकीकरण करना चाहिए।
(4) लचीलेपन का सिद्धान्त–समाज परिवर्तनशील है, समयसमय पर इसकी परिस्थितियों और आवश्यकताओं में परिवर्तन आता हता है। इसलिए परिस्थितियों के परिवर्तन होने पर पाठ्यक्रम में भी परिवर्तन किया जाना चाहिए। सबसे बढ़िया पाठ्यक्रम तो वही है, जो केवल सीमाएँ ही निर्धारित करे। जिनके बीच अध्यापक स्वयं भी बहुत कुछ चुन सके और इस प्रकार स्वतन्त्रता का उपयोग कर सके ।
(5) पाठ्यक्रम विस्तृत आधार वाला हो–वैसे तो हर बालक को जीवन में कोई न कोई व्यवसाय अपनाना है और पाठ्यक्रम उसको इसके लिए तैयार भी करे। परन्तु पाठ्यक्रम को किसी व्यवसाय विशेष के लिए तैयार करने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। पाठ्यक्रम का विस्तृत आधार तभी माना जाएगा जब वह बालक को व्यवसाय विशेष की तैयारी के साथ-साथ उसके भावी जीवन और संसार के लिए भी तैयार करता है। इस प्रकार पाठ्यक्रम बालकों की आवश्यकताओं, रुचियों, क्षमताओं और योग्यताओं के अनुकूल हो। पाठ्यक्रम में व्यक्तिगत सन्तुष्टि, पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध तथा सभी प्रकार की सामाजिक क्रियाओं की ओर ध्यान देना चाहिए।
(6) पाठ्यक्रम समाज केन्द्रित हो–पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि बालक के व्यक्तित्व का विकास समाज में होता है क्योंकि मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज के बिना नहीं रह सकता। समाज केन्द्रित पाठ्यक्रम का अर्थ है बालक अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं का समन्वय उन लोगों की इच्छाओं और आवश्यकताओं से करे जिनके बीच उसे रहना है। सामाजिक विकास शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है । इसलिए पाठ्यसामग्री का चयन करते समय समाज के उद्देश्यों को ध्यान में रखना चाहिए।
(7) प्रेरणा का सिद्धान्त–प्रेरणा शब्द से अभिप्राय है बच्चों को सीखने के लिए उत्साहित करना, प्रोत्साहित करना या प्रेरित करना । अच्छा सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम प्रेरणा के सिद्धान्त पर आधारित होता है। पाठ्यक्रम बाल मनोविज्ञान पर आधारित होना चाहिए। पाठ्यक्रम बच्चों की इच्छा, रुचि, क्षमता, योग्यता व आवश्यकता पर आधारित होना चाहिए। तभी बच्चे पढ़ने में रुचि लेंगे अन्यथा अध्यापक के डर से शान्ति से तो बैठेंगे पर निष्क्रिय श्रोता बने रहेंगे, जिससे उनका पढ़ने के समय ध्यान और रुचि समाप्त हो जायेगी। इसलिए जहाँ तक हो सके ऐसा पाठ्यक्रम बनाना चाहिए जिससे बच्चों को अधिक से अधिक प्रेरणा मिल सके।
(8) क्रिया का सिद्धान्त–पाठ्यक्रम क्रिया प्रधान होना चाहिए, जहाँ तक सम्भव हो ज्ञान क्रियाओं के द्वारा विद्यार्थियों को प्रदान करना चाहिए, क्योंकि स्वयं क्रिया करके प्राप्त ज्ञान स्थाई और प्रभावशाली होता है। बाल मनोविज्ञान के अनुसार बच्चों की प्रकृति क्रियाशील होती है। इसलिए यदि पाठ्यक्रम कार्यों के द्वारा प्रदान किया जाता है तो ऐसे पाठ्यक्रम को सार्थक माना जायेगा ।
(9) जीवन से सम्बन्धित–पाठ्यक्रम ऐसा हो कि उसका विद्यार्थी के जीवन से सीधा सम्बन्ध हो क्योंकि जो वस्तु विद्यार्थियों के जीवन से सम्बन्धित होती है उसके बारे में वे अधिक से अधिक जानने की चेष्टा करते हैं ।
(10) उपयोगिता का सिद्धान्त–पाठ्यक्रम हमारे जीवन के लिए भी उपयोगी होना चाहिए। पाठ्यक्रम से छात्रों को ऐसा ज्ञान प्राप्त होना चाहिए जिसे वे अपने व्यावहारिक जीवन में लाभकारी रूप से प्रयोग कर सकें। जब छात्र किसी विषय की उपयोगिता जान लेते हैं तो उस विषय के प्रति उनकी रुचि अपने आप जागृत हो जाती है।
(11) व्यापकता का सिद्धान्त–प्राय: देखा गया है कि लोगों के मन में यह धारणा होती है कि जो कुछ भी पुस्तकों में है वही पाठ्यक्रम है, परन्तु यह धारणा बहुत संकुचित है। पाठ्यक्रम व्यापक होना चाहिए। सामाजिक अध्ययन विषय का ज्ञान केवल पुस्तकों एवं कक्षा शिक्षण तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। अपितु यह ज्ञान सम्पूर्ण शैक्षिक वातावरण से प्राप्त कराने की व्यवस्था होनी चाहिए।
(12) समन्वय का सिद्धान्त–यह भी एकीकरण के सिद्धान्त का एक रूप है। पाठ्यक्रम का निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि वह विभिन्न ज्ञानों को सम्बन्धित करने सहायक हो। एक विषय का सीधा सम्पर्क दूसरे विषय से स्थापित करने का यत्न करना चाहिए।
(13) परिवर्तन का सिद्धान्त–पाठ्यक्रम बनाते समय परिवर्तन के सिद्धान्त को स्थान देना चाहिए। समय परिवर्तनशील है। जीवन में भी बड़ी तेजी से बदलाव आ रहा है, इसलिए पाठ्यक्रम का निर्माण एक निरन्तर क्रिया बन गया है। समय, परिस्थिति तथा समाज की बदलती हुई आवश्यकता के कारण पाठ्यक्रम में परिवर्तन होना आवश्यक है। कोई भी पाठ्यक्रम सम्पूर्ण रूप से सदा एक जैसा नहीं रहता।
(14) तत्कालीन घटनाओं से सम्बन्धित हो–सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम में भूतकालीन घटनाओं के साथ-साथ वर्तमान घटनाओं का भी समावेश होना चाहिए। तत्कालीन घटनाओं का ज्ञान प्रत्येक बच्चे के लिए आवश्यक है। देश-विदेश में क्या हो रहा है। देश किस रास्ते पर जा रहा है ? आधुनिक समय में विज्ञान ने क्या प्रगति की है, सम्पूर्ण विश्व को एक रूप में देखना, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का विकास होना आदि बातों का ज्ञान सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम द्वारा बच्चों को देना चाहिए।
(15) अवकाश के सदुपयोग का सिद्धान्त–अच्छा पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिसमें केवल काम के लिए ही नहीं, खाली समय के सदुपयोग का भी प्रशिक्षण मिले। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सामाजिक तथा अन्य क्रियात्मक क्रियाओं को पाठ्यक्रम में स्थान मिलना चाहिए।
(16) अनुभवों की पूर्णता का सिद्धान्त–शिक्षा का कार्य केवल विद्यार्थियों को कक्षा शिक्षण देना ही नहीं है, अपितु बालकों के अनुभवों को परिपक्व बनाना है। पाठ्यक्रम में स्कूल के अन्दर तथा स्कूल के बाहर की क्रियाओं द्वारा प्राप्त सभी अनुभवों को स्थान दिया जाता है। अच्छा पाठ्यक्रम वही है जिसमें बालकों को उपयोगी क्रियाओं द्वारा अच्छे अनुभव दिए जा सकें।
(17) चयन का सिद्धान्त–सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय चयन के सिद्धान्त को भी ध्यान में रखना चाहिए । बच्चों की व्यक्तिगत भिन्नता को ध्यान में रखते हुए उनकी आवश्यकता, रुचि तथा कौशलता के आधार पर पाठ्यक्रम में विषयों का चयन होना चाहिए। पहले आवश्यक विषयों को क्रम में रखना चाहिए, फिर कम आवश्यक विषयों को पढ़ाना चाहिए। ज्ञात से अज्ञात, सरल से जटिल, विशेष से सामान्य शिक्षण सूत्रों का ध्यान रखना चाहिए।
(18) मानवीय सम्बन्धों के विकास की सर्वग्राही सन्तुलित योजना–सामाजिक अध्ययन में उचित मानवीय सम्बन्धों पर अधिक बल दिया गया है। इस विषय की शिक्षा में मानवीय सम्बन्धों के विकास के लिए पर्याप्त सम्भावनाएँ निहित हैं। ऐसा तभी हो सकता है जब इस विषय के पाठ्यक्रम में देश के विभिन्न संस्कृतियों को उचित स्थान दिया गया हो। जब बच्चों के सामने विभिन्न संस्कृतियों तथा धर्मों के सामान्य तत्वों को रखा जायेगा तो उनके मन में इन संस्कृतियों तथा धर्मों के प्रति प्रेम तथा आदर की भावना पैदा होगी। इस प्रकार यह विषय विभिन्न सम्प्रदायों तथा राष्ट्रों के बीच सद्भावना उत्पन्न करने में सहायक होगा।
(19) दूरदर्शिता का सिद्धान्त–आज का बालक जब स्कूल छोड़ेगा तो उसको संसारिक जीवन में प्रवेश करना होगा। पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए कि ऐसे समय में वह अपने आपको सांसारिक जीवन में ढाल सके। जिस समय बालक स्कूल का त्याग करता है उस समय उसका दृष्टिकोण प्रगतिशील व्यक्तियों जैसा होना चाहिए।
(20) करके सीखने का सिद्धान्त–’करके सीखना’ जैसा कि इसके नाम से पता चलता है कि कोई भी कार्य हो उसको स्वयं करके सीखा जाए। सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम करके सीखने के सिद्धान्त पर आधारित होना चाहिए। जैसा कि सब जानते हैं कि बच्चे स्वभाव से क्रियाशील होते हैं जो कार्य वह स्वयं करके सीखेंगे वह अधिक स्थाई व प्रभावशाली होगा। सामाजिक अध्ययन में बच्चे खाली समय में नक्शे भरेंगे, रेखाचित्र बनायेंगे, ग्राम बनायेंगे। इससे वह पढ़ने में रुचि लेंगे, इस प्रकार से प्राप्त किया गया ज्ञान स्थायी ज्ञान बन जायेगा। इससे बच्चों की रचनात्मक व सृजनात्मक शक्ति का भी विकास हो सकेगा ।
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